Saturday, June 28, 2014

चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो


चलो मन आज

चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो

स्वर्ण पदक ले लो
विजेता के साथ खड़े होकर
निशानेबाज बढ़िया हो बंधु कहो उसे

मैच जो नहीं हुआ
दर्शक-दीर्घा में नाराज़
लोगों को कविता सुनाओ

पैसे वाले खेलों को सट्टेबाजों के लिए छोड़ दो
मैदानों में चलो जहाँ खिलाड़ी खेलते हैं
खिंची नसों को सहेजो
घावों पर मरहम लगाओ

गोलपोस्ट से गोलपोस्ट तक नाचो
कलाबाजियों में देखो मानव सुंदर
खेलता ढूँढता है घास

अपना पूरक
बनता हरे कैनवस पर
भरपूर प्राण

चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो

(अमर उजालाः 2008)

खेल

कई अपूर्ण इच्छाओं में
एक अच्छा फुटबालर बनने की है

सरपट दौड़ता साँप सा बलखाता
धनुष बन स्ट्रेट और बैक वाली करता
कंधों के ऊपर से उड़ता नाचता
राइट हाफ

एक इच्छा दुनिया को मन मुताबिक देखने की है
भले लोगों को गले लगाता
बुरों को समझाता
जादुई हाथों से सबके घाव सहलाता
सबका चहेता मैं

इच्छाओं को धागों से बाँध रखा मैंने
कभी देख लेता हूँ
मन ही मन खेलता हूँ
उन्हें पूरे करने के खेल।

(1994)

Wednesday, June 18, 2014

मैं अब ईराक के बारे में नहीं लिखूंगा


स्मृति

बड़ी सुबह दरवाज़े पर दस्तक एक स्मृति।

साथ सही-गलत खाते में मौजूद अन्य स्मृति।

इन दिनों अकेले में भी टेलीफोन पर कंप्यूटर पर।

शाम शायरी जाम साकी बन आती स्मृति।

उसके अलग अंदाज़ अलग स्मृति।

स्मृतियों की भी स्मृति।

अनंत स्नायुतंत्र।

कौन भारमुक्त।

अंत तक जीती स्मृति।

फिर भी धन्यवाद कि दस्तक देती स्मृति।

धन्यवाद कि वापस

मनःस्थिति - अवसाद।

वापस कवि की उक्ति

फिर भी शांति, फिर भी आनंद

वापस कवि की नियति।

मैं अब ईराक के बारे में नहीं लिखूंगा।

दज़ला-अफरात स्मृति

बेरिंग दर्रा पारकर धरती के उस ओर स्मृति।

निरंतर हारे हुए लोगों की

फिर-फिर उठ खड़ी होती स्मृति।

मैं ईराक पर नहीं लिखूंगा।

मैं जब रोता हूँ

तुम भी रोते हो

मैं जब रोता हूँ

तुम रोते हो

स्मृतियों की भी स्मृति

अनंत स्नायुतंत्र ।

 
(पहल- 2004; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित)

Monday, June 09, 2014

प्रक्रियाएँ तो अनादि काल से चल रही हैं


वह सुबह कभी तो आएगी


'जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी, वह सुबह कभी तो आएगी,' साहिर ने लिखा था। सभ्य समाज से बहुत सारी अपेक्षाएँ होती हैं। कोई भी सरकार सभी अपेक्षाओं को पूरा कर नहीं सकती, पर कई ऐसी बेवजह, ख़ामख़ाह की मान्यताएँ भी सरकार के बारे में हैं, जिनके बारे में सोचना चाहिए। जैसे कि सरकारें झुकती नहीं हैं। चाहे देश में महामारी फैली हो, कोई सरकार बाहर के लोगों का यह कहना पसंद नहीं करती कि उसे इस बारे में प्रभावी कदम उठाने होंगे। यह निहायत ही ग़लत रवैया है। इसके पीछे मानसिकता यह है कि दूसरे लोग हमें कमजोर और अयोग्य साबित करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के बदायूँ में दो किशोरियों का बलात्कार और उसके बाद हत्या कर पेड़ पर लटकाए जाने की घटना पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने कह दिया कि हमारे देश में लगातार हो रही बलात्कार की घटनाओं को गंभीरता से लिया जा रहा है। तो सरकार की प्रतिक्रिया क्या है - उन्हें पता होना चाहिए कि हमारे यहाँ न्याय की व्यवस्था है और उस मुताबिक प्रक्रियाएँ चल रही हैं। प्रक्रियाएँ तो अनादि काल से चल रही हैं और स्त्रियों के प्रति हिंसा की घटनाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। इसके पहले सपा के मुलायम सिंह यादव ने लड़कों से ग़लतियाँ हो जाती हैं कहकर शर्मनाक बयान दिया। मुख्य मंत्री अखिलेश यादव भी अपनी चिढ़ दिखा गए। यह बौखलाहट यही बतलाती है कि हम ऐसे जघन्य अपराधों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। यानी कि सचमुच हमारी अपनी सच्चाई यह है कि हम अयोग्य हैं। शायद इसीलिए हम इस बात पर ज्यादा गौर करते हैं कि दूसरे लोग हमें बोलने वाले कौन होते हैं।

हर्रियाणा के भगाणा की दलित स्त्रियों की बलात्कार पीड़िताओं के पक्ष में धरने पर बैठे लोगों को दिल्ली पुलिस ने जबरन हटा दिया। काश कि सरकार के प्रतिनिधि वहाँ आकर उनसे मिलते और घड़ियाली सही दो आँसू बहा जाते।

काश कि सत्ता पर काबिज हमारे नेता पीड़ितों के साथ खड़े होकर कह पाते कि वे भी माँओं के जन्में हैं, कि उनकी भी बहन-बेटियाँ हैं, और वे इस ज़ुल्म के खिलाफ कदम लेंगे।

क्या हम कह सकते हैं कि अपनी कमियाँ मानने से शर्माए बिना सरकार चलाई जाएगी, वह सुबह कभी तो आएगी! अगर बु्द्धिजीवियों से पूछो तो वह कहेंगे कि हमारी संस्कृति में यह नहीं था, यह तो औपनिवेशिक काल की देन है। कुछ और हमें बतलाएँगे कि स्त्रियों के साथ हिंसा जैसी घटनाएँ तो दीगर मुल्कों में सरेआम होती रहती हैं। उन्हें हमारी ओर उँगली उठाने की जगह अपनी ओर देखना चाहिए।

होना यह चाहिए कि हम कहें कि यह गंभीर मसला है और किस भी इंसान के साथ हिंसा की घटना नहीं होनी चाहिए, हमारी स्त्रियों के साथ ऐसा होते जा रहा है तो हम उनके शुक्रगुज़ार हैं जो इस बारे में हमें सचेत कर रहे हैं। अगर उनके यहाँ भी ऐसी घटनाएँ हो रही हैं, तो हमारी जिम्मेदारी है कि हम भी उनको सचेत करें। पर होता यह है कि हम अपनी कमियों को मानने की जगह अड़ने लगते हैं और कारण ढूँढने लगते हैं। और जो कारण ढूँढ कर हमें मिलते हैं उनका सचमुच सच्चाई से कुछ लेना देना नहीं होता। चाणक्य श्लोकों से लेकर समकालीन साहित्य तक में स्त्री के प्रति अवहेलना के अनगिनत उदाहरणों के बावजूद हम मानने को तैयार नहीं होते कि हमारा समाज पुरुषप्रधानता की विकृति से ग्रस्त है और स्त्रियों के प्रति हिंसा भी इसी बीमारी की देन है। दीगर और मुल्कों मे भी यही बीमारी है तो उसका मतलब यह नहीं कि हमें स्वस्थ नहीं होना चाहिए। या कि उनकी कमजोरियों का फायदा हम अपनी बदहाली को छिपाने के लिए करें। अव्वल तो आँकड़े यही दिखलाते हैं कि मावाधिकार के सूचकांकों में हम दुनिया के अधिकतर मुल्कों से पीछे ही हैं।

