हैदराबाद के धमाके सुर्खियों में हैं।
बचपन में कोलकाता में नक्सलबादी आंदोलन के शुरुआती दिनों में जब सुनते थे कि दूर कहीं कोई बम फटा है, तो दिनभर की चहल-पहल बढ़ जाती थी। मुहल्ले में लोगबाग बातचीत करते थे। बाद में बांग्लादेशी छात्रों से सुना था कि ढाका में शहर में मिलिट्री टैंकों के बीच में लोगों का आम जीवन चलता होता था। और भी बाद में बम-धमाकों की खबरें सुनने की आदत हो गई। इसकी भी आदत हो गई कि हमारे समय में एक ओर हिंसा के विरोध में व्यापक सहमति बनी है तो वहीं दूसरी ओर कुछ असहिष्णु लोगों की जमातें भी बन गईं हैं। इसलिए कल जब बेटी सवा आठ बजे अपने एक दोस्त के साथ लिटल इटली रेस्तरां में खाने के लिए निकली और इसके तुरंत बाद एन डी टीवी पर चल रहा बी जे पी के रुड़ी और सी पी आई के राजा की बहस का कार्यक्रम रोक कर ताज़ा खबर में शहर में धमाकों की खबर घोषित हुई तो भी झट से बेटी को फोन नहीं किया। जब तक किया तब तक वह रेस्तरां पहुँच चुकी थी। और फिर डेढ़ घंटे बाद ही लौटी।
यह ज़रुर है कि सुबह मेल वगैरह देखने दफ्तर आया और बिल्डिंग के ठीक सामने एक बड़ा सा मांस का टुकड़ा फिंका दिखा तो तुरंत सीक्योरिटी को बुलाकर दिखाया। किसी लापरवाह बेवकूफ ने सड़क पर कूड़ा फेंक दिया है।
ऐसे दुखदायी समय में भी यह सोचकर राहत मिलती है कि आम लोगों ने समझ लिया है कि दुनिया में असहिष्णु बीमार लोग बार बार इस कोशिश में हैं कि चारों ओर तबाही हो - लोगों में नफ़रत फैले, और लोग अब इतनी जल्दी भड़कते नहीं। नहीं तो इसके पहले कि हम जो हुआ उसकी तकलीफ से उबरें, यह चिंता सताने लगती थी कि अब कहीं कोई दंगा न फैल जाए। अभी भी मौत के सौदागरों की कोशिश रहेगी कि लोगों को भड़काया जाए, कुछ लोग मृतकों की तस्वीरों को अधिक से अधिक भयंकर बनाकर यह बतलाएँगे कि एक संप्रदाय के सभी लोगों ने ऐसा करते रहना है। धमाके भी और होंगे। सब्र की सीमाएँ तोड़ने की हर कोशिश होगी। फिलहाल ये षड़यंत्र नाकामयाब हैं - और हम जानते हैं कि आखिरकार दरिंदों की हार होगी। जिस तरह आम लोगों ने घायल लोगों को जल्दी जल्दी अस्पताल पहुँचाया - एकबार यह सोचकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और गर्व से आँसू बहने को होते हैं।
नईम के एक गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैंः हर पराजय मुझे नित्य गढ़ती गई, औ ऊँचाई खजूरों सी बढ़ती गई। आज के समय में हर अम्नपसंद आदमी को यही सोचना है।
Sunday, August 26, 2007
Wednesday, August 15, 2007
एक दिन
एक दिन
जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे
साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक
भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ
गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)
जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे
साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक
भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ
गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)
Friday, August 10, 2007
हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं
बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर कल हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया।
मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।
तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी।
निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर
मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे
पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में
जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से
देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर
एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर।
(१९९५; समय चेतना १९९६)
तसलीमा के ही शब्दों में - ऐसी घटनाएँ हमें अपने वैचारिक संघर्ष के प्रति और प्रतिबद्ध करती हैं, हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं।
मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।
तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी।
निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर
मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे
पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में
जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से
देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर
एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर।
(१९९५; समय चेतना १९९६)
तसलीमा के ही शब्दों में - ऐसी घटनाएँ हमें अपने वैचारिक संघर्ष के प्रति और प्रतिबद्ध करती हैं, हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं।
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