Sunday, December 24, 2006

कद्दूपटाख

अफलातून की ओर से सबको बड़े दिन का यह उपहार:

कद्दूपटाख

कद्दूपटाख

(अगर) कद्दूपटाख नाचे-
खबरदार कोई न आए अस्तबल के पाछे
दाएँ न देखे, बाएँ न देखे, न नीचे ऊपर झाँके;
टाँगें चारों रखे रहो मूली-झाड़ पे लटका-के!

(अगर) कद्दूपटाख रोए-
खबरदार! खबरदार! कोई न छत पे बैठे;
ओढ़ कंबल ओढ़ रजाई पल्टो मचान पे लेटे;
सुर बेहाग में गाओ केवल "राधे कृष्ण राधे!"

(अगर) कद्दूपटाख हँसे-
खड़े रहो एक टाँग पर रसोई के आसे-पासे;
फूटी आवाज फारसी बोलो हर साँस फिसफासे;
लेटे रहो घास पे रख तीन पहर उपवासे!

(अगर) कद्दूपटाख दौड़े-
हर कोई हड़बड़ा के खिड़की पे जा चढ़े;
घोल लाल रंग हुक्कापानी होंठ गाल पे मढ़े;
गल्ती से भी आस्मान न कतई कोई देखे!

(अगर) कद्दूपटाख बुलाए-
हर कोई मल काई बदन पे गमले पे चढ़ जाए;
तले साग को चाट के मरहम माथे पे मले जाए;
सख्त ईंट का गर्म झमझम नाक पे घिसे जाए!

मान बकवास इन बातों को जो नज़रअंदाज करे;
कद्दूपटाख जान जाए तो फिर हरजाना भरे;
तब देखना कौन सी बात कैसे फलती जाए;
फिर न कहना, बात मेरी अभी सुनी जाए।


इस कविता का अनुवाद सही हुआ नहीं था, इसलिए 'अगड़म बगड़म' में यह शामिल नहीं है। नानसेंस (बेतुकी) कविता संस्कृति सापेक्ष होती है और स्थानीय भाषा के प्रयोगों पर आधारित होती है। चूँकि हिन्दी क्षेत्रोंं में कई भाषाएँ प्रचलित हैं, ऐसा अनुवाद जो हर क्षेत्र में सही जम जाए, बहुत कठिन है। सुकुमार राय की मूल रचना में कई शब्द ऐसे हैं, जिनका न केवल सही अनुवाद ढूँढना मुश्किल है, उनसे मिलते जुलते शब्द भिन्न इलाकों में भिन्न हैं। पहले अनुच्छेद में 'मूली' दरअसल 'हट्टमूली' है, जिसे शायद जंगली मूली कहना ठीक होगा। इसी तरह 'लाल रंग' मूल रचना में 'आल्ता' है, जिसे प्रत्यक्षा या बिहार के लोग समझ जाएँगे, पर दूसरे इलाकों के लोग नहीं। बहरहाल, अगर सुनील को जँचे तो इसे कम से कम नेट पर तो डाला ही जा सकता है। इधर सुनील दस तारीख को बंगलौर आए थे, तब से उनका चिट्ठा लेखन बंद पड़ा है। जरा फिक्र हो रही है, सब ठीक तो है न!
मैं अपने नए मकान में आने के बाद से सुबह के ध्वनि प्रदूषण से दूर हूँ। लंबे समय के बाद पिछवाड़े में छोटा सा जंगल होने की वजह से सुबह चिड़ियों की आवाज सुन पाता हूँ।

Thursday, December 21, 2006

लाल्टू डॉट जेपीजी


लो भई अफलातून, तुम्हारी तस्वीर। मतलब मेरी। जिसने स्कैन किया, उसने फाइल का नाम रखा, लाल्टू डॉट जेपीजी। बड़ी मेहनत करनी पड़ी इसे अपलोड करने में। पता नहीं क्या माजरा है, ब्लॉगस्पॉट के पेजेस खुलना ही नहीं चाहते। जब खुलते हैं तो जाने कौन सी भाषा खुलती है, जो रामगरुड़ की समझ से बाहर है। लगता है सभी पन्नों पर काम चल रहा है।
ये लो, अपलोड होते होते रुक गया। अरे भई, रात हो गई, अभी अभी नए मकान में शिफ्ट किया है, अब जल्दी करो और सोने दो।
Ah! Finally...
साइनबोर्ड पर लिखा है - हँसना मना है।

Tuesday, December 19, 2006

रामगरुड़ का छौना

अफलातून ने देखा कि अच्छा मौका है, ये लाल्टू रोता रहता है, इसकी खिंचाई कर ली जाए। तो कह दिया कि 'रामगरुड़ेर छाना' का अनुवाद भी लाइए। तो लो भई, पढ़ो और खूब खींचो मेरी टाँग:- पर हँसना मना है!

रामगरुड़ का छौना

रामगरुड़ का छौना, हँसना उसको म-अ-ना
हँसने कहो तो कहता
"हँसूँगा न-ना, ना-ना,"

परेशान हमेशा, कोई कहीं क्या हँसा!
एक आँख से छिपा-छिपा
यही देखता फँसा

नींद नहीं आँखों में, खुद ही बातों-बातों में
कहता खुद से, "गर हँसे
पीटूँगा मैं आ तुम्हें!"

कभी न जाता जंगल न कूदे बरगद पीपल
दखिनी हवा की गुदगुदी
कहीं लाए न हँसी अमंगल

शांति नहीं मन में मेघों के कण-कण में
हँसी की भाप उफन रही
सुनता वह हर क्षण में!

झाड़ियों के किनार रात अंधकार
जुगनू चमके रोशनी दमके
हँसी की आए पुकार

हँस हँस के जो खत्म हो गए सो
रामगरुड़ को होती पीड़
समझते क्यों नहीं वो?

रामगरुड़ का घर धमकियों से तर
हँसी की हवा न घुसे वहाँ
हँसते जाना मना वहाँ।

(अगड़म-बगड़म; सुकुमार राय के 'आबोल-ताबोल' की कविताओं का अनुवाद; १९८९)

मेरे अनूदित संग्रह में सुकुमार राय द्वारा अंकित रामगरुड़ की तस्वीर है, पर मुझे स्कैन करने के लिए दो मंज़िल नीचे उतरना पड़ेगा। एक बार गया भी तो कोई और लोग इस्तेमाल कर रहे थे। नेट पर तस्वीर मिल नहीं रही है। चलो बाद में लगा देंगे। वैसे अफलातून शायद मेरी तस्वीर को ही रामगरुड़ मनवाना चाहे....
जिनको पता न हो, वे जान लें कि सुकुमार राय प्रसिद्ध फिल्म निर्माता/निर्देशक सत्यजित राय के पिता थे। बांग्ला संस्कृति और मानस पर उनकी अमिट छाप है। उनके बारे में यहाँ देखें।

Sunday, December 17, 2006

खिचड़ी





खिचड़ी



बत्तख था, साही भी, (व्याकरण को गोली मार)
बन गए बत्ताही जी, कौन जाने कैसे यार!

बगुला कहे कछुए से, "बल्ले-बल्ले मस्ती
कैसी बढ़िया चले रे, बगुछुआ दोस्ती!"

तोतामुँही छिपकली, बड़ी मुसीबत यार
कीड़े छोड माँग न बैठे, मिर्ची का आहार!


छुपी रुस्तम बकरी, चाल चली आखिर
बिच्छू की गर्दन जा चढ़ी, धड़ से मिला सिर!

जिराफ कहे साफ, न घूमूँ मैदानों में
टिड्डा लगे भला उसे, खोया है उड़ानों में!

गाय सोचे - ले ली ये कैसी बीमारी
पीछे पड़ गई मेरे कैसे मुर्गे की सवारी!

हाथील का हाल देखो, ह्वेल माँगे बहती धार
हाथी कहे - "जंगल का टेम है यार!"

बब्बर शेर बेचारा, सींग नहीं थे उसके
मिल गया जो हिरण, सींग आए सिर पे!

-सुकुमार राय
('आबोल ताबोल' की बीस कविताओं का अनुवाद
'अगड़म बगड़म' संभावना प्रकाशन, १९८९)
तस्वीरें सुकुमार राय की खुद की बनाई हैं।

Saturday, December 16, 2006

मकान बदलना है।

संस्थान के अपने मकान अभी कम हैं, आगे बनने वाले हैं।

जुलाई में सामान ले आया तो जल्दी में मकान चाहिए था।

हड़बड़ी में दो बेडरुम वाला मकान लिया। भारत सरकार ने कर्मचारियों के लिए हाउसिंग कॉम्प्लेक्स बनाए हैं, कर्मचारी मकान खरीद कर किराए पर देते हैं। जिस व्यक्ति का मकान है, वह करनाल में कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थान में वैज्ञानिक है। उसके स्थानीय मित्र के हाथ मकान था। जिसने पता दिया उसने बतलाया कि सात हजार महीने के लगेंगे। मैंने कहा देंगे। पता चला कि साहब आनाकानी कर रहे हैं। अपने संस्थान के प्रशासनिक अफ्सर रमाना जी ने बातचीत की। पता चला साढ़े सात माँग रहे हैं। मैंने कहा चलो ठीक है। १२ जुलाई को सुबह सामान पहुँच रहा था, ग्यारह बजे चाभी का तय हुआ। सामान पहुँच गया, पर चाभी नहीं। चार बजे जनाब आए और कहा कि आठ चाहिए। रमाना ने फिर बात की औेर पौने आठ पर चाभी मिल गई। दो महीने का अडवांस और जुलाई के बारह दिनों के पैसे। साथ में जो एजेंट था, उसने अपनी फीस के लिए एक महीने का किराया माँगा। सबको नगद चाहिए। सुबह ट्रक वालों को बीस हजार दे चुका था - पता नहीं कैसे कैसे दो ए टी एम का इस्तेमाल कर पैसे दिए। हजार कम पड़ गए तो रमाना ने दे दिए।

रमाना ने बात की कि मसौदा बना कर कापी दी जाए। जनाब बोले ठीक है। फिर कहा कि कुछ लकड़ी का काम बाकी है, वह पूरा करना है। मैंने कहा चलो दो दिन और गेस्ट हाउस सही।

हफ्ता हो गया पर कोई काम नहीं हुआ। आखिर हम मकान में आ ही गए। न कपड़े लटकाने का इंतज़ाम, एक बाथरुम में पानी की टोंटी नहीं। बात की कि मैं लगवा रहा हूँ, किराए से काट लेंगे। महीने के अंत में जनाब पहुँचे और मैं भूल चुका था कि हजार जो कम पड़ गए थे रमाना ने दे दिए थे, मैंने पानी की टोंटी के पैसों का हिसाब कर हजार में से बाकी पैसे दे दिए। जनाब कह गए कि पहली को करनाल में कार्यरत असली मालिक के बैंक अकाउंट में किराया जमा कर दूँ। मसौदा बना कर लाए थे, मेरे हस्ताक्षर ले गए, पर कापी बाद में देने का वायदा कर गए। मैंने कहा कि भई कपड़े लटकाने का इंतज़ाम तो कर दो और बाकी जो लकड़ी का काम था - सब होगा कहकर जनाब दफा।

तो अगस्त में, सितंबर में किराया जमा किया। फोन पर बात की तो जनाब ने कहा कि दशहरे में मालिक आ रहे हैं, सब काम करवा देंगे। मैंने कहा चलो तभी हो जाएगा। मालिक पहुँचे नहीं। मुझे लगा कि लोग जितने गड़बड़ मैं सोच रहा हूँ उससे ज्यादा ही हैं। फिर ध्यान आया कि कोई रसीद नहीं दी। आखिर मैंने तय किया कि मकान बदला जाए। दो महीनों का अग्रिम तो भरा ही हुआ था, अक्तूबर की पहली को पैसे जमा नहीं किए। पंद्रह दिनों तक दूसरी ओर से भी कोई आवाज नहीं। आखिर मैंने ही फोन किया। पता चला मालिक आए- गाँव गए और वापस करनाल। मैंने कहा कि भई मैं तो किराया नहीं दे पा रहा हूँ - कुछ तो बतलाओ मैं खुद ही काम करवा लूँ? बीसेक तारीख तक मालिक का करनाल फून नंबर हासिल किया। घुमाया। कोऊ नहीं उठा रहा। दो चार बार करके थक गया। घंटे बाद अपना फोन बजा। करनाल के मालिक ने बतलाया कि वो नहा रहे हैं। मैंने फरमाया दस मिनटों में संवाद करेंगे। आस निरास भई। दस मिनटों से लेकर जाने कब तक हम लगे रहे। मालिक क्रिंग क्रिंग।

तब तक संस्थान में बात होने लगी कि कुछ मकान लीज़ पर लेकर प्रोफेसरान को दिए जाएँ। आशा का सबेरा!

मैंने तय कर लिया कि अब तो अडवांस ही चलेगा। आखिर करनाल वासी प्रभावित हुए। मैं फून से ई-मेल पर ले आया। जनाब मान गए कि लकड़ी का कुछ काम हम करवा लें और किराए से काट लें। तगादा शुरू कि भई किराया भरो। मैंने अपनी ईमानदारी की दुहाई दी, बतलाया कि करनाल शहर में पुलिस विभाग के प्रबंधन में चल रहे पाश पुस्तकालय में लोग हैं जो मेरी ईमानदारी का प्रमाण-पत्र दे देंगे। बंदे ने कहा कि सैंतीस का हूँ पर मैंने दुनिया देखी है। मैंने जितना पैसा दे चुके उसकी रसीद माँगी। सरकारी कर्मचारी को रसीद का क्या डर? पर है, रसीद का मतलब है आय कर। मेरी मुसीबत यह कि मैं रसीद न लूँ तो किराया भत्ते से मुझे आय कर देना पड़ेगा। मालिक आय कर क्यूँ दे? बहुत सोचकर पत्नी के नाम पर रसीद भेज दी। तगादा जारी कि भई किराया भरो। मैंने सच बतला दिया कि संस्थान मकान लीज़ पर लेने की सोच रहा है। मैं शायद साल के आखिर तक मकान खाली कर दूँगा, पंद्रह दिनों की नोटिस दे दूँगा। मालिक को तो आग लग गई। तब से ई-मेल खोलते ही मुझे हानिकारक विकिरण का खतरा दिखने लगा। अंततः मैंने लिख दिया कि करनैली मालिक, आखिरी ई-मेल पढ़ लो, तमीज़ का कोई कोर्स ले लो (यानी, ऐेसा ही कुछ)।

आखिर बीस नवंबर को एक महीने की नोटिस के साथ दिसंबर के बीस दिनों का किराया जमा कर दिया। मालिक को बड़ी तकलीफ है, कि बीस दिनों का क्यों, पूरे महीने का क्यों नहीं? इसी बीच एक दिन रमाना जी ने संकोच के साथ वो हजार रुपए माँगे, जो कि अपने तईं मैं पानी की टोंटी के पैसों का हिसाब कर बाकी जनाब को दान दे चुका था।

तो दोस्तों, यह थी कहानी मेरे अगले बुधवार को मकान बदलने की। मुझे डर है कि आने वाले दिन भी इतने ही रंगीन होंगे जितने गुजरे हुए हैं। आगामी मालिक ने चेक से पेमेंट लेने से इंकार कर दिया है। यानी नगदी में कारोबार। पिछले दो महीनों से अयप्पा स्वामी की स्तुति में कुछ भक्तों ने सुबह सुबह ध्वनि प्रदूषण के ऐसे रेकार्ड तोड़े हैं कि मैं अधीरता से मकान बदलने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

हाल में जीवन विद्या शिविर में सवाल उठा कि पश्चिम के लोग उन गड्ढों में जा ही चुके हैं, जिनमें हम जा रहे हैं, तो मैंने प्रतिवाद किया। सच है कि पश्चिमी मुल्कों में बड़े चोर बड़े हैं, पर मध्य वर्ग की बेईमानी और बदतमीज़ी में हमारे सामने उनकी क्या बिसात!

अंजान भाई का भारत महान है।

Friday, December 15, 2006

अश्लील

उच्चतम न्यायालय ने राय दी है कि नग्नता अपने आप में अश्लील नहीं है।

यह एक महत्त्वपूर्ण राय है, खासकर हमारे जैसे मुल्क में जहाँ अश्लील कहकर कला और व्यक्ति स्वातंत्र्य का गला घोंटने वाले दर दर मिलते हैं और जो सचमुच अश्लील है उसे सरेआम बढ़ावा मिलता है।

इस प्रसंग में यह कविता याद आ गई।



अश्लील


एक आदमी होने का मतलब क्या है
एक चींटी या कुत्ता होने का मतलब क्या है
एक भिखारी कुत्तों को रोटी फेंककर हँसता है
मैथुन की दौड़ छोड़ कुत्ते रोटी के लिए
दाँत निकालते हैं

एक अखबार है जिसमें लिखा है
एक वेश्या का बलात्कार हुआ है
एक शब्द है बलात्कार जो बहुत अश्लील है
बर्बर या असभ्य आचरण जैसे शब्दों में
वह सच नहीं
जो बलात्कार शब्द में है

एक अंग्रेज़ी में लिखने वाला आदमी है
तर्कशील अंग्रेज़ी में लिखता है
कि वेश्यावृत्ति एक ज़रुरी चीज है

उस आदमी के लिखते ही
अंग्रेज़ी सबसे अधिक अश्लील भाषा बन जाती है

(पश्यंतीः - अक्तूबर-दिसंबर २०००)

इस कविता के बारे में लिखते हुए याद आया कि इसका पहला ड्राफ्ट कोई दस साल पहले संघीय लोक सेवा आयोग के गेस्ट हाउस में बैठकर लिखा था। प्रशासन के साथ जब जब भी जुड़ा हूँ, कहीं कुछ अश्लील कर रहा हूँ, ऐसा क्यों लगता है! खासकर दिल्ली के आसपास। बहरहाल...........