हिंसा का एक ही हल है कि हम व्यापक अभियान चलाएँ कि यह सही नहीं है। स्त्री को इंसान का दर्जा दिलाने के लिए देशव्यापी कार्यशालाएँ हों। हर किसी को, अपने आप को भी, चाहत और हिंसा के भेद को समझाने का लंबा अभियान हो। पर जिस देश में आधी जनता अनपढ़ है, वहाँ कार्यशालाएँ चलाना भी कौन सा आसान काम है। लिखित या मुद्रित सामग्री तो हर जगह काम आएगी नहीं। कम से कम हमारे जैसे पढ़े लोगों के लिए ही सही, ऐसी सामग्री का भी इस्तेमाल हो। बाकी लोगों के लिए दृश्य सामग्री और बातचीत से ही काम चलाया जाए। इस देश में जल्दी ऐसी सरकार तो आने से रही जो व्यापक पैमाने में प्रभावी साक्षरता फैलाने को प्राथमिकता माने। फिलहाल तो बस नारे और विज्ञापनों के अभियान हैं। इसलिए यह काम सरकारों के ऊपर छोड़ा नहीं जा सकता। जैसा अक्सर कहा जाता है कि अगर हम अपने घर के बच्चों को ही इस बारे में सचेत कर सकें कि यौन हिंसा जघन्य अपराध है, तो बात आगे बढ़ेगी। अपने बच्चों से हम तभी बात कर पाएँगे जब हम स्वयं इस बात को समझें। यानी कि लड़ाई व्यक्ति के स्तर से ही शुरू होती है। अगर हम परिवारों में मौजूद हिंसा को छोड़ भी दें (जो कि जितना हम जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा ही होती है) तो भी आज व्यापक माहौल ऐसा है कि जो स्त्री हमारे घर-परिवार-जाति की नहीं है, वह मात्र भोग्या है। जी हाँ, हमारी संस्कृति में स्त्री का देवी होना सिर्फ बातों में है। व्यवहार में वह महज यौन-सामग्री भर है। परिवार के अंदर भी उसे मात्र भोग्‍या की तरह इस्‍तेमाल किया जाता है इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो कि अपवाद मात्र नहीं हैं। मध्‍यवर्गीय नैतिकता बहुत सीमित वर्गो में ही पाई जाती है, पिछले ही साल एक ऐसे प्रशासनिक अधिकारी का प्रकरण सामने आया था जो अपनी बेटियों के साथ बलात्‍कार करता रहा था और जब उसने बेटी की बेटी को हवस का शिकार बनाना चाहा तब उसकी बेटियों ने प्रतिरोध दर्ज कराया। बच्चियों के साथ यौन शोषण में अक्‍सर परिवार के ही लोग संलग्‍न होते हैं। ग्रामीण इलाकों में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएँगे जहां पिता, ससुर, भाई या कोई अन्‍य रिश्‍तेदार अपने की परिवार की स्‍त्री को शिकार बनाता है। इस स्थिति से उबरने के लिए हमें पहले इसे स्वीकार करना होगा। ज्यादातर लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि उनके मानस में स्त्री के प्रति कैसी ग़लत भावनाएँ हैं। हम जानें और मानें कि हम बीमार हैं, तभी इलाज संभव है।

सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के प्रति जो सम्मान कथित रूप में है, या कहीं-कहीं जैसे बसों गाड़ियों में अलग इंतज़ामात हैं, उसे व्यवहार में हम कितना निभाते हैं, यह सवाल ज़रूरी है। कहने को लेडीज़ फर्स्ट हर कोई कहता है, पर आम बोलचाल से लेकर दीगर और सामाजिक गतिविधियों में स्त्रियों को निरंतर अपमान सहना पड़ता है। प्रसिद्ध पंजाबी लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि स्त्रियों से जुड़ी गालियाँ इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो। अगर कोई पुलिस वाले को ऐसी गाली बोलते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा दी जाए, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम। तात्पर्य यह था कि माँ बहन को जोड़ कर बनाई गई गालियाँ निश्चित रुप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं और सरकारी पदों पर नियुक्त लोग जब हिंसक भावनाएं प्रकट करते हैं तो वे अपने पदों का गलत उपयोग भी कर रहे होते हैं, इसलिए उनको अधिक सज़ा मिलनी चाहिए।

व्यक्ति से अलग बड़े स्तर की और बातें हैं जिनसे जूझना होगा। किसी ने सही कहा है कि घर में शौच का प्रबंध हो जाने से ही स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हो जाएँगी, पर कम से कम उन्हें बाहरी खतरों से तो कुछ राहत मिलेगी। यानी फिर एक राजनैतिक सवाल उठता है - क्या ऐसा विकास इस देश में कभी होगा कि अधिकतर स्त्रियों को शौच के लिए बाहर न जाना पड़े।

सारी दुनिया में सभ्यता के न्यूनतम मानदंडों की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष चल रहे हैं। अब हर तरह की ज्यादती को यह कह कर टाला नहीं जा सकता कि यह तो स्थानीय संस्कृति और अस्मिता का मुद्दा है। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति हिसा और और जातिगत भेदभाव ऐसी समस्याएँ हैं जिनके खिलाफ संघर्ष में दुनिया के किसी भी कोने में आवाज़ उठती है तो उसका स्वागत होगा। कमाल यह है कि हमारी सरकारें व्यापार से जुड़े हर वैश्वीकरण को मान लेती है, चाहे वह जितना भी देश के हितों के खिलाफ जाता हो, पर मानव अधिकारों के मसौदे पर हस्ताक्षर करने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय मान्यताओं को स्वीकार करने में उसकी कोई तत्परता नहीं दिखती। इससे यह तो पता चलता ही है कि देश के संसाधनों की लूट पर सरकार ऐसे नियंत्रण मानने को तैयार है जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के पक्ष में हैं, पर मानव अधिकारों को लेकर रवैया डाँवाडोल है।

स्त्री की सुरक्षा का सवाल बुनियादी तौर पर मानव अधिकार का सवाल है। चूँकि दलित और पिछड़े वर्गों की स्त्रियों के साथ ज़ुल्म ज्यादा होते हैं, इसलिए इसमें लिंग और जाति आधारित दोनों तरह की असमानता का मसला है। हाल में शहरों में हो रही हिंसा की घटनाओं में अमानवीय स्थितियों में रह रहे लोगों में से अपराधियों का होना आर्थिक आधार पर वर्ग विभाजन के पहलू को भी सामने लाता है। यानी ये सारी बातें एक दूसरे से गड्डमड्ड हैं। न तो पुरानी वामपंथी सोच कि आर्थिक वर्गों में फर्क कम होने पर ये समस्याएं मिट जाएँगी, ठीक थी और न ही यह सोच ठीक है कि जाति या वर्गों के आधार पर गैरबराबरी रहते हुए भी स्त्रियों को पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा मिल जाएगा। मौजूदा लोकतंत्र में समझौतापरस्ती शिखर पर है। जिसको थोड़ी सुविधाएँ मिल जाती हैं वह दूसरों के अधिकारों के प्रति उदासीन हो जाता है। यह व्यवस्था संरचनात्मक रूप से बराबरी के खिलाफ है। इस व्यवस्था से यह अपेक्षा रखना कि स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए प्रभावी कदम उठाए जाएँगे, कोई मायना नहीं रखता।

