Monday, December 28, 2009

तीन महीने की जेल और सात दिनों की फाँसी

मैं चाहता था कि साथ साथ सुकुमार राय के बनाए स्केच भी पोस्ट करता जाऊँ। पहली किस्त में बिल्ले का स्केच उन्हीं का बनाया है। चलो, स्केच के साथ फिर कभी।

पिछली किस्त से आगेः


... "धर्मावतार हुजूर! यह मानहानि का मुकदमा है। इसलिए पहले यह समझना होगा कि मान किसे कहते हैं। अरबी जाति की जड़ वाली सब्जियों को मान कहते हैं। अरबी बड़ी पौष्टिक चीज है। कई प्रकार की अरबी होती है, देशी अरबी, विदेशी अरबी, जंगली अरबी, पानी की अरबी इत्यादि।
अरबी के पौधे की जड़ ही तो अरबी है, इसलिए हमें इस विषय की जड़ तक जाना चाहिए।"

इतना कहते ही एक सियार जिसके सिर पर नकली वालों की एक टोपी सी थी, झट से कूद कर बोला, "हुजूर, अरबी बड़ी बेकार चीज है। अरबी खाकर गले में खुजली होती है। "जा, जली अरबी खा" कहने पर लोग बिगड़ जाते
हैं। अरबी खाते कौन हैं? अरबी खाते हैं सूअर और साही। आऽ.. थूः" साही फिर फूँफूँत फूँत कर रोने ही वाला था, पर मगर ने उस बड़ी किताब से उसके सिर पर मारा और पूछा, "कागज़ात दलील, साक्षी सबूत कुछ हैं?" साही ने सिरमुँड़े की ओर देखकर कहा, "उसके हाथ में सभी कागज़ात हैं न।" कहते ही मगर ने सिरमुँड़े से बहुत से कागज़ छीनकर अचानक बीच से पढ़ना शुरू किया -

एक के ऊपर दूई
चंपा गुलाब जूही
सन से बुनी भुँई

खटिए पे सोई
हिल्सा रोहू गिरई
गोबर पानी धोई

बाँध पोटली थोथी
पालक सरसो मेथी
रोता क्यों रे तू भी।

साही बोला, "अरे यह क्यों पढ़ रहे हो? यह थोड़े ही है।" मगर बोला, "अच्छा? ठहरो।" यह कह कर वह फिर एक कागज लेकर पढ़ने लगा।

चाँदनी रात को भूतनी बुआ सहिजन तले ढूँढ न रे -
तोड़ खोपड़ी भुक्खड़ चौकड़ी हड्डी चकाचक भोज चखे।
आँवले पे टँगी, माहवर से रँगी, नाक लटकाई पिशाचिनी
बालियाँ लहराती, बोले हड़काती, मुँझे क्यों न न्यौंतां नीं!
मुंड माला, गले में डाले, बाल फैलाए, उल्टी झूले बुढ़िया
कहे दोलती, सब सालों का मांस खाऊँगी, स्वाद बड़ा है बढ़िया।

साही बोला, "धत् तेरे की! पता नहीं क्या पढ़ते जा रहा है!"

मगर बोला, "तो फिर क्या पढूँ - यह वाला? दही का दंगल, खट्टा-मीठा मंगल, चादर कंबल, ले इतना बल, बुद्धू भोंदल – यह भी नहीं?"

अच्छा तो ठहरो देखता हूँ - घनी अँधेरी राती में, जा सोई बरसाती में, बार बार भूख क्यों लागे रे? - क्या कहा? यह सब नहीं? कविता तुम्हारी बीबी के नाम है? - तो यह बा ततो पहले ही बतला सकते थे। अरे मिल गई – रामभजन की बीबी, पक्की शेर की दीदी! बर्त्तन रखे झनार् झन, कपड़े धोए धमाधम! - यह भी ठीक नहीं? तो फिर ज़रुर यह वाली है -
खः खः खाँसी, उफ् उफ् ताप, फुस्स फुस्स छेद, बुढ़वा जा खेत। दाढ़ों में दर्द, पसलियों का मर्ज, बुढ़ऊ आज रात, जा रहा स्वर्ग। साही जोर जोर से रोने लगा, "हाय, हाय! मेरे सारे पैसे लुट गए! कहाँ से आया यह अहमक वकील, कागज़ात दिए भी तो खोज नहीं पाता।"

सिरमुँड़ा अब तक सिमटा सा बैठा था, अचानक वह बोल उठा, "क्या सुनन चाहते हो? वह जो - चमगादड़ कहे - सुन भई साही - वह वाला?"

साही ने तुरंत परेशान सा होकर कहा, "चमगादड़ क्या कहता है? हुजूर, ऐसा है तो चमगादड़कृष्ण को गवाह मानने का आदेश करें।"

भेक मेढक ने गालों को फुलाकर गला फाड़ कर आवाज दी - "चमगादड़कृष्ण हाजिर?"

सबने इधर उधर झाँककर देखा। चमागादड़ कहीं न था। तब सियार ने कहा, "तो फिर हुजूर, इन सब को फाँसी का दंड दें।"

मगर ने कहा, "ऐसा क्यों? अभी तो हम अपील कर सकते हैं।"

उल्लू ने आँखें मींचे कहा, "अपील पेश हो। गवाह लाओ।"

मगर ने इधर उधर झाँक कर अंट संट वंट से पूछा, "गवाही देगा? चार आने मिलेंगे।" पैसों का नाम लेते ही अंट संट वंट झट से गवाही देने के लिए उठा और फिर खी खी कर हँस उठा।

सियार बोला, "हँस क्यों रहे हो?"

अंट संट वंट बोला, एक आदमी को सिखाया गया था कि गवाही में कहना, पुस्तक पर हरे रंग की जिल्द है, कान के पास चमड़ा नीले रंग का और सिर के ऊपर लाल स्याही की छाप है। वकील ने जैसे ही उससे पूछा, "तुम असामी को जानते हो?" तुरंत वह बोल उठा, "अरे हाँ हाँ, हरे रंग की जिल्द, कान के पास नीला चमड़ा, सिर पर लाल स्याही की छाप" – हो हो हो हो ---।"

सियार ने पूछा, "तुम साही को पहचानते हो?"

अंट संट वंट बोला, "हाँ, साही पहचानता हूँ, मगर पहचानता हूँ, सब पहचानता हूँ। साही गड्ढे में रहता है, उसके शरीर पर लंबे लंबे काँटे हैं और मगर के शरीर पर टीले जैसे धब्बे हैं, वे बकरी वकरी पकड़ के खाते हैं।" ऐसा कहते ही व्याकरण सिंह व्या व्या चीखते हुए जोरों से रो पड़ा।

मैं बोली, "अब क्या हो गया?"

बकरा बोला, "मेरे मँझले मामा का आधा एक मगर खा गया था, उसलिए बाकी आधा मर गया।"

मैं बोली, "गया तो गया, बला टली। तुम अब चुप रहो।"

सियार ने पूछा, "तुम मुकदमे के बारे में कुछ जानते हो।"

अंट संट वंट बोला, "मालूम कैसे नहीं? कोई एक शिकायत करता है, तो उसका एक वकील होता है और एक आदमी को आसाम से लाया जाता है, उसे कहते हैं असामी। उसका भी एक वकील होता है। हर दिन दस गवाह बुलाए जाते हैं। और एक जज होता है, जो बैठे बैठे सोता है।"

उल्लू बोला, "मैं बिल्कुल सो नहीं रहा, मेरी आँखें ठीक नहीं हैं, उसलिए आँखें भींचे हुए हूँ।"

अंट संट वंट बोला, "और भी कई जज देखे हैं, उन सब की आँखों में खराबी होती थी।" कह कर वह खी खी कर जोर से हँसने लगा।

सियार बोला, "अब क्या हो गया?"

अंट संट वंट बोला, "एक आदमी के दिमाग में गड़बड़ी थी। वह हर चीज के लिए एक नाम ढूँढता रहता। एसके जूते का नाम था अविमृष्यकारिता, उसकी छतरी का नाम था प्रत्युत्पन्नमतित्व, उसके लोटे का नाम था परमकल्याणवरषु - पर जैसे ही उसने अपने घर का नाम रखा किंकर्त्तव्यविमूढ़ - बस एक भूकंप आया और घर वर सब गिर पड़ा। हो हो हो हो - ।"

सियार बोला, "अच्छा? क्या नाम है तुम्हारा?"

वह बोला, "अभी मेरा नाम है अंट संट वंट। "

सियार बोला, "नाम के अभी तक का क्या मतलब?"

अंट संट वंट बोला, "यह भी नहीं जानते? सुबह मेरा नाम होता है आलूखोपरा। और जरा सी शाम हो जाए तो मेरा नाम हो जाएगा रामताडू।"

सियार बोला, "रिहाइश कहाँ की है?"