Thursday, November 30, 2006

यह रहा

यह रहा वह पत्थर, जिसका ज़िक्र मैंने किसी पिछली प्रविष्टि में किया था।









और यह वह सूरज जिसे किसी की नहीं सुननी, उन बौखलाए साँड़ों की भी नहीं, जो हर रोज सुबह की नैसर्गिक शांति का धर्म के नाम पर बलात्कार कर रहे हैं। इस निगोड़े को कंक्रीटी जंगलों पर भी यूँ सुंदर ही उगना है।

इन दिनों संस्थान में चल रहे जीवन विद्या शिविर में तकरीबन इस पत्थर की तरह लटका हुआ हूँ। साथ में बाकी काम भी।

इसलिए अभी और कुछ नहीं।

Sunday, November 12, 2006

निकारागुआ - एल पुएबलो उनीदो

निकारागुआ लीब्रे

मेरा स्लीपिंग बैग बाईस साल पहले दो बार निकारागुआ हो आया, पर मैं नहीं जा पाया। कॉफी ब्रिगेड में हिस्सा लेने मेरी मित्र मिशेल पारिस मानागुआ गई। उन्हें ब्रिगादिस्ता कहते थे। फिर बाद में शायद प्रिंस्टन एरिया कमेटी अगेंस्ट इंटरवेंशन इन लातिन अमेरिका का संयोजक रैंडी क्लार्क ले गया था।
दानिएल ओर्तेगा उनदिनों बड़ा हैंडसम दिखता था। निकारागुआ का मुक्ति संग्राम अनोखा था। इसमें वामपंथी और कैथोलिक (जिनमें प्रमुख एर्नेस्तो कार्देनाल थे, जो जाने माने कवि थे - इनका भाषण मैंने सुना था, जिस दौरान कविता भी पढ़ी थी) दोनों तबके शामिल थे।

जब निकारागुआ आजाद हुआ, तब तक रोनल्ड रीगन की सरकार ने अपने करोड़ों डालर वहाँ लगा दिए थे। अमरीकी मदद से 'कॉन्त्रा' नाम से पूरी एक फौज इंकलाबिऔं के खिलाफ जिहाद लड़ रही थी। आतंक के उस माहौल में चुनाव करवा कर अमरीका ने अपनी पपेट सरकार बनवाई। पर देर सबेर लोगों की आवाज सुनी जानी ही थी। लगता है दुनिया भर में दक्षिणपंथी दुम दबाकर पतली गली से भागने की राह देख रहे हैं। अमरीका के दक्षिणपंथिओं को इससे बड़ी चपत क्या लगती कि जब सीनेट और कांग्रेस हाथ से छूटे तो निकारागुआ में भी दानिएल ओर्तेगा वापस। El pueblo unido jamás será vencido! एल पुएबलो उनीदो, हामास सेरा वेन्सीदो! (एकजुट जनता को कोई नहीं हरा सकता), निकारागुआ लीब्रे!

पर उम्र का तकाजा यह भी होता है कि पहले जैसा आशावाद का नशा नहीं रहता। वैसे तो दक्षिणपंथ के फूहड़पन को अधिकतर प्रायः अनपढ़ भारत की जनता ने ही दो साल पहले अच्छी तरह पीट दिया है, फिर भी ।।।।

भारत लौटकर एक पिक्चर पोस्टकार्ड (अब भी पास है - ढूँढना पड़ेगा ) देखते हुए कविता लिखी थी, अब याद नहीं बाद में किस पत्रिका में प्रकाशित हुई, संभवतः साक्षात्कार में।

निकारागुआ की सोलह साल की वह लड़की

सोलह साल की थी
जब एर्नेस्तो कार्देनाल
कविताओं में कह रह थे -
निकारागुआ लीब्रे!

उसने नज़रें उठाकर आस्मां देखा था
कंधे से बंदूक उतारकर
कच्ची सड़क पर
दूर तक किसी को ढूँढा था
हल्की साँस ली थी

उसने सोचा था -
वह दोस्त
जो झाड़ियों में खींच ले गया था
बहुत प्यार भरा
चुंबन ले कर जिसने कहा था
इंतज़ार करना! एक दिन तुम्हें
इसी तरह देखने आऊँगा -
लौट आएगा

उसकी माद्रे
गाँव के गिर्जा घर ले जाएगी
पाद्रे हाथों में हाथ रखवा कहेगा
सुख दुःख संपदा विपदाओं में
एक दूसरे का साथ निभाओगे
और वे कहेंगे - हाँ हम निभाएँगे

दस वर्षों बाद उसकी तस्वीर
मेरे डेस्क पर वैसी ही पड़ी है

सोलह साल का वह चेहरा -
आँखों में आतुरता
होंठों के ठीक ऊपर
पसीने की परत
कंधे पर बंदूक
आज भी वहीं रुका हुआ

आज भी कहीं
ब्लू फील्ड्स के खेतों में
या उत्तरी पहाड़ियों में
जंगलों में उसे लड़ना है

आज भी उसकी आँखें
आतुर ढूँढती हैं
एक-अदने इंसान को
जिसने उसे प्यार से बाँहों में लिया था
और कहा था
मैं लौटूँगा।

(१९८८; एक झील थी बर्फ की -१९९०)

Thursday, November 09, 2006

बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन

खबर है कि भारत-पाक सीमा पर विभिन्न नाकों में सबसे विख्यात वाघा नाके पर होने वाले दिनांत समारोह (झंडा उतारना या रीट्रीट सेरीमनी) में भारतीय सीमा सुरक्षा दल ने आक्रामक मुद्राओं में कमी लाने की घोषणा की है। अपेक्षा है कि पाकिस्तान रेंजर्स भी ऐसा ही रुख अपनाएँगे। पुरातनपंथी या सामंती विचारों के साथ जुड़ी हर रीति बेकार हो या हमेशा के लिए खत्म करने लायक हो, ऐसा मैं नहीं मानता, पर दक्षिण एशिया के लोग बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ हैं, ऐसे बेतुके तर्क के लिए अगर कोई वाघा नाके की रीट्रीट सेरीमनी का उदाहरण दे तो मैं इसका जवाब नहीं दे पाऊँगा। मुझे कुल तीन बार वाघा पोस्ट पर जाने का मौक़ा मिला है। पहली बार बीसेक साल पहले गया था तो हैरान था कि समारोह के दौरान तो सिर से ऊपर पैर उठाकर एक दूसरे की ओर आँखें तरेर कर देखने का अद्भुत पागलपन दोनों ओर के सिपाहियों ने दिखलाया ही, साथ में समारोह के बाद जब दोनों ओर से लोग दौड़े आए और एक दूसरे की ओर बंद गेट्स की सलाख़ों के बीच में से यूँ देखा जैसे कि इंसान नहीं किसी विचित्र जानवर को देख रहे हों। उन लोगों में दोनों ओर के विदेशी सैलानी भी थे। मैं आज तक वह अद्भुत दृश्य सोचता हूँ। हिंदुस्तान का विदेशी सैलानी पाकिस्तान के विदेशी सैलानी को आँखें फाड़ देख रहा है, भले ही वे मूलतः एक ही मुल्क के नागरिक हों! बेवक़ूफ़ी की हद ने जैसा कि मसिजीवी को कहने का शौक है, उत्तर या उत्तरोत्तर-वाद की सीमाओं को पार कर लिया था।

बाद में जब गया तो देखा कि जैसे झुँझनू में रुपकुँवर के मंदिर में काफी कुछ निर्मित हुआ होगा, वैसा ही वाघा नाके पर दोनों ओर प्रेक्षा-दीर्घाएँ वगैरह बन चुकी थीं। इस बार देश के उच्च-स्तरीय वैज्ञानिकों के साथ था। देखा भारत की ओर स्कूल से आए कुछ बच्चे निरंतर भारत माता ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं तो दूसरी ओर से पाकिस्तान ज़िंदाबाद चल रहा है। बीच में बीच में मुर्दाबाद और अश्लील चीत्कार भी। बड़ी मुश्किल से दोनों ओर बार बार स्पीकरों पर घोषणा कर झंडे उतारते वक्त लोगों को थोड़ी देर शांत किया गया। पूरे माहौल में लगातार घनी हो रही शाम में बिगुल की ध्वनि के साथ झंडों का उतरना शायद एकमात्र मोहक बात थी, पर स्मृति में वह रहती नहीं।

तीसरी बार जब गया तो दो बातें ज़िहन में रह गईं। दूसरी ओर कुर्ता पाजामा पहने एक किशोर जितनी देर मैं था (क़रीब एक घंटा) लगातार बायाँ हाथ माथे से और दायाँ हाथ दाएँ कंधे के ऊपर से घड़ी की दिशा में घुमाते हुए पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहता रहा। अब वह लड़का बड़ा हो गया होगा, शायद क्रिकेट मैच या किसी और बहाने से हिंदुस्तान आया भी हो, सोचता हूँ क्या आज भी वह उसी तरह शरीर के एक एक अणु की ऊर्जा को देशभक्ति के ऐसे फूहड़ प्रदर्शन में खपाता होगा! मेरे विभाग से मूलतः केरलवासी युवा अध्यापक वेणुगोपाल को पूरी परेड ऐसी बेवकूफी भरी बात लगी कि वह खुद थोड़ी देर इस पागलपन से प्रभावित होकर परेड की कोशिश करने लगा - यह जताने के लिए कि देखो और सोचो, यह सब क्या है!

मेरे युवा फिल्म निर्माता मित्र दलजीत अमी ने अमृतसर के डी ए वी कालेज के छात्रों को चलचित्र कला का प्रशिक्षण देते हुए उनसे वाघा पर एक खूबसूरत फ़िल्म बनवाई थी। इस फ़िल्म में रीट्रीट सेरीमनी है, पर कम और ज्यादा बातें वाघा और आसपास के इलाक़ों के लोगों पर है। जैसे वे क़ुली जो दोनों ओर के भूतल व्यापार के वाहक हैं, यहाँ का सामान अपने सिर से उतार कर वहाँ के कुलियों के सिर चढ़ाने वाले, उन्हीं में से एक कृपाल सिंह जो स्वभावतः सूफ़ी गीत गाता है, दोनों ओर की दरगाहें, साँझी संस्कृति जिसे बार बार जंग और नफ़रत के झटकों ने झिंझोड़ा है। बहुत खूबसूरत फ़िल्म है। दलजीत से संपर्क करने के लिए daljitami@rediffmail.com पर मेल लिखें।

चेतन ने कुछ संबंधित links ढूँढें हैं, देखिएः
They want to start a similar show at Agartala
A good description of the event by Rajesh K Sharma
From a foreigner's viewpoint(with photo)
An interesting photo/caption
Some photos, more photos; This one is perhaps the best one of the lot -- inelegant and even ridiculous!)
Some old news (search within the page for wagah): October 11, 2003
The dangers involved in the ceremony: October 22, 2002
The news item that provoked this article
As it appeared in The Tribune, with an interesting photo

बुनियादी तौर पर जाहिल और बेवक़ूफ़ लोग और प्रशासन का एक बेहतरीन प्रमाण मेरी हर सुबह की नींद को रौंदता बौखलाए साँड़ की तरह लाउडस्पीकर पर चलता अत्यंत बेसुरा भक्तिनाद है। आस्था वालों की दुनिया इतनी संवेदनाहीन क्यों है! कुदरत के सबसे बेहतरीन क्षणों की ऐसी बेरहमी से हत्या करनेवाले पापियों को लोग धार्मिक कैसे कह सकते हैं! इस पर फिर कभी। मसिजीवी मेरे दोस्त! लगाओ कुछ उत्तर-सुत्तर वाद, ढूँढो कोई केंद्र यार, पता नहीं कितनी सदियों से चैन से सोया नहीं हूँ!

पिछली प्रविष्टि पर प्रणव ने मेल भेजी हैः
I saw your comments on the Telugu Sangham. I thought of pointing this link to you.

Sunday, November 05, 2006

एक दिन का बादशाह

वाह भई वाह! सालगिरह ने तो मुझे एक दिन का बादशाह ही बना दिया। इतनी टिप्पणियाँ!
बहरहाल, एक तो लटके पत्थर की तस्वीर दिखलानी है।
कविता भी। बस सिर्फ मसिजीवी की बधाई का इंतज़ार था। आगे किसी प्रविष्टि में तस्वीर और कविता का वादा रहा।
दूसरी बात आर टी ओ वाली। थोड़ी सी बेईमानी मेरी रही कि कुछ गड़बड़ जो और वजहों से हो रही है, वह बतलाया नहीं।

इसके पहले कि फिर किसी अंजान भाई को तकलीफ हो, कुछ आत्म-निंदा कर लूँ। सुख तो पर-निंदा जैसा नहीं मिलेगा, पर निंदा तो निंदा ही है।

एक जनाब हैं पंकज मिश्र। उसने भारतीय मध्य-वर्ग की निंदा (जिसमें वह खुद शामिल है बेशक) को बाकायदा धंधा बना लिया है। हमारा हीरो है। 'बटर चिकन इन लुधियाना' पढ़ी थी कुछ साल पहले। पता चला बंगाल के छोटे शहर में लुधियाना के बटर चिकन का गुणगान हो रहा है पंजाबी स्टाइल में (इसके बारे में साल भर पहले लिखा था कि गुरशरण जी ने कितना फाइन तय किया है), चिकन निगल रहे हैं हरियाणवी व्यापारी और आ हा हा! भोजन कितना बढिया है इसका पैमाना है कि भोजन के बारे में कितनी घटिया भद्दी गाली निकल सकती है। है न कमाल की खोज। इसलिए पंकज मिश्र मेरा हीरो बन गया है। वैसे मैं आत्म-निंदा के लिए चला था, लगता है पर-निंदा पर रुक गया। ऐसा नहीं है, पंकज ने हमारे जैसे लोगों को कटघरे में खड़े कर सोचने लायक बातें लिखी हैं। अरे, किधर से किधर पहुँच गया। सब लोग बधाई वापस ले लेंगे।

तो आत्म निंदा यह कि सारी गलती आर टी ओ कि है ऐसा नहीं है। आर टी ओ ने सिर्फ परिस्थितियाँ ऐसी बना दी हैं कि हैं जरा सा चूको तो गलतियाँ करो। फिर रोओ। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि आप हैदराबाद में हमारे आस-पास काम कर रहे हैं और दूसरे प्रांत से वाहनों का एन ओ सी मँगवा रहे हैं। आप के लाख कहने के बावजूद दूसरे प्रांत के क्लर्क बाबू कागजों में लिख देते हैं कि आप वाहन हैदराबाद ले जा रहे हैं तो आप फँस गए। क्योंकि आप ने चाहा है कि हैदराबाद का पिन कोड होने पर भी आपका निवास हैदराबाद नहीं रंगा रेड्डी जिले में है यह बात क्लर्क के समझ में आ जाए और आप सही आर टी ओ में कागज़ ले जाएँ। पर बाबू इस बात को क्यों समझे। आपको भी बात समझ में नहीं आई न? तो बाबू बेचारे की क्या गलती। तो दुबारा कागज़ वापस (एक और भी तरीका है - पर यार अब कितना बोर करें - छोड़ते हैं इसे यहाँ - ज्यादा समझना है तो अंजान भाई को ढूँढो, उसे सरकारी बातों का औचित्य मालूम है)। अब गड़बड़ यह हुई कि पंद्रह दिन बाद पता चला कि कागज़ात तो यहीं डिस्पैच ऑफिस में पड़े रह गए। चेतन ने इसे मर्फी के नियमों का प्रमाण माना है। बहरहाल हिंदुस्तान चलमान है।

वैसे संजय के सवाल का जवाब यह है कि जी हाँ एक नियत अवधि के बात भारत के किसी एक प्रांत में पंजीकृत गाड़ी दूसरे प्रांत में चलाने की कानूनी मान्यता नहीं है। नियत अवधि कितनी है कोई ठीक ठीक नहीं जानता - मैंने आर टी ओ से जानने की कोशिश नहीं की है। चूँकि अन्य प्रांतों से आए अधिकतर लोग गैरकानूनी तौर से गाड़ियाँ चलाते रहते हैं, इसलिए नियत अवधि के बारे में हर तरह की समझ व्याप्त है - दो हफ्ते, छः हफ्ते - यहाँ तक कि एक (गलत) राय यह भी कि किसी तरह से रोड टैक्स दे दो तो फिर मूल प्रांत से एन ओ सी की ज़रुरत नहीं है।

यह कहानी फिर सही। पर इधर एक दो बातें ऐसी हुई हैं कि हर किसी को इससे छेड़ा जा सकता है।

हमारे एक उत्साही तेलेगू भाषी छात्र प्रणव ने आंध्र प्रदेश स्थापना दिवस पर तेलेगू संघम (समिति या समाज) स्थापना करने की घोषणा की। दो तरह का विरोध हुआ। एक तो पृथक (अलग) तेलंगाना प्रांत बनाने के समर्थकों की ओर से, दूसरा तथाकथित राष्ट्रवादियों की ओर से। पहली श्रेणी के लोगों का कहना था कि बृहत्तर तेलेगू संस्कृति के नाम पर हमेशा तेलंगाना के लोगों को ठगा गया है। राष्ट्रवादियों का कहना है कि इस तरह की समिति बनने से पृथकतावाद को बढ़ावा मिलता है।

मेरी इस में रुचि थी कि तेलेगू भाषी मित्र मेरे जैसे लोगों के लिए तेलेगू सिखाने की क्लासें शुरु करें और मैं लोगों को छेड़ने लायक कुछ बातें तेलेगू में भी कह सकूँ। अफसोस यह कि तेलेगू सिखाने की क्लासें शुरु हुई नहीं, फालतू का विवाद चल निकला। इस प्रसंग में एक बात याद आई कि पिछले कुछ वर्षों में हिंद-पाक दोनों ओर विश्व पंजाबी सम्मेलनों की बाढ़ आई हुई है। पंजाब विश्वविद्यालय में ऐसे एक विश्व पंजाबी सम्मेलन में भारत के विभिन्न प्रांतों से आए कलाकारों ने नृत्य कार्यक्रम पेश किए। सोचने की बात थी कि सम्मेलन पंजाबी, पर कार्यक्रम हर तरह की संस्कृति के।

प्रणव ने एक राष्ट्रवादी तर्क का जवाब देते हुए बड़ी रोचक बात लिखी है - अगर हमने अंग्रेज़ी क्लब बनाने की घोषणा की होती तो किसी को कोई आपत्ति न होती। हमारे सहपाठी मित्र 'literary club' के सदस्य हैं, जहाँ अधिकतर चर्चाएँ अंग्रेज़ी में होती हैं, पर तेलेगू संघम के नाम पर शोर मच रहा है।

संस्थान के निर्देशक ने प्रणव के समर्थन में मेल भेज दी और यह सवाल उठाया कि साल भर में अपनी मातृ-भाषा में सौ पन्नों से अधिक बड़ी कोई पुस्तक पढ़ी क्या? अगर नहीं तो क्यों नहीं!