तो आखिर क्या करें। स्थिति घोर हताशाजनक है। फिलहाल हम उन जुझारू साथियों को सलाम करते हैं जो इन दिनों की बेतहाशा गर्मी के बावजूद संघर्ष में लगे हैं। और हम फैज़ को याद करते हैं कि यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल, न उनकी हार नई है न हमारी जीत नई।


Sunday, June 08, 2014

सात कविताएँ - जीवन


नहीं

नहीं बनना मुझे ऐसी नदी
जिसे पिघलती मोम के
प्रकाश के घेरे में घर चाहिए

शब्द जीवन से बड़ा है यह
ग़लतफहमी जिनको हो
उनकी ओर होगी पीठ

रहूँ भले ही धूलि सा
जीवन ही कविता होगी
मेरी।

('एक झील थी बर्फ की' में संकलित)

पहली कविता

जीवन।
 
लंबी कविता
 
जीवन।


छोटी कविता
 
जीवन।


मुक्तछंद कविता
 
जीवन।


छंदबद्ध कविता
 
जीवन।

आखिरी कविता

जीवन।

(रविवार डॉट कॉम - 2010)

Saturday, June 07, 2014

आशंकाएँ

यह आलेख 'सबलोग' के ताजा अंक में छपा है। मैंने यह कोई तीन हफ्ते पहले लिखा था। इसी बीच पश्चिम बंगाल में स्थिति काफी बिगड़ गई है। संदेशखाली और फलता इलाकों में में भाजपा और तृणमूल समर्थकों में जम कर लड़ाई हुई। पहली मार भाजपा समर्थकों को पड़ रही है, और उनका जनाधार तेजी से बढ़ रहा है। संदेशखाली कांड की जाँच करने भाजपा की उच्च-स्तरीय समिति पहुँची और प्रधान मंत्री को रिपोर्ट दर्ज की गई है। आज खबर कि राज्य की आआपा इकाई पूरी पूरी भाजपा में शामिल हो गई है। इसी बीच आम आदमी की ज़िंदगी बदतर होती जा रही है।


आशंकाएँ

भाजपा को बहुमत हासिल हो जाने से सत्ता में रहने को लेकर संघ परिवार को कोई असुरक्षा न होगी। इसलिए सांप्रदायिक दंगों जैसे जो तरीके अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए संघ परिवार अपनाता रहा है, उनमें कमी आनी चाहिए। अगर किसी को ऐसा लगता है तो वे भयंकर भ्रम में हैं।

यह तो हर कोई जान ही गया है कि आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलमान सांसद नहीं चुना गया। चुने गए 543 सांसदों में 5% भी मुसलमान नहीं हैं। देश की धर्म-निरपेक्षता पर कोई सवाल उठाता है तो ग़लत क्या है! भाजपा संसदीय राजनीति में संघ परिवार की पहचान है। बेहतर सभ्यता का तकाज़ा यह होता कि जनसंख्या में अपने अनुपात की तुलना में अधिक संख्या में लघुसंख्यक सांसद चुने जाते। पर जहाँ धन और सांप्रदायिकता ही चुनावों की राजनीति के मुख्य संचालक हों, वहाँ कैसी सभ्यता और कैसे मूल्य!

कम से कम जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, वहाँ हर तरह की हिंसक सांप्रदायिक घटनाओं के बढ़ने की पूरी संभावना है। इनमें सबसे अधिक बुरा हाल पश्चिम बंगाल का हो सकता है। पश्चिम बंगाल में लंबे समय से गुंडा संस्कृति का वर्चस्व है। साठ के दशक में वामपंथियों का सरकार में आना आसान नहीं था। जैसे सौ साल पहले लोग मानते थे कि ब्रटिश सिंह को भारत से निकालने आसान नहीं है, वैसे ही आज़ादी के दो दशक बाद तक अन्य राज्यों की तरह बंगाल में भी लोग मानते थे कि कॉंग्रेस को हराना आसान नहीं है। वामपंथियों के सत्तासीन होने की प्रक्रिया में व्यापक हिंसा हुई। सरकारी दमन के खिलाफ संगठित जनांदोलन करते हुए जनता के प्रतिनिधि सरकार में आ तो गए, पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए लगातार पार्टी को संघर्ष करना पड़ा। नतीज़तन, तकरीबन उसी तरह का छल बल कौशल, जो संघ परिवार में दिखता है, वाम ने भी अपनाया। एक मायने में संघ से वे पीछे थे। संघ के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के वैचारिक प्रहार में कमी नहीं आई, बस नवउदारवादी विकास का मुहावरा साथ जुड़ गया। पर संसदीय वाम का वैचारिक पक्ष कमजोर होता रहा, यहाँ तक कि सदी के अंत तक कहना मुश्किल होता जा रहा था कि वैचारिक स्तर पर कॉंग्रेस और सीपीआईएम में फर्क कितना रह गया है। आम लोग, खास तौर से नई पीढ़ियाँ भय और पार्टी के स्तर के भ्रष्टाचार (जो कॉंग्रेस के व्यक्ति स्तर के भ्रष्टाचार से अलग है) के व्यापक माहौल से तंग आ चुके थे। अंततः नंदीग्राम और सिंगूर कांड के बाद जन-आक्रोश विस्फोट बन कर फैला और तीस साल के बाद वाम दल राज्य की सत्ता खो बैठे। तृणमूल कॉंग्रेस सत्ता में जनादेश से आई, बुद्धिजीवियों के बड़े तबके ने उनके समर्थन में खुल कर लड़ाई लड़ी। पर सत्ता में आते ही नए दल ने हिंसक तरीकों से अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया। कुछ सालों में ही स्थिति हद से ज्यादा बिगड़ गई। हाल के चुनाव में स्थानीय अखबारों में आई रिपोर्टों के मुताबिक केंद्र से आए पर्यवेक्षक सुधीर राकेश सिपाहियों के साथ कुछ गाँवों में मतदाताओं को बुलाने गए तो गाँववासियों ने साफ कह दिया कि वे मतदान करने नहीं जाएँगे क्योंकि वे भविष्य में सुरक्षा को लेकर आतंकित हैं। बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को धमकाया गया और उनके वोटर स्लिप छीन लिए गए। फिर भी अगर बड़ी संख्या में मत डलने का दावा है तो कल्पना कीजिए कि वह कैसे हुआ होगा। राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में इन बातों पर चर्चा कम ही हुई, क्योंकि मीडिया इस कदर बिका हुआ था कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के अलावा कुछ दिखलाना उन्हें महत्त्वपूर्ण नहीं लगा। लोग कत्ल हो रहें तो होते रहें।

