('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख)
'मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती' - मिर्ज़ा ग़ालिब
'काल, तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ' -शमशेर बहादुर सिंह; हिन्दी कवि
'मैं जा सकता हूं/जिस किसी सिम्त जा सकता हूं/ लेकिन क्यों जाऊं?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय, बांग्ला कवि
'लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर
हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी
हमारी हर सोच जीवन-केंद्रिक है, पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों-कलाकारों ने जितना सृजन किया है, उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति-सापेक्ष होती हैं, यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है, देर-सबेर हम सब को मौत का सामना करना है, और मरने पर हम निष्क्रिय हो जाते हैं। प्रकृति में किसी भी जीव तक काल की पहुंच है, और फिर भी हम किसी भी संभव तरीके से इससे बचना चाहते हैं। जाहिर है, सवाल उठता है - हम मरते क्यों हैं? बढ़ती उम्र के साथ होने वाली बीमारियों और उनसे निजात पाने के तरीकों पर हो रहे वैज्ञानिक शोध में हाल के दशकों में तेजी से तरक्की हुई है, पर साथ ही चूँकि बुढ़ापा हर किसी को नापसंद है और हर कोई लंबी उम्र तक दुरुस्त जीना चाहता है, इसलिए इस तरक्की के दावे भी धड़ल्ले से होते चले हैं। बेशक आधुनिक सेहत-सुविधाओं और चिकित्सा से पिछली सदी में दुनिया भर में इंसान की औसत आयु लगातार बढ़ती रही है और डेढ़ सौ सालों में इसमें सौ फीसद से ज्यादा का इजाफा हुआ है। दक्षिण एशिया में भी आज औसत उम्र 70 साल से ऊपर है, जब कि आज़ादी के वक्त यह महज 32 साल ही थी। ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष और इस दौर के एक प्रमुख जीव-विज्ञानी और नोबेल पुरस्कार विजेता वेंकी रामकृष्णन ने हाल में 'हम क्यों मरते हैं: उम्र बढ़ने का नया विज्ञान और अमरता की खोज' शीर्षक किताब लिखी है, जिसमें वे उम्र बढ़ने और आखिर में मर जाने की इस चिरंतन पहेली को समझने के लिए आधुनिक विज्ञान में क्या और कैसे प्रयास किए गए हैं, इसकी कहानी विस्तार से बताते हैं।1
जैविक प्रक्रियाओं में शामिल अणुओं के आकार-प्रकार और उनमें होते बदलावों की जटिलता को किसी भी ऐसे संगठित ढाँचे में चल रही हरकतों से समझा जा सकता है, जो वक्त के साथ फलता-फूलता है और आखिरकार कभी ख़त्म हो जाता है। मसलन अतीत की सभ्यताओं में शहरों के लोग यह मानते रहे कि वे स्थाई रूप से बस गए हैं, पर हम जानते हैं कि वक्त के साथ वे विलुप्त हो गए। चूँकि एक शहर का मिट जाना एक सामूहिक अंत होता है, हम इसे अपने निजी जीने-मरने जैसा नहीं सोच सकते। दरअसल जैसे किसी नगर में वक्त के साथ आम जोड़-तोड़ चलते रहते हैं, शहर फिर भी जीता रहता है, उसी तरह इंसानी जिस्म में भी अलग-अलग अंगों में बीमारियाँ होती हैं तो वह पूरे जिस्म की मौत नहीं होती। पर एक दिन ऐसा कुछ होता है कि शरीर के तमाम अंग वाक़ई काम करने में नाक़ाबिल हो जाते हैं और हमारा अंत हो जाता है, जैसे कि इतिहास में नगरों में बसी सभ्यताओं के साथ हुआ, जब अचानक ही जंग-लड़ाई या किसी कुदरती आफत की वजह से वे ख़त्म हो गए। जिस्म तंतुओं, कोशिकाओं से बना है, और हर कोशिका में अपना संगठित ढाँचा है। छोटे-बड़े अणु हैं, जिनका काम तय है और जब ये अपना काम नहीं कर पाते तो बीमारियाँ होती हैं। जीवन-मृत्यु का विज्ञान इन अणुओं की कहानी है, जैसे किसी शहर का बने रहना वहाँ की तमाम सुविधाओं की दुरुस्ती पर निर्भर होता है। जब चारों ओर ऐसे विषयों पर बहुत अधिक बकवास चल रही है, वेंकी जैसे क़ाबिल शख्स से विज्ञान की सही जानकारी पाना काफी आश्वस्त करने वाला है। हालाँकि सफल पेशेवर वैज्ञानिक दार्शनिक या इतिहासकार नहीं होते, पर आम लोगों के लिए अपने तजुरबों पर लिखते हुए वे अक्सर खोज के संदर्भों और विज्ञान की तार्किक संरचनाओं को खूबसूरती से पेश करते हैं और हमें यक़ीन दिलाते हैं कि विज्ञान में चल रहे शोध की ताज़ा-तरीन कहानियाँ भी आम बोली में कही जा सकती हैं। इस प्रक्रिया में, वह हमें यह भी बताते हैं कि विज्ञान कैसे किया जाता है। उनके शब्दों में, "...लोग अपनी जिज्ञासाओं से प्रेरित होते हैं, और एक बात दूसरी किसी बात तक ले जाती है… प्रयोगों में दृढ़ता, अंतर्दृष्टि, प्रतिभा और दूरदर्शिता की अहमियत होती है, लेकिन साथ ही यह अचानक होती खोजों और सरासर क़िस्मत का भी खेल है।"
यह सामान्य ज्ञान है कि जैविक विकास के सिद्धांत और इसकी मुख्य खासियतों - कुदरती चुनाव और अनुकूलन, के बिना जीवों की दुनिया के बारे में कुछ भी समझ में नहीं आता है। पर यह बात हर कोई नहीं जानता है कि विकास यह भी बताता है कि जीवन के अणु - डी एन ए, आर एन ए, प्रोटीन और बाकी कोशिकी ताम-झाम, कैसे बने, और इन सबके पीछे का मक़सद क्या है। ज़िंदगी कब तक है और कितनी दुरुस्त है, यह हमारे जीन्-स में तय है, और ये जीन, हर कोशिका की नाभि में मौजूद डी एन ए में, कड़ियों में गुँथे हैं। एक साथ इन्हें हम जीनोम कह देते हैं। कोशिकाएँ बँटती-सँवरती रहती हैं और नई बनी कोशिकाओं में सारा जीनोम आ जाता है। कुछ कोशिकाएँ हमारे जीते-जी नया जीवन बनाने, यानी प्रजनन के काम आती हैं। ये जो भ्रूण से बढ़ती हुई पूरा एक नया प्राणी बन जाती हैं, इन कोशिकाओं में क्या खास हो सकता है? मानो ये कोशिकाएँ जीवन की घड़ी को वापस शून्य तक ले आती हैं और फिर से एक नए प्राण में टिक-टिक की रफ्तार से उम्र बढ़ती चलती है। इसी सवाल से बढ़ती उम्र के साथ होती समस्याओं को पलटने यानी बुढ़ापे को रोकने पर शोध के सिरे जुड़े हुए हैं। अगर कुदरत के इस खेल को हम जान लें और इस पर पूरा नियंत्रण हमारे हाथ आ जाए, तो शायद हम बूढ़े होने से बच जाएँ? पिछले दो सौ सालों में जो वैज्ञानिक ऐसे सवालों से जूझ रहे हैं, उनकी ज़िंदगियों के दिलचस्प किस्से हैं, जिनमें से कइयों पर वेंकी ने लिखा है। मसलन समाजवादी वैज्ञानिक जे बी एस हॉल्डेन अपने आखिरी सालों में भारत के नागरिक होकर यहीं बस गए थे। तक़रीबन सौ साल पहले रोनाल्ड फिशर के साथ मिलकर उन्होंने एक इंकलाबी खयाल पेश किया था। विकास के सिद्धांत मुताबिक कोशिका में अणुओं में हानिकारक बदलाव (म्यूटेशन) हों तो सफाई का काम कर रहे दूसरे अणु उन्हें कचरा बनाकर जिस्म से बाहर फेंक देते हैं। इस तरह ऐसे बदलावों से बचकर प्रजनन में अगली नस्ल की दुरुस्ती तय रहती है। पर बढ़ी उम्र में जब कुदरत हमें प्रजनन की हरकत के क़ाबिल नहीं रखती, तब ऐसे बदले अणु फेंके न जाते होंगे। इन पड़े रह गए बदले हुए जीन वाले अणुओं से सेहत पर होते नुकसान, यानी बुढ़ापे में होती बीमारियों में इनकी भागीदारी के बारे में हाल में ही हम जान पाए हैं (जैसे हंटिंगटन की बीमारी, जिसमें ज़ेहन की कोशिकाएं कमज़ोर पड़ जाती हैं)।
यह धारणा कि केवल इंसान ही मृत्यु को समझ सकते हैं, एक सीमित सोच है, जो इंसान ने गढ़ ली है। जानवर भी उतना ही मृत्यु का अनुभव करते हैं जितना हम करते हैं और उम्र बढ़ने के बारे में हमारी अधिकांश समझ चूहों जैसे जानवरों पर किए गए शोध पर आधारित है। फलों पर मँडराती छोटी मक्खियों और तरह-तरह के केंचुए जैसे कीड़ों पर भी कई प्रयोग किए गए हैं। इस तरह चुने गए खास जानवरों पर शोध दिलचस्प बातें सामने आती हैं। छिपकली की पूँछ कट जाए तो वह वापस आ जाती है, यह हर कोई जानता है, पर ऐसा हाइड्रा जैसे और भी जानवरों के साथ होता है। एक तरह की जेली-फिश, जिसे अमर जेली-फिश कहा जाता है, बुरी तरह घायल होने पर अपनी तरुणाई की पहले के हाल में वापस लौट जाती है और इस तरह उसका जीवन फिर से शुरू हो जाता है। ये और दीगर जानवर कुदरती सीमाओं से कैसे जूझते हैं, यह समझ मिल जाए तो हमें अपनी दुरुस्ती क़ायम रखने के तरीके ढूँढने में मदद मिल सकती है। एक बात जो आम तौर पर इंसान समेत सभी जानवरों पर लागू होती है, वह यह है कि अगर हम भोजन में कैलोरी की मात्रा कम करें तो उम्र लंबी होने की संभावना बढ़ती है। ज़िंदा रहने के लिए कितनी कैलोरी की खपत हम कर सकते हैं, इस पर प्रयोगों से तरह-तरह के समीकरण पाए गए हैं। औसतन जैविक हरकतों में खपती ऊर्जा (मेटाबोलिज़्म) की दर जिस्म के वज़न के साथ दो-तिहाई के घात (पावर) का समीकरण बनाती है, यानी अगर वज़न आठ गुना बढ़ता है तो मेटाबोलिज़्म की दर चार गुने बढ़ेगी। संजोग ऐसा है कि इंसान समेत स्तनपायी जानवरों में जीवन काल में दिल की धड़कन तक़रीबन डेढ़ करोड़ तक होती है। औसत आयु में बढ़त के साथ यह संख्या भी बढ़ी है। गौरतलब बात यह है कि इससे एक नया समीकरण जीवनकाल और जिस्म के वज़न का बनता है। बहुत कम वज़न (1 कि.ग्रा.) के प्राणियों को छोड़ दें तो यह लगभग सभी के लिए सही बैठता है और इसके मुताबिक हमारी कुदरती आयु की तुलना में हम तीन-चार गुना ज़्यादा ही जी रहे हैं। बहरहाल हमारी उम्र आज की सीमा, यानी सौ साल, से और कितनी आगे बढ़ सकती है, इस पर बहस जारी है। पश्चिमी मुल्कों में, यानी बेहतरीन सेहत-सुविधाओं के साथ 100 साल से ज़्यादा की उम्र अब कोई अजूबा नहीं है। 100 साल तक की उम्र के तो कई लोग मौजूद हैं। पर औसत आयु में बढ़त हाल के सालों में कम हुई है, खास कर कोरोना महामारी के दौरान यह कमी दर्ज़ हुई। पर इसके पहले से ही ऐसा लगने लगा है कि हम 120 तक की कुदरती सीमा में बँधे हैं। साल 2001 में बुढ़ापा रोकने पर शोध करने वाले वैज्ञानिक स्टीवेन आउस्टाड ने साथी वैज्ञानिक एस जे ओलशांस्की के साथ डेढ़ सौ डालर की एक बाजी रखी कि तब (2001) धरती पर जी रहे इंसानों में से कोई एक, डेढ़ सौ की उम्र तक जिएगा। इस उम्मीद की बुनियाद शोध में तेजी से हो रही तरक़्क़ी है। खास तवज़्ज़ो इस बात पर है कि डी एन ए अणुओं को जिन भी वजहों से नुकसान पहुँचता है, उसकी मरम्मत करने वाले अणुओं की पहचान हो और उनकी तादाद कोशिकाओं में बढ़ाई जाए। इसी तरह क्रोमोज़ोम के अंत में पाए जाने वाले कुछ दुहराते जीन, जिन्हें टेलोमीयर कहा जाता है, उन पर भी काम चल रहा है, क्योंकि यह पाया गया है कि दुरुस्त कोशिकाओं में डी एन ए में टेलोमीयर जिस आकार के होते हैं, बँट चुकी कोशिकाओं में वे उससे छोटे हो जाते हैं। दूसरी ओर शरीर में चल रही प्रक्रियाओं पर सर्वांगीण दृष्टि से यह अब हर कोई मानता है कि हल्के स्तर की जिस्मानी कसरत से लंबी उम्र तक बेहतर दुरुस्ती क़ायम रहती है और जीवन-काल भी कुछ हद तक बढ़ता है। भविष्य में कभी बुढ़ापे की बीमारियों से निजात पाना मुमकिन होगा सोचकर कई लोगों ने मृत्यु के बाद अपनी देह को बहुत कम तापमान पर जमाकर रख दिया है, पर क्रायो-निक्स (कम तापमान का विज्ञान) नामक इस तकनीक को अभी तक वैज्ञानिक नहीं माना जाता। लब्बो-लुबाब यह कि बुढ़ापे की बीमारियों पर पहले से कहीं ज़्यादा बेहतर जानकारी आज मिल चुकी है, पर अब तक की बेहतरीन सेहत-सुविधाओं की मदद से उम्र की ऊपरी सीमा ज़्यादा से ज़्यादा पंद्रह साल बढ़ाई जा सकती है और यह भी महज अनुमान है। ज़ेहन की पुरानी कोशिकाओं की जगह नई कोशिकाएँ बड़ी धीमी गति से बनती हैं और इसलिए जल्दी ही उम्र के साथ कमज़ोर पड़ती याददाश्त में कोई बेहतरी होना दिखता नहीं है। यह तय है कि बुढ़ापे से वापस लौटकर उम्र कम कर पाना यानी फिर से जवान होना नामुमकिन है, भले ही मुनाफाखोर ऐंटी-एजिंग इंडस्ट्री ऐसे ऊल-जलूल दावे करती हो।
हाल में सूचना टेक्नोलोजी और कृत्रिम बुद्धि (ए आई – आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस) में निवेश से बड़ी जल्दी धनी हो गए लोगों की एक जमात है जो हमेशा के लिए अपनी ऐयाश ज़िंदगी जीना चाहते हैं। इन्होंने बुढ़ापे पर शोध के लिए उदारता से पैसे लगाए हैं। ए आई का बुनियादी सवाल मशीन में इंसान जैसी चेतना लाने का है, जो मूलत: संज्ञान यानी कॉग्निशन का सवाल है, और बढ़ती उम्र के साथ इंसान के ज़ेहन में बदलाव के तार भी इसी सवाल से जुड़े हैं। विज्ञान अपनी रफ्तार से चलता रहेगा, और बुढ़ापे पर शोध की रफ्तार वाक़ई अच्छी है, क्योंकि इसके लिए, खास तौर पर पश्चिमी मुल्कों में, अनुदानों और संसाधनों की कमी नहीं है। पर मौत ऐसा मौजूँ है कि कई बातें ज़ेहन में आती हैं, जो विज्ञान से इतर साहित्य, दर्शन आदि से जुड़ी हैं। एक गंभीर सवाल यह भी है कि क्या हमें वाक़ई कई सदियों तक जीवित रहना भी चाहिए। बढ़े हुए जीवन काल से नए सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक मुद्दे सामने आएँगे। बढ़ती जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी, लंबी उम्र तक काम करना, युवाओं में बेरोज़गारी जैसी आम समस्याएँ तो हैं ही। पहले कंप्यूटर-साइंस का शोध कर बाद में बढ़ती उम्र के विज्ञान पर शोध (जीरोंटोलोजिस्ट) करने वाले ऑब्रे द ग्रे का यह मानना है कि बहुत लंबी उम्र तक जीने वालों के लिए जीवन में एक ही व्यक्ति से यौन-संबंध बनाए (मोनोगामी या एक-संगमन) रखने का कोई मायने नहीं रह जाएगा। अचरज नहीं कि द ग्रे ने कई स्त्रियों से रिश्ते बनाए और उस पर यौन-शोषण के इल्ज़ाम भी लगे।
मरने से ठीक पहले ज्यादातर लोग इस बात से परेशान होते हैं कि वे जैसा चाहते थे वैसा नहीं जी पाए, बल्कि ऐसे जीते रहे जैसी दूसरों ने उनसे उम्मीद रखी। इस तरह की सरल प्रकृति के से लेकर गहन अन्वेषण तक के अवलोकन ने सभी सभ्यताओं में चिंतकों को हमेशा परेशान किया है। गौतम बुद्ध ने सभी दुखों की वजह को चाहतों में चिह्नित किया, और दूसरों से समभाव रखते हुए प्यार करने और वर्तमान में रहने पर जोर दिया। राजा ययाति की कहानी हमें बताती है कि भले ही कोई व्यक्ति एक हजार साल तक युवा रह सकता है, जैसा कि उसने अपने पुत्र पुरु के साथ अपनी उम्र की अदला-बदली करके किया, लेकिन प्यास कभी नहीं बुझती है और अंततः दुख का अपना हिस्सा हर किसी को भुगतना पड़ता है। अमरता मृत्यु से भी बदतर हो सकती है। भीष्म को जब तक चाहे जीवित रहने का वरदान मिला और युद्ध में गिरने के बाद जब वे मरने को तैयार नहीं हुए तो उन्हें बाणों की शय्या पर लेटना पड़ा। 'गुलिवर्स ट्रेवल्स' (जोनाथन स्विफ्ट) में कथा-वाचक की ऐसे इंसानों से मुठभेड़ होती है जो हमेशा जीवित रहते हैं। उनकी उम्र में बढ़त कभी नहीं रुकती, अंततः खुश रहने के बजाय, वे पागल हो जाते हैं, दूसरे लोग उन्हें अपने पास नहीं आने देते हैं। एक सदी पहले, जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर ने अपना ज़्यादातर काम इस सवाल पर किया कि मौत के बारे में सचेत होना, और एक बेहतर, सुखी जीवन, में कैसा रिश्ता है। उसने इंसान को इस तरह कायनात की दीगर चीज़ों से अलग देखा कि हम जीने मरने पर संजीदगी से सोच पाते हैं। उसके काम ने ज्याँ-पॉल सार्त्र और अन्य अस्तित्ववादी विचारकों को प्रेरित किया। कहा जा सकता है कि जीवन की नश्वरता के अर्थ में मौत के बारे में सचेत होना और इस लिए बेहतर नैतिक जीवन जीना, कोई नई बात नहीं है और प्राच्य के चिंतन में यह हमेशा ही मौजूद रहा है। फ़र्क यह है कि हाइडेगर आधुनिक यूरोप में थे और उनके लिए इंसान कायनात के केंद्र में है। हालाँकि उसे भी इस बात की फ़िक्र थी कि ज़्यादातर लोग समाज के दायरों में फँसे रह जाते हैं और झुंड की मानसिकता के गुलाम होकर, मन-पसंद ज़िंदगी नहीं गुज़ारते, विड़ंबना देखिए कि खुद अपने स्वार्थ के लिए उसने हिटलर की नात्सी पार्टी की सदस्यता ले ली थी। जबकि कुछ लोग मृत्यु के बारे में जागरूक रहने को निजी ज़िंदगी में जीने के मायने खोजने के लिए एक दार्शनिक राह के रूप में देखते हैं, इससे अलग पीढ़ियों के बीच संघर्ष, इंसान में उम्र के साथ संज्ञानात्मक क़ाबिलियत में कमी, बुज़ुर्गों द्वारा फायदेमंद काम की गुणवत्ता आदि, जैसे व्यावहारिक मुद्दों के बारे में सर्वांगीण – विज्ञान और मानविकी में एक साथ, सीमाओं और सांस्कृतिक विभाजनों से परे हटकर, शोध होना ज़रूरी है। फिलहाल तो यह सही है कि उम्र के साथ हमारी नई बातें सीखने की, और जटिल सवाल हल करने की, क्षमता कम हो जाती है, हालाँकि तजुरबे का भंडार बढ़ता है, जो कई जगह कारगर साबित होता है। जो भी हो, अगर बुढ़ापा से निजात पाने के उपाय निकलते हैं, तो वह धनी-ग़रीब हर किसी को एक जैसे मिलने चाहिए। जब तक कोई काम करने के लायक है, उसे नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही यह न हो कि बड़ी उम्र तक लोग काम करते रहें तो युवाओं को नौकरियाँ न मिलें। ये बातें विज्ञान की कम और सामाजिक-राजनैतिक खित्तों की ज़्यादा हैं।
ऐसे वैज्ञानिकों और मुनाफाखोरों की कड़ी आलोचना होनी चाहिए जो इंसान की कमज़ोरी का फायदा उठाकर नीम-हकीमी का धंधा चालू रखते हैं और बिना पर्याप्त जानकारी के बाज़ार में बुढ़ापा टालने की ग़लत दवाएँ बेचते हैं। डेविड सिन्क्लेयर जैसे कुछ वैज्ञानिक बड़ी उम्र तक दुरुस्त बचने के लिए रेसवेराट्रॉल, मेटफॉरमिन और एन एम एन नामक दवाओं का भी प्रचार करते रहते हैं, जो सरासर अनैतिक है, क्योंकि इन दवाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। सबसे अच्छे दिमाग वाले लोग भी शोहरत और महिमा के जाल में फंस जाते हैं और मुनाफाखोर कंपनियां अभी तक सिद्ध नहीं हुए इलाज और फार्मास्यूटिकल्स बेचने पर जोर देती हैं, जो अक्सर नैतिक मानदंडों का उल्लंघन करती हैं। ध्यान रहे कि राजनीतिक संरक्षण ने भारत में फार्मा कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर उल्लंघन की अनुमति दी है, जिसके नतीजतन दूषित दवाएँ बेची गईं, जिससे यहां और अन्य देशों में कई मौतें हुईं, जिनमें कई छोटे बच्चे भी थे।
बेशक, मृत्यु के विषय पर सभी जिज्ञासाओं पर ठोस जानकारी हमारे पास नहीं है। मसलन एक दार्शनिक दृष्टिकोण सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत (जी टी आर – जेनरल थीओरी ऑफ रीलेटिविटी) से आता है - 'अतीत' और 'भविष्य' हर नाज़िर के सापेक्ष हैं, और इसलिए मृत्यु का कोई एक ठोस अर्थ नहीं हो सकता है। शायद किसी दिन हम जी टी आर और जैविक अणुओं के विज्ञान के बीच संबंधों के बारे में जान सकेंगे।
1Why We Die: The New Science of Aging and the Quest for Immortality, Venki Ramakrishnan, Hatchette, 2024