इससे मुझे याद आया कि मैं अक्सर दिल्ली वालों को याद दिलाता हूँ कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाली कोई हिंदी पत्रिका सिर्फ दिल्ली वालों पर निर्भर रह कर चल नहीं सकती। जन की बात करते रहते हैं, जन की भाषा पढ़ते नहीं। मैंने कभी निजी दायरे में एक आंदोलन की शुरुआत की थी कि हर कोई कम से कम एक भारतीय़ भाषा में प्रकाशित किसी एक पत्रिका का सदस्य बने।

कल यहाँ विलियम डालरिंपल की बहादुर शाह जफर पर लिखी पुस्तक 'The Last Mughal' का विमोचन और लेखक द्वारा विषय पर स्लाइडों के साथ भाषण हुआ। मैंने उसकी दिल्ली पर लिखी 'The City of Djinns' पढ़ी है और दूसरों को भी पढ़वाई है। बंदा सही लिखता है, जिनको रुचि हो, बेहिचक गोते लगाएँ।

Tuesday, October 31, 2006

सालगिरह

कल चेतन ने याद दिलाया कि मेरे ब्लॉग की सालगिरह है। संयोग से मनःस्थिति ऐसी है नहीं कि खीर पकाऊँ। फिर भी ब्लॉग तो कुछ लिखा जाना ही चाहिए। तकरीबन पचास हो चले अपने जीवन में अगर पाँच सबसे महत्त्वपूर्ण साल गिनने हों, तो यह एक साल उनमें होगा। बड़े तूफान आए, पर जैसा कि सुनील ने एक निजी मेल में दिलासा देते हुए लिखा था,टूटा नहीं, हँसता खेलता रहा। यहाँ तक कि चिट्ठा जगत में जान-अंजान भाइयों/बहनों के साथ ठिठौली भी की। चिट्ठे लिखने में नियमितता नहीं रही, पर कुछ न कुछ चलता रहा। मैंने पहले एकबार कभी लिखा था कि हमारे लिए चिट्ठा जगत में घुसपैठ अपने मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने की कोशिश मात्र है। पर साथ में थोड़े से हिंदी चिट्ठों की दुनिया में एक और चिट्ठा भी जुड़ गया, यह खुशी अलग। कुछ तो बात बनती ही होगी, नहीं तो समय समय पर मिलने वाली नाराज़गी क्योंकर होती।

साल भर पहले जब मैंने हिंदी चिट्ठा लिखना शुरु किया तो दीवाली के पहले विस्फोट, धोनी की धुनाई, साहित्यिक दुनिया में थोड़ी बहुत चहलकदमी, कुछ विज्ञान और कुछ विज्ञान का दर्शन आदि विषयों पर लिखा, लोगबाग टिप्पणी करते और एक दो बार मैं भी बहस में शामिल रहा। फिर स्थितियाँ बिगड़ीं, व्यस्तता भी बढ़ी और धीरे धीरे चिट्ठागीरी में कमी आई। पर घायल सही, पराजित नहीं है मन, इसलिए दोस्तों, लिखते तो रहेंगे।

यहाँ जहाँ रहता हूँ (एक महीने बाद घर बदल रहा हूँ), हर रोज खिड़की से एक लटका हुआ विशाल पत्थर दिखता है (प्रत्यक्षा, डिजिकैम हमने भी दीवाली के दिन लिया है, पर वह बेटी की संपत्ति है, कभी माँगकर फोटू खींचूँगा)। उस पत्थर में/से मुझे हर तरह की प्रेरणा मिलती है। मसलन कभी लगता है, आस पास फट रहे डायनामाइटों (बन रहे मकानों के) बावजूद कैसा ढीठ है कि लटके रहने की ठानी हुई है; या यूँ देखें कि जैसे दूर लगातार उठ रहे हिमालय से कह रहा है कि जा, तुझे उठना है तो उठ, मैं तो मिंयाँ चैन से हूँ। वगैरह, वगैरह।

तो दोस्तों, सालगिरह मुबारक। अपने आप से ही कह रहा हूँ। और बाकी सब से, साल भर की नोक-झोंक झेलने के लिए, पुरानी कविताएँ पढ़ने के लिए, टिप्पणियों के लिए शुक्रिया।

और अंजान भाई, अब तो रोना भी मुश्किल, खबर यह है कि दिल्ली कोसों दूर है, मेरी गाड़ी अभी भी कानूनन यहाँ सड़क पे नहीं चल सकती। जैसा कि चेन्नई से आए लब्धप्रतिष्ठ मेरे वरिष्ठ सह-अध्यापक को कहा गया - आप क्या समझते हैं, सब आई टी है क्या कि बटन दबाए और काम हो गया, टाइम लगता है। अभी चार चक्कर और लगेंगे। तो डाल डाल पर सोने की चिड़िया वाले देश में टाइम लगता है। अहा, मेरी कल्पना में वक्ता पान चबाते हुए इलाहाबादी अंदाज़ में डायलाग मार रहा है - अति सुंदर। हालाँकि टाइम लगने की धारणा पर वक्तव्य विशुद्ध हैदराबादी महिला क्लर्क ने दिया है।

फिलहाल बांग्लादेश की खबरें पढ़ें और सपने देखें कि हम चीन से आगे बढ़ गए हैं।

Sunday, October 22, 2006

भैया ज़िंदाबाद

भैया ज़िंदाबाद

आ गया त्यौहार
फैल गई रोशनी
बड़कू ने रंग दी दीवार
लिख दिया बड़े अक्षरों में

अब से हर रात
फैलेगी रोशनी
दूर अब अंधकार
हर दिन है त्यौहार

छुटकी ने देखा
धीरे से कहा
अब्बू पीटेंगे भैया
हुआ भी यही
मार पड़ी बड़कू को
छुटकी ने देखा
धीरे से कहा
मैं बदला लूँगी भैया

फिर सुबह आई
नये सूरज
नई एक दीवार ने
दिया नया विश्व सबको

दीवार खड़ी थी
अक्षरों को ढोती
भैया ज़िंदाबाद।

- चकमक (१९८७), एक झील थी बर्फ की (१९९०), भैया ज़िंदाबाद (१९९२)।

Saturday, October 07, 2006

हाँ भई प्रियंकर, मैं वही हूँ।

हाँ भई प्रियंकर, मैं वही हूँ।


पोखरन १९९८

(१)

बहुत दिनों के बाद याद नहीं रहेगा
कि आज बिजली गई सुबह सुबह
गर्मी का वर्त्तमान और कुछ दिनों पहले के
नाभिकीय विस्फोटों की तकलीफ के
अकेलेपन में और भी अकेलापन चाह रहा

आज की तारीख
आगे पीछे की घटनाओं से याद रखी जाएगी
धरती पर पास ही कहीं जंग का माहौल है
एक प्रधानमंत्री संसद में चिल्ला रहा है
कहीं कोई तनाव नहीं
वे पहले आस्तीनें चढ़ा रहे थे
आज कहते हैं कि चारों ओर शांति है
डरी डरी आँखें पूछती हैं
इतनी गर्मी पोखरन की वजह से तो नहीं

गर्मी पोखरन की वजह से नहीं होती
पोखरन तो टूटे हुए सौ मकानों और
वहाँ से बेघर लोगों का नाम है
उनको गर्मी दिखलाने का हक नहीं

अकेलेपन की चाहत में
बच्ची बनना चाहता हूँ
जिसने विस्फोटों की खबरें सुनीं और
गुड़िया के साथ खेलने में मग्न हो गई

(२)

गर्म हवाओं में उठती बैठती वह
कीड़े चुगती है
बच्चे उसकी गंध पाते ही
लाल लाल मुँह खोले चीं चीं चिल्लाते हैं

अपनी चोंच नन्हीं चोंचों के बीच
डाल डाल वह खिलाती है उन्हें
चोंच-चोंच उनके थूक में बहती
अखिल ब्रह्मांड की गतिकी
आश्वस्त हूँ कि बच्चों को
उनकी माँ की गंध घेरे हुए है

जा अटल बिहारी जा
तू बम बम खेल
मुझे मेरे देश की मैना और
उसके बच्चों से प्यार करना है

(३)

धरती पर क्या सुंदर है
क्या कविता सुंदर है
इतने लोग मरना चाहते हैं
क्या मौत सुंदर है

मृत्यु की सुंदरता को उन्होंने नहीं देखा
सेकंडों में विस्फोट और एक लाख डिग्री ताप
का सूरज उन्होंने नहीं देखा
उन्होंने नहीं देखा कि सुंदर मर रहा है
लगातार भूख गरीबी और अनबुझी चाहतों से
सुंदर बन रहा हिंदू मुसलमान
सत्यम् शिवम् नहीं मिथ्या घनीभूत

बार बार कोई कहता है
धरती जीने के लायक नहीं
धरती को झकझोरो, उसे चूर मचूर कर दो
कौन कह रहा कि
धरती पर कविता एक घिनौना खयाल है

(४)

सुबह की पहली पहली साँस को
नमन करने वालों
आओ मेरे पास आओ
हरी हरी घास और पेड़ों को छूकर चलने वालों
आओ हमें गद्दार घोषित किया गया है
सलीब पर चढ़ने से पहले आओ
उन्हें हम अपनी कविताएँ सुनाएँ।

(अक्षर पर्व - १९९८; समकालीन सृजन-२००६)

Saturday, September 30, 2006

शरत् और दो किशोर

शरत् और दो किशोर

जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है
फिलहाल दोनों इतने हल्के हैं
जैसे शरत् के बादल

सुबह हल्की बारिश हुई है
ठंडी उमस
पत्ते हिलते
पानी के छींटे कण कण
धूप मद्धिम
चल रहे दो किशोर
नंगे पैरों के तलवे
नर्म
दबती घास ताप से काँपती

संभावनाएँ उनकी अभी बादल हैं
या बादलों के बीच पतंगें
इकट्ठे हाथ
धूप में कभी हँसते कभी गंभीर
एक की आँख चंचल
ढूँढ रहीं शरत् के बौखलाए घोड़े
दूसरे की आँखों में करुणा
जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है

उन्हें नहीं पता
इस वक्त किसान बीजों के फसल बन चुकने को
गीतों में सँवार रहे हैं
कामगारों ने भरी हैं ठंडी हवा में हल्की आहें

फिलहाल उनके चलते पैर
आपस की करीबी भोग रहे हैं
पेड़ों के पत्ते
हवा के झोंकों के पीछे पड़े हैं
शरत् की धूप ले रही है गर्मी
उनकी साँसों से

आश्वस्त हैं जनप्राणी
भले दिनों की आशा में
इंतजार में हैं
आश्विन के आगामी पागल दिन।

(१९९२- पश्यंती १९९५)

Wednesday, September 06, 2006

रक्षा करो

मोहन राणा के ई-ख़त से पता चला कि मैंने अभी तक भारत लौटने की घोषणा नहीं की है। जून के अंत में ही मैं लौट आया था। दस दिन चंडीगढ़ की गर्मी खाई। उसके बाद से बस यहाँ हैदराबाद में वापस।

देश के कानूनों से अभी तक उलझ रहा हूँ। जैसा कि डेपुटी ट्रांस्पोर्ट कमिशनर ने कहा - बी सीटेड, आप प्रोफेसर हैं, आपको कानून का पता होना चाहिए। बखूबी होना चाहिए और मैंने पता किया कि जिस तरह छात्रों को एक प्रांत से दूसरे प्रांत जाने पर माइग्रेशन सर्टिफिकेट नामक फालतू कागज़ हासिल करना पड़ता है, इसी तरह गाड़ियों, स्कूटरों को भी एन ओ सी चाहिए होता है - वह भी सही आर टी ए के नाम - यानी आप नहीं जानते कि हैदराबाद में ट्रांस्पोर्ट अथारिटी हैदराबाद के अलावा अन्य नामों में भी बँटी हुई है तो आप रोएँ। शुकर है अंजान भाई कि तरह डेपुटी ट्रांस्पोर्ट कमिशनर को इस बात पर शर्म नहीं अाई कि मुझ जैसा अज्ञ उनके देश का नागरिक है। वैसे मुझे अच्छी तरह डरा ज़रुर दिया - हमारे इंस्पेक्टर ने गाड़ी चलाते पकड़ लिया तो!!! तो बहुत सारे कागज़ तैयार कर के, चेसिस नंबर तीन तीन बार पेंसिल से घिसके, अपनी घिसती जा रही शक्ल के फोटू कई सारे साथ लगाकर और पता नहीं क्या क्या चंडीगढ़ में भारी भरकम सरकारी अधिकारी मित्र को भिजवाए हैं, हे ब्रह्मन, रक्षा करो टाइप प्रार्थना के साथ।

चलो, मोहन की वजह से यह रोना रो लिया तो सबको बता दें कि मोहन राणा हिंदी के युवा कवि हैं (माफ करना मोहन, हिंदी में तो बतलाना ही पड़ता है - अधिकतर लोगों को हरिवंश बच्चन के बाद किसी कवि का नाम पता नहीं है,... अब शुरु होगी पिटाई...) और उनकी कविताएँ यहाँ पढ़ें, और अनूदित रचनाएँ यहाँ

जनता से गुजारिश है कि अगली क्रंदन कथा के लिए कुछ दिन इंतज़ार करें। इस बीच ओम थानवी धड़ाधड़ एक से बढ़कर एक लाजवाब लेख लिखे जा रहे हैं, अच्छी हिंदी का लुत्फ उठाएँ।

Sunday, August 27, 2006

हर बादल

लंबे समय से ब्लाग नहीं लिखा।

बस वक्त ही नहीं मिल रहा था। तकलीफें भी हैं, पर तकलीफें कहाँ नहीं हैं? इसलिए तो कविगुरु कहते हैं —
आछे दुःखो, आछे मृत्यु, विरह दहन लागे। तबू ओ शांति, तबू आनंदो, तबू अनंतो जागे।
इस गीत को मैंने दफ्तर में बोर्ड पर लगा लिया है।

इसी बीच कुछ अच्छी किताबें पढ़ीं — जिनमें आखिरी खालेद हुसैनी की 'द काइट रनर' है। ज़ाहिर शाह से लेकर तालिबान युग तक के अफगानिस्तान में सामंती और प्रगतिशील मूल्यों के बीच फँसे निरीह लोगों की कथा। हिंदी फिल्मों की आलोचना करते हुए भी कथानक हिंदी फिल्मों जैसा ही है। हुसैनी की राजनीति से सहमत न होते हुए भी उपन्यास की श्रेष्ठता के बारे में कोई शक नहीं। हुसैनी की विश्व दृष्टि में अमरीका स्वर्ग है। तालिबान नर्क है। उस इतिहास का क्या करें जो बतलाता है कि तालिबान को अमरीका ने ही पाला पोसा! और अब यह कहाँ आ गए हम...।

शब्दों के साथ हुसैनी का खेल मन छूता है। देश काल में हुसैनी की खुली दौड़ कुर्रतुलऐन हैदर की याद दिलाती है।

शायद थोड़ा लिखा जाए तो नियमित लिखना संभव हो। अभी तक नई जगह में पूरी तरह से बसा नहीं हूँ। बड़ी दौड़भाग में लगा रहता हूँ। रोचक बातें तो हर क्षण होती रहती हैं। यहाँ बादलों को देखता हूँ तो हर बादल में एक कहानी दिखती है।

Tuesday, June 13, 2006

इंसान की शिद्दत

मैं स्वभाव से सैलानी नहीं हूँ. कहीं जाता हूँ तो लोग कैमरे लेकर तस्वीरें खींच रहे होते हैं और मैं देख रहा होता हूँ कि एक छोटा बच्चा मिट्टी में लोट कर माँ बाप को तंग कर रहा है. पर घूमने का मौका मिलता है खुशी से साथ हो लेता हूँ. इस बार हमारे मेजबान प्रोफेसर ने रविवार को स्टोनहेंज दिखा लाने का न्योता दिया तो सोचा कि चलना चाहिए, क्योंकि स्टोनहेंज (हैंगिंग स्टोंस) ब्रिटेन की सबसे पुरानी प्रागैतिहासिक धरोहर है.

तो इस रविवार हम इस अद्भुत के सामने थे. पता नहीं कितनी बार मानव और धरती पर प्राण के उद्गम के प्रसंग में स्टोनहेंज की तस्वीर देखी थी. कई लोगों ने इसे देवताओं का दूसरे ग्रहों से आकर धरती पर मानव की सृष्टि करने का प्रमाण माना है. अब वैज्ञानिक जगत में यह माना जाता है कि साढ़े पाँच सौ साल पहले समुद्र के जरिए बड़े पत्थरों को लाकर प्रागैतिहासिक मानव ने यह करामात खड़ी की. तीन अलग अलग चरणों में इसका निर्माण हुआ. कोई स्पष्ट कारण तो पता नहीं कि क्यों यह बनाया गया पर कई अनुमान हैं, जिनमें ज्योतिष, धार्मिक रस्म आदि हैं.