अंट संट वंट बोला, "किसकी बात पूछी? रईस की? रईस गाँव चला गया है।" तुरंत भीड़ में से उधवा व बुधवा एक साथ चिल्ला उठे, "ओ, तब तो रईस ज़रुर मर गया होगा।"

उधवा बोला, "गाँव जाते ही लोग हुस हुस कर मर जाते हैं।"

बुधवा बोला, "हाबूल का चाचा जैसे ही गाँव गया, पता चला कि वह मर गया।"

सियार बोला, "आः, सब एक साथ मत बोलो, बड़ा शोर मचता है।"

यह सुनकर उधवा ने से कहा, "फिर सब एक साथ बोलेगा तो तुझे मार मार कर खत्म कर दूँगा।" बुधवा बोला, "फिर शोर मचाया तो तुझे पकड़ कर पोटली-पिटा बना दूँगा।"

सियार बोला, "हुजूर, ये सब पागल और अहमक हैं, इनकी गवाही की कोई कीमत नहीं है।"

यह सुनकर मगर ने गुस्से से पूँछ का थपेड़ा मारा और कहा, "किसने कहा कि कीमत नहीं है। बाकायदा चार आने खर्च कर गवाही दिलवाई जा रही है।" ऐसा कहते ही उसने ठक ठक कर सोलहा पैसे गिनकर अंट संट वंट के हाथ थमाए।

तुरंत किसी ने ऊपर से कहा, "गवाही नंबर १, नकद हिसाब, कीमत चार आने।"

सियार ने पूछा, "तुम इस विषय पर कुछ और जानते हो?"

अंट संट वंट ने जरा सोचकर कहा, "सियार के बारे में एक गाना है, वह जानता हूँ।"

सियार बोला, "कौन सा गाना, सुनाओ जरा?

अंट संट वंट सुर में गाने लगा, "आ जा, आ जा, सियार बैगन खा जा, नमक तेल कहाँ बता जा।"

इतना कहते ही सियार ने परेशान होकर कहा, "बस, बस, वह किसी और सियार की बात थी, तुम्हारी गवाही खत्म हो गई है।"

इसी बीच जब लोगों ने देखा कि गवाही के लिए पैसे मिल रहे हैं तो गवाही देने के लिए धक्कम धुक्कम मच गई। सब एक दूसरे को धकेल रहे हैं, तभी मैंने देखा कि कौव्वेश्वर ने धम् से पेड़ से उतरकर गवाही के मंच पर बैठ गवाही देनी शुरु कर दी। कोई कुछ कहे - इसके पहले ही उसने कहना शुरु किया, "श्री श्री भूशंडिकौवाय नमः, श्री कौव्वेश्वर कलूटाराम, ४१, झाड़मबाजार, कौवापट्टी। हम हिसाबी बेहिसाबी खुदरा थोक हर प्रकार की गणना का काम -।"

सियार बोला, "बेकार बकवास मत करो। जो पूछूँ उसका जवाब दो। क्या नाम है तुम्हारा?"

कौवा बोला, "अरे क्या परेशानी है! वही तो बतला रहा था मैं - श्री कौव्वेश्वर कलूटाराम।"

सियार बोला, "रिहायश कहाँ की है?"

कौवा बोला, "बतलाया कौवापट्टी।"

सियार बोला, "यहाँ से कितनी दूर है?"

कौवा बोला, "यह बतलाना बड़ा मुश्किल है। प्रति घंटे चार आने, प्रति मील दस पैसे, नकद दो तो दो पैसे कम। जोड़ोगे तो दस आने, घटाओ तो तीन आने, भाग लगाओ तो सात पैसे, गुणा करो तो इक्कीस रुपए।"

सियार बोला, "बस, बस, हमें अपना ज्ञान मत दिखलाओ। मैं पूछता हूँ, घर जाने की राह पहचान सकते हो?”

कौवा बोला, "बिल्कुल पहचानता हूँ जी! यही तो सीधी राह जाती है।"

सियार बोला, "यह राह कितनी दूर जाती है?"

कौवा बोला, "राह कहाँ जाएगी? जहाँ की राह, वहीं जाएगी। राह क्या इधर उधर चरने जाएगी? या हवा खाने दार्जिलिंग जाएगी?"

सियार बोला, "तुम तो बड़े बेअदब हो! अजी, गवाही देने आए हो, इस मुकदमे के बारे में कुछ जानते भी हो?"

कौवा बोला, "वाह, भई वाह! अब तक बैठ कर हिसाब किसने निकाला? जो कुछ जानना चाहो मुझ से जान लो। जैसे किसी भी राशि के मान का क्या मतलब है? मान मतलब कचौड़ी, कचौड़ी चार तरह की होती है - हींग, कचौड़ी, खस्ता कचौड़ी, कचौड़ी नमकीन व जीभकुरकुरी। खाने पर क्या होता है? खाने पर सियारों के गले में खुजली होती है, पर कौवों को नहीं होती। फिर एक गवाह था, नकद कीमत चार आने, वह आसाम में रहता था, उसके कान का चमड़ा नीला हो गया - उसे कहते थे कालाजार। उसके बाद एक आदमी था, हर किसी का नाम ढूँढता रहता - सियार को कहता तेलचोर, मगर को अष्टावक्र, उल्लू को विभीषण - " इतना कहते ही सभा में बड़ा शोर मच गया। मगर ने गुस्से में आकर भेक मेढक को खा लिया - यह देख छुछुंदर किच किच करता जोर से चिल्लाने लगा, सियार एक छतरी लेकर हुस हुस की आवाज में कौव्वेश्वर को भगाने लगा।

उल्लू ने गंभीरता से कहा, "सब चुप रहो, मुझे इस मुकदमे की राय देनी है।" यह कह कर उसने कान पर कलम लटकाए खरगोश को हुल्म दिया, "जो कह रहा हूँ लिख लो। मानहानि का मुकदमा, चौबीस नंबर, फरियादी -साही। असामी - ठहरो। असामी कहाँ है?" तब सबने कहा, "रे मारा, असामी तो कोई है ही नहीं।" जल्दी से समझा बुझा कर किसी तरह सिरमुँड़े को असामी बनाया गया। सिरमुँड़ा था मूर्ख, उसने समझा असामी को भी शायद पैसे मिलें, इसलिए उसने कोई विरोध नहीं किया।

हुक्म हुआ – सिरमुँड़े को तीन महीने की जेल और सात दिनों की फाँसी। मैं सोच रही थी कि ऐसे अन्यायपूर्ण निर्णय का विरोध करना चाहिए, इसी बीच अचानक बकरे ने "व्या-करण सिंह" कह कर पीछे से दौड़कर आकर मुझे सींग मारा, उसके बाद मेरा कान काट लिया। तभी लगा चारों ओर सब कुछ धुँधला सा हो गया। तब जरा ध्यान से देखा, मँझले मामा कान पकड़ कर कह रहे हैं, " व्याकरण सीखने का कह कर लेटे लेटे सो पड़ी?"

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ! पहले सोचा कि अब तक शायद सपना देख रही थी। पर तुम यकीन न करोगे, अपना रुमाल ढूँढने लगी तो पाया कि रुमाल कहीं भी नहीं था और एक बिल्ला बाड़े पर बैठा मूँछों पर ताव दे रहा था। अचानक मुझे देखते ही खच खच आवाज करता भागा। और बिल्कुल तभी बगीचे के पीछे से एक बकरा व्या स्वर में चिल्ला उठा।

मैंने बड़े मामा को यह सब बतलाया। पर बड़े मामा ने कहा, "जा भाग, बेकार सब सपने देखकर यहाँ गप मारने आई है।" इंसान की उम्र होने पर वह ऐसा हठी हो जाता है कि किसी भी बात पर यकीन नहीं करना चाहता। तुम्हारी तो अभी इतनी उम्र नहीं हुई – इसलिए तुम पर भरोसा है - तभी तुम्हें ये बातें सुनाईं।
(समाप्त)

Sunday, December 27, 2009

प्यारे बच्चों और मित्र अंट संट वंट

पता चला कि शिबू सोरेन ने कुछ नक्सलपंथी उम्मीदवारों की सफलता के सिर पर 18 सीटें जीत लीं। अब भाजपा की मदद से सरकार बनेगी। उधर झाड़खंड राज्य की सीमा की दूसरी ओर माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस का साथ है। यह भी सुना कि सी पी एम के गुंडे अब लाल रंग छोड़ कर ममता के प्रेम में बमबाजी कर रहे हैं। हमलोग जो वनवासियों के खिलाफ सरकार की अन्यायपूर्ण जंग के खिलाफ हैं, हमें कई लोग माओवादियों का समर्थक ही मानते हैं। हम माओ द्ज़े दोंग को बीसवीं सदी के महानतम व्यक्तित्वों में से एक मानते भी हैं। पर इस वक्त समझना मुश्किल होता जा रहा है कौन किस तरफ है और कौन किस तरफ नहीं; सब कुछ ह य व र ल ही है। इस बीच सरकार की और समझौतापरस्तों की मार से पिट मर रहे हैं लोग।

तो पिछली किस्त से आगेः


...उस पशु ने कहा, "क्यों हँस रहा था सुनोगी? मान लो धरती अगर चपटी होती और सारा पानी फैल कर ज़मीं पर आ जाता और ज़मीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो....., हो, हो, हा, हा - "

इतना कह कर फिर हँसते हँसते गिर पड़ा।

मैं बोली, "अजीब बात है! इसी बात पर तुम ऐसी भयंकर हँसी हँस रहे हो?"

उसने फिर हँसी रोक कर कहा, "नहीं, नहीं, केवल इसी बात पर नहीं। मान लो एक आदमी आ रहा है, उसके हाथ में कुल्फी बर्फ है और एक हाथ में मिट्टी। और वह आदमी कुल्फी की जगह मिट्टी खा बैठा - हो, हो, हा, हा, हो, हो, हा, हा -" फिर हँसी शुरु।

मैं बोली, "तुम ऐसी असंभव बातें सोचकर क्यों ख़ामख़ाह हँस हँस कर तड़प रहे हो?"

वह बोला, "नहीं, नहीं, हर बात असंभव थोड़े ही है? मान लो एक आदमी छिपकलियाँ पालता है, रोज उन्हें नहा खिला कर सुखाता है, एक दिन एक दढ़ियल बकरा आ कर सभी छिपकलियों को खा गया - हो, हो, हो, हो - "

इस जानवर की आदतें देख कर मुझे बड़ा अचंभा हुआ। मैंने पूछा, "तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है?"