वाम के शासन में पश्चिम बंगाल में लघु-संख्यकों को पर्याप्त सुरक्षा थी और बंगाल में बड़े सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। पर वाम अपने वैचारिक आधार को मजबूत न बना सका और हिंदुओं के एक हिस्से में हमेशा से बसी सांप्रदायिक भावना बढ़ती गई कि वाम का मुसलमानों के प्रति तुष्टीकरण का रवैया है। तृणमूल कॉंग्रेस का कोई खास वैचारिक पक्ष है ही नहीं, इसलिए सत्ता की राजनीति पर ध्यान रखते हुए उन्होंने मुसलमानों के लिए और भी नरम रुख दिखलाया, जिसकी प्रतिक्रिया में भाजपा का जनाधार बढ़ा और आखिरकार हाल के चुनावों में भाजपा को तीन सीटें मिल गईं। अब संघ को खून की गंध मिल गई है। सीपीआईएम के कार्यकर्त्ताओं में ताकत नहीं है कि वे तृणमूल कॉंग्रेस के गुंडों से लड़ सकें। पर लोगों में आक्रोश है, और इसका भरपूर फायदा संघ उठाएगा। संघ का तरीका आसान है। पहले कोई छोटी घटना को अंजाम दो, जैसे कहीं कोई हिंदू मुसलमान लड़के-लड़की का मामले को तूल दो, फिर अफवाहें फैलाओ, फिर दंगा करवा दो - इस सबमें सांप्रदायिक भावनाएँ बढ़ती ही रहेंगी और संघ का जनाधार बढ़ता रहेगा। आदिवासी इलाकों में उन्होंने एकल विद्यालय जैसे तंत्र खोल ही रखे हैं जहाँ संकीर्ण सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का जहर बचपन से भरा जाता है।

पश्चिम बंगाल के अलावा असम में भी सांप्रदायिक माहौल के बदतर होने की संभावना है। धेमाजी में नरेंद्र मोदी के - बांग्लादेशियों को लाने के लिए गैंडों को मारा जा रहा है - वाले भाषण के कुछ दिनों बाद वहाँ कोई पैंतीस निर्दोष मुसलमानों को मारा गया, जिनमें कई बच्चे शामिल थे। इन दोनों राज्यों में मुसलमानों के प्रति बदसलूकी का सीधा असर बांग्लादेश के हिंदू लघु-संख्यकों पर पड़ेगा। वहाँ हिंसा बढ़ेगी; एक ऐसा निष्ठुर चक्र बढ़ता चलेगा जिसका फायदा संघ परिवार और जमाते-इस्लामी जैसे संगठनों को तो मिलेगा, पर दक्षिण एशिया के सामान्य लोगों का जीवन इससे बुरी तरह प्रभावित होगा।

कर्नाटक में भी भाजपा सत्ता में नहीं है और लंबे समय से संघ परिवार के साथ जुड़े संगठन वहाँ सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश करते रहे हैं। राम सेने नामक एक गुट मंगलूर में साथ बैठे टिफिन खाते युवा हिंदू-मुसलमान लड़के-लड़कियों पर हमला जैसी घटिया करतूतों से खौफ का माहौल बनाता रहा है। अच्छी बात यह है कि मुख्य-मंत्री सिद्धरमैया काफी सुलझे हुए व्यक्ति हैं और स्थिति को सँभालने में दक्ष हैं। पर अंधकार की ताकतों के साथ कितनी देर तक जूझा जा सकता है, यह देखना है। चाहे अनचाहे वोट की राजनीति में कॉंग्रेस और अन्य दल भी सांप्रदायिक ताकतों के साथ कमोबेश समझौता करते ही रहते हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि नागरिक समूह स्वयं इस पर निगरानी रखें कि विभाजक तत्वों से कैसे बचा जाए।

बिहार और उत्तर प्रदेश में वैसे ही राजनैतिक अस्थिरता है। अब नीतिश कुमार के इस्तीफा देने के बाद संघ परिवार को अपने पहले से बढ़े आधार को और मजबूत बनाने में सुविधा ही होगी। क्या इन राज्यों में भी हालात बिगड़ेंगे? हो सकता है, क्योंकि जब तक राज्य सरकारें भी अपने हाथ नहीं आतीं, संघ परिवार खुराफातें करते रहेगा। पंजाब में भाजपा के ही सांप्रदायिक आधार वाले साथी अकाली दल ने पहले ही उत्पीड़न की इंतहा की हुई है। साथ में सीमा पार से मादक पदार्थों की तस्करी में भी उनके कई नेता कॉंग्रेस के कुछ भाई-बंधुओं के साथ शामिल हैं। इस बार कॉंग्रेस और आआपा के बीच मतों के बँट जाने से अकाली दल का बंटाधार होते होते रह गया। अब स्पष्ट हो गया कि अगली बार विधान सभा चुनावों में उनकी स्थिति डाँवाडोल होगी। इससे बचने के लिए अकाली नेतृत्व क्या करेगा - क्या वह लोगों की भलाई के लिए गंभीर कदम उठाएगा? नहीं, भारत की जनता की किस्मत में ऐसा होना मुश्किल ही लगता है। लगता यही है कि विरोधियों पर ज़ुल्म बढ़ेगा, भ्रष्टाचार से कुछ लोगों को खरीदा जाएगा। फसादात होते रहेंगे।अच्छे दिन का नारा सुनते रहें, वास्तविकता में 'कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती'

दंगे फसाद अपने आप नहीं होते। वे भड़काए जाते हैं। इनके पीछे निहित स्वार्थ होते हैं। साधारण लोग रोजमर्रा की ज़िंदगी जीते हुए बड़े पटल पर चल रहे इतने जटिल समीकरणों औऱ सत्ता के खेल को नहीं देख पाते और शिकार बन कर रह जाते हैं। पूँजीवाद के गुलाम संवेदनाहीन मध्य-वर्ग से उम्मीद करनी बेमानी है कि शिक्षा और सूचना की सुविधाओं का इस्तेमाल कर वे सच्चाइयों को जानें और फैलाएँ। जनपक्षधर लोगों को ही इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। कई लोगों को यह लगता है दंगों की बात कर हम सामान्य लोगों को अन्य बुनियादी मुद्दों से विमुख कर रहे हैं। दरअसल अतीत के हर उत्पीड़न के बारे में हमें लगातार बात करनी चाहिए कि हम दुबारा ऐसी परिस्थितियों के आने से पहले ही सावधान हो सकें। शिक्षा, स्वास्थ्य और दीगर बुनियादी क्षेत्रों में जो संकट हैं, उनके और समुदायों के बीच नफ़रत फैला कर किए गए सामाजिक उत्पीड़न के कारण अलग नहीं हैं। सोचना यह है कि जिस तरह विभाजक ताकतें हमारे अंदर के शैतान को जगा सकती हैं, उसी तरह भले लोग हमारे भलेपन को भी छू सकते हैं। इतनी सी तो बात है कि हम जान लें कि इंसान हर जगह एक ही है, हिंदू हो या मुसलमान।