सबसे अजीब चीज़ मुझे यह लगी कि खड़े पत्थरों के ऊपर छोटे पिरामिड के आकार के wedges बनाए गए और इनपर लिटाए गए पत्थरों में छेद किए गए, ताकि ये बिल्कुल फिट बैठें. बिल्कुल जैसे लकड़ी का काम होता है. मुझे अभी तक विश्वास नहीं हो रहा कि वाकई मीलों दूर से इतने बड़े पत्थर लाए गए, जब चारों ओर जंगल होते थे, कोई रास्ता नहीं होता था, कोई गाड़ी नहीं होती थी.

मैं उन्हीं इंसानों का वंशज हूँ. कितनी शिद्दत से कितने हजारों लोगों ने मिलकर वर्षों मेहनत कर इसे बनाया. सोच कर गर्व भी होता है और चारों ओर व्याप्त अहं और पाखंड से नफरत भी बढ़ती है.

Friday, June 09, 2006

बकौल फुर्सतिया क्या कल्लोगे भाई

हाल में टी वी पर बी बी सी चैनल पर स्पोर्ट्स रीलीफ की बनाई फिल्म देखी, जो भारत में चल रहे उनके प्रोजेक्ट्स के संदर्भ में है। इंग्लैंड से मुख्यतः मीडीया से जुड़े कुछ लोग भारत में आकर तीन जगहों में क्रिकेट खेलते हैं। पहले दो दक्षिण में त्सुनामी प्रभावित जगहें हैं। रेलवे चिल्ड्रेन नामक बच्चे जो रेलगाड़ियों में भीख माँगकर जी रहे हैँ, उनके लिए भी उनका एक प्रोजेक्ट् है। इंग्लैंड में लोग दौड़ आयोजनों में शामिल होकर पैसा इकट्ठा करते हैं, जिसे स्पोर्ट्स रीलीफ भारत जैसे मुल्कों में ऐसे प्रोजेक्ट्स में लगाती है।

ऐसी फिल्मों में सबसे अद्भुत बात मुझे लगती है कि पश्चिमी मुल्कों के साफ स्वच्छ वातावरणों से आए लोग हमारे मैले कुचैले अस्वस्थ बच्चों को चाहे कैमरा के लिए ही सही, प्यार से गले कैसे लगा लेते हैं। इस फिल्म में आज के एपीसोड में दो मर्द रोते हुए दिखे, जो पश्चिमी संस्कृति के लिहाज से अनोखी बात है। हम अपने गरीबों को यूँ गले क्यों नहीं लगा सकते?

मैं जब आई आई टी में पढ़ने आया, तो पहली बार घर से बाहर आने की वजह से अक्सर घर की याद में भावुक हो जाता। उन्हीं दिनों मेरे जेहन में बात बैठ गई कि हो न हो अपने से निकृष्ट लगने वाले लोगों के प्रति भावुक न हो पाने में कहीं न कहीं जातिगत भावनाएँ हैं। मैंने तय किया कि छुट्टियों में घर जाने पर और कुछ नहीं तो मुहल्ले के हमउम्र सफाई कर्मचारी हीरालाल और उसके भाई को हमारे साथ फुटबाल खेलने के लिए कहेंगे। और सचमुच मैंने उनसे कहा भी। यह अलग बात कि या तो उनको फुर्सत न थी या कोई और कारण रहे होंगे, वे कभी हमारे साथ खेले नहीं। विदेश में पढ़ते हुए यह बात मन में रही और तय किया कि लौटेंगे तो हीरालाल और राजू के साथ भी उसी तरह मिलेंगे जैसे अपने दूसरे दोस्तों से।

चार साल बाद लौटा तो जहाँ उन चार सालों में मेरी शक्ल और खिल गई थी, हीरालाल और राजू की शक्ल मेरे दीगर दोस्तों की तुलना में ज्यादा बिगड़ी थी। उन्हें देखकर मन में किसी तरह की स्नेह की भावना नहीं उपजी। पर बात मेरे मन में रह गई कि कुछ घपला है।

बहुत बाद में जब बेटी पैदा हुई और जच्चा बच्चा वार्ड में मेरी पत्नी और बच्चे सहित दर्जनों को लेटा छोड़ कर ऊँची जाति के डाक्टर मंडल कमीशन की उस रीपोर्ट के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठे थे जिसमें पिछ्ड़ी जातियों के लिए संविधान के निर्देशों के मुताबिक आरक्षण का अनुमोदन किया गया था, तब वार्ड में दौड़ते चूहों को देखते हुए मैंने जाति समीकरणों को बहुत करीब से समझा। हमारे साथ जो हुआ, उसको आज भी हम झेल रहे हैं, पर निजी पीड़ाओं की बात यहाँ नहीं।
चूहों की बात इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इससे मेरी एक धारणा को बल मिला। अमरीका में लंबे समय तक रहने के बाद सही गलत जो भी, मन में यह धारणा बन गई कि अगर अस्पताल में जच्चा बच्चा वार्ड में चूहे दौड़ते हों तो शायद डाक्टर चूहों को मारना अपना काम समझते। पर यह तो हिंदुस्तान है। बड़ा सरकारी अस्पताल हो तो क्या, चूहों को मारना चूहेमार का काम है, जो कि एक कंट्राक्टर है, जिसके साथ पिछड़ी जाति के लोग होंगे, जो पेस्टीसाइड स्प्रे करते होंगे। गुस्से में अपने मित्र डाक्टर को मैंने कहा था कि मुझे चूहों को मारने की जिम्मेवारी दे दो। चूहे इसलिए भी थे क्योंकि हर ओर गंदगी थी। बाथरुम गंदे थे। लोग बाग जो रोगियों को देखने आते वे इधर उधर थूकते रहते। जैसा पंजाबी में कहते हैं गंद फैलाते। पहली बार मुझे समझ में आया कि हम दरअसल आस्था के संकट से गुजर रहे समाज के अंग हैं। हमें विश्वास ही नहीं कि हमारे/हम लोग कुछ कर भी सकते हैं, कि उन्हें/हमें सभ्य समाज बनाना आता है। शायद इसलिए हम कहते रहते हैं कि हमें ‘उन’ के अपलिफ्टमेंट के लिए कुछ करना चाहिए। आरक्षण से क्या होगा।

मुझे आरक्षण मुद्दे पर कुछ लिखना चाहिए, क्योंकि मेरे कई सारे युवा छात्र मित्र समझ नहीं पाते कि मेरे जैसा ‘समझदार’ बंदा भी आरक्षण के पक्ष में क्यों है।

उम्र के साथ यह बात समझ में आई है कि किसी भी बात का कोई नियत अर्थ हो यह कह पाना मुश्किल है। खास कर ऐसी बातें जिनमें हर किसी को अपने सीमित अनुभव के आधार पर अपना सच दिखलाई देता है। ऐसी बहुत सी बातें हैं, जैसे ईश्वर की अवधारणा। अरे बाप रे, पहले ही ईश्वर पर आ गया।

मतलब यह कि मैं जो भी लिखूँ वह उस तरह से नहीं समझा जाएगा जैसा कि मैं कहता हूँ, यह डर मुझे है। साथ में यह भी कि इसी डर की वजह से सही बात न कहें, यह कैसी बात हुई, इस तरह के शोर की भी गुंजाइश है। तो जैसा फुर्सतिया ने मेरे बारे में कहा है, “समझ गये तो ठीक है, वर्ना क्या 'कल्लोगे' भाय!", उसी अंदाज में कुछ बिंदु लिख देता हूँ।

आरक्षण जातिभेद का स्थायी समाधान नहीं है।

आरक्षण ऊँची जाति के कुछ भ्रमित लोगों द्वारा पिछ्ड़े जाति के लोगों के लिए दया दिखलाने के लिए लिया गया कदम नहीं है।

आरक्षण लोकतांत्रिक संरचना में पिछ्ड़े वर्गों के लोगों के संघर्षों से निकला एक सामयिक समाधान है, जो वर्त्तमान में चल रहे अलिखित पर स्पष्ट तौर पर विद्यमान, ऊँची जातियों के वर्चस्व की व्यवस्था को दरकिनार करने की एक कोशिश है।

जो हल्ला आरक्षण को लेकर मचाया जाता है, वह महज ऊँची जातियों के युवाओं के हठ और कइयों की नादानी को ही दिखलाता है।

अगर कभी कोई क्रांतिकारी सरकार सत्ता में आती है, जो सचमुच जन की हितैषी होगी, तो आरक्षण की ज़रुरत नहीं रहेगी। पर रुस, चीन वगैरह का जो हश्र हुआ है, उसके बाद क्रांति के लिए इंतज़ार करने के लिए किसे कहा जाए – इसलिए आरक्षण एक पूरी तरह से सही नहीं, पर ज़रुरी कदम है।

आज के समय में ‘मेरे पापा के दफ्तर में ऐश करता फलाँ ओ बी सी का बेटा आरक्षण का फायदा उठा रहा है’ जैसे अनंत बकवास इलेक्ट्रानिक मीडिया में दर्ज़ हो रहें हैं, जो भविष्य में इतिहासकारों को यह समझने के काम आएगा कि इन दिनों जिनका वर्चस्व है, उन जातियों के युवा अवधारणा के स्तर पर गणित, विज्ञान और अन्य विषयों की तरह सामाजिक विषयों में भी ज़ीरो हैं। हीरो बनते रहते हैं, पर ज़रा सा कुरेदो तो ‘होगा कोई कांशीराम या मायावती का औलाद’ कहते हुए रोने लग जाते हैं।

ऊँची जाति के गरीबों का क्या होगा, यह चिंता कइयों की है। तो भई, पहली बात तो यह कि तमाम सरकारी नियम कानूनों के बावजूद नौकरियों में आरक्षण वांछित स्तर से बहुत कम हुआ है। दूसरी बात यह कि जब तक ‘निचले काम’ सिर्फ पिछड़ी जातियों के लोगों के काम होगे, तब तक तो ऊँची जाति के गरीबों का हल्ला मचाना मतलब नहीं रखता। जिस दिन जनसंख्या में अनुपात के बराबर मेहतरों की संख्या में ब्राह्मणों बनियों या अन्य ऊँची जातियों का अनुपात होगा, तब यह शोर मतलब रखेगा। नहीं तो, फालतू की बातचीत के पहले लोगों को राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय आँकड़े देखकर पहले यह समझना चाहिए कि गरीबों में जातिगत अनुपात कैसा है। आँकड़े देख पढ़ लें तो शायद शुकर मनाएँ कि आरक्षण के जरिए बहुसंख्यक लोगों के असंतोष को दबा कर रखा जा रहा है, नहीं तो यह सचमुच आश्चर्य ही है कि हिंदुस्तान में चारों ओर आग नहीं लगी है।

जहाँ तक सरकारें और चुनावी खेलों का सवाल है तो बंधुओ, अगर यह पहली बार समझ आ रहा है कि बुर्ज़ुआ लोकतंत्र यही होता है, तो भी बढ़िया, जैसा कि पढ़े लिखे अर्थशास्त्रियों को पता है, मार्क्स बाबा बहुत पहले यह सब कह गए थे। इसीलिए तो मैं मार्क्स के जन्मस्थान ट्रीयर शहर को देखने के बाद से सबसे कहता हूँ कि मैं हज कर आया।

जिनको ‘आरक्षण के अलावा अपलिफ्टमेंट के लिए कुछ करना चाहिए’ कहते रहने का शौक है, वे कुछ जरुर करें, पर जनता इस इंतज़ार में बैठी तो रहेगी नहीं कि पहले किसी और तरीके से उनका अपलिफ्टमेंट हो।
और हड़ताल पर जा रहे डाक्टर! बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए, बेहतर वजीफों, तनखाहों के लिए हड़ताल करें, यह तो ठीक है, पर बहुसंख्यक लोगों की आकांक्षाओं के खिलाफ हड़ताल, खासकर जब पढ़ाई के खर्च का अधिकांश सरकारी भत्ते से ही भरा जा रहा हो, जो उन्हीं बहुसंख्यक लोगों की मेहनत की कमाई हो, यह तो सरासर घोर अपराध है।


अंत में दोस्तो, एक युवा मित्र ने सोचा कि मेरी भावनाएँ आहत हैं (‘होगा कोई कंशीराम या मायावती की औलाद!’) तो ऐसा कुछ नहीं है। यह मेरी समझ है और असंख्य समझदार लोगों की तरह मैंने भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ही ये बातें सोची हैं। जिनको खास जानकारी चाहिए उनको मैं अपने माता पिता का नाम बतला सकता हूँ। हम जिस माहौल में पले बढ़े, वहाँ जातिगत सोच तो थी, पर जातिभेद के खिलाफ और इंसान-इंसान की बराबरी के पाठ भी थे। जब पहले पहल चंडीगढ़ आया तो एक छात्रा ने लाइब्रेरी में पूछा, सर आपकी कास्ट क्या है? मैं तो दंग था, मेरी कल्पना में नहीं था कि कोई किसी से खुले आम जाति पूछ सकता है। बाद में पता चला कि पंजाब में पारिवारिक नाम या पृष्ठभूमि के लिए भी कास्ट शब्द का उपयोग होता है, पर अंतिम मकसद तो जाति पहचान ही है। बहरहाल मैं भी दबंग सा था, बालिका को बतलाया कि दुनिया की सबसे नीची जाति मेरी कास्ट है। वह शर्माई और बोली कि नहीं सर मैं सोची कि आप गिल होंगे, गिल कास्ट के लोग काफी पढ़े लिखे होते हैं। अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैं कितना भोला था, मैं सोचता था कि जाति-वाति अनपढ़ों की समस्याएँ हैं और पढ़े लिखे लोग यह सब नहीं सोचा करते। शायद कोलकाता में बड़े होने का असर था। मुझे पता ही नहीं था कि यूनिवर्सिटीयों तक में कैसा मजबूत जाति तंत्र है।

चलो, अब हमले से बचने की तैयारी करें।

Wednesday, May 31, 2006

समय बड़ा बलवान

सुनील ने अपनी टिप्पणी में अफ्रीका दिवस का जिक्र किया तो पुरानी यादें ताजा हो गईं। एक जमाना था जब पैन अफ्रीकी आंदोलन शिखर पर था और दुनिया भर में आज़ादी और बराबरी के लिए लड़ रहे लोग अफ्रीका की ओर देख रहे थे। सत्तर के दशक के उन दिनों फैज अहमद फैज ने नज़्म लिखी थी 'आ जाओ अफ्रीका।'

मैंने फैज को ताजा ताजा पढ़ा था और ऊँची आवाज में पाकिस्तानी मित्र इफ्तिकार को पढ़ कर सुनाता था:

आ जाओ अफ्रीका
मैंने सुन ली तेरे ढोल की तरंग

और बाब मार्ली के अफ्रीका यूनाइट पर हम लोग नाचते। पहली मई को अफ्रीका दिवस मनाया जाता था। पता नहीं मैंने कितनी बार जमेकन ग्रुप्स से रेगे टी शर्ट मँगाए और लोगों को बेचे या बाँटे। मेरे पास तो अब कोई टुकड़ा भी नहीँ है, पर हमारे उस जुनून को याद करते हुए मेरे बड़े भाई ने कोलकाता में अभी भी उनमें से एक टी शर्ट सँभाल कर रखा हुआ है। बाब मार्ली का चित्र है और किसी गीत की पंक्तियाँ। मार्ली का एक गीत redemption song जो उसने सिर्फ गिटार पर हल्की लय में गाया था, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं (त्रुटियों से बचने के लिए नेट से ले रहा हूँ):

...

Wont you help to sing
These songs of freedom? -
cause all I ever have:
Redemption songs;
Redemption songs.

Emancipate yourselves from mental slavery;
None but ourselves can free our minds.
Have no fear for atomic energy,
cause none of them can stop the time.
How long shall they kill our prophets,
While we stand aside and look? ooh!
Some say its just a part of it:
Weve got to fulfil de book.

Wont you help to sing
These songs of freedom? -
cause all I ever have:
Redemption songs

...

फिर रोडेशिया आजाद हुआ, जिंबाव्वे बना। 1980 का साल जैसे एक युग की समाप्ति की घोषणा करते हुए आया।
अमरीका में रीगन और ब्रिटेन में थैचर युग आया। पैन अफ्रीकी आंदोलन खत्म हो चुका था। कहने को अभी भी मौजूद है, पर उसका कोई संदर्भ नहीं दिखता। पश्चिमी विश्वविद्यालयों में से उदारवादी लोगों को निकाल कर संरक्षणशील लोगों को लाया जाने लगा।

पर दुनिया तो वही है जो थी। कुछ समय के लिए जन-आंदोलनों को दरकिनार किया जा सकता है, पर इंसान सपने देखता रहता है और देर सबेर लोग उठते हैं, उठेंगे। बृहत्तर अफ्रीका का सपना जब देखा गया था, तब किसी ने यूरोपी मुल्कों के इकट्ठे होने की बात न सोची थी। अफ्रीकी गुलामों के वंशज जो अमरीका और दूसरे मुल्कों में बसे हुए थे, उन्होंने आज से सौ साल पहले यह यह सपना देखा। वेस्ट इंडीज़ में मार्कस गार्वे का 'बैक टू अफ्रीका' आंदोलन हुआ। कई लोग लौट गए भी। मेरे विचार में बीसवीं सदी में उत्तरी अमरीका में पैदा हुआ सबसे महान विचारक डब्लू ई बी दुबोएस (फ्रंसीसी दुबोआ से) भी अपने आखिरी सालों में अफ्रीका में ही था। दुबोएस को भारत से बड़ी उम्मीदें थीं। उसने उपन्यास भी लिखे थे, जिनमें से कम से कम एक में प्रेरणा के मुख्य चरित्र भारतीय हैं। पर जब दुबोएस यह लिख रहा था, भारत में विभाजक ताकतें काम कर रही थीं और अंततः भारत बँटा, बृहत्तर अफ्रीका क आंदोलन भी बाद में बिखर गया।

आज हजारों लोग दक्षिण एशियायी संघ का सपना देखते हैं। ऐसे वक्त जब अफ्रीकी ही नहीं, एशिया और दुनिया के दीगर मुल्कों से लोग जब तकरीबन गुलाम बन कर पश्चिमी मुल्कों में जाने के लिए तैयार हैं, तब भी लोग सपने देखते हैं। और वाजिब सपने सच होते ही हैं। हम तैयार हों न हों, समय बड़ा बलवान।

उन दिनों, अस्सी के शुराआती सालों में, सबसे अच्छे गीत अफ्रीकी मूल के लोग लिख रहे थे। इनमें से एक वाशिंगटन डी सी का जैज़ गायक और संगीतकार था, गिल स्काट हेरोन। उसके एक गीत की पंक्तियाँ हैं:

The Revolution Will Not Be Televised (सुनें)

You will not be able to stay home, brother.
You will not be able to plug in, turn on and cop out.
You will not be able to lose yourself on skag and skip,
Skip out for beer during commercials,
Because the revolution will not be televised.