उसने थोड़ी देर सोच कर कहा, "मेरा नाम है अंट संट वंट। मेरा नाम अंट संट वंट, मेरे भाई का नाम अंट संट वंट, मेरे पिता का नाम अंट संट वंट, मेरे फूफे का नाम अंट संट वंट - "

मैं बोली, "इससे तो सीधे ही कह दो कि तुम्हारे वंश में सभी का नाम अंट संट वंट है।"

फिर उसने थोड़ा सोच कर कहा, "ऐसा तो नहीं है, मेरा नाम तकाई है, मेरे मामा का नाम तकाई है, मेरे मौसे का नाम तकाई है, मेरे ससुर का नाम तकाई है.........."

मैंने डाँटकर कहा, "सच कहते हो? या बना रहे हो?"

वह जानवर जरा हड़बड़ा कर बोला, "न, न! मेरे ससुर का नाम बिस्कुट है।"

मुझे बड़ा गुस्सा आया, चीख कर बोली, "मुझे एक भी बात पर यकीन नहीं।"

तभी न कोई बात न तुक, झाड़ी के पीछे से एक बहुत बड़ा दढ़ियल बकरा झाँकते हुए पूछ उठा, "मेरी बात हो रही है क्या?"

मैं कहने ही वाली थी, "नहीं," पर कुछ कहने के पहले ही वह तड़ातड़ बोलने लगा, "तुम लोग जितना भी झगड़ो, ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो बकरे नहीं खाते। इसलिए मैं एक भाषण देना चाहता हूँ, जिसका विषय है - छागल क्या न खाए।"
यह कह कर वह अचानक मेरे सामने आकर भाषण देने लगा -

"प्यारे बच्चों और मित्र अंट संट वंट, मेरे गले से लटके सर्टीफिकेट से तुम समझ ही सकते हो कि मेरा नाम श्री श्री व्याकरण सिंह बी. ए. भोजनविशारद् है। मैं बहुत बढ़िया व्या व्या की आवाज करता हूँ। उसलिए मेरा नाम व्याकरण है और सींग लगे तो देख ही रहे हो। अंग्रेज़ी में लिखता हूँ B.A. यानी ब्यै। कौन कौन सी चीजें खाई जाती हैं, और कौन कौन सी खाई नहीं जातीं; यह सब मैंने खुद परीक्षण कर देखा है, इसलिए मुझे खाद्य विशारद की उपाधि मिली है। तुम लोग कहते हो - पागल क्या न बोले और छागल क्या न खाए – यह बहुत ही गलत बात है। अरे अभी थोड़ी देर पहले इस फिटे मुँह ने कहा था कि दढ़ियल बकरा छिपकली खाता है। यह पूरी तरह से बिल्कुल झूठी बात है। मैंने कई प्रकार की छिपकलियाँ चाटी हैं, उनमें खाने लायक कुछ नहीं है। हाँ, यह ज़रुर है कि कभी कभी हम ऐसी कई चीजें खाते हैं, जो तुम लोग नहीं खाते, जैसे, खाने की चीजों का लिफाफा या खोपरे के रेशे, या अखबार या "चकमक" जैसी बढ़िया पत्रिका। पर इसका मतलब यह नहीं कि कोई दुरुस्त बाइंड की हुई किताब हम खाएँ। भूले-भटके कभी हम कोई रजाई-कंबल या गद्दा-तकिया जैसी चीज थोड़ा बहुत खा लेते हैं, पर जो लोग कहते हैं कि हम खटिया, पलंग या टेबल चेयर भी खाते हैं, वे बड़े झूठ बोलने वाले हैं। जब हमारे मन में खूब उमंग आती है, तब कई प्रकार की चीजें हम शौक से चबाकर या चख कर देखते हैं, जैसे पेंसिल, रबर या बोतल के ढक्कन या सूखे जूते या मोटे कपड़े का थैला। सुना है कि मेरे दादाजी ने एक बार उत्साह में भरपूर हो कर एक अंग्रेज़ के तंबू का कोई आधा हिस्सा खाकर खत्म कर दिया था। पर भई, छुरी कैंची या शीशी बोतल, ऐसी चीजें हम कभी नहीं खाते। कोई कोई साबुन खाना पसंद करता है, पर वे तो बिल्कुल छोटी मोटी साबुनें हैं। मेरे छोटे भाई ने एकबार एक पूरी बार सोप खा ली थी - " कहकर व्याकरण सिंह आस्मान की ओर आँखें किए व्या व्या की आवाज में ज़बर्दस्त रोने लगा। इससे मैं समझ गई कि साबुन खाकर उस भाई की समय से पहले ही मौत हो गई होगी।

अंट संट वंट अब तक लेटा लेटा सोया हुआ था, अचानक बकरे की विकट रोने की आवाज सुन वह हाँऊ माँऊ कहता धड़धड़ाकर उठ पड़ा और बुरी तरह हाँफने लगा। मैंने समझा कि इस बेवकूफ की तो अब मौत ही हो गई! पर थोड़ी देर बाद वह उसी तरह हाथ पैर उछालता खिक् खिक् कर हँस रहा है।

मैं बोली, "इसमें हँसने की क्या बात हुई?"

वह बोला, "अरे, एक आदमी जो था, वह कभी कभी ऐसे भयंकर खुर्राटे मारता कि सभी उस पर बिगड़े रहते! एक दिन उसके घर बिजली गिरी और सब जाकर उसे धमाधम पीटने लगे - हो हो हो हो - " मैं बोली, "क्या फालतू बातें करते हो?" यह कह कर जैसे ही लौटने लगी, झाँक कर देखा कि एक सिरमुँड़ा नौटंकी के किसी चरित्र सा शेरवानी और पाजामा पहने हँसती हुई शक्ल बनाए मेरी ओर देख रहा है। उसे देखते ही मेरे बदन में आग सी लग गई। मुझे वहाँ से आँखें हटाते देख कर उसने बड़े प्यार दुलार से गर्दन टेढ़ी कर दोनों हाथों को हिलाकर कहना शुरु किया, "नहीं भाई, नईं भई, अभी मुझे गाने को मत कहना। सच कहता हूँ, आज मेरा गला इतना साफ नहीं है।"

मैं बोली, "अच्छी मुसीबत है! तुम्हें गाने को कहा ही किसने है?"

वह आदमी ऐसा बेहया निकला, मेरे कानों के सामने भुनभुनाने लगा, "गुस्सा आ गया, हाँ भई, गुस्सा क्यों करती हो? अच्छा कोई बात नहीं, कुछ गीत सुना ही देता हूँ, गुस्से की क्या ज़रुरत है भई?"

मेरे कुछ कहने के पहले ही वह बकरा और अंट संट वंट एक साथ चिला उठे, "हाँ, हाँ, गाना हो, गाना हो," तुरमत उस सिरमुँड़े ने जेब से लंबे गानों की दो पट्टियाँ निकालीं, उन्हें आँखों के पास रखा और गुनगुनाते हुए अचानक पतली आवाज में चीखकर गाना शुरु किया - "लाल गीत में नीला सुर, मीठी मीठी गंध"

इसी एक पंक्ति को उसने एकबार गाया, दो बार गाया, पाँच बार गाया। दस बार गाया।

मैं बोली, "अरे, यह तो बड़ा बवेला मचा दिया, गीत में क्या और कोई पंक्ति नहीं है?"

मुंड़े सिर ने कहा, "हाँ, है, पर वह एक और गीत है। वह है - "अली गली चले राम, फुटपाथ पे धूमधाम, स्याही से चूने का काम।" यह गीत मैं आजकल नहीं गाता। एक और गाना है - नैनीताल के नए आलू - वह बहुत ही महीन आवाज में गाया जाता है। वह भी मैं आजकल नहीं गा सकता। आजकल मैं जो गीत गाता हूँ, वह है शिखिपाँख का गीत। इतना कहकर वह गाने लगा।

मिशिपाँख शिखिपाँख आस्माँ के कानों में
ढक्कन लगी शीशी बोतल पतले से गानों में
शमा भूले टेढ़ी लौ दो दो कदम कित्ती दूर
मोटा पतला सादा काला छलछलक छाया सूर

मैं बोली, "यह भी कोई गीत हुआ?" इसका तो सिर पैर कुछ नहीं है।"

अंट संट वंट बोला, "हाँ, यह गीत बड़ा कठिन है।"

बकरा बोला, "कठिन क्या है? बस जो शीशी बोतल वाली बात थी, वह सख्त लगी, इसके अलावा तो कुछ कठिन नहीं था।"

सिरमुँड़े ने मुँह फैलाकर कहा, "अगर तुमलोग आसान गीत सुनना चाहते थे, तो ऐसा कह ही सकते थे। इतनी बातें सुनाने की क्या ज़रुरत है? मैं क्या सहज गीत नहीं गा सकता क्या?" यह कह कर उसने गाना शुरु किया।

कहे चमगादड़, अरे ओ भाई साही
आज रात को देखोगे एक मजाही

मैं बोली, "मजाही कोई शब्द नहीं होता।"

मुँड़ासिर बोला, "क्यों नहीं होगा - ज़रुर होता है। साही, सिपाही, कड़ाही सब हो सकते हैं, मजाही क्यों नहीं हो सकता?"

