Friday, May 30, 2014

हर कुछ आगे ही आगे बढ़ता है, कुछ नहीं खत्म होता


31 मई 1819 को वाल्ट ह्विटमैन का जन्म हुआ था।

अमेरिकन बार्ड" कहे जाने वाले उन्नीसवीं सदी के अमेरिकी कवि वाल्ट ह्विटमैन को मुक्त छंद की कविता का जनक माना जाता है। 1819 से 1892 तक के अपने जीवन में उन्होंने युगांतरकारी घटनाएँ देखीं। मैं वाल्ट ह्विटमैन को अपना गुरू मानता हूँ। संकट के क्षणों में रवींद्र, जीवनानंद और नज़रुल की तरह ही ह्विटमैन को ढूँढता हूँ। ह्विटमैन में मुझे ऐसी गूँज दिखती है जो कुमार गंधर्व के सुर या आबिदा परवीन की आवाज़ मे सुनाई पड़ती है, जो बाब मारली की पीड़ा में सुनाई पड़ती है। 

उनकी लंबी कविता 'सॉंग ऑफ माईसेल्फ' के दो हिस्सों का अनुवाद :- 

1
मैं उत्सव हूँ, और खुद को गाता हूँ,
और चूँकि मेरा हर कण तुम्हारे भी अंदर है, जो मेरे मन में है, तुम भी उसे अपने मन में समा लो।
मैं आराम से जीता हूँ और अपनी आत्मा से गुफ्तगू करता हूँ
झुककर बसंत में उगी घास की पत्ती देखते हुए मैं आराम से सुस्ताता हूँ


मेरी ज़बान, मेरे ख़ून का हर कतरा, इस मिट्टी से, इस हवा से बना है,
यहीं थे माता पिता, जिन्होंने मुझे जन्म दिया, उनके माँ बाप भी यहीं थे,
अब सैंतीस साल की उम्र और दुरुस्त सेहत में, मैं यह गीत शुरू करता हूँ,
उम्मीद यही कि मौत से पहले न रुकूँ।


मतों और मान्यताओं को अपनी जगह रख, पर हमेशा उन्हें ध्यान में रखते हुए, उनसे ज़रा दूर हटकर
जो कुछ भी अच्छा या बुरा है, मैं उसे करीब लाता हूँ, हर खतरा मोलते हुए,
आदिम ऊर्जा के साथ कुदरत पर बेरोक कहने की अनुमति
खुद को देता हूँ।


6
मुट्ठी भर कर लाया है शिशु, पूछता है, घास क्या होती है ?
मैं बच्चे को क्या जवाब दूँ? उससे अधिक मैं क्या जानूँ कि यह क्या है।

शायद यह मेरी मनस्थिति से जुड़ी हरी आशाओं से बुना तार होगी।

या फिर यह ईश्वर का रूमाल है, जानबूझकर फेंका गया सुगंधित स्मृतिचिह्न कोई उपहार,
जिसपर कहीं कोनों में इसके मालिक का नाम लिखा है, जिसे देख कर हम पूछ उठें, किसका है?

या फिर यह घास स्वयं कोई बच्ची है, हरीतिमा की संतान।

या फिर यह समरूपी चित्राक्षर है।
और फैले क्षेत्रों और सँकरे क्षेत्रों में एक सा अंकुरित होते हुए, कालों के बीच, जैसे गोरों के बीच, विदेशी, गँवार, सांसद या गरीब के भी बीच उगते हुए, यह कहती है कि मैं सबको एक सी जगह दूँ, सबसे एक सी जगह लूँ।

और अब यह मुझे कब्र में से निकला बाल लगती है, जिसे काटा नहीं गया।

ओ घुँघराली घास, मैं तुम्हें प्यार से छुऊँगा,
हो सकता है कि तुम युवकों के सीने से उभरी हो,
हो सकता है कि मैं उन्हें जानता तो मैं उनसे प्रेम करता,
हो सकता है कि तुम बुज़ुर्गों से, या माँओं की गोद से समय से पहले छीनी गई संतान से आई हो,
और अब तुम ही उनके लिए माँओं की गोद हो।

यह घास बूढ़ी माताओं के सिर से आई नहीं हो सकती, इसका रंग गहरा है,
बूढ़े पुरुषों की सादी दाढ़ियों से ज्यादा गहरा है रंग,
रंग इतना गहरा है कि मुँह के लालिम तालु से यह नहीं आ सकती।

, इतनी बोलियाँ हम सुनते हैं, अकारण तो ये बोलियाँ मुख-तालुओं से नहीं निकलतीं।

काश कि मैं मृत युवा स्त्री-पुरुषों की ओर के संकेतों का,
और बूढ़े स्त्री-पुरुषों और माँओं की गोद से समय से पहले छीनी गई संतानों की ओर के संकेतों का अनुवाद कर सकता।

युवा और बूढ़े पुरुषों का क्या हश्र हुआ, ज़रा बोलो।
स्त्रियों और बच्चों का क्या हश्र हुआ, बोलो।

वे सब कहीं ज़िंदा और खुशहाल हैं,
छोटे से छोटा अंकुर यही दर्शाता है कि सचमुच कोई मौत नहीं होती,
और अगर कभी हुई भी तो वह जीवन को आगे ले चली है, वह आखिरकार जीवन को रोकने का इंतज़ार नहीं करती,
और जीवन के दिखते ही वह खत्म हो जाती है।

हर कुछ आगे ही आगे बढ़ता है, कुछ नहीं खत्म होता