The revolution will not be televised.
The revolution will not be brought to you by Xerox
In 4 parts without commercial interruptions.
The revolution will not show you pictures of Nixon
blowing a bugle and leading a charge by John
Mitchell, General Abrams and Spiro Agnew to eat
hog maws confiscated from a Harlem sanctuary.
The revolution will not be televised.

The revolution will not be brought to you by the
Schaefer Award Theatre and will not star Natalie
Woods and Steve McQueen or Bullwinkle and Julia.
The revolution will not give your mouth sex appeal.
The revolution will not get rid of the nubs.
The revolution will not make you look five pounds
thinner, because the revolution will not be televised, Brother.

There will be no pictures of you and Willie May
pushing that shopping cart down the block on the dead run,
or trying to slide that color television into a stolen ambulance.
NBC will not be able predict the winner at 8:32
or report from 29 districts.
The revolution will not be televised.

There will be no pictures of pigs shooting down
brothers in the instant replay.
There will be no pictures of pigs shooting down
brothers in the instant replay.
There will be no pictures of Whitney Young being
run out of Harlem on a rail with a brand new process.
There will be no slow motion or still life of Roy
Wilkens strolling through Watts in a Red, Black and
Green liberation jumpsuit that he had been saving
For just the proper occasion.

Green Acres, The Beverly Hillbillies, and Hooterville
Junction will no longer be so damned relevant, and
women will not care if Dick finally gets down with
Jane on Search for Tomorrow because Black people
will be in the street looking for a brighter day.
The revolution will not be televised.

There will be no highlights on the eleven o'clock
news and no pictures of hairy armed women
liberationists and Jackie Onassis blowing her nose.
The theme song will not be written by Jim Webb,
Francis Scott Key, nor sung by Glen Campbell, Tom
Jones, Johnny Cash, Englebert Humperdink, or the Rare Earth.
The revolution will not be televised.

The revolution will not be right back after a message
about a white tornado, white lightning, or white people.
You will not have to worry about a dove in your
bedroom, a tiger in your tank, or the giant in your toilet bowl.
The revolution will not go better with Coke.
The revolution will not fight the germs that may cause bad breath.
The revolution will put you in the driver's seat.

The revolution will not be televised, will not be televised,
will not be televised, will not be televised.
The revolution will be no re-run brothers;
The revolution will be live.

मैंने भी अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखी थीं, जिनमें समकालीन राजनैतिक विचारों का प्रभाव था। ये कविताएँ प्रिंस्टन् यूनीवर्सिटी के इंटरनैशनल सेंटर की पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं। अब सोचता हूँ तो सबसे ज्यादा याद आते हैं दोस्त जो जाने कहाँ बिछुड़ गए। अफ्रीका में जिंबाव्वे की आजादी और लातिन अमरीका में निकारागुआ का इंकलाब, 1979 की सबसे बड़ी घटनाएँ थीं (शायद दोनों ही मुल्कों में अगले साल यानी 1980 में ही जनता की सरकारें बनीं। बाद में निकारागुआ में रीगन ने सरकार पलट दी और जिंबाव्वे में मुगाबे तानाशाह बन बैठा)। उन दिनों हमारे साथ पढ़ रहे अफ्रीकी दोस्तों में जिंबाव्वे की आजादी की लड़ाई में सक्रिय एक गोरी लड़की थी, मैं उससे बहुत प्रभावित था। आज जब मुगाबे की सरकार द्वारा पर गोरों पर हो रहे अत्याचार के बारे में सुनता हूँ तो उसकी बात सोचता हूँ। क्या उसे भी मालूम था कि गोरे साम्राज्यवादियों के अत्याचारों का हर्जाना उसे भी देना होगा। क्या उसने भी नम्रता से बदली हुई परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया है, जैसे भारत में समझदार और सूझवान अगड़ी जातियों के लोग पिछड़ी जातियों की माँगों को मान रहे हैं। वैसे हममें से ज्यादातर तो रोते चिल्लाते ही नज़र आते हैं, हालाँकि जैसा कि मुहावरा है, समय बड़ा बलवान।

Monday, May 29, 2006

आस्था वालों की दुनिया

इस बार इंग्लैंड आया तो पहले चार दिन लंदन में दोस्तों के साथ गुजारे। कालेज के दिनों के मित्र शुभाशीष के घर दो दिन ठहरा। पिछली मुलाकात 1983 में कुछेक मिनटों के लिए हुई थी। उसके पहले 1977 तक हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे। सालों बाद मिलने का एक अलग रोमांच होता है। 1983 में शुभाशीष मुझसे मिलने बर्मिंघम से लंदन आया था। उसके कहने पर मैं उसके लिए भारत से आम लेकर आया था। एक दिन के लिए लंदन ठहरना था। जिस दिन पहुँचा, एयरपोर्ट पर वह मिला नहीं। दूसरे दिन सामान चेक इन कर मैं थोड़ी देर के लिए बाहर आया (उन दिनों आज जैसी सख्ती नहीं थी), तो बंदा मिला। तब तक रसराज कूच कर चुके थे। इस बात का अफ्सोस आज तक रहा। इस बार बर्ड फ्लू की रोकथाम की वजह से आम लाना संभव न था। जब चला था तब तक बढ़िया फल बाज़ार में आया भी न था। चोरी छिपे दोस्तों के लिए मिठाई के डिब्बे निकाल लाया।

बहरहाल, लंदन में विज्ञान संग्रहालय देखा, साथ पुराने छात्र मित्र अरविंद का बेटा अनुभव था तो आई मैक्स फिल्म भी देखी। दूसरे दिन विक्टोरिया और ऐल्बर्ट कला संग्रहालय गया। इसके एक दिन पहले एक और पुराने छात्र मित्र अमित और उसकी पत्नी के साथ स्वामीनारायण मंदिर गया (तस्वीर)। हालांकि मैं विशुद्ध नास्तिक हूँ, पर दूसरों की आस्था का सम्मान करता हूँ। मेरी समझ से यह उसी संप्रदाय का मंदिर है, जिनका अक्षरधाम मंदिर दो साल पहले आतंकवादी हमलों की वजह से चर्चित हुआ था। पता था कि धनी गुजराती व्यापारियों के इस संप्रदाय का व्यापक सामाजिक प्रभाव है। मंदिर पहुँच कर इस अनुमान की पुष्टि हुई। संगमरमर का भरपूर इस्तेमाल कर करोड़ों ख़र्च कर बना यह मंदिर स्थापत्यकला या वास्तु का अद्भुत नमूना है, पर कुछ बातों से मन बहुत उदास हुआ मैं देर तक ढूँढता रहा कि कहीं इस संप्रदाय के दार्शनिक स्रोत के बारे में पता चलेगा अनुमान से वैष्णव माना। शायद किसी से पूछता तो पता चलता। अमित सपरिवार यहाँ नियमित आता है। पर उसे भी न पता था। एक पूरी दीवार टोनी ब्लेयर, मनमोहन सिंह जैसे बड़े लोगों की तस्वीरों से भरी हुई थी। पर कहीं भी कोई दार्शनिक या साहित्यिक सूत्र न दिखा, जिससे अंदाजा लग सके कि सगुण की किस शाखा की परंपरा यहाँ निभाई जा रही है।

शुभाशीष साउथहाल में जहाँ रहता है, वहाँ पास ही नया गुरुद्वारा बना है। थोड़ी ही दूर पुराना गुरुद्वारा है, इसलिए मेरी समझ में नहीं आया कि नया गुरुद्वारा क्यों। नए गुरुद्वारे पर श्री हरमंदर साहब (अम्रतसर) की तरह ऊपर गुंबद पर सोने की परत है। शुभाशीष की इच्छा थी कि इकट्ठे गुरुद्वारा चलेंगे, मुझे भी शबद कीर्तन सुनना बहुत अच्छा लगता है, पर थोड़े समय में जा नहीं पाया और चूँकि यह हिंदुस्तान नहीँ, तो कानून मानते हुए लाउडस्पीकरों से सारी दुनिया को कीर्तन सुनाया नहीं जाता।

धर्म के नाम पर पैसों का ऐसा बेहिसाब खर्च देखकर अजीब लगता है। मैं जानता हूं कि अगर धर्म सभाओं से पूछा जाए तो वे उनके द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और अस्पतालों का जिक्र करेंगे, पर सच यह भी है कि धर्मस्थानों पर इस तरह पैसा बहाने के पीछे धार्मिक भावनाएँ कम ही होती हैं। बचपन में पढ़े काका कालेलकर के निहायत ही ऊबाऊ एक लेख से दो पंक्तियाँ याद आ रही हैँ:

तू ढूँढता मुझे था जब बाग और महल में
मैं ढूँढता तुझे था तब दीन के चमन में।

बहरहाल आस्था वालों की दुनिया उनको मुबारक। मैं तो धर्म और धार्मिक परंपराओं में दीन को ही ढूँढता रहूँ, यही मेरी ख़्वाहिश रहेगी। वहीं मेरे पसंद के राग, वहीं मेरे मन पसंद गान। इसलिए दोस्तों, दक्षिण एशिया की सरकारें सैनिक खाते में पैसा डालना बंद करें और दक्षिण एशिया की जनता धर्म के नाम पर पैसे बहाना बंद करें – यही मेरा नारा है। पैसे ज्यादा हैं तो किसी गाँव के स्कूल में बच्चों के लिए एक कमरा और बनवा दो यार। बच्चों को किताबें खरीद दो।

Saturday, May 27, 2006

राममोहन और ब्रिस्टल

एक अरसे बाद ब्लाग लिखने बैठा हूँ। पिछ्ले डेढ महीने से इंग्लैंड में हूँ। ब्रिस्टल शहर में डेरा है। लिखने का मन बहुत करता रहा, पर खुद को बाँधे हुए था कि काम पर पूरा ध्यान रहे।

जिस दिन सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने राजा की मूर्ति देखी, बहुत सोचता रहा. यह तो पता था कि राममोहन इंग्लैंड में ही गुज़र गए थे, पर किस जगह, यह नहीं मालूम था। 1774 में जनमे राममोहन 1833 में यहाँ आकर वापस नहीं लौट पाए। उनकी कब्र यहाँ टेंपल मीड रेलवे स्टेशन के पास आर्नोस व्हेल कब्रिस्तान में है

राममोहन का जमाना भी क्या जमाना था! बंगाल और अंततः भारत के नवजागरण के सूत्रधार उन वर्षों में जो काम राममोहन ने किया, सोच कर भी रोमांच होता है। हमने सती के बारे में बचपन में कहानियाँ सुनी थीं। जूल्स वर्न के विख्यात उपन्यास ‘अराउंड द वर्ल्ड इन एइटी डेज़’ में पढ़ा था। जब झुँझनू में 1986 में रूपकँवर के सती होने पर बवाल हुआ, तो बाँग्ला की जनविज्ञान पत्रिका ‘विज्ञान ओ विज्ञानकर्मी’ ने राममोहन का लिखा ‘प्रवर्त्तक - निवर्त्तक संवाद’ प्रकाशित किया, जिसे पढ़कर उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति मन में अगाध श्रद्धा भी हुई। यह अलग बात है कि उनके तर्कों को आज भी हमलोग समझना नहीं चाहते हैं। इसीलिए तो हालैंड से आया पड़ोसी बेन्स मुझे हाल में उत्तर प्रदेश में हुई सती की घटना के बारे में पूछता है। वह जानना चाहता है इस बारे में मेरी राय क्या है। राय क्या? अपराधियों को पकड़ो और उम्र भर की सजा दो। इन मामलों में मैं विशुद्ध आधुनिक हूँ। पर मन विषाद से भर जाता है। (तस्वीरें ब्रिस्टल की सरकारी वेबसाइट से)

राममोहन यहाँ आकर भी खुश तो नहीं रह पाए होंगे। समुद्र से थोड़ी दूर बसे इस शहर में गुलामों के व्यापार का अड्डा था। गुलामों को अफ्रीका से भेजा जाता था, पैसे आते थे अंग्रेज़ व्यापारियों के पास। उन दिनों तक यह व्यापार मंदा पड़ने लगा होगा, क्योंकि 1777 में अमरीका अलग हो चुका था, पर व्यापारियों के पास हर परिस्थिति में पैसे कमाने के तरीके होते हैं। यहाँ औद्योगिक संग्रहालय में गुलामों के व्यापार पर पूरा एक हिस्सा है, जिसमें इन बातों पर प्रदर्शनियाँ हैं। हाल में एक टी वी चैनेल द्वारा इस बात पर लोगों से मत लिए गए थे कि उन्हें गुलामों के व्यापार के घिनौने इतिहास के लिए माफी माँगनी काहिए या नहीं। 91% लोगों ने माफी माँगने के खिलाफ मत दिया। वैसे भी आज की पीढ़ी इतिहास के बारे में सोचना नहीं चाहती, इसलिए मुझे तो इसी बात पर आश्चर्य था कि ऐसा मत माँगा भी गया। शायद टी वी चैनेल्स को कभी कभी इतिहास का मजाक उड़ाने लायक सामग्री भी चाहिए।


बहरहाल, आज इतना ही। अरे भई, हमें तो इतना ही लिखने के लिए कोई अवार्ड मिलना चाहिए। इतने दिनों के बाद टाइप कर रहा हूँ, दम निकला जा रहा है।

Friday, April 07, 2006

प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता

भई वाह! मैंने अभी कुछ ही कहानियाँ पढ़ी हैं, पर सचमुच मजा आ गया।
आप लोग भी पढ़ें। रचनाकार की प्रविष्टि असगर वजाहत की कहानियाँ।

एक नमूना पेश हैः
"लेकिन 'एम` को 'यम`, 'एन` को 'यन` और 'वी` को 'भी` बोलने वालों और अंग्रेजी का रिश्ता असफल प्रेमी और अति सुंदर प्रेमिका का रिश्ता है। पर क्या करें कि यह प्रेमिका दिन-प्रतिदिन सुंदर से अति सुंदर होती जा रही है और प्रेमी असफलता की सीढ़ियों पर लुढ़क रहा है। प्रेमी जब प्रेमिका को पा नहीं पाता तो कभी-कभी उससे घृणा करने लगता हे। इस केस में आमतौर पर यही होता है। अगर आप अच्छी-खासी हिंदी जानते और बोलते हों, लेकिन किसी प्रदेश के छोटे शहर या कस्बे में अंग्रेजी बोलने लगें तो सुनने वाले की इच्छा पहले आपसे प्रभावित होकर फिर आपको पीट देने की होगी।"

मात्राओं की गलतियाँ बहुत सारी हैं। मैंने शिकायत दर्ज़ कर दी है। पर ऐसा प्रयास बड़ी मेहनत माँगता है, इसलिए रवि रतलामी को कानपुर वाले ठग्गू के लड्डुओं का ऑफर है मेरी ओर से।

Friday, March 31, 2006

Cdnuolt blveiee taht

मसिजीवी को लंबे समय से छेड़ा नहीं।
अब टिप्पणी आई तो मन हुआ कि लिख दें - अरुणा राय, लाल सलाम!

मैं जब कालेज में था तो अक्सर दोस्त बाग मुझे छेड़ा करते थे। कभी कभी मैं भी छेड़ देता था। मैंने अक्सर पाया है कि कुछ लोग छेड़ना सह नहीं पाते। याद आता है कि कई बार गालियाँ सुनी हैं, एकबार तो निंबोरकर नामक एक बंधु मुझे चौथी मंज़िल की खिड़की से भी धक्का मारकर फेंकने वाला था। मैं अपनी कक्षा में सबसे कम उम्र का था और अच्छे बच्चे से कब शरारती बच्चे में तबदील हो चुका था पता ही नहीं था। स्वभाव से अब भी शरारती हूँ, पर अब नाराज़ होने वालों की संख्या कम और प्यार करने वालों की बढ़ गई है। पर जो नाराज़ हैं वे भयंकर नाराज़ हैं। चलो, कभी कोई तरकीब निकालेंगे कि प्रकाश की गति से ज्यादा तेजी से पीछे की ओर दौड़कर पुरानी घटनाओं को बदल डालें ताकि नाराज़ लोग भी मुझपर खुश हो जाएँ।

बहरहाल पिछली बार मैंने प्रसंग के आधार पर समझ की बात की थी। पिछले महीने मेरे मित्र राकेश बिस्वास ने, जो डॉक्टर है और इनदिनों मलयेशिया में कहीं है, एक रोचक उदाहरण भेजा था। पता तो मुझे अरसे से था, पर देखा पढ़ा मैंने भी पहली बार ही है। जरा नीचे लिखे उद्धरण को पढ़िएः जरा तेजी से पढ़िएः

Cdnuolt blveiee taht I cluod aulaclty uesdnatnrd waht I was rdanieg. The phaonmneal pweor of the hmuan mnid, aoccdrnig to rscheearch at Cmabrigde Uinervtisy, it deosn't mttaer in waht oredr the ltteers in a wrod are, the olny iprmoatnt tihng is taht the frist and lsat ltteer be in the rghit pclae. The rset can be a taotl mses and you can sitll raed it wouthit a porbelm. Tihs is bcuseae the huamn mnid deos not raed ervey lteter by istlef, but the wrod as a wlohe. Amzanig huh? yaeh and I awlyas tghuhot slpeling was ipmorantt!