बकरा बोला, "अरे तुम गाना तो चालू रखो - क्या होता है या नहीं होता है, यह सब बाद में देखा जाएगा।"

बस वह गीत शुरु हो गया -
कहे चमगादड़, अरे ओ भाई साही
आज रात को देखोगे एक मजाही
आज यहाँ चमगादड़ उल्लू सारे
सब मिल आएँगे, चूहे मरेंगे बेचारे
मेंढक और बेंगची काँपेंगे डर से
फूटेंगी उनकी घुमौड़ियाँ पसीने भर से
दौड़ेगा छुछुंदर, लग जाएगी दंतकड़ी
फिर देखना छिंबो छिंगा चपलड़ी

मैं फिर रोकने जा रही थी, पर सँभल गई। गीत चलता रहा,

साही बोला, अरे झाड़ी में अभी
मेरी बीबी सोने गई, देखो तो सभी
सुन लो अरे ओ उल्लू - उल्लूआनी
शोर से 'गर टूटी उसकी नींद सुहानी
चूर मचूर कर दूँगा मैं खुरच खुरचा कर
यह बात तुम्हीं उन्हें कहना समझाकर

कहे चमगादड़, उल्लू के घर परिवार
कोई क्यों माने तुम्हारी दादा हुँकार
है कोई सोता जब रात हो अँधेरी?
बीबी है तुम्हारी पगली और नशेड़ी
भैया तुम भी हो चले आजकल झक्की
चाट चाट चिमनी, शक्ल काली चक्की

गाना अभी और भी चलता या नहीं मालूम, पर इतना पूरा होते ही शोरगुल सा मच गया। देखती क्या हूँ कि आसपास चारों ओर भीड़ जमा हो गई है। एक साही आगे बैठकर फूँ फूँ कर रो रहा है और नकली बालों की टोपी सी पहने एक मगरमच्छ बहुत बड़ी एक किताब से धीरे धीरे उसकी पीठ पर थपथपी दे रहा है और फिसफिसा कर कह रहा है, "रोना मत, रोना मत, सब ठीक कर दे रहा हूँ। " अचानक तमगा लगाए, पगड़ी पहना, हाथ में एक स्केल लिए एक भेक मेढक बोल उठा, "मानहानि का मुकदमा होगा।"

तभी कहीं से काला चोगा पहना एक हूट हूट उल्लू आकर सबके सामने एक ऊँचे पत्थर पर बैठकर आँखें मींच झूमने लगा और एक बड़ा भारी छुछुंदर एक भद्दे गंदे पंखे से उसे हवा करने लगा।

उल्लू ने खोई खोई आँखों से एक बार चारों ओर देखा, फिर तुरंत आँखें मींचकर कहा, "शिकायत पेश करो।"

उसके इतना कहते ही मगर ने बड़ी तकलीफ से रुआँसा चेहरा बनाकर आँखों में नाखून डालकर खरोंच के पाँच छः बूँद पानी निकाला। उसके बाद जुखाम वाली मोटी आवाज में कहने लगा, "धर्मावतार हुजूर! यह मानहानि का मुकदमा है। इसलिए पहले यह समझना होगा कि मान किसे कहते हैं। अरबी जाति की जड़ वाली सब्जियों को मान कहते हैं। अरबी बड़ी पौष्टिक चीज है। कई प्रकार की अरबी होती है, देशी अरबी, विदेशी अरबी, जंगली अरबी, पानी की अरबी इत्यादि। अरबी के पौधे की जड़ ही तो अरबी है, इसलिए हमें इस विषय की जड़ तक जाना चाहिए।"

(आगे अगली किस्तों में)

Saturday, December 26, 2009

मान लो धरती अगर चपटी होती

(पिछले पोस्ट से आगे)

... मैंने देखा अंत में मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है -

सात दूनी चौदह, उम्र २६ इंच, जन्म २½ सेर, खर्च ३७ वर्ष।

कौवा बोला, "देख कर पता चल ही रहा है कि यह हिसाब न तो एल सी एम या लघुतम अपवर्त्य है न जी सी एम या महत्तम गुणक। इसलिए यह या तो ऐकिक नियम से आया है या फिर कोई भिन्न है। मैंने गौर किया तो पाया कि ढाई सेर भिन्न है। तो बाकी तीन ऐकिक नियम से निकलेंगे। अब मुझे यह पता लगाना है कि तुम्हें ऐकिक नियम चाहिए या भिन्न।"

बुड्ढा बोला,"अच्छा ठहरो। मुझे एक बार पूछना पड़ेगा।" ऐसा कह कर उसने सिर झुकाया और पेड़ की जड़ पर मुँह लगाकर बुलाना शुरु किया, "अरे बुधवा! बुधवा रे!"

थोड़ी देर बाद लगा जैसे कोई पेड़ में से गुस्से में बोल उठा, "क्यों बुला रहा है?"

बुड्ढा बोला,"कौव्वेश्वर क्या कह रहा है, सुन।"

फिर उसी तरह की आवाज हुई, "क्या बोल रहा है?"

बुड्ढा बोला,"कह रहा है ऐकिक नियम या भिन्न?"

जोर से जवाब आया, "किसको भिन्न कह रहा है, तुझे या मुझे?"

बुड्ढा बोला,"नहीं यार। कह रहा है कैसा हिसाब चाहिए, भिन्न या तीन के गुणज।"

थोड़ी देर बाद जवाब सुनाई पड़ा, "अच्छा ऐकिक नियम कह दो।"

बुड्ढा थोड़ी देर गंभीरता से दाढ़ी पर हाथ मारता रहा और फिर सिर हिलाकर बोला, "बुधवा तो बुद्धू ही ठहरा! ऐकिक नियम क्यों कहूँ? भिन्न् में क्या खामी है? नहीं भई कौव्वेश्वर, तुम भिन्न ही दो।"

कौवा बोला, "तो ढाई सेर से दो सेर निकाल फेंकने पर बाकी बचा भिन्न आधा सेर। आधा सेर हिसाब की कीमत है - खालिस हो तो दो रुपए चौदह आने, और पानी मिला हो तो छः पैसे।"

बुड्ढा बोला,"मैं जब रो रहा था, तब तीन बूँद पानी हिसाब में गिर गया था। यह लो तुम्हारी स्लेट और और ये लो छः पैसे।"

पैसे मिले तो कौवा बड़ा खुश हुआ। वह 'झंजा गंजा, गंजा मंझा' कहता स्लेट बजाकर नाचने लगा।

तुरंत बुड्ढे ने चीखकर कहा, "फिर गंजा गंजा कहा? ठहर, अरे बुधवा, रे बुधवा! जल्दी आ, फिर गंजा कहा। " कहते न कहते ही पेड़ के खोंड़र से एक बड़ी पोटली जैसा हड़बड़ करता हुआ कुछ मिट्टी में रेंगता गिर पड़ा। झाँककर देखा, एक बूढ़ा आदमी एक बहुत बड़ी पोटली के नीचे दबा हुआ परेशान होकर हाथ पैर हिला रहा है! बूढ़ा देखने में बिल्कुल हुक्के वाले बुड्ढे जैसा था। हुक्के वाले ने उसे खींच कर खड़ा तो किया ही नहीं, खुद ही उस पोटली पर चढ़ कर बैठ गया।

"उठ, मैं कह रहा हूँ उठ, जल्दी उठ," कह कर धड़ाम धड़ाम उसे हुक्के से मारने लगा। कौवे ने मेरी ओर देख कर आँख मार कर कहा, "बात समझ में नहीं आई न? उधवा का बोझ बुधवा की पीठ पर। इसका बोझ उसकी पीठ पर डाल दिया है, अब वह इस बोझ को छोड़ना क्यों चाहे? इसी बात पर रोज झगड़ा होता है।"

इस बात के दौरान मैंने देखा, बुधवा अपनी पोटली समेत खड़ा हो गया। खड़ा होते ही पोटली ऊँची कर दाँत कटकटाता हुआ बोला, "यह बात है, स्टूपिड उधवा।"

उधवा ने भी आस्तीन चढ़ा कर हुक्का तान कर हुंकार भरा, "अबे तू बेहया! बुधवा।"

कौवा बोला, "लड़ जा, लड़ जा, नारद! नारद!"

बस झट झट, खटा खट, धमा धम, छपा छप! क्षण भर में मैंने देखा कि उधवा जमीन पर गिरा हाँफ रहा है और बुधवा तड़प तड़प कर गंजे सिर पर हाथ फेर रहा है।

बुधवा ने रोना शुरु किया, "अरे भाई उधवा रे, तू कहाँ गया रे?"

उधवा ने रोते हुए कहा, "अरे हाय हाय! हमारे बुधवा को क्या हुआ रे!"

उसके बाद दोनों उठकर थोड़ी देर भरी आवाज में रोकर और थोड़ी देर जरा गले मिल कर बड़े खुश मिजाज पेड़ के खोंड़र में घुस गए। यह देखकर कौवा भी दूकान बंद कर जाने कहाँ चला गया।

मैं सोच ही रही थी कि अब राह ढूँढू और घर लौटूँ, तभी पास ही एक झाड़ी से अजीब सी आवाज आई, जैसे कोई हँसते हँसते अपनी हँसी सँभाल न पा रहा था। झाँक कर देखा, एक जानवर – मनुष्य है या बंदर, उल्लू है या भूत, ठीक पता नहीं चला - बस हाथ पैर उछाले हँसते जा रहा है और कह रहा है, "अरे, अब नहीं बचते - नाड़ियाँ, अंतड़ियाँ सब फट रही हैं।"

अचानक मुझे देख कर उसे साँस मिली और उठकर उसने कहा, "शुक्र है, तुम आ गए, नहीं तो हँसते हँसते थोड़ी देर में मेरा तो पेट फट जाना था।"

मैं बोली, "तुम ऐसी भयंकर हँसी क्यों हँस रहे थे?"