Wednesday, June 04, 2014

विश्व-नागरिक चेतना की ज़रूरत



धरती पर अलग-अलग जगहों पर तरह तरह के ज़ुल्म चल रहे हैं। जब हम इस खुशफहमी में होते हैं कि पिछली सदियों की तुलना में हमने सभ्यता और सह-अस्तित्व की एक मंज़िल पार कर ली है, ठीक तभी कोई झकझोरता हुआ बतला जाता है कि कहीं कहर बरपा है, अभी तो मंज़िल बहुत आगे है।
नाईजीरिया के बोको हरम नामक कट्टरपंथी इस्लामी संगठन ने 280 स्कूली बच्चियों का अपहरण किया और पिछले हफ्ते एक वीडियो जारी किया है, जिसमें इन बच्चों को धर्म परिवरतन कर नमाज पढ़ते दिखलाया गया है। बोको हरम का अपना ही एक इस्लाम है जिसके मुताबिक वे इन लड़कियों को यौन-दास के रूप में बेच सकते हैं। बेशक उनकी इस जघन्य हरकत की निंदा हर ओर हो रही है। जिन लोगों को इस तरह की वीभत्स घटना से फायदा उठाना है, वे उठाएँगे। हमारे ही देश के एक भाजपा नेता हैं, जिनकी मोदी विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की धमकी पर काफी शोर मचा था। उनके खिलाफ एफ आई आर भी दर्ज़ हुआ था। उन्होंने अपना कहा वापस न लेकर कह दिया था कि वे पाकिस्तान-परस्त लोगों के बारे में कह रहे थे। सांप्रदायिकता का एक छोर राष्ट्रवाद है। दक्षिण एशिया के मुल्कों के बीच सांप्रदायिक आधार पर निर्मित राष्ट्रवादी बँटवारे से हुई जंगें या काश्मीर का मसला जैसी समस्याएँ मूलतः सांप्रदायिक द्वेष है। ज्यादा गंभीर स्थिति तब होती है जब राष्ट्र और संस्कृति के नाम पर नियोजित हिसा की घटनाएँ होती हैं, जिसमें सबसे ज्यादा प्रभावित स्त्रियाँ और बच्चे होते हैं।

क्या मानव सभ्यता टुकड़ों में बँटी है? अगर पहनावा, खान-पान, अर्चना-विधि के आधार पर सभ्यता को आँका जाए, तो धरती पर कहीं भी कोई एक सभ्यता नहीं है। किसी भी जगह भिन्न पहनावे, भिन्न रुचि के खान-पान और अलौकिक के प्रति भिन्न मतों की भरमार दिख जाएगी। सभ्यताएँ या तो अनंत हैं - कम से कम उतनी जितनी कि दुनिया की जनसंख्या है या फिर एक ही सभ्यता है - मानव सभ्यता। मानवता को पश्चिमी सभ्यता, भारतीय या चीनी सभ्यता आदि या इस्लामी, ईसाई या हिंदू सभ्यता की श्रेणियों में बाँटकर देखने पर न केवल सवाल उठाने बल्कि इसे पूरी तरह नकारने का समय आ चुका है। ऐतिहासिक अध्ययनों में मानव के विकास में महत्त्वपूर्ण पड़ावों का ग्रीको-रोमन और हिंदू (सिंधु नदी के दक्षिण के अर्थ में), चीनी या अरब संस्क़ृतियों की बात करना इतना ही मायने रखता है, जितना कि यह कि आम तौर पर खाई जाने वाली आलू या दीगर सब्जियों की खेती पहले कहाँ होती थी। बौद्धिक विकास में ज्ञान का आदान-प्रदान सार्वभौमिक स्तर पर हमेशा ही होता रहा है। औपनिवेशिक शासकों के लिए अपना वर्चस्व बनाने के लिए यह ज़रूरी था कि वे ग्रीको-रोमन मूल से आए ज्ञान को श्रेष्ठ साबित करें और ऐसे ही उनके खिलाफ संघर्षरत राष्ट्रवादियों के लिए यह कहना ज़रूरी था कि श्रेष्ठतर ज्ञान और विरासत यहीं रही है। पर अब न तो पहले जैसे उपनिवेश हैं, न ही वैसे राष्ट्रीय आज़ादी का आंदोलन। आज आर्थिक और सांस्कृतिक नव-उपनिवेशवाद का वर्चस्व है। जितना खतरा नव-उपनिवेशवादी आर्थिक-सास्कृतिक हमले का है, उतना ही राष्ट्रवादी संकीर्णता से है। इस खतरे को पहचान कर विश्व भर में लोग संघर्षरत हैं कि इंसान को इंसान समझ कर एक धरती की कल्पना की जाए, ताकि टिंबक्टू का सांस्कृतिक अतीत भी हमें उतना ही गौरव दे सके जितना नालंदा का अतीत देता है।

आज मानव की समस्याएँ विश्व-स्तर की हैं। गैरबराबरी पर आधारित पूँजीवादी विकास औऱ जगह जगह चल रही जंगों की वजह से धरती की परिस्थितियाँ तेजी से तरह बदल रही हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि आधुनिक मशीनी जीवन-शैली ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि कई तरह की जैव-रासायनिक और भू-पारिस्थिकीय सीमाओं का हम अतिक्रमण कर चुके हैं। इनमें से कुछेक ऐसी सीमाएँ हैं जहाँ से वापस लौटना नामुमकिन है। जलवायु में बदलाव, ओज़ोन परत में बढ़ चुका छेद और समुद्रों के अम्लीकरण जैसी समस्याओं से जुड़े आँकड़े बतलाते हैं कि हमें आपसी भेदभाव से ऊपर उठकर धरती पर मँडरा रहे बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा। हाल में मौसम-विज्ञान के एक सम्मेलन में यह दिखलाया गया कि अंटार्कटिका का एक बड़ा ग्लेशियर पिघलने की ऐसी प्रक्रिया में आ गया है जिसे अब रोका नहीं जा सकता। इससे अगली दो सदियों में समुद्र के पानी का तल तीन से पाँच मीटर बढ़ेगा, जिससे दसों करोड़ों की संख्या में लोग विस्थापित होंगे। नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के जैवरासायनिक चक्र का संतुलन बिगड़ रहा है। प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, जैविक विविधता में तेजी से ह्रास हो रहा है। भू-संरक्षण, वायुमंडल में प्रदूषक तत्वों की मात्रा में अभूतपूर्व बढ़त आदि कई समस्याएँ हैं, जिनपर गंभीरता से विचार न किया गया तो संभव है कि अगली सदी तक धरती में मानव का जीवन-निर्वाह असंभव हो जाए। पेय-जल के बारे में तो यह सब मानते ही हैं कि इसकी कमी की वजह से तीसरा विश्व-युद्ध हो सकता है। अब जब हम मानव के अस्तित्व की विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं, यह समझ स्पष्ट होनी चाहिए कि समूचे ब्रह्मांड में हमारी हैसियत तिनके भर की भी नहीं, न ही सृष्टि की शुरुआत से अब तक के इतिहास में मानवीय अस्तित्व का काल साल भर में पंद्रह मिनटों से ज्यादा है। इतना ही हम मान लें तो हमारे लिए यह समझना आसान हो जाएगा कि देश, धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव कितना बेमानी है।

ऐसे में यह ज़रूरी है कि हर नागरिक में विश्व-दृष्टि का निर्माण हो। विश्व-दृष्टि से हमारा मतलब यह नहीं कि स्थानीय संस्कृतियों की अपनी अस्मिता न हो। बल्कि इसके ठीक विपरीत हम यह कहेंगे कि स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों का विनाश कर मानव की वैश्विक अस्मिता नहीं बन सकती। इसलिए अंग्रेज़ीवादियों से हमारी सहमति नहीं है। विविधताओं को साथ लिए हमें एक मानव-अस्मिता बनानी है। विविधताओं से जीवन को अर्थ मिलता है। एकांगी मानव-अस्मिता का कोई मतलब नहीं होता। विश्व-संस्थाओं का एक प्रमुख काम ही यह होना जाहिए कि स्थानीय संस्कृतियों को बढ़ावा मिले। विविधताओं में कमी विश्व-स्तर पर मानव-अस्मिता को पनपने न देगी। यह बात पहली नज़र में अटपटी लग सकती है, पर गहराई से सोचने पर सही लगती है। यह एक तरह का बुनियादी मानव-सामाजिक सिद्धांत माना जा सकता है, कि विश्व-स्तरीय अस्मिता में अनिश्चितता और स्थानीय विविधता की व्यापकता का समीकरण बनता है कि दोनों का गुणनफल नियतांक है। एक बढ़ेगा तो दूसरा कम होगा।
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों मुल्कों में बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता और व्यापक निरक्षरता का फायदा उठाने वाली ताकतें सरगर्म हैं। हर मुल्क में सांप्रदायिकता का पुराना तर्क है - देखो, उस मुल्क में हमारे लोगों के साथ क्या हो रहा है। हमारे वर्त्तमान प्रधान मंत्री पाकिस्तान के हिंदुओं को बचाने की बात करते हैं। उधर के ऐसे ही लोग इसी तरह यह कहते रहते हैं कि देखो भारत में मुसलमानों की क्या हालत है। भारत में यह सांप्रदायिक सोच आम है कि सभी आतंकी मुसलमान होते हैं, हालाँकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम देशों में भी आतंकवाद के खिलाफ सामान्य लोगों की लड़ाई चल रही है। बोको हरम की सबसे तीखी निंदा मुस्लिम देशों और संगठनों ने की है।

आखिर इसका हल क्या है? क्या यह इंसान की फितरत है कि वह हमेशा ही गुटों, धर्मों, जातियों आदि में बँटा रहेगा? विनाश का प्रसार सभी सरहदों के पार फैल रहा है और जल्दी ही चाहे-अनचाहे इंसान के धरती पर बने रहने के लिए विश्व-स्तर की नागरिक चेतना का विकास ज़रूरी हो जाएगा।
दीगर मुल्कों में आपसी समझौते का कोई विकल्प नहीं है और समय हाथ से निकलता जा रहा है। यूरोप में हाल की सदियों में भयंकर जंगें लड़ी गईं। बीसवीं सदी की दो आलमी जंगों में दुनिया भर के दर्जनों करोड़ों लोगों की जानें गईं। आखिर में सदी के अंत में उन्होंने महासंघ बनाने का तय कर लिया और सरहदें खोल दीं। इसकी वजह से कई दिक्कतें सामने आईं। पोलैंड और रोमानिया जैसे कम संपन्न देशों से लोग इंगलैंड और जर्मनी जाने लग गए (हालाँकि ब्रिटेन ने पूरी तरह सरहदें खोली भी नहीं थीं)। इसकी वजह से कई जगह अशांति बढ़ी। दक्षिणपंथी ताकतों ने युवाओं में बेकारी से पनपे तनाव का फायदा उठाने की कोशिश की। पर कुल मिलाकर स्थिति पहले की तुलना में बेहतर ही रही या कम से कम इतना तो कहा जा सकता है कि बदतर नहीं हुई। इसका मुख्य कारण यह है कि संकीर्ण राष्ट्रवादी चेतना से ऊपर उठकर एक विश्व-स्तर की मानवीय चेतना ने जड़ें जमा ली हैं।
क्या हमारे लिए भी ऐसा ही कोई हल ठीक होगा? कल्पना करें कि भारत बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्री लंका और पाकिस्तान के बीच की सरहदों पर कोई रोक न हो। तुरंत कई लोग कहेंगे कि अरे बाप रे फिर तो दोनों तरफ बलवाई सरगर्म हो जाएँगे। शायद ऐसा हो, पर अगर जितना खर्च अभी सरहदों पर सेना तैनात रखने में आता है, उसका एक छोटा हिस्सा भी बलवाइयों को रोकने के लिए लगाया जाए तो समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। बाकी बचत से हम अपने शिक्षा, स्वास्थ्य आदि अन्य क्षेत्रों में बेहतरी ला सकते हैं।

सरकारों से अपने आप नीतियों में बदलाव की पहल की अपेक्षा रखना ग़लत होगा। खासतौर से नई सरकार जिस तरह बड़े पूँजीवादियों के कंधों पर चढ़कर आई है और जैसे अपराधी करोड़पतियों का संसद में बोलबाला है, उनसे यह उम्मीद रखना कि उनके दिलों में इस धरती और अगली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए जगह होगी, यह आधी रात में आस्मान में सूरज ढूँढने जैसी बात होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव-अध्यक्ष बान की-मून ने भारत के नए प्रधान मंत्री का स्वागत करते हुए उनसे गुजारिश की है कि वे सं. राष्ट्र संघ के मौसम में बदलाव पर होनेवाली सभा में शिरकत करें, पर ये औपचारिक रस्में हैं। दुनिया भर में सामान्य नागरिकता के सिद्धांत कैसे हों, मानव-अधिकार, स्त्रियों के अधिकार, समलैंगिकों के अधिकार, बेहतर पर्यावरण, इन सब को लेकर वैश्विक स्तर पर संघर्ष चल रहे हैं। धरती को बचाने के लिए चल रहे इन जनसंघर्षों को मजबूत करना होगा। साथ ही हर नागरिक को अतीत के हर किस्म के उत्पीड़न और त्रासदी पर जानकारी देनी होगी, ताकि हम संवेदनशील बनें और उनके दुबारा होने से बच सकें। हिटलर, स्टालिन, अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़नों की तरह ही हमारे अपने 1946-47, 1984 या 2002 जैसी हर त्रासदी पर जितना भी कहा जाए, वह कम है। हर जगह हर तरह के भेदभाव के खिलाफ जागरुकता पैदा करनी होगी। इंसान हर जगह एक सा है, यह सामान्य बात क्या हमें तभी समझ आएगी, जब धरती बिल्कुल विनाश के कगार पर होगी!

Sunday, June 01, 2014

अपने अपने मेफिस्टो

यह आलेख समयांतर पत्रिका के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुआ है -


हमारे अपने मेफिस्टोफिलिस

हंगरी के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक इस्तवान स्ज़ावो की एक बहुचर्चित फिल्म है - मेफिस्टो। इसमें उन्नीसवीं सदी के जर्मन साहित्यिक गेठे के कालजयी त्रासद नाटक 'फाउस्ट' के खलनायक मेफिस्टोफिलिस के रुपक का इस्तेमाल है। गेठे का मेफिस्टो ईश्वर से बाजी लेता है कि वह एक भले इंसान डॉक्टर फाउस्टस को नैतिकता की राह से हटाकर उसे हैवानियत के अंधकार में ले जाएगा। जर्मन साहित्य के अलावा दीगर पश्चिमी कृतियों में मेफिस्टो का जिक्र गाहे बगाहे शैतान के रूप में आता है। 1981 में बनी अपनी फिल्म में स्ज़ावो ने हेंड्रिक होयफ़गेन नामक एक प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता को इसी तरह नात्ज़ी पार्टी के साथ समझौता करता हुआ दिखाया है। होयफ़गेन मेफिस्टोफिलिस के चरित्र का अभिनय करना चाहता है, पर अपनी समझौतापरस्ती में वह फाउस्टस में तबदील होता जाता है। सचमुच का मेफिस्टो एक नात्ज़ी नेता है।
स्ज़ावो की फिल्म आज के संदर्भ में नए अर्थ लेकर आई है। कल के कई जानेमाने प्रगतिशील नाम आज अचानक खेमा बदलते दिखलाई पड़ रहे हैं। क्या ये हमारे फाउस्ट हैं? क्या ये भी मेफिस्टो के शिकार हो रहे हैं?
राजनैतिक दलों में आयाराम गयाराम की प्रवृत्ति पुरानी है, लोगों को इसकी आदत भी है, पर बुद्धिजीवियों में सत्ता बदलते ही गिरगिटी स्वभाव का उजागर होना झटके की तरह लगता है। 2004 के चुनाव में लोकप्रिय वामपंथी जनगीतकार भूपेन हाजारिका ने भाजपा की ओर से चुनाव लड़ा था। वह ऐसा झटका था कि आज तक हमलोग उससे निकल नहीं पाए हैं। पर चूँकि उत्तर-पूर्व मुख्यधारा की राजनीति में कभी भी बड़ी जगह नहीं बना पाया और हाजारिका वह चुनाव हार भी गए, इसलिए वह बात ज्यादा ध्यान न खींच सकी। उन दिनों मैंने 'भू भू हा हा' शीर्षक से एक कविता लिखी थी - दिन ऐसे आ रहे हैं/ सूरज से शिकवा करते भी डर लगता है/ किसी को कत्ल होने से बचाने जो चले थे' सिर झुकाये खड़े हैं/ दिन ऐसे आ रहे हैं//कोयल की आवाज़ सुन टीस उठती/ फिर कोई गीत बेसुरा हो चला/ दिन ऐसे आ रहे हैं//भू भू हा हा।
इधर चुनाव परिणामों के आने के पहले से ही कई लोगों में बदलाव दिखने लगे थे। राजनैतिक नेताओं में ऐसी खेमाबदली कुछ तो साल पहले और कुछ हाल के समय में हुए। इनमें शायद सबसे ज्यादा परेशान करने वाले राजनैतिक पथबदल आक्रामक दलित नेता रामदास अठावले का अपनी पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के साथ शिवसेना के साथ गठबंधन में शामिल होना और फिर हाल में पुरानी इंडियन जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष राम राज उर्फ़ उदित राज का भाजपा में आना और राम विलास पासवान के दल का भाजपा के नेतृत्व में राजग में शामिल होना हैं। ये सभी राष्ट्रीय मुक्ति- आंदोलन के महान नेता आंबेडकर के अनुयायी माने जाते हैं और यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि आंबेडकर कभी संघ की विचारधारा का समर्थन करें। चुनावों के दौरान दलितों और पिछड़ों के हित में और सांप्रदायिकता के खिलाफ एक लंबे अरसे से लड़ने वाले स्वामी अग्निवेश ने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में ख़त लिखा। आम लोग जो सिद्धांतों और नैतिकता के आधार पर सार्वजनिक जीवन में इंसान के व्यवहार को मापना चाहते हैं, यह सब बातें उनकी समझ से परे हैं। ऊपर लिखे बड़े झटकों की तुलना में कई लोगों को कमल मित्र चेनॉय और बल्ली सिंह चीमा जैसों का वामपंथी दलों की सदस्यता त्याग कर आआपा जैसे दलों में शामिल होना अपेक्षाकृत कम महत्त्व की बात लगती है, पर सचमुच दोनों एक ही बात हैं। राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं में लंबे समय तक संघर्ष करते रह कर भी कुछ भी हाथ न आने का अहसास और उससे उपजती तकलीफ समझ में आती है, हालाँकि ऐसा सच नहीं है कि कुछ भी बदला नहीं होता। संघर्षों से छोटे-बड़े परिवर्तन होते हैं, नया इतिहास बनता है और संघर्ष में शामिल हर कोई लोक-स्मृति में जगह बनाते चलता है।

बहरहाल, ठोस राजनैतिक काम से अलग कलम की लड़ाई लड़ने वाले बुद्धिजीवी वर्ग के कुछ लोगों में सत्ता बदलते ही अपने आवरण बदलने की ज़रूरत क्यों दिखती है, यह एक और सवाल है। नई सरकार बनने के बाद से उदारवादी जाने जाने वाले बुद्धिजीवियों में बदले हालात में खुद को ढालने की कोशिशें दिखने लगी हैं। इसे समझना एक तरह से मुश्किल है और साथ ही यह आसान भी है। मुश्किल यूँ कि जिन तर्कों के साथ कोई सैद्धांतिक ज़मीन तैयार करता है, उनको तोड़ कर नए सिद्धांत गढ़ना कैसे संभव हो सकता है, यह आम लोग नहीं समझ पाएँगे। नए रुख को किसी नई नौकरी की तरह नहीं समझाया जा सकता। नए मुहावरे गढ़ने पड़ते हैं या जिन मुहावरों को पहले ग़लत कहकर अपनी जगह बना रहे थे, अब उनको दुबारा ढूँढकर सही का जामा पहनाना पड़ता है। और आसान इसलिए कि हैं तो इंसान ही, इसलिए समझौतापरस्ती कोई बड़ी बात नहीं। हर व्यक्ति के अंदर ही एक मेफिस्टो बैठा है, हालाँकि कहानी में वह किसी और बाहरी रूप में बतलाया गया है। यह हमारी बदकिस्मती है कि भारत में संपन्न वर्गों से आए ऐसे बुद्धिजीवियों की भरमार है। हाल के चुनावों में अनगिनत मीडिया-कर्मियों ने खुद को चाहे-अनचाहे प्रबंधन को बेच दिया। सत्ता परिवर्तन में लगी ताकत का एक बड़ा हिस्सा उन्हीं का था। इनके अलावा कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने चुनावों के पहले और दौरान कुछ लिखा और चुनावों का परिणाम आते ही कुछ और। 'द हूट' नाम की पत्रिका में आलेखों के रंग बदल गए। सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार बुलंद रहने वाली इस पत्रिका ने चुनावों के बाद यह बतलाना शुरू किया कि कैसे प्रबंधन के नए सिद्धांतों का अद्भुत इस्तेमाल कर मोदी और उसके साथियों ने बाजी मार ली। शुद्धब्रत सेनगुप्त ने सही लिखा हैकि बनारस में मोदी का नाटक एक हिट सिनेमा जैसा था, जिसे एक समय प्रगतिशील रिपोर्टों के लिए जाने जाने वाली पत्रिका 'ओपेन मैगाज़ीन' के संपादक प्रसन्नराजन ने एक नाम तक दे डाला है - 'ट्रायम्फ ऑफ द विल'। यह नाम नात्ज़ी प्रोपागंडा के लिए बनी एक फिल्म का था जो नुअरेमबर्ग में 1934 में हिटलर की एक रैली पर बनाई गई थी। 'ओपेन मैगाज़ीन' वही पत्रिका है जहाँ से पहले एक गंभीर पत्रकार हरतोष सिंह बल को निकाला गया था और अभी दो महीने पहले तत्कालीन संपादक मनु जोसेफ ने इस्तीफा दिया था। उसके बाद मोदी समर्थक प्रसन्नराजन संपादक बने। अपने संपादकीय में उन्होंने मोदी की प्रशंसा में शब्दों की फुलझड़ियाँ लगा दी हैं, जिसे शुद्धब्रत ने ठीक ही चुनावी यौन-उत्तेजना कहा है। आखिर एक लोकतांत्रिक चुनाव से सत्ता में आए नेता की प्रशंसा में उसे हिटलर बना डालना बुद्धिजीवियों की अहमन्यता और अहमकपन को दर्शाता है। तो क्या सचमुच ये बुद्धिजीवी अब तक हिटलर का ही इंतज़ार कर रहे थे - यह वाजिब सवाल है। पर यह खतरनाक परिदृश्य सामने ले आता है। वाकई हिटलर और मोदी में कई समानताएँ हैं। 1932 में जर्मनी में हुए आम चुनावों में हिटलर की पार्टी को 66.9% प्रतिशत जर्मन लोगों ने समर्थन नहीं दिया था, पर हिटलर को सत्ता मिली। मोदी की पार्टी को 69% मतदाताओं ने समर्थन नहीं दिया, पर उन को सत्ता मिली है।
राजधानी के बुद्धिजीवी हल्कों में सरगर्म रहने वाले एक भानु प्रताप मेहता ने जब हाल में अपने एक आलेख में लिखा कि मोदी की जीत का मुख्य कारण मीडिया में उसे दानव बनाकर पेश किया जाना है तो पता चला कि पिछले कई वर्षों से चुनावों के पहले तक जनाब लगातार मोदी के खिलाफ मुखर रहे। बकौल रघु करनाड, उनकीटिप्पणियों के कुछ नमूने देखिए – "भाजपा समर्थकों को मान लेना चाहिए कि मोदी की जीत पाकिस्तान की जीत है (2002)”; “गोधरा कांड के सही कारणों का पता नहीं भी चले, मुसलमानों के जनसंहार के कारण अजाने नहीं हैं। यह सुनियोजित क्रूर हिंसा राज्य के समर्थन से की गई थी (2002)¨; “नरेंद्र मोदी के उन्मत्त प्रलाप से लेकर लालू यादव के भ्रामक बकवास तक का सार्वजनिक बहस का सारा ढाँचा ... ऐसा समाज रचता है जहाँ हम यह नहीं जानते कि कब किसकी किस बात पर हम यकीन करें (2002)”; “गोधरा कांड के बाद राज्य-सत्ता के समर्थन से हुए लघु-संख्यकों के जनसंहार से त्रासदी बेइंतहा गहरी हो गई (2005)”; “तोगड़िया और मोदी जैसे चरित्रों में पाकिस्तान और मुसलमानों को लेकर पूर्वग्रह भरा जघन्य और तर्कहीन डर भरा है (2005)”; “इस हिंसा पर जैसा विमर्श धीरे-धीरे विकसित हो रहा है, जिस तरह की शब्दावली इसे बखानने, इसकी व्याख्या करने, इसे उचित ठहराने और इसे नज़रअंदाज़ करने के लिए सामने आ रही है, उससे इस हिंसा के भुला दिए जाने का डर है।"
इसी तरह नए प्रगतिशील चिंतकों में एक बड़े चिंतक, शिव विश्वनाथन, जिन्हें विज्ञान की आलोचना में उनके काम के लिए जाना जाता है, ने चुनावों के ठीक पहले 28 मार्च को 'द हिंदू' मेंअपने एक आलेख में  बनारस में केजरीवाल और मोदी की भिड़ंत पर लिखा था, 'मोदी जिस भारत-इंडिया, हिंदू-मुस्लिम फर्क को थोपना चाहते हैं, बनारस उसे खारिज करता है।' अब मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल गया है। 21मईको लिखे एक आलेख में नरेंद्र मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा और फिर उसके बाद गंगा में आरती की बात करते हुए शिव बतलाते हैं कि मोदी जी के होने से यह संदेश मिला कि हमें अपने धर्म से शर्माने की ज़रूरत नहीं है। यह पहले नहीं हो सकता था।

कौन सा धर्म? कैसी शर्म? सच में वह कोई धार्मिक काम नहीं था। वह आरती किसी भी धार्मिकता से बिल्कुल अलग एक विशुद्ध राजनीतिक कदम था। उसमें से उभरता संदेश यही था कि तानाशाह आ रहा है।
नए आलेख में शिव वामपंथियों, उदारवादियों और वैज्ञानिकों को झाड़ पर झाड़ लगाते हैं - 'उदारवादी इस बात को न समझ पाए कि मध्य-वर्ग के लोग तनाव-ग्रस्त हैं और मोदी ने इसे गहराई से समझा।' पहले इन तनावों की वाम की समझ के साथ शिव सहमत थे, पर अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता है, जिसने धर्म को जीने का सूत्र नहीं, बल्कि एक अंधविश्वास ही माना। यह 50 साल पुरानी बहस है कि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा या कि उसे उत्पीड़ितों की आह माना। आगे वे वाम को एक शैतान की तरह दिखलाते हैं, जिसने संविधान में वैज्ञानिक चेतना की धारणा डाली ताकि धर्म की कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति मिले। रोचक बात यह है कि अंत में वे दलाई लामा को अपना प्रिय वैज्ञानिक कहते हैं। तो क्या वैज्ञानिक में 'वैज्ञानिक चेतना' की भ्रष्ट धारणा नहीं होती! उनके मुताबिक यह धारणा एक शून्य पैदा करती है, और धर्म-निरपेक्षता बढ़ाती है, जिससे ऐसा एक दमन का माहैल बनता है जहाँ आम धार्मिक लोगों को नीची नज़र से देखा जाता है। बेशक विज्ञान को सामाजिक मूल्यों और सत्ता-समीकरणों से अलग नहीं कर सकते, पर यह मानना कि जाति, लिंगभेद आदि संस्थाएँ, जिन्हें धार्मिक आस्था से अलग करना आसान नहीं, विज्ञान उनसे भी अधिक दमनकारी है, ग़लत है। अब शिव का यह भी कहना है कि पिछली सरकार ने चुनावों के मद्देनज़र लघुसंख्यकों की तुष्टि की और इससे बहुसंख्यकों को लगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। सोचने की बात है कि अगर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट जैसे दस्तावेजों से उजागर लघु-संख्यकों के बुरे हालात के मद्देनज़र अगर उनकी तरफ अधिक ध्यान दिया गया तो इससे एक बुद्धिजीवी को क्या तकलीफ? और यह तकलीफ पहले कभी क्यों नहीं हुई?

बिना विस्तार में गए सिर्फ इस अहसास को बढ़ाना कि लघु-संख्यकों का तुष्टीकरण होता है, एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। होना यह चाहिए कि हम सोचें कि देश में लघु-संख्यकों का हाल इतना बुरा क्यों है कि उनका चुनावों के दौरान फायदा उठाना संभव होता है। उनकी माली और तालीमी हालत इतनी बुरी क्यों है कि उनके बीच से उठने वाली तरक्की-पसंद आवाज़ें दब जाती हैं। पर अब कौन जाने कि मेफिस्टो क्या-क्या कहलाता है? आज तो शिव के नए आलेख में वाम पर लताड़ को पढ़कर लगता है मानो नई सरकार क्या बनी, भारत से स्टालिन का शासन खत्म हुआ!
हमारे समय के ये सारे फाउस्ट अपने अपने मेफिस्टो के जादू के नशे में हैं। इन्हें लगता है कि वे चालाकी से अपना रंग बदल लेंगे और जो इन्हें रंग बदलते पकड़ लेते हैं वे जाएँ भाड़ में। पर हर समझौतापरस्ती आखिर हमें वहीं ले जाती है जहाँ स्ज़ावो का होयफगेन पहुँचता है। एकदिन हम खुद को मेफिस्टो के सामने खड़ा पाते हैं और हमें समझ में नहीं आता कि हम रोएँ तो कैसे रोएँ।