है न मजेदार। पढ़ लेने के बाद समझ में नहीं आता कि पढ़ा कैसे।

Sunday, March 26, 2006

परीक्षार्थी और सूचना का अधिकार अधिनियम

परीक्षार्थी को मूल्यांकन के बारे में जानने का होना चाहिए या नहीं? इस बारे में ज़रुरी खबर।

Saturday, March 25, 2006

लेकिन।

सूचनाः- महज सूचना और अवधारणात्मक समझ के साथ सूचना में फर्क है।

जब साधन कम हों तो रटना भी फायदेमंद है। भारतीय परंपरा में लिखने पर कम और श्रुति पर जोर ज्यादा था। चीन में बड़े पैमाने पर तथ्य दर्ज किए गए, पर वहाँ भी स्मृति पर काफी जोर रहा है। गरीब बच्चे जिनके पास पुस्तकें कम होती हैं, उनके लिए रटना कारगर है। यानी स्मृति का महत्त्व है।

लेकिन।

एक कहानी है, जो मैंने बचपन में सुनी थी - बाद में शायद लघुकथा के रुप में 'हंस' में छपी थी। पंडित का बेटा चौदह साल काशी पढ़ कर आया। गाँव में शोर मच गया। लोग बाग इकट्ठे हो गए। हर कोई बेटे से सवाल पूछे। आखिर चौदह साल काशी पढ़ कर आया है। विद्वान बेटा जवाब दर जवाब देता जाए। आखिर जमला जट्ट भी भीड़ देख कर वहाँ पहुँच गया।
जमले से रहा नहीं गया। कहता कि एक सवाल मैं पूछूँ तो बेटे जी से जवाब नहीं दिया जाएगा। लोगबाग हँस पड़े। बेटे ने नम्रता से कहा पूछो भई। जमला के कंधे पर हल था। उसने हल की नोक से ज़मीन पर टेढ़ी मेढ़ी लकीर बनाई। लोग देखते रहे। जमला ने पूछा - बोल विद्वान भाई,यह क्या है? बेटा क्या कहता, हँस पड़ा - यह तो एक रेखा है। जमला ने सिर हिलाया - नहीं बॉस! no go! बेटा जरा परेशान हुआ बोला वक्र रेखा है और क्या है? जमला बोला नहीं जी नहीं हुआ। कई जवाब देकर आखिर तंग आकर बेटे ने कहा कि चलो तुम ही बतलाओ, हम तो हार गए। सब ने कहा - tell him bro' tell him! तो जमला ने हँस कर कहा - अरे यह है बलदमूतन! (बलद मतलब बैल)।

मात्र सूचना का विकल्प क्या है? सूचना अनपढ़ किसान के पास भी बहुत सारी होती है। गाँव में स्कूल न जा रहे बच्चे के पास भी होती है। पर वह मात्र सूचना नहीं होती। जितना भी सीमित हो, उस सूचना का एक तार्किक आधार होता है। शिक्षाविद मानते हैं कि बच्चों के सीखने की अलग अलग उम्र की खिड़कियाँ होती हैं। चार साल के बच्चे को न्यूटन के नियम नहीं समझाए जा सकते। रटाए ज़रुर जा सकते हैं। चूँकि दिमाग है कि हर कुछ समझना ही चाहता है, इसलिए जब रटा नहीं जाता तो मार पीट कर रटाया जाता है। आखिरकार दिमाग कुछ पैटर्न्स ढूँढ लेता है - कभी ध्वनियों के, कभी आकारों के और उनके माध्यम से रटता रहता है। सालों बाद अचानक एकदिन जब बात समझ आती है तो अजीब लगता है अच्छा तो यह बात थी और मैंने रट कर ही काम चला दिया! चूँकि काम चल जाता है इसलिए कहा जा सकता है कि रटना कारगर है। मैं मानता हूँ कि रटने का महत्त्व है। पर कितना अच्छा होता कि पैसे बम गोलों में खर्च न होते, गरीबी न होती, बच्चों के पास भरपूर किताबें होतीं या गाँव गाँव में पुस्तकालय होते और रटने की जगह बच्चे अपने दिमाग के हर परमाणु का उचित इस्तेमाल कर रहे होते। तो जो नैसर्गिक है, जो निहित है, चीज़ों को समझने का वैसा तार्किक आधार विकसित होता। सूचना का भंडार बढ़ता, पर ऐसे जैसे धोनी के छक्के लग रहे होते हैं।

भाषाविदों में बहस चल रही है कि क्या सभी भाषाओं का एक सा व्याकरण है? अब यह माना जा रहा है कि व्याकरण या विन्यास कुछ नहीं होते, प्रसंग महत्त्वपूर्ण होते हैं। य़ानी कि प्रासंगिक समझ विषय को परिभाषित करती है, कोई नियत परिभाषा प्रसंग की व्याख्या नहीं करती। सूचना आधारित शिक्षा परिभाषाओं के जरिए विषय वस्तु का परिचय करवाती है, जबकि प्राकृतिक रुप से हम अनुभव के जरिए और प्रासंगिक समझ के जरिए विषय वस्तु को समझ कर सूचना का भंडार बढ़ाना चाहते हैं।

यांत्रिक शिक्षा व्यवस्था में पूर्वज्ञान पर आधारित अवधारणाओं का संसार तो हाशिए पर जाने को मजबूर है ही, परिभाषाओं पर आधारित नया जो तर्क संसार बनता है, इसकी अपूर्णता सीखने वाले पर बहुत दबाव डालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में महज सूचना के विशाल तंत्र में पिसता हुआ आदमी मानसिक रुप से बीमार ही होता रहता है। इस तंत्र में पढ़ने-लिखने, प्रयोग करने और मूल्यांकन आदि हर पक्ष की अलग और बँधी हुई भूमिका होती है। जबकि इन सभी पक्षों को शिक्षा के सर्वांगीण स्वरुप की तरह देखा जाना चाहिए। जो सीखा गया है, परीक्षा उसका मूल्यांकन मात्र नहीं, बल्कि सीखने का एक और तरीका भी होनी चाहिए। सर्वांगीण स्वरुप में शिक्षा (जिसे मैंने विद्या कहा था) हमें तंत्र से बाहर भी लगातार अपनी क्षमताओं का स्वतः इस्तेमाल करवाती है। महज सूचना पर आधारित यांत्रिक शिक्षा स्कूल कालेज की इमारतों के साथ जुड़ी होती है। घर पर ही पढ़ लिख रहे हम स्कूल कालेज का काम कर रहे होते हैं। तकरीबन आधी सदी ज़िंदा रहने के बावजूद मुझे आज भी सपने आते हैं जैसे मैं स्कूल या कालेज में भटका हुआ हूँ, कोई इम्तहान छूट गया और पता नहीं क्या क्या!

ज्ञान पाना आनंदमय होना चाहिए। सही है, इसके लिए सूचना का भंडार भी चाहिए। पर प्राथमिकता किस बात की होगी, यह महत्त्वपूर्ण है - आनंद की या भंडार की। बहरहाल अनुनाद ने जो सवाल किया है, उसका जवाब एक तरह से मैं पहले दे चुका हूँ कि हजारों लोग जुटे हुए हैं कि शिक्षा का स्वरुप बदले और उसमें आनंद की मात्रा बढ़े। उन्हीं संस्थाओं का नाम मुझे वापस लिखना पड़ेगा। सांकेतिक रुप से एक जवाब उन नारों में भी है जो मैंने उस कार्टून में लिखे थे, जो फटीचर दढ़ियल बंदे के हिस्से के हैं।

और जमला जट्ट की कहानी में जो छूट मैंने ली है, उसके लिए माफी - अब आधे चिट्ठाकार तो यांक बने अमरीका में घूम रहे हैं, उनके लिए कुछ रोचक बात न हो तो मुझे महाबोर घोषित कर देंगे।

Friday, March 24, 2006

दढ़ियल फटीचर

अनुनाद ने हिंदी शब्दों के अच्छे उदाहरण दिए हैं जो उनके अंग्रेजी समतुल्य शब्दों की तुलना में ज्यादा सहज लगते हैं। मुझे अनुनाद की बातों से पूरी सहमति है। चिट्ठालेखन की यही तो समस्या है कि अक्सर आप थोड़ी सी ही बात कर पाते हैं जिसे पढ़ने वाला सीमित अर्थों में ही ग्रहण करता है। जब मैंने यह लिखा कि reversible के लिए रीवर्सनीय या 'विपरीत संभव' भी तो कहा जा सकता है, मैं यह नहीं कह रहा कि ग्रीक या लातिन से लिए गए कठिन शब्दों को लागू किए जाए, मैं तो इसके विपरीत यह कह रहा हूँ कि जो प्रचलित शब्द हैं, उनका पूरा इस्तेमाल किया जाए। स्पष्ट है कि ऐम्फीबियन हिंदी में प्रचलित शब्द नहीं है, जैसे उत्क्रमणीय भी नहीं है। इसलिए ऐम्फीबियन की जगह अगर उभयचर का उपयोग होता है, तो उत्क्रमणीय की जगह विपरीत संभव नहीं तो रीवर्सनीय या ऐसा ही कोई शब्द व्यवहार करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि रीवर्स जैसे शब्द का उद्गम संस्कृत नहीं है, यह तय नहीं करता कि वह हिंदी का शब्द नहीं है। जी हाँ, मेरे मुताबिक लोग जो बोलते हैं, वही उनकी भाषा होती है। उत्क्रमणीय हमारे लिए ग्रीक या लातिन ही है। हिंदी वह नहीं जो भाषा विशेषज्ञ तय करते हैं, हिंदी तो हिंदी क्षेत्र के लोगों की भाषा है, जो सही गलत कारणों से बनती बिगड़ती रहती है।

बात सिर्फ पारिभाषिक शब्दों की नहीं है, अनुनाद ने सही कहा है कि "पारिभाषिक शब्द , चाहे वे हिन्दी के हों या अंगरेजी के, अपने-आप में पूरी बात (फेनामेनन्) कहने की क्षमता नहीं रखते यदि ऐसा होता तो न तो परिभाषा की जरूरत पडती और न ही मोटी -मोटी विज्ञान की पुस्तकों की लोग शब्द रट लेते और वैज्ञानिक बन जाते " बात तो प्रवृत्ति की है। अरे, विज्ञान तो दूर, जो हिंदी मैं लिख रहा हूँ यही हिंदी के कई नियमित चिट्ठाकारों के लिए पत्थर के चनों जैसी है। समूची शिक्षा (हिंदी या अंग्रेज़ी माध्यम) में सूचना पर जोर है।

रटो, रटो, सूचना का बैंक बनाओ। सूचना के भी पारिभाषिक पक्ष पर जोर है। प्रासंगिक है कि हिंदी में लिखी पुस्तकों में यह अपेक्षाकृत ज्यादा है। जैसा मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा है, इस तरह की शिक्षा का मकसद व्यवस्था के पुर्जे बनाना है। जिनके पास पैसे हैं, साधन हैं, उन्हें स्कूल कालेज के पाठ्यक्रम से अलग कुछ सीखने का अधिक अवसर मिलता है। इनमें से अधिकांश ने वैसे भी पुर्जे नहीं बनना है, उन्हें पुर्जों का इस्तेमाल करना है, इसलिए वे अवधारणा के स्तर पर आगे बढ़ जाते हैं। बाकी हर किसी को उस शिक्षा की मार से बचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

बहुत पहले बॉस्टन से निकलने वाली 'साइंस फॉर द पीपल' पत्रिका में देखी सामग्री के आधार पर हमने एक कार्टून बनाया था, जिसमें दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाओं पर टिप्पणी की गई है। एक है पारंपरिक या बहुतायत को मिल रही शिक्षा, जिसमें एक सजाधजा अध्यापक है, और सामने अनुशासित ढंग से छात्र बैठे हैं (उदास, खोए से) और अध्यापक कह रहा है - Answer the questions, pass the exams, your future is at stake -सवालों का जवाब सीखो, इम्तहान पास करो, तुम्हारे भविष्य का सवाल है।

दूसरी ओर एक मेरे जैसा दढ़ियल फटीचर है, जिसको छात्रों ने घेर रखा है और मैं कह रहा हूँ- Question the answers, examine your past, your present is at stake - जो जवाब हैं उनपर सवाल खड़े करो, अपने अतीत को परखो, तुम्हारा वर्त्तमान खतरे में है।

मैं फटीचर नहीं दढ़ियल ज़रुर हूँ।

अब दोस्तों, यह मत कहना कि कार्टून चिट्ठे में डालो। मैं देख रहा हूँ कि बाकी लोग मजेदार बातें लिखते रहते हैं मुझे कहाँ कहाँ फँसा देते हो।

Thursday, March 23, 2006

'शिक्षा' और 'विद्या'

'शिक्षा' और 'विद्या' में फर्क है। विद्या मानव में निहित ज्ञान अर्जन की क्षमता है, अपने इर्द गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया और इससे मिले सम्मिलित ज्ञान का नाम है। शिक्षा एक व्यवस्था की माँग है। अक्सर विद्या और शिक्षा में द्वंद्वात्मक संबंध होता है, होना ही चाहिए। शिक्षा हमें बतलाती है राजा कौन है, प्रजा कौन है। कौन पठन पाठन करता है, कौन नहीं कर सकता आदि। तो फिर हम शिक्षा पर इतना जोर क्यों देते हैं। व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों में एक यह है कि शिक्षा के औजार विद्या के भी औजार बन जाते हैं। जो कुछ अपने सीमित साधनों तक हमारे पास नहीं पहुँचता, शिक्षित होते हुए ऐसे बृहत्तर साधनों तक की पहुँच हमें मिलती है।

जब हम जन्म लेते हैं, बिना किसी पूर्वाग्रह के ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानने के लिए हम तैयार होते हैं। उम्र जैसे जैसे बढ़ती है, माँ-बाप, घर परिवार, समाज के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था हमें यथा-स्थिति में ढालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल वैकल्पिक कहलाता है। औपचारिक शिक्षा में भाषा हमारी भाषा नहीं होती, गणित हमारे अनुभव से दूर का होता है, परिवेश कृत्रिम होता है। औपचारिक शिक्षा धीरे धीरे हमें अपने आदिम स्वरुप से दूर ले जाती है और व्यवस्था की माँग के अनुसार ढालती है। साथ साथ अपने नैसर्गिक गुणों की ताकत से संघर्ष करते हुए उसी कागज कलम किताब अखबार रसालों की मदद से विद्या अर्जन करते हैं। युवावस्था में जब हम अपने जैविक स्वरुप में पूरी तरह विकसित होते हैं, 'शिक्षा' और 'विद्या' में संघर्ष तीव्र होता है। धीरे धीरे असुरक्षाओं से डरते हुए और समझौते करते हुए हम शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं और विद्या को अप्रासंगिक मानने लगते हैं। इसलिए कोई माँ-बाप बच्चों को संघर्ष के लिए सड़क पर उतरने को नहीं कहता और इसलिए बड़े हमेशा बच्चों से यही कहते हैं कि कि फलाँ पढ़ो और फलाँ बनो।

हमारा समय लोकतांत्रिक सोच के अस्तित्व के संघर्ष का समय है। शिक्षा का सवाल इससे अछूता नहीं रह सकता। जब हम शिक्षा के लिए उचित साधनों या आर्थिक निवेश की बात करते हैं या जब हम बेहतर लोगों के शिक्षा क्षेत्र में आने की बात करते हैं, हमारे ध्यान में यह भी होता है कि शिक्षा के औजारों का इस्तेमाल अधिक से अधिक विद्या के औजारों की तरह हो। शिक्षा की पद्धति में परिवर्त्तन की लड़ाई भी यही लड़ाई है। हर वह प्राथमिक शाला का शिक्षक जो यह माँग कर रहा है कि बच्चों को अनुशासन नहीं कहानी पढ़ना लिखना सिखाना है, वह यही लड़ाई लड़ रहा है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक, पेडागोजी से लेकर शोध तक हर स्तर पर यह संघर्ष है। जिन्हें आज की अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था से संतोष है, वे शिक्षा में सुधार से घबराते हैं। यह बात है तो अजीब - पर मेरा यह मानना है कि जब मैं एक विद्यार्थी को एक वैज्ञानिक सिद्धांत समझने के लिए स्वतः पुस्तकालय दौड़ने के लिए मजबूर करता हूँ तो मैं उसे देर सबेर हर कहीं यथा-स्थिति को मानने से इन्कार करने को मजबूर करता हूँ।

Tuesday, March 21, 2006

एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से

मुसीबत यह है कि एक तो शिक्षा व्यवस्था पर बहुत सारे लोगों द्वारा बहुत सारी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। दूसरी बात यह है कि हिंदी में टंकन की आदत न रहने की वजह से ब्लॉग पर विस्तार से कुछ लिख पाना मुश्किल है। मैंने समय समय पर आलेख लिखे हैं, पर कभी ऐसा शोधपरक काम नहीं किया जिसे गंभीर चर्चा के लिए पेश किया जा सके। मतलब यह है कि अनुभवों के आधार पर कुछ दो चार बातें कहनी एक बात है और वर्षों तक चिंतन कर विभिन्न विद्वानों की राय का मंथन कर सारगर्भित कुछ करना या कहना और बात है। जब उम्र कम थी तो हरफन मौला बनने में हिचक न थी। जहाँ मर्जी घुस जाते थे और अपनी बात कह आते थे। पर अब शरीर भी और दिमाग भी बाध्य करता है कि अपने कार्यक्षेत्रों को सीमित रखें। इसलिए शिक्षा व्यवस्था पर सामान्य टिप्पणियाँ या विशष सवालों के जवाब तो चिट्ठों में लिखे जा सकते हैं, पर विस्तृत रुप से लिखने के लिए तो अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ेगा (मुख्यतः समय सीमा को ध्यान में रखते हुए)।

प्रोफेसर कृष्ण कुमार की पुस्तकें गंभीर शोध पर आधारित हैं और गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण हैं। राज, समाज और शिक्षा से लेकर उनकी दूसरी पुस्तकों में शिक्षा व्यवस्था के 'व्यवस्था' पक्ष की गहरी चीरफाड़ है। जो जल्दी टंकन कर सकते हैं या जिनके पास स्कैनिंग की सुविधा उपलब्ध है (हिंदी में स्कैनिंग के बाद वर्ड प्रोसेसिंग का कोई तरीका है क्या?), वे इस दिशा में पहल उठा सकते हैं और ऐसी पुस्तकों में से प्रासंगिक सामग्री सबके लिए उपलब्ध कर सकते हैं। अगर मैं इस काम में पड़ गया तो भई थोड़ा बहुत भी जो गंभीर काम करता हूँ वह रुक जाएगा।

प्रतीक ने लिखा हैः "जहाँ तक विज्ञान शिक्षा का प्रश्न है; जब तक उसे पुस्तकों के पन्नों से निकाल कर प्रायोगिक तौर पर नहीं सिखलाया जाएगा, तब तक उसका कोई ख़ास मूल्य नहीं है।" बिल्कुल सही - मैं फिर एकबार पुरानी बात दुहराऊँगा कि हजारों लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं और जिन संस्थाओं का नाम मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा था, उन्होंने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई है।

प्रतीकः "मेरा मानना है कि मल्टीमीडिया कम्प्यूटिंग के ज़रिए विज्ञान की शिक्षा को विद्यार्थियों के लिए ज़्यादा सरलता से समझने लायक बनाया जा सकता है।"

खुशी की बात यह है कि इस बारे में पिछले एक दशक में ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों में बुनियादी परिवर्त्तन आया है और तकरीबन हर कोई प्रतीक से सहमत होगा। इसके पहले कई लोगों की राय यह थी कि टेक्नोलोजी कुल मिलाकर विपन्न वर्गों के खिलाफ है। अगर हम सावधान न रहे तो बिल गेट्स जैसे लोग सचमुच हमें बेवकूफ बनाते रहेंगे। इसलिए हर किसी को ओपेन सोर्स आंदोलन को गंभीरता से लेना चाहिए। यह समझना ज़रुरी है कि शिक्षा या स्वास्थ्य पर हर सौ रुपया खर्चने के पीछे गेट्स की मंशा लाख कमाने की है।

पर मल्टीमीडिया को निश्चित तौर पर वेट लैब के पूरक के रुप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 'पूरक के रुप में' - मैं दुबारा इस पर जोर दे रहा हूँ। हो यह रहा है कि पुराने वक्त में गरीब स्कूलों में भी हमलोगों ने जो प्रयोग किए हैं, आजकल अच्छे भले साधनों से युक्त स्कूलों में वे नहीं करवाए जा रहे हैं। जब प्रयोगशाला में गंभीरता से काम करने का पड़ाव यानी हाई स्कूल का समय आता है, अध्यापक, माँ बाप, हर कोई यही चाहता है कि किसी तरह पर्चों में अच्छे नंबर आ जाएँ। इसलिए सारा जोर कोचिंग और रटने पर होता है न कि प्रायोगिक शिक्षा पर। संपन्न घरों में मल्टीमीडिया का इस्तेमाल हो रहा है पर महज सूचना इकट्ठी करने के लिए। चूँकि इन सब बातों पर सैद्धांतिक स्तर पर बहुत कुछ लिखा जाता है, इसलिए अच्छा यह होगा कि लोग अपने अनुभव लिखें। शायद अनुगूँज पर अलग अलग अनुभव इकट्ठे हों तो उनमें से कुछ बात निकलेगी।

प्रतीकः "विज्ञान को रोचक और सरस तरीक़े से समझाने के मामले में रूसी किताबें लाजवाब हैं, ख़ासकर इस विषय पर मीर प्रकाशन की किताबें मुझे निजी तौर पर बहुत रोचक लगती हैं। बस दिक़्क़त यह है कि उनका अनुवाद काफ़ी क्लिष्ट होता है।"

एक जमाना था जब रूसी किताबें पानी के दर पर मिलती थीं। समाजवादी व्यवस्था का यह भी एक पक्ष है। हजार दो हजार नहीं रुस की साम्यवादी सरकार ने करोड़ों पुस्तकें दुनिया भर में मुफ्त बाँटी थीं। जो रुपए दो रुपए कीमत थी, वह स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टियों के खजाने भरने के लिए थी। फिर जब उनका आर्थिक ढाँचा चरमराया तो ये किताबें मुफ्त मिलनी बंद हो गईं। मजेदार बात यह है कि रुस से बाहर भी विज्ञान की सबसे लोकप्रिय किताबें रुसी भगोड़ों द्वारा लिखी गईं। जॉार्ज गैमो इनमें प्रमुख हैं। प्रतीक ने अनुवाद का महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है। मैंने अपने एक चिट्ठे में साहित्य अकादमी की 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित 'भाषा' शीर्षक कविताओं में से एक पोस्ट की थी। उसमें एक पंक्ति है - 'नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य।' मैं जब १९८८ में हरदा में एकलव्य संस्था में था तो वहाँ डिग्री कालेज के रसायनशास्त्र के शिक्षक ने प्रेम-प्रसंग में आत्म हत्या कर ली। अचानक आपात्कालीन स्थिति में मैंने केमिस्ट्री के २५ लेक्चर हिंदी में लिए। एकलव्य के दफ्तर में एक लड़का था जिसने उसी कालेज से बी एस सी डिग्री ली थी। एकबार मैंने पुस्तक में 'अनुदैर्ध्य' शब्द देखा, समझ में नहीं आया कि शब्द आया कहाँ से - उससे पूछा तो उसने गोलमोल जवाब दिया। बहुत सोच कर मैं समझा कि शब्द गलत छपा है और सही शब्द अनुदैर्ध्य नहीं अनुदैर्घ्य है। अनु यानी पीछा करने वाला - दैर्घ्य का पीछा करने वाला -longitudinal. मैं सोचता रह गया कि लड़के ने बी एस सी डिग्री ले ली, उसे यह भी नहीं पता कि शब्द गलत छपा है। ऐसे कई शब्द थे। एकबार मैंने reversible शब्द का अनुवाद देखा - उत्क्रमणीय और इसी तरह irreversible का अनुत्क्रमणीय। मैं उसी कालेज में हिंदी पढ़ा रहे शिक्षकों से पूछने लगा कि ये शब्द कहाँ से आए - किसी को नहीं पता था। फिर मैंने सोचा कि राष्ट्र और भाषा के जुनून में हम इतना आगे बढ़ जाते हैं कि सोचते तक नहीं कि हम अपना कितना नुकसान कर रहे हैं। हिंदी में शुद्धता के चक्कर में हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इस तरह पढ़ा रहे हैं जिस तरह अब इतिहास भी नहीं पढ़ाया जाता।
इसलिए कविता में मैंने लिखा था,

कहो
नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय
शब्दों को छुओ कि उलट सकें वे बाजीगरों सरीके
जब नाचता हो कुछ उनमें लंबाई के पीछे पीछे
विज्ञान घर घर में बसा दो
परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कहला दो

मेरे पिता साधारण श्रमिक थे, सरकारी गाड़ी चलाते थे। बचपन से ही उनको रीवर्स गेयर (गीयर) बोलते सुना था। मुझे नहीं पता कि कौन यह तय करता है कि अॉक्सीकरण शब्द हो सकता है पर रीवर्सनीय या रीवर्सिबल शब्द नहीं हो सकता है। या 'विपरीत संभव'। मैने हिंदी के कई बड़े लेखकों को लिखा है कि हिंदी में विज्ञान लेखन हिंदी भाषियों के खिलाफ षड़यंत्र है। मुसीबत यह है कि जैसे गाँव में पंचायत को पैसे मिले तो स्कूल पर नहीं लगते क्योंकि पंचों के बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते, इसी तरह विज्ञान के क्षेत्र में जिन हिंदी भाषियों की आवाज सुनाई पड़ सकती है वे सभी मंदिर मस्जिद तो ज़रुर जाएँगे पर हिंदी में क्या लिखा जा रहा है इस पर सोचने वाले नहीं हैं।

इसके विपरीत एक राय यह है कि अंग्रेज़ी में आम बोली में तकनीकी शब्दों का आना औद्योगिक विकास के साथ हुआ है, जिसमें कम से कम दो सौ साल लगे हैं, इसलिए हिंदी वाले भी एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से बोलेंगे।

उफ्, इन शब्दों को लिखते हुए भी जबड़े दुखने लग गए हैं।

Sunday, March 19, 2006

शिक्षा का स्वरुप कैसा हो?

इसके पहले कि इसका कोई जवाब ढूँढा जाए, यह जानना जरुरी है इस सवाल से बावस्ता सिर्फ उन्हीं का हो सकता है जो शिक्षा के क्षेत्र में रुचि के साथ आए हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि भारत में अन्य तमाम पेशों की तरह ही शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक भ्रष्टाचार है और भले लोगों की कम और फालतू के लोगों की ज्यादा चलती है। बी एड, एम एड में पढ़ाया बहुत कुछ जाता है, पर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी और हम जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। संस्थागत ढाँचों से बाहर शिक्षा पर बहुत सारा काम हुआ है। या संस्थानों से जुड़े ऐसे लोग जो किसी तरह संस्थानों की सीमाओं से बाहर निकल पाएँ हैं, उन्होंने शिक्षा में बुनियादी सुधार पर व्यापक काम किया है। आज इस चिट्ठे में मैं सिर्फ कुछेक नाम गिनाता हूँ ताकि जिन्हें जानकारी न हो वे जान जाएँ।

बीसवीं सदी में बुनियादी स्तर पर दो मुख्य वैचारिक आंदोलन हुए हैं। एक है गाँधी जी का शिक्षा दर्शन, जिसमें पारंपरिक कारीगरी को सिखाने पर बड़ा जोर है। दूसरा रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रकृति के साथ संबंध स्थापित कर उच्च स्तरीय शिक्षा का दर्शन है। दोनों की अपनी अपनी खूबियाँ और सीमाएँ हैं। व्यवहारिक स्तर पर समर्पित शिक्षकों द्वारा अपने क्षेत्रों में सीमित रहकर शिक्षा में सुधार के प्रयोग किए गए। इनमें गुजरात के गिजुभाई (मूँछोंवाली माँ) का नाम बहुत प्रसिद्ध है। गिजुभाई के आलेखों के हिंदी अनुवाद पुस्तिकाओं के रुप में उपलब्ध हैं। विज्ञान शिक्षा में एक अनोखा आंदोलन जबलपुर के पास पिपरिया नामक छोटे शहर से पाँचेक किलोमीटर दूर बनखेड़ी गाँव में अनिल सदगोपाल के नेतृत्व में किशोर भारती संस्था द्वारा शुरु किया गया था। मिडिल स्कूलों में लागू होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के नाम से प्रसिद्ध इस कार्यक्रम को बाद में एकलव्य संस्था वर्षों तक चलाती रही। इसके साथ ही प्राथमिक शिक्षा और सामाजिक विज्ञान शिक्षा के क्षेत्र में भी इस संस्था ने महत्तवपूर्ण काम किया। किशोर भारती के साथ जुड़े और बाद में स्वतंत्र रुप से काम कर रहे अरविंद गुप्ता ने सैंकड़ों खिलौने आविष्कार किए, जिनके जरिए विज्ञान और गणित शिक्षा रुचिकर और सार्थक बन सकती है। मांटेसरी समूह और अन्य कई संस्थाओं द्वारा किए जा रहे शोध को अरविंद ने इकट्ठा किया और कई किताबें लिखीं। विज्ञान शिक्षा पर मुंबई की टी आई एफ आर के साथ जुड़े होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन ने काफी शोध कर 'हल्का फुल्का विज्ञान' नामक पुस्तकें प्रकाशित कीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी एक साइंस एजुकेशन सेंटर है, जिसके अध्यक्ष भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर अमिताभ मुखर्जी हैं। ऐसे मुख्य स्रोतों से प्रेरित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में हजारों समर्पित लोग शिक्षा में बुनियादी सुधारों पर काम कर रहे हैं। इन सभी प्रयासों में आम बात यह है कि शिक्षा को रुचिकर, स्थानीय मान्यताओं और पारिस्थितिकी से संगत, सस्ती और व्यापक बनाया जाए। विशेष उदाहरणों पर बाद में विस्तार से चर्चा हो सकती है।

मतलब यह कि बुनियादी स्तर पर सुधार के लिए काम तो बहुत हुए हैं, चल भी रहे हैं, काफी हद तक एन सी ई आर टी जैसी राष्ट्रीय़ शिक्षा संस्थाओं ने इन सुधारों को पाठ्यक्रम में शामिल भी कर लिया है, पर व्यवहारिक सच है कि अधिकतर बच्चे सही और स्तरीय शिक्षा से वंचित हैं। यह मूलतः राजनैतिक प्रश्न है और इसका समाधान राजनैतिक ढंग से ही हो सकता है।

Friday, March 17, 2006

बाकी हर ओर अँधेरा

होली की पूर्व संध्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुआ। बड़ी दिक्कतें आईं। वैसी ही जैसी प्रत्यक्षा ने अपने चिट्ठे में बतलाई हैं। मैंने शुभेंदु से गुजारिश के उसे मनवा लिया था कि वह हमारे लिए एक शाम दे दे। उसका गायन आयोजित करने में मैं बड़ा परेशान रहता हूँ, क्योंकि भले ही दुनिया के सभी देशों में उसके कार्यक्रम हुए हैं, और भले ही जब शुभा मुद्गल को कोई चार लोग जानते थे, तब दोनों ने एकसाथ जनवादी गीतों का कैसेट रेकार्ड किया था, पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से बंदे ने गायन को धंधा नहीं बनाया है। और गायन जिनका धंधा है, जो हर दूसरे दिन अखबारों में छाए होते हैं, ऐसे शास्त्रीय़ संगीतकारों को भी जब युवा पीढ़ी बड़ी मुशकिल से झेलती है, तो निहायत ही अपने दोस्तों तक सीमित गायक, जो अन्यथा वैज्ञानिक है, ऐसे गायक को कौन सुनेगा। खास तौर पर जब उनके अपने छम्मा छम्मा 'क्लासिकल सोलो (!)' नृत्य के कार्यक्रमों की लड़ी उसके बाद होनी हो। इसलिए आयोजन में मेरा वक्त, ऊर्जा, पैसा सबकुछ जाया होता है। इसबार मुझे समझाया गया था कि यहाँ लोकतांत्रिक ढंग से सबकुछ होता है और छात्रों के आयोजन में मैं टाँग न अड़ाऊँ। तो भई हुआ यह कि समय से डेढ़ घंटा लेट और डेढ़ ही घंटा कुल गाकर शुभेंदु को रुकना पड़ा। माइक अच्छा नहीं था, फिर भी मजा आया। रंग-ए-बहार के मिजाज में पहले छोटा खयाल रसिया मैं जाऊँ न, फिर बहार राग में खुसरो का सकल बन फूल रही सरसो, ठुमरी ब्रिज में गोपाल होली खेलन और आखिर में कबीर का साईं रंग डारा मोरा सत्गुरु महाराज! आ हा हा! खुले मैदान में दखन के पठारों की ठंडी हवाएं, आसमान में पूरा चाँद और रंग-ए-बहार की मौशिकी! कोई सौएक लोग थे। बाकी पाँच सौ का हुजूम हमारे जाने के बाद आया जब क्लासिकल सोलो नृत्य की घोषणा के बाद छम्मा छम्मा शुरु हुआ। चलो हम भी कभी बेवकूफ हुआ करते थे। क्यों प्रत्यक्षा!

बाद में सबको विदा कर आधी रात पर मैं इंदिरानगर से लौट रहा था कि एक अद्भुत दृश्य देखा। ऐसा बचपन में देखा है कहाँ कब याद नहीं पर एकाधिक बार देखा है। संभवतः छत्तीसगढ़ से आए मजदूर थे। सड़क के किनारे झुग्गियों के पास मर्द गोल बैठे हुए और औरतें गोलाकार वृत्त में हल्के लय में झूम झूम कर नाचती हुईं। वे दो कदम आगे की ओर बढ़ कर झुकतीं और हाथों पर हाथ जोड़कर हल्की सी तालियाँ बजातीं, दूसरे दो कदमों पर कमर लचकाती हुईं पीछे की ओर उठतीं। चाँद बिल्कुल ऊपर था, बाकी हर ओर अँधेरा, और एकबार मुझे लगा कि मैं सचमुच जैसे स्वर्ग में हूँ। पर मैं चलता चला जैसे मेरे रुकने से वह सुंदर नष्ट हो जाता। उनकी गरीबी का खयाल कर अंदर से दर्द की
एक टीस उठी।

बाकी हर ओर अँधेरा।

होली मैं वैसे भी नई जगह में क्या खेलता और चूँकि अगले दिन भाषण देना था और बिल गेट्स के पावर प्वाइंट से मुझे चिढ़ है, इसलिए लेटेख और बीमर का इस्तेमाल कर पी डी एफ में विषय-वस्तु तैयार करने में सारा दिन लगा दिया।

बहुत पहले कभी होली पर कविता लिखी थी, अप्रकाशित हैः

होली है

भरी बहार सुबह धूप
धूप के सीने में छिपे ओ तारों नक्षत्रों
फागुन रस में डूबे हम
बँधे रंग तरंग
काँपते हमारे अंग।

छिपे छिपे हमें देखो
सृष्टि के ओ जीव निर्जीवों
भरपूर आज हमारा उल्लास
खिलखिलाती हमारी कामिनियाँ
कार्तिक गले मिल रहे
दिलों में पक्षी गाते सा रा सा रा रा।

रंग बिरंगे पंख पसारे
उड़ उड़ हम गोप गोपियाँ
ढूँढते किस किसन को
वह पागल
हर सूरदास रसखान से छिपा
भटका राधा की बौछार में

होली है, सा रा सा रा रा, होली है।

(१९९२)

शुभेंदु ने जो ठुमरी गाई, उसमें देर तक गोपाल होली खेलते रहे, राधा याद नहीं आई या नहीं, युवाओं की यह भी तो प्रोब्लेम है न!

Thursday, March 16, 2006

अनुनाद की सिफारिश पर

अनुनाद ने टिप्पणी लिखी तो मन खुश हो गया। एक तो अरसे से अनुनाद की टिप्पणी पढ़ी न थी। दूसरे छेड़ा भी तो बिल्कुल निशाने पर तीर क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को लेकर ही मैं वैचारिक रुप से सबसे ज्यादा पीड़ित हूँ। वैसे इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन क्षेत्रों पर कोई विशेष शोध कर रहा हूँ। कर ही नहीं सकता। न वक्त न साधन। इन दो क्षेत्रों की सच्चाइयाँ इतनी स्थूल हैं कि भयंकर शोध की ज़रुरत भी नहीं दिखती। इसलिए सबसे पहले तो मैं अपने एक पुराने चिट्ठे में लिखी लाइनें दुहराता हूँ (आँकड़े तकरीबन सही हैं, पर जिन्हें नुक्ताचीनी करनी है, वे करते रहें, बड़ा सच तो सच ही रहेगा, चाहे ३.२% का आँकड़ा ३.३% बन जाए)

**************दिसंबर के चिट्ठे से************
भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः-

१) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है।
२) राष्ट्रीय बजट का ४०-४५% सुरक्षा के खाते में लगता है, जबकि शिक्षा में मात्र १०-११% ही लगाया जाता है (यह तथ्य शिक्षा और स्वास्थ्य पर होती आम बहस में नहीं बतलाया जाता यानी कि एक भयंकर बौद्धिक बेईमानी और षड़यंत्र।)। इसलिए सवाल यह नहीं कि प्राथमिक और उच्च शिक्षा में लागत का अनुपात कितना है, दोनों ही में ज़रुरत से बहुत कम पैसा लगाया गया है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की सबसे शर्मनाक बातः-

अफ्रीका के भयंकर गरीबी से ग्रस्त माने जाने वाले sub-सहारा अंचल के देशों में भी शिक्षा के लिए निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के पैमाने में भारत की तुलना में अधिक है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के बारे में दो सबसे बड़े झूठ:-

१) समस्या यह है कि हमने बहुत सारे विश्वविद्यालय खोल लिए हैं।
२) हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा बहुत सस्ती है।

शिक्षा में जो सीमित संसाधन हैं भी, उनके उपयोग का स्तर अयोग्य और भ्रष्ट प्रबंधन की वजह से अपेक्षा से कहीं कम हो पाता है। खास कर, नियुक्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार है।
वैसे बिना तुलनात्मक अध्ययन किए लोग, खास तौर पर हमारे जैसे सुविधा-संपन्न लोग, जो मर्जी कहते रहते हैं; कोई निजीकरण चाहता है, कोई अध्यापकों की कामचोरी के अलावा कुछ नहीं देख पाता। पश्चिमी मुल्कों से तो हम लोग क्या तुलना करें, जरा चीन के आँकड़ों पर ही लोग नज़र डाल लें (हालाँकि चीन के बारे में झूठ सच का कुछ पता नहीं चलता)। साथ में शाश्वत सत्य ध्यान में रखें - पइसा नहीं है तो माल भी नहीं मिलेगा। अच्छे अध्यापक चाहिए तो अच्छे पैसे तो लगेंगे ही। अच्छे लोग आएंगे तो भ्रष्टाचार भी कम होगा। राजनैतिक दबाव के आगे भी अच्छे लोग ही खड़े हो सकते हैं।

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आज ही अपने आई आई टी के अध्यापक प्रोफेसर सत्यमूर्ति जो हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी आए थे और जो राष्ट्रीय विज्ञान संरचना में काफी पहुँचे हुए व्यक्ति हैं, उनसे बात हो रही थी। उनका मानना है कि भारत में शोध कार्य कर रहे लोगों की भयंकर कमी है। पी एच डी प्राप्त करने वालों की कुल संख्या रैखिक पैमाने पर बढ़ रही है और रेखा की ढलान कम होती जा रही है। इसके विपरीत चीन में यह संख्या exponentially बढ़ रही है। २००८-०९ तक भारत में साल भर में पी एच डी करने वालों की संख्या ५००० होगी जबकि यही संख्या चीन में १४००० होगी।
अनुनाद ने छेड़ तो दिया पर यह विषय इतना बड़ा है कि झट से लिखना संभव नहीं है। मसलन क्या पी एच डी करने वालों की संख्या और शोध कार्य के स्तर में कोई संबंध है। आज हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में ही केमिस्ट्री के कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों के लिए रीफ्रेसर कोर्स में भाषण देने के बाद जब किसी ने मुझसे सवाल नहीं पूछा तो हारकर मैंने यही कहा कि संभवतः मैं बहुत ही बेकार वक्ता हूँ। मेरे अध्यापक सत्यमूर्ति जो स्नेहवश मेरे भाषण में बैठे हुए थे उन्होंने जरा बहस छेड़ने की कोशिश की तो भी बस मेरे और उनके बीच संवाद होता रहा। पर मैं जानता हूँ कि कलकत्ता में कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों के सामने बोलने पर बिल्कुल अलग अनुभव होता है। प्रोफेसर सत्यमूर्ति का कहना था कि यहाँ के साधारण कालेज और यूनीवर्सिटी में केमिस्ट्री पढ़ाने का स्तर वैसा है नहीं जैसा कलकत्ता में है। यानी कि डिग्री चाहे एक हो, स्तर में बड़ा अंतर है। चीन के सालाना १४००० पी एच डी कैसे होंगे क्या पता, पर मेरा मानना है कि वे औसतन इतने बेकार न होंगे जितने हमारे यहाँ हैं। इसकी वजह विशुद्ध राजनैतिक है। चूँकि हमारे देश में वर्ग और जाति के आधार पर अभी भी जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से को शिक्षा से अलग रखा गया है, इसलिए हमारी डिग्रियों का औसत स्तर कभी भी बहुत अच्छा नहीं होगा। पंजाब विश्वविद्यालय में काम करते हुए मैंने देखा है कि उच्च शिक्षा में वर्ग, संप्रदाय और जाति के आधार पर कैसा व्यापक भ्रष्टाचार है। आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए, क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का बड़ा हिस्सा in-bred यानी कि उसी संस्थान में पढ़ा लिखा हुआ मिलेगा। ऐसे अध्यापक निहित स्वार्थ समूह की तरह विश्वविद्यालय की राजनीति पर हावी रहते हैं। इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, सब कुछ ही भ्रष्ट तरीके से हुई होती है और इसमें अक्सर उन तथाकथित अच्छे लोगों का हाथ होता है जिन्होंने सब कुछ जानते हुए भी निहायत ही छोटी छोटी सुविधाओं के लिए क्षमता होते हुए भी गलत बातों का विरोध नहीं किया होता है।

यानी कि संसाधनों का अभाव, वर्ग-जाति-संप्रदाय आधारित समाज व्यवस्था, घटिया राजनीति - ये क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के पतन के मुख्य कारण हैं। इनसे अलग स्तरीय शिक्षा के जो थोड़े बहुत द्वीप (आई आई टी, आई आई एस सी या केंद्रीय विश्वविद्यालय) हैं, वहाँ या तो फीस बहुत अधिक है या वह सांस्कृतिक कारणों से देश की अधिकतर जनता की पहुँच से दूर हैं।

चीन में गलत तरीके से ही सही, एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था है, जिसके तहत देश की अधिकांश जनता को स्तरीय स्कूली शिक्षा मिलती है। इसी शिक्षित तबके में से ही चुनींदा लोग उच्च शिक्षा के लिए आते हैं और उनकी नियुक्ति या पदोन्नति में भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत बहुत कम है। इसलिए दोस्तो, हम चीन को पकड़ लेंगे जैसा झूठ जो हमें पिलाते रहते हैं, उनके प्रति हमें सावधान रहना चाहिए। शोध के स्तर में उनकी तरक्की वास्तविक है, यह अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में उनकी लगातार बढ़ती हिस्सेदारी से स्पष्ट है। इसका नतीजा यह होगा कि कुछ ही वर्षों में जब हम अपने सॉफ्टवेयर कुलियों पर गर्व करते रहेंगे, चीन की होड़ हमसे कहीं आगे पश्चिमी मुल्कों और जापान से हो रही होगी। कुछेक अपवादों को छोड़ कर, हमारे आई टी क्षेत्र के हजारों लोग काल सेंटर्स में पश्चिमी ग्राहकों के सवालों के जवाब देते रहेंगे। चीन के वैज्ञानिक और इंजीनीयर नई तकनीकों को विकसित कर रहे होंगे, जिनपर हमारे सॉफ्टवेयर कुली भाड़े के टट्टुओं जैसे काम कर रहे होंगे।
अनंत सवाल बाकी रह गए। इन पर फिर कभी।

Monday, March 13, 2006

गोलकंडा की थकान और एक अच्छे मित्र से मिलना

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की जो हमलोग कालेज के जमाने में पढ़ते थे?

वह धूप कुछ और है - उसका जिक्र आखिर में करुँगा। यहाँ जिस धूप की बात है वह वैसे तो अच्छी लगती है पर उस दिन इस निगोड़ी धूप ने थका ही दिया। गर्मियों में गणनात्मक यानी कंप्यूटेशनल भौतिक और जैव विज्ञान पर एक कार्यशाला करनी है - उनके पोस्टर बनवाने के सिलसिले में शहर गया था। वहाँ से लौटते हुए रास्ते में मेंहदीपटनम शुभेंदु की माताजी से दो मिनटों के लिए मिलने पहुँचा कि शुभेंदु की अनुपस्थिति में सब ठीक है कि नहीं - पता चला शुभेंदु आ पहुँचा है। फिर अभिजित का फ़ोन आ गया कि कानपुर से आए मित्र को शहर घुमाने ला रहा हूँ साथ चलो। मेरी क्लास नहीं थी तो कहा चलो एक दिन घूमना सही।

पहले सलारजंग संग्रहालय गए। करीब एक घंटा लगाया। पहले दो चार बार हैदराबाद आया हूँ सलारजंग देखा नहीं था। सुना बहुत था। पर देखकर इतनी बड़ी बात लगी नहीं जितना सुना था। बहरहाल राज-रजवाड़ों में से किसी का निजी संग्रह इतना विशाल हो, बड़ी अच्छी बात है। फार ईस्ट यानी जापान से लाए उन्नीसवीं सदी के बर्त्तनों का शिल्प कार्य देख रहे थे कि पाँच बज गए। फिर वहाँ से चारमीनार का चक्कर लगाकर गोलकंडा के लिए रवाना हुए। आम बोली में कहते गोलकोंडा हैं, पर मैं फिलहाल गोलकंडा ही लिख रहा हूँ। दखनी में कैसे कहते हैं पता लगाऊँगा। रास्ते में पश्चिम से आ रही धूप झेलता रहा तो पहुँचने तक सिर दर्द शुरु हो गया था।

गोलकंडा का किला और अमिताभ बच्चन की आवाज में साज और आवाज का कार्यक्रम पहले देख सुन चुका था। फिर भी दुबारा देखना अच्छा ही लग रहा था। किले की सैर करते हुए अभिजित से कई नई बातें पता चलीं। कहाँ घुड़साल थी, कहाँ भर्त्ती होने आए सैनिकों को २४० किलो का वजन उठाने को कहा जाता था। मैंने भी कोशिश की (हास्यास्पद रुप से असफल) और अपने एक पुराने सिद्धांत को दुहराता रहा कि यह सब झूठ है कि पुराने लोग हमलोगों से ज्यादा ताकतवर होते थे - आखिर भोजन में पोषक तत्व आज के जमाने में ज्यादा हैं, पर किसी ने न सुना।

साज और आवाज कार्यक्रम के लिए गए तो वहाँ मराठी किशोर किशोरियों का एक विशाल झुंड दो तिहाई सीटें घेर कर बैठा हुआ था। उनका शोरगुल हँसी मजाक रुका नहीं और हमलोग सफेद बालों वाले कुछ आह्लादित और कुछ दुःखी मन से उन्हें झेलते रहे। लगातार कीट निरोधक धुँआ फैलाकर मच्छरों को भगाने की कोशिश की गई, जिससे हर कोई परेशान था, पर मच्छर सचमुच इससे कम हुए। इन किशोरों के व्यवहार से मुझे अपने कालेज के दिनों की एक बात याद आ गई, जिसे सोचकर मैं आज भी शर्मिंदा होता हूँ। १९७५ में प्रेसीडेंसी कालेज की ओर से शैक्षणिक यात्रा में हमलोग दक्षिण भारत गए थे। हम इक्कीस छात्र छात्राएँ द्वितीय श्रेणी के कोच में और हमारे अध्यापक पहली श्रेणी के कोच में थे। रास्ते में बेसुरा गा गाकर हम लोगों को परेशान करते जा रहे थे, हालाँकि उनदिनों हमलोग रवींद्र संगीत ही ज्यादा गाते थे, जो बेसुरा गाए जाने पर कम से कम ध्वनि प्रदूषण की दृष्टि से रॉक म्युज़िक या फूहड़ हँसी मजाक से अपेक्षाकृत ज्यादा झेला जा सकता है। बहरहाल साढ़े नौ बजे थे तो एक बुजुर्ग ने कह दिया अब सो जाओ। हममें से कुछ ने ध्यान दिया कुछ ने नहीं।
मैंने उस व्यक्ति को सुबह अजीबोगरीब ढंग से दोनों पैर पीछे की ओर उछालते हुए कसरत करते हुए मंजन करते देखा था। पता नहीं इसी वजह से या किस तरह मेरे मुँह से निकल गया - पागल है यार!
मैंने तो कह दिया, सामने बैठा एक युवक अचानक आँखें लाल करते हुए बोला - गाना गा रहे हो गाओ, गाली मत दो। मैं भी अड़ गया - आपके कोई लगते हैं क्या? (सचमुच मैंने यह सवाल किया था - प्रमाणित हुआ कि मैं एक बेवकूफ था - QED)। बात बढ़े इसके पहले हमारे साथ आईं एम एस सी पढ़ रही दो दीदियों ने मुझे बैठा दिया (ओ, अनसूया दी, इतना अच्छा गाती थी - वह कहानी फिर कभी)।
बहरहाल उस दिन गोलकंडा में मुझे अपने किशोरावस्था की वह बात याद आती रही। मुझे मराठी आती नहीं, पर थोड़ा बहुत समझ ही लेते हैं, उससे यह तो लगा कि हमारे समय जैसा संकोच अब किशोरों में नहीं है, लड़के लड़कियाँ आपस में काफी कुछ बतिया लेते हैं चाहे हमारे जैसे के में एच पास बैठे हों।

वहाँ से बढ़ी हुई थकान और सिरदर्द सहित लौटकर कहीं खा पीकर मित्र को स्टेशन पर छोड़कर मैं और अभिजित ग्रैंड काकातिया होटल में रवि से मिलने गए। रवि मेरे पहले चिट्ठों में चर्चित मीरा नंदा का पति है। पहली बार उससे मिला। इसके पहले ई-मेल पर ही संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। काफी देर बातचीत हुई। रवि एक ज़माने में पी पी एस टी (पीपुल फार पेट्रियाटिक साइंस ऐंड टेक्नोलोजी) के साथ जुड़ा रहा है। पुराने कई दोस्तों का लेखा जोखा लेते रहे। रवि कहता रहा कि दुनिया कितनी छोटी है। वहाँ होटल में चारों ओर फैले प्राचुर्य को देखकर वह बार बार परेशान हो रहा था कि किस भारत में बैठे हैं। थोड़ी देर पहले वह स्थानीय बिज़नेस स्कूल में डिनर कर लौटा था। वहाँ भी खूब शानो शौकत थी। उसका कहना था कि ऐसा तो अमरीका में भी नहीं दिखता।

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की!

वैसे अबतक मेरा सिरदर्द ठीक हो चुका था। धूप को बीते पाँच छः घंटे हो चुके थे। रवि इन दिनों कने(क्)टीकट में इंजीनियर है। कंपनी के काम से बंगलौर हैदराबाद आया था। अभिजित को घर से बुलावा आ गया और वह चला गया। मैं काफी देर तक कुछ निजी समस्याओं पर बातें करता रहा।

दिल्ली से चलने से पहले रवि ने एकबार फ़ोन किया। मुझे लगा मैंने ही नहीं उसने भी सोचा कि एक अच्छा मित्र बनाया।