उस पशु ने कहा, "क्यों हँस रहा था सुनोगी? मान लो धरती अगर चपटी होती और सारा पानी फैल कर ज़मीं पर आ जाता और ज़मीन की मिट्टी सब घुल कर चप चप कीचड़ हो जाती और लोग सभी उसमें धपा धप फिसल फिसल गिरते रहते तो....., हो, हो, हा, हा - "

इतना कह कर फिर हँसते हँसते गिर पड़ा।
(बाकी अगले पोस्ट्स में)

Friday, December 25, 2009

तीसरी किस्त

जितना भी मान लें, तिब्बत तो यह है नहीं। यह हैदराबाद है और कल यहाँ कुछ इलाकों में आगजनी मारपीट जम कर हुई है। ह य व र ल की तीसरी किस्त हाजिर हैः



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...कहीं से एक पुराना दर्जी की माप का फीता निकालकर वह मुझे नापने लगा और बोलने लगा, "खड़ी छब्बीस इंच, बाँह छब्बीस इंच, आस्तीन छब्बीस इंच, सीना छब्बीस इंच, गर्दन छब्बीस इंच।"



मैंने जोरों से विरोध करते हुए कहा, "यह हो ही नहीं सकता, सीने का नाप भी छब्बीस इंच, गर्दन भी छब्बीस इंच? मैं क्या कोई सूअर हूँ?"



बुड्ढे ने कहा, "यकीन नहीं होता तो देखो।"



मैंने देखा कि उस फीते पर लगे पैमाने के चिह्न गायब हो चुके थे, बस २६ जरा सा पढ़ा जा रहा है, इसलिए बुड्ढा जो भी नापे वह सब छब्बीस इंच हो जाता है।



इसके बाद बुड्ढे ने पूछा, "वजन कितना है?"



मैंने कहा, "नहीं जानती!"



बुड्ढे ने दो उँगलियों से मुझे जरा सा इधर उधर दबाया और कहा, "अढ़ाई सेर!"



मैं बोली, "अरे पटलू का ही वजन इक्कीस सेर है, वह मुझसे डेढ़ साल छोटा है।"



कौवे ने जल्दी से कहा, "अरे, तुमलोगों का हिसाब कुछ अलग है।"



बुड्ढा बोला, "तो लिख लो - वजन ढाई सेर, उम्र सैंतीस।"



मैं बोली, "धत् , मेरी उम्र है आठ साल तीन महीने, और यह कहता है सैंतीस।"



बुड्ढे ने थोड़ी देर जाने क्या सोचकर पूछा, "तो बढ़ती की है या घटती की?"



मैं बोली, "मतलब?"



बुड्ढा बोला, "मैंने कहा उम्र बढ़ रही है या कम हो रही है?"



मैं बोली, "उम्र कम कैसी होगी?"



बुड्ढा बोला, "तो क्या केवल बढ़ती ही रहेगी क्या? तब तो मेरी छुट्टी हो गई होती! किसी दिन पता चलेगा कि उम्र बढ़ते बढ़ते एक दिन साठ सत्तर अस्सी पार कर गई है। अंत में बुड्ढा होकर मैं मर ही जाऊँ!"



मैं बोली, "वह तो होगा ही। अस्सी साल की उम्र हो तो आदमी बूढ़ा नहीं होगा?"



बुड्ढा बोला, "तुम्हारी अक्ल! अस्सी साल उम्र होगी ही क्यों? चालीस साल पूरे होते हीहम उम्र का चक्का घुमा देते हैं। फिर इकतालीस, बयालीस नहीं - उनतालीस, अड़तीस, सैंतीस – इस तरह उम्र कम होती रहती है। मेरी उम्र कितनी बार चढ़ी और कितनी बार उतरी, अब मेरी उम्र है तेरह।" यह सुनकर मुझे जोर से हँसी आ गई।



कौवा बोला, "तुम लोग जरा धीरे बातें करो, मैं अपना हिसाब जल्दी से खत्म कर लेता हूँ।"



बुड्ढा झट से मेरे पास आकर टाँग लटकाए फिसफिसाते हुए बोला, "एक मजेदार कहानी सुनाऊँगा। ठहरो जरा सोच लूँ।" यह कहकर हुक्के से अपना गंजा सिर खुजलाते हुए आँखें मींचकर सोचने लगा। फिर अचानक बोल उठा, "हाँ, याद आई, सुनो- "



"तो क्या हुआ बड़े मंत्रीजी तो राजकुमारी के धागे का गोला निगल गए थे। किसी को कुछ नहीं मालूम। उधर दानव ने क्या किया, सोए सोए, हाऊँ माऊँ खाऊँ, मानुष गंध पाऊँ, कहकर हुड़ मुड़ करता खटिए से गिर पड़ा। तुरंत ढाक ढोल, शहनाई, लोग-लश्कर, सिपाही पलटन, हो हल्ला, रे रे, मार मार, काट काट – इसी बीच अचानक राजा बोल उठे, "पक्षीराज अगर हो, तो पूँछ क्यों नहीं है?" यह सुन दोस्त यार, डाक्टर बैद, मुवक्किल वक्किल सब बोल उठे, "सही बात है, पूँछ कहाँ?" किसी के पास जवाब न था, सर् रररर् सब भागने लगे।"



इसी वक्त कौवे ने मेरी ओर देखकर कहा, "तुम्हें विज्ञापन मिला है, हैंडबिल?"



मैं बोली, "नहीं तो, कैसा विज्ञापन?" ऐसा कहते ही कौवे ने एक कागज के बंडल से एक छपा हुआ कागज निकाल मेरे हाथों में दिया, मैंने पढ़ा उसमें लिखा है -



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श्री श्री भूशंडीकौवाय नमः



श्री कौव्वेश्वर कलूटा राम
४१, झाड़मबाजार, कौवापुर



हम हिसाबी व बेहिसाबी खुदरा व थोक हर प्रकार की गणना का काम वैज्ञानिक प्रक्रिया द्वारा संपन्न करते हैं। कीमत प्रति इंच एक रुपए पाँच आना। CHILDREN HALF PRICE यानी बच्चों के लिए शुल्क आधा। अपने जूतों की नाप, शरीर का रंग, कान कुरकुराता है या नहीं, ज़िंदा हैं या मृत इत्यादि आवश्यक विवरण भेजते ही वापसी डाक से कैटलाग भेज देंगे।



सावधान! सावधान! सावधान!



हम सनातन वायसवंशीय पूर्णकुलीन, यानी कि जंगली कौवा हैं। आजकल कई किस्म के लंडूकौवे, हब्बूकौवे, रामकौवे आदि निम्न स्तर के कौवे भी पैसों के लालच में कई प्रकार का व्यवसाय कर रहे हैं। सावधान! उनके विज्ञापन की चमक देखकर ठगे न रह जाएँ।
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कौवा बोला, "कैसा है?"



मैं बोली, "पूरा अच्छी तरह समझ नहीं आया।"



कौवे ने गंभीरता से कहा, "हाँ, बड़ा कठिन है। हर कोई नहीं समझ पाता। एक बार एक खरीददार आया, जिसका सिर था गंजा-"



जैसे ही उसने यह कहा, बुड्ढा हो-हो करता लपक कर आया, "देख! फिर यदि गंजा कहा तो हुक्के से एक चोट मार तेरी स्लेट तोड़ दूँगा।"



कौवा जरा हड़बड़ाकर थोड़ी देर जाने क्या सोचता रहा, उसके बाद बोला, "गंजा नहीं, मँझा सिर, जिस पर माँझा लग लग कर चमक आ गई हो।"



बुड्ढा फिर भी शांत न हुआ, बैठकर गुर्राता रहा। यह देखकर कौवा बोला, "हिसाब देखना है क्या?"



बुड्ढे ने नरम होकर कहा, "हो गया? दिखाओ जरा।"



कौवे ने तुरंत "यह देखो" कहकर स्लेट ठकास से बुड्ढे के सर पर गिरा दी। बुड्ढा झट सिर पर हाथ रखे बैठ गया और छोटे लड़कों की तरह, "ओ माँ, ओ बुआ, ओ शिबूदा," कहकर हाथ पैर उछालकर रोने लगा।



कौवे ने थोड़ी देर आश्चर्य से देखा और फिर बोला, "लग गई! ओफ्फो! जिओ साल हजार!"



बुड्ढे ने रोना रोककर कहा, "एक हजार एक, दो, तीन.........."



कौवा बोला, "चार।"



मुझे लगा कि ये फिर बोलियाँ लगाने वाले हैं, इसलिए जल्दी बोल उठी, "क्यों, हिसाब नहीं देखा तुमने?"



बुड्ढा बोला, "हाँ, हाँ, अरे भूल ही गया! कितना हिसाब हुआ जरा पढ़कर देखूँ।"



मैंने स्लेट उठा कर देखा, वहाँ छोटे छोटे अक्षरों में लिखा है -



"सार्वजनिक सूचनार्थ अत्र कौवालतनामा लिखतुम श्री कौव्वेश्वर कलूटाराम कार्यंचागे। इमारत खिसारत दलील दस्तावेज। तस्य वारिसानजन मालिक दखलीकार हेतु अत्र नायब सिरस्ता दस्त बदस्त कायम मुकर्ररी पत्तनीपट्टा यानी कौवला कबूलीयत। सच्चाई या बिन सच्चाई मूसिफी अदालत या दायरा सुपुर्द असामी फरियादी साक्षी साबूत किया जा रहा या सुलह मुकम्मल डिग्रीजारी नीलाम इश्तहार इत्यादि सर्वप्रकार कानूनी कर्त्तव्य........."



मैंने पूरा पढ़ा ही था कि बूढ़े ने कहा, "यह सब अंट संट क्या लिखा है?"



कौवा बोला, "यह लिखना पड़ता है। नहीं तो अदालत हिसाब मानेगी क्यों? अच्छी तरह ठीक से काम करना हो तो शुरु में यह सब कह देना पड़ता है।"



बुड्ढा बोला, "अचछी बात है, पर कुल हिसाब क्या हुआ, यह तो तुमने बतलाया ही नहीं।"



कौवा बोला, "हाँ, वह भी लिखा गया है। अरे ओ, अंतिम हिस्सा तो पढ़कर सुनाओ।"



मैंने देखा अंत में मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है -



सात दूनी चौदह, उम्र २६ इंच, जन्म २½ सेर, खर्च ३७ वर्ष।


Thursday, December 24, 2009

मान लो कि यहाँ तिब्बत है

मूल रचना में कथा वाचक एक लड़का है, लड़की नहीं। चूँकि बांग्ला में क्रिया पदों में लिंग निर्णय नहीं है और कहानी में कहीं भी कथावाचक का नाम नहीं है, मैंने सत्यजित राय को लिखा कि मैं कथावाचक को लड़की रखना चाहता हूँ। उन्होंने आपत्ति की, पर मैंने फिर भी अपने मन की की। उनके पास पिता की रचना का कापीराइट नहीं था चूँकि सुकुमार की मृत्यु को पचास साल से ऊपर हो गया था। बाद में कई बार सोचने पर लगा है कि मुझे उनकी बात माननी चाहिए थी। मैंने बांग्लाभाषी दोस्तों से पूछा कि आखिर पूरी कहानी पढ़कर हम कहाँ समझ लेते हैं कि यह लड़का है। एक दोस्त ने बतलाया कि अंत में मामा बच्चे का कान पकड़ खींचता है, ऐसा लड़की के साथ नहीं हो सकता। यानी यह सांस्कृतिक मुद्दा है।



बहरहाल, यह दूसरी किस्तः (पिछली किस्त यहाँ)
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...उसने घास पर एक काठी से एक लंबी लकीर खींची और कहा, "मान लो यह झाड़मभैया है।" इतना कहकर वह थोड़ी देर गंभीरता से चुप होकर बैठा रहा।



उसके बाद फिर उसी तरह का एक दाग खींचा, "मान लो कि यह तुम हो", कहकर फिर गर्दन मोड़कर चुप होकर बैठा रहा।



इसके बाद और एक दाग बना कर कहा, "और मान लो कि यह है चंद्रबिंदु।"
इसी तरह वह क्षण भर कुछ सोचता रहा और फिर एक लंबी लकीर खींच कर बोलता रहा, "मान लो कि यहाँ तिब्बत है......" यहाँ मान लो कि झाड़मभाभी खाना पका रही है..... यह मान लो कि झाड़ के तने पर एक खोंड़र......"



यह सब सुनते हुए आखिर में मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, "धत् तेरे की! अंट संट क्या बकते जा रहा है, बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा।"



बिल्ला बोला, चलो सारी बातें जरा आसान कर दूँ। आँखें मींचो, मैं जो भी कहूँ उसका हिसाब लगाओ।" मैंने आँखें बंद कर लीं।



आंखें मींचे हुए हूँ, मींचे हुए हूँ, बिल्ले का कुछ अता पता नहीं। अचानक मुझे शक हुआ, आँखें खोलीं तो देखा वह बिल्ला पूँछ उठाए बगीचे का बेड़ा पार कर रहा है और लगातार खी खी कर हँसता जा रहा है।



करती क्या, पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठ गई। जैसे ही बैठी, टूटे से स्वर में एक मोटे गले की आवाज आई, "सात दूनी कितना होता है?"



मैंने सोचा, अब यह कौन आ गया? इधर उधर देख ही रही थी, तभी वह आवाज फिर आई, "क्यों जवाब नहीं दिया अभी तक? सात दूनी कितना होता है?" अब ऊपर झाँक कर देखा, एक जंगली कौवा स्लेट पेंसिल लेकर पता नहीं क्या क्या लिख रहा है और बीच बीच में गर्दन टेढ़ी कर मेरी ओर देख रहा है।



मैंने कहा, "सात दूने चौदह।"



तुरंत कौवा हिल हिल कर सिर दाएँ बाएँ करते हुए बोला, "नहीं हुआ, नहीं हुआ, फेल।"



मुझे बड़ा गुस्सा आया। बोली, "बिल्कुल ठीक कहा है, सात एक्कम सात, सात दूनी चौदह, सात तिएँ इक्कीस।"



कौए ने कोई जवाब नहीं दिया, बस पेंसिल मुँह में लिए थोड़ी देर जाने क्या सोचा। फिर कहा, "सात दूने चौदह के चार और हाथ में रही पेंसिल!"



मैं बोली, "पर तुमने तो कहा था कि सात दूने चौदह नहीं होते, अब कैसे हो गया?"



कौवा बोला, "जब तुमने कहा था तब पूरे चौदह हुए नहीं थे। तब तेरह रुपए चौदह आने तीन पाई थे। अगर मैंने ठीक वक्त पर झट से १४ लिख नहीं दिया होता तो अब तक चौदह रुपए एक आना नौ पाई हो गए होते।"



मैं बोली, "ऐसी अनाड़ी बात तो कभी नहीं सुनी। सात दूनी अगर चौदह हुए तो वह तो हमेशा ही चौदह होगा। एक घंटे पहले जो था, दस दिन बाद भी वही होगा।"



कौवे ने बड़े आश्चर्य से कहा, "तुम्हारे देश में वक्त की कोई कीमत नहीं है क्या?"



मैंने कहा, "वक्त की कीमत क्या?"



कौवा बोला, "अगर कुछ दिन यहाँ रह जाती तो बात समझ में आ जाती। हमारे बाजार में इन दिनों समय बड़ा महँगा है, जरा भी बेकार खर्च करने की गुंजाइश नहीं है। अरे कुछ दिनों तक कड़ी मेहनत कर कुछ समय बचाया था, तुम्हें समझाने में उसका भी आधा खर्च हो गया," कह कर वह फिर से हिसाब लगाने लगा। मैं अटपटा सा महसूस करती बैठी रही।



तभी पेड़ के एक खोंड़र से सुर्र सा फिसलता जाने क्या नीचे गिरा। देखा तो डेढ़ हाथ लंबा एक बुड्ढा, उसके पैरों तक हरे रंग की दाढ़ी है, हाथ में हुक्का है जिसमें कोई नली वली नहीं और उसकी खोपड़ी बिल्कुल गंजी है। और गंजी चाँद पर खड़िया मिट्टी से जाने क्या क्या लिखा है।



आते ही बुड्ढे ने हुक्के के दो एक कश खींच परेशान सा होते कहा, "क्यों, हो गया हिसाब?"



कौवा जरा इधर उधर देख कर बोला, "बस हो ही गया।"



बुड्ढा बोला, "अजीब बात है, उन्नीस दिन हो गए, अभी तक हिसाब नहीं कर पाए?"



कौवे ने दो चार मिनट बड़ी गंभीरता से पेंसिल चूसी और फिर पूछा, "कितने दिन कहा तुमने?"



बुड्ढा बोला, "उन्नीस।"



कौवे ने तुरंत ऊँची आवाज में कहा, "लग जा, लग जा - बीस।"



बुड्ढा बोला, "इक्कीस।" कौवा बोला, "बाईस।" बुड्ढा बोला, "तेईस।" कौवा बोला, "साढ़े तेईस।" जैसे नीलाम की बोलियाँ चल रही हों।



ऐसे बोलते हुए कौवे ने अचानक मेरी ओर देखकर कहा, "तुम क्यों नहीं बोल रही?"



मैं बोली, "मैं ख़ामख़ाह क्यों बोलूँ?"



बुड्ढे ने अब तक मुझे देखा नहीं था। अचानक मेरी आवाज सुनते ही सन् ननन् कर आठ दस चक्कर लगाकर मेरी ओर चेहरा कर वह खड़ा हो गया।



उसके बाद वह हुक्के को दूरबीन की तरह आँखों के सामने रख काफी देर तक मेरी ओर देखता रहा। उसके बाद जेब से कुछ रंगीन काँच निकाल कर उनमें से मुझे बार बार देखने लगा। उसके बाद कही से एक पुराना दर्जी की माप का फीता निकालकर वह मुझे नापने लगा और बोलने लगा, "खड़ी छब्बीस इंच, बाँह छब्बीस इंच, आस्तीन छब्बीस इंच, सीना छब्बीस इंच, गर्दन छब्बीस इंच।"


Wednesday, December 23, 2009

ह य व र ल

सचमुच कमाल ही है। पता ही नहीं चलता कि कैसे वक्त बीतता है। इस बीच चंडीगढ़, कोलकाता और अब कुछ दिनों के लिए वापस हैदराबाद।
इस दौरान हर कहीं गड़बड़झाला। दिसंबर की शुरुआत में लुधियाना में दंगे, फिर हैदराबाद और आस पास तेलंगाना के पक्ष विपक्ष में लड़ाई और कोलकाता में कालेजों और सड़कों में ईंट पत्थर, सोडा वाटर बोतलों, घरेलू बमों और टीयर गैस की मारपीट। अलग अलग जगहें और अलग अलग तरह के संघर्ष। हर जगह भ्रष्ट राजनैतिक ताकतों का नंगा नाच। बीच में इन सब विषयों पर लिखने की कोशिश भी की, पर पूरा कर ही नहीं पाता। चंडीगढ़ में एक रीफ्रेशर कोर्स में साहित्य और संघर्ष पर बोलत हुए संघर्ष की धारणा पर नए ढंग से सोचने का मौका मिला।

बहरहाल कोलकाता में एक अंतर्राष्ट्रीय समम्लन में अपने वैज्ञानिक शोधकार्य पर पर्चा पढ़ने गया था, पर उसी दौरान मौका निकाल कर एक बहुत ज़रुरी काम कर डाला। १९८८ में सुकुमार राय के 'ह य व र ल' का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया था। अशोक अग्रवाल ने संभावना या पुनर्नवा प्रकाशन से प्रकाशित किया था। मध्य प्रदेश के 'आपरेशन ब्लैकबोर्ड' प्रोग्राम को टार्गेट कर यह पुस्तक निकाली गई थी। तो इस दौरान मैंने यह सारा अनुवाद टाइप कर सिस्टम में डाल दिया। अब किस्तों में इसे पोस्ट कर रहा हूँ।
ह य व र ल

सुकुमार राय
मूल बांग्ला से अनुवादः लाल्टू

बड़ी गर्मी है। पेड़ के नीचे छाया में मजे से लेटी हुई हूँ, फिर भी पसीने से परेशान हो गई हूँ। घास पर रुमाल रखा था, जैसे ही पसीना पोंछने के लिए उसे उठाने गई, रुमाल ने कहा, "म्याऊँ!" हद है! रुमाल म्याऊँ कयों कहता है?





आँख खुली और देखा तो पाया कि रुमाल अब रुमाल नहीं, एक मोटा सा गाढ़े लाल रंग का बिल्ला मूँछें फैलाए टुकुर टुकुर मेरी ओर देख रहा है।
मैं बोली, "अरे यार! था रुमाल, बन गया बिल्ला।"
बिल्ला झट से बोल पड़ा, " इसमें क्या परेशानी है? जो अंडा था, उससे क्वांक वांक करता बत्तख बना। ऐसा तो हमेशा ही होता रहता है।"
मैंने जरा सोचकर कहा, "तो अब तुम्हें किस नाम से पुकारुँ? तुम तो सचमुच बिल्ले नहीं हो, तुम तो रुमाल हो।"
बिल्ला बोला, "बिल्ला कह सकती हो, रुमाल भी कह सकती हो, चंद्रबिंदु भी कह सकती हो।"

मैं बोली, "चंद्रबिंदु क्यों?"
बिल्ले ने सुन कर कहा, "यह भी नहीं जाना?" कहकर एक आँख मींचे खी खी कर भद्दी सी हँसी हँसने लगा। मैं बड़ा अटपटा महसूस करने लगी। लगा जैसे इस "चंद्रबिंदु" का मतलब मुझे समझना चाहिए था। इसलिए घबराकर जल्दबाजी में कह दिया, "ओ हाँ हाँ, समझ गई।"
बिल्ले ने खुश होकर कहा, "हाँ, यह तो बिल्कुल साफ बात है - चंद्रबिंदु का च, बिल्ले का श और रुमाल का मा मिलकर बने चश्मा। क्यों, ठीक है न?"
मुझे कुछ भी समझ न आया, पर डर था कि कहीं बिल्ला फिर से अपनी भद्दी हँसी न हँस पड़े। इसलिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती गई। इसके बाद वह बिल्ला थोड़ी देर आस्मान की ओर देखकर अचानक बोला, "गर्मी लग रही है तो तिब्बत चली जाओ।"
मैं बोली, "कहना आसान है, कहने से ही तो कोई चला नहीं जाता।"
बिल्ला बोला, "क्यों, इसमें क्या कठिनाई है?"मैं बोली, "कैसे जाते हैं तुम्हें मालूम भी है?"
बिल्ले ने भरपूर हँसी हँसकर कहा, "क्यों नहीं मालूम, यह है कोलकाता, यहाँ से डायमंड हार्बर, फिर रानाघाट और फिर तिब्बत, बस! सीधी राह है, सवा घंटे लगते हैं, जाकर देखो।"
मैंने कहा, "तो जरा मुझे राह दिखा दोगे?"
यह सुनकर बिल्ला अचानक किसी सोच में पड़ गया। फिर सिर हिलाकर बोला, "ऊँहूँ! यह मुझसे नहीं होगा। अगर हमारा झाड़मभैया यहाँ होता, तो वह ठीक ठीक बतला देता।"
मैं बोली, "झाड़मभैया कौन हैं? कहाँ रहते हैं?"
बिल्ला बोला, "झाड़मभैया और कहाँ होगा? झाड़ पर होगा।"
मैंने पूछा, "उनसे मुलाकात कहाँ हो सकती है?"
बिल्ले ने जोर से सिर हिलाते हुए कहा, "यह तो नहीं होगा, ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है।"
मैंने पूछा, "ऐसा क्यों?"
बिल्ले ने कहा, "भई ऐसा है - जैसे मान लो कि तुम उनसे मिलने गई उलूबेड़िया गई, तो वह होंगे मोतीहारी में। अगर मोतीहारी जाओ तो सुनोगी कि वह रामकृष्णपुर में हैं। वहाँ जाओगी तो देखोगी कि वह कासिमबाजार गए हैं। किसी भी हाल में मुलाकात न होगी।"
मैंने पूछा, "तो तुमलोग कैसे मिलते हो?"
बिल्ला बोला, "वह बड़ी परेशानी की बात है। पहले हिसाब लगाना पड़ता है भैया कहाँ कहाँ नहीं है, फिर हिसाब लगाकर देखना होगा कि भैया कहाँ कहाँ रह सकता है; उसके बाद देखना होगा कि भैया कहाँ होगा।; उसके बाद देखना होगा..."
मैंने जल्दी उसे रोककर कहा, "यह कैसा हिसाब है?"
बिल्ला बोला, "बड़ा कठिन है। देखोगी कैसा है?," कहकर उसने घास पर एक काठी से एक लंबी लकीर खींची और कहा, "मान लो यह झाड़मभैया है।" इतना कहकर वह थोड़ी देर गंभीरता से चुप होकर बैठा रहा।
उसके बाद फिर उसी तरह का एक दाग खींचा, "मान लो कि यह तुम हो", कहकर फिर गर्दन मोड़कर चुप होकर बैठा रहा।
(
अभी और अगले पोस्ट में)

Tuesday, November 17, 2009

वहीं रख आया मन

उन्हीं इलाकों से वापस मुड़ना है
वहीं से गुजरते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ

* *

आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन

* *

चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी

* *

उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।

Saturday, November 14, 2009

मेमेंटो बाँटो, फोटू खिंचवाओ

परसों एक स्थानीय राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में सईद आलम लिखित, निर्देशित और टाम आल्टर अभिनीत मौलाना आज़ाद पर मोनोलाग देखने गया था। टाम आल्टर पद्मश्री से सम्मानित कलाकार है। आम तौर से सरकारी किस्म के कार्यक्रमों में ऐसे सम्मानित व्यक्तियों का औपचारिक आदर औरों की तुलना में अधिक होता है। पर मैंने इतने बदतमीज़ दर्शक बहुत कम देखे हैं। टाम ने खुद अभिनय के दौरान गुस्सा दिखलाया और बाद में सईद आलम ने भी नाराज़गी व्यक्त की। बार बार सेल फ़ोन बजना, लगातार लोगों का स्टेज के साथ लगे दरवाजों से आना जाना। स्वयं वायस चांसलर या ऐसे ही किसी अधिकारी का पहले रो में बैठकर दफ्तरी कागज़ात देखना और कर्मचारी से बात करना, पता नहीं इन लोगों ने कार्यक्रम रखा क्यों था। हिंदुस्तान में कलाकारों का ऐसा अनुभव आम बात है। लोग नाटक देखने या संगीत का कार्यक्रम देखने नहीं जाते, मेला समझ कर जाते हैं। वक्त पर नहीं आएँगे, सेलफ़ोन पर फूहड़ बाजे वाली रिंग सुनेंगे, साथ दूध पीते या उससे थोड़े बड़े बच्चों को लाएँगे कि चल बच्चू देख नौटंकी देख।

कलाओं के प्रति पढ़े लिखे लोगों में ऐसा संकीर्ण और असभ्य रवैया क्यों है? पुराने मित्र हँस कर कहेंगे कि यह एशियटिक मोड आफ प्रोडक्सन से उपजे मूल्य हैं। उस दिन भी बाद में यह बहाना दिया गया कि बच्चे नासमझ हैं, जब कि जैसा सईद आलम ने कहा कि बच्चों पर इल्ज़ाम लगा के बड़े बरी नहीं हो सकते। पहले रो में बैठकर बंदा सेल फ़ोन बजा रहा है, इसके लिए कौन सा बच्चा दोषी है। सच यह है कि देश भर में निहायत असभ्य किस्म के कई लोग ऊँचे पदों पर आसीन हैं। इन्हें कला और शिक्षा के स्तर से कुछ लेना देना नहीं। कार्यक्रम हो गया, मेमेंटो बाँटो, फोटू खिंचवाओ, गाड़ी में बैठकर सौ गज दूर जाकर घर पर उतरो।

Wednesday, November 04, 2009

अधूरे चिट्ठे

अक्सर मैं चिट्ठा लिखने की सोचते ही रहता हूँ। पूरा नहीं कर पाता। यह कोई महीने भर पहले लिखा था। अधूरा ही रह गया:


द हिंदू में तनवीर अहमद का अपनी नानी के भाई बहन के साथ मिलन पर मार्मिक आलेख पढ़ा। ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ पढ़ते सुनते रहे हैं, कितनी कितनी बार मन दहाड़ें मार कर रोने को होता है, पर दुनिया जैसी है, वैसी है और हम अवसाद के बवंडर में अगले दिनों की ओर चलते रहते हैं। तनवीर ने कहा है कि हालांकि काश्मीर के लोग अब एक साथ होने को तैयार हैं, पर पंजाब के लोग अभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। इससे मुझे एक तो जरा असहमति है, साथ ही कई पुरानी बातें याद आ गईं।

पोखरन-कहूटा परमाणु विस्फोट और कारगिल युद्ध के बाद हम लोगों ने चंडीगढ़ में साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप के नाम से हिरोशिमा नागासाकी पर तैयार किया एक स्लाइड शो दिखाना शुरु किया था। इसका प्रत्यक्ष उद्देश्य नाभिकीय युद्ध से होने वाले ध्वंस के बारे में लोगों को जागरुक करना था। पर इस मुहिम में शामिल हर कोई जानता था कि बी जे पी सरकार के शुरुआती दिनों में के पाकिस्तान के प्रति नफरत फैलाना सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे में था और हम इसके खिलाफ काम कर रहे थे। अब याद नहीं कितने स्कूलों में, कितने सामुदायिक केंद्रों में हमने वह स्लाइड शो दिखाया। प्रसिद्ध लोक नाटककार भ्रा गुरशरण सिंह जी ने शो के स्क्रिप्ट के आधार पर एक नाटक तैयार किया और वह भी चंडीगढ के सेक्टर १७ पलाजा से लेकर पंजाब के कई गाँवों में दर्जनों बार खेला गया। मैं दर्जनों अतिशयोक्ति में नहीं लिख रहा हूँ। मुझे कई बार यह सोचकर तकलीफ होती है कि हमारे मुल्क में जनांदोलनों की गतिविधियों के दस्तावेज तैयार नहीं किए जाते और कितने लोगों की अकथ्य मेहनत इतिहास के पन्नों में गुम हो जाती है। बहरहाल हम तो एक बहुत बड़े सांप्रदायिकता और युद्ध विरोधी आंदोलन का एक छोटा हिस्सा मात्र थे, जो सन् २००० तक शिखर पर पहुँचने लगा था। धीरे धीरे मुख्यधारा के राजनैतिक दलों को यह समझ में आने लगा था कि आम पंजाबी यह नहीं चाहते कि सरहद के दोनों ओर लोगों में कोई वैमनस्य रहे। विश्व स्तर पर इधर के और उधर के पंजाबियों में सांस्कृतिक स्तर पर मेलजोल के प्रयास होने लगे थे। पर यह एक उफान की तरह उमड़ कर आएगा, ऐसी कल्पना शायद किसी ने तब भी न की थी। १९९९ में मैं पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का सचिव बना। चंडीगढ़ का पंजाब विश्वविद्यालय डेढ़ सौ साल पुराने लाहौर के पुराने पंजाब विश्वविद्यालय का ही हिस्सा माना जाता है, हालांकि लाहौर वाले ऐसा नहीं मानते हैं। दोनों के अंग्रेज़ी नामों में जरा सा फर्क है। चंडीगढ़ की यूनिवर्सिटी के नाम में पंजाब को Panjab लिखा जाता है, जबकि लाहौर में Punjab। बहरहाल मैंने इस खयाल का फायदा उठाते हुए प्रयास शुरु किए कि लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के साथ संगठन के स्तर पर संपर्क किया जाए। मैंने लाहौर कैंपस के कुलाधिपति, जो कोई सैन्य अधिकारी था, से संपर्क करने की कोशिश की। और मैं पूरी तरह असफल रहा। अध्यापक संघ के दूसरे पदाधिकारी मेरे कैंपस से बाहर की गतिविधियों से बहुत ज्यादा वास्ता तो न रखते थे, पर उनका कोई विरोध भी न था। साथ ही अध्यक्ष प्रोफेसर पी पी आर्य ने पूरी छूट दी हुई थी कि मैं तरक्कीपसंद खयालों के मुताबिक कुछ भी करुँ तो वह मेरे साथ थे। खैर वह साल बीत गया और मैं संगठन के पद का अपने इस उद्देश्य के लिए फायदा न उठा पाया। पर इसी बीच मैं और दोस्तों से बातचीत करता रहा और किसी तरह परवेज हुदभाई से संपर्क हुआ। परवेज पाकिस्तान का विश्व स्तर पर प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक शास्त्री है और साथ ही शांति आंदोलन में बहुत बड़ा नाम भी है। भारत के जन विज्ञान आंदोलन की ओर से परवेज को कलिंग पुरस्कार दिया जाना था, पर भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारें इस में अड़चन बनी हुईं थीं। अब याद नहीं कि किस स्टेज पर परवेज ने लिखा कि वह तो आ नहीं सकता (बाद में २००५ में परवेज आया था और उसे तीन साल बाद वह पुरस्कार दिया गया), पर लाहौर यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट साइंसेस (LUMS) के सरमद अब्बासी को कहा जाए तो शायद सरकारों को उसके हिंदुस्तान आने पर आपत्ति न होगी। इसी बीच चंडीगढ तो नहीं पर दिल्ली से कई सक्रिय साथी शांति यात्राओं में सक्रिय हो रहे थे और दिल्ली विश्वविद्यालय से एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ पाकिस्तान घूम आया था। तो मैंने सरमद से संपर्क किया। २००३ में शिक्षक संगठन का अध्यक्ष चुना गया और तुरंत मैंने सरमद अब्बासी को चंडीगढ़ लाने की तैयारी शुरु की। आखिर सरमद और लम्स के छः विद्यार्थी चंडीगढ़ पहुँचे।
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इसके बाद लिख नहीं पाया, जबकि इसके बाद की बहुत सारी बातें हैं जिन्हें लिखा जाना चाहिए। हो सकता है कोई और दोस्त जो इस प्रकिया में शामिल थे, इस पर लिखें।
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पिछले हफ्ते एक और चिट्ठा लिखना शुरु किया था - वह तो दो लाइनों से आगे भी नहीं पहुँचा। वह भी द हिंदू की ही एक खबर पर था जिसमें लिखा था कि छत्तीसगढ़ में पुलिस वालों या सलवा जुडुम वालों ने एक आदिवासी बच्चे की उँगलियाँ काट दी हैं ताकि उसके माँ बाप माओवादियों के बारे में सूचना दें। बेचारे माँ बाप डर के मारे कुछ बतलाना नहीं चाहते और मारे मारे भाग रहे हैं कि कहीं फिर कोई उन पर हमला न कर बैठे। ऐसी खबरों को पढ़ कर आश्चर्य होना चाहिए, पर होता नहीं है। सम्पन्न वर्गों की क्रूर उदासीनता में जी रहे हम लोग इस बात से बेखबर से हैं कि सरकार ने जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। गृह मंत्री इसे युद्ध कहना नहीं चाहता, क्योंकि यह ऐसा युद्ध है, जिसमें सभी मानव अधिकारों को तिलांजलि दे दी गई है। अब नागरिक अधिकार संस्थाओं की रीपोर्ट आई है, जिसमें खनिज खुदाई और व्यापार से जुड़े पूँजी मालिकों के हित में सरकार द्वारा छेड़े इस युद्ध की सच्चाई का पूरा ब्यौरा है। मध्यवर्ग के लोगों को नागरिक अधिकार या मानव अधिकार जैसे शब्दों से एलर्जी होती है, क्योंकि अपनी सच्चाइयों से रुबरु होने में हमें तकलीफ होती है। इसलिए भाइयो, इंडिया टूडे में आकाश बनर्जी का यह पोस्ट पढ़ लो। इसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ -

First Question- Will 'Operation Green Hunt' be successful?
Honestly the answer is a big NO. Call me a Naxal sympathizer, but like me, if you ever face the brutal wrath of the local police in heartland India - your world view will witness a paradigm shift within seconds. I was in West Bengal last July - covering the offensive launched by the state administration to counter the Naxals in Lalgarh. It was here, during one of the shoots that my cameraperson and I were chased down a road in Midnapore district by the West Bengal police and hit with sticks.

Our crime??? We had dared to shoot the police breaking down doors and hauling up village youngsters for 'questioning'. (What happens in these 'questionings' I don't need to tell you) When journalists could be treated like dogs by the police - I began to grasp the plight of the local villagers who don't have a voice - or redressal system of any sort. The moral of the story is very simple - between the two evils of Naxalism and Police, the tribals choose the former. At least Naxals don't rape, maim and kill without reason.

वैसे यह तो बहुत बड़ा आश्चर्य है ही कि सूचना-क्रांति के इस युग में निरंतर अन्यायों व अत्याचारों से भरपूर हमारे जैसे समाज आज भी टिके हुए हैं। पर इतिहास यही बतलाता है कि बड़ी सी बड़ी भी दमनकारी ताकतें भी विरोध को हमेशा के लिए खत्म नहीं कर पातीं और इंसान है ही ऐसा जंतु कि बार बार विद्रोह के लिए उठ खड़ा होता है।
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एक मित्र ने जेम्स ब्राइडल के A New THEORY of
AWESOMENESS and MIRACLES शीर्षक एक रोचक व्याख्यान पर यह लिंक पोस्ट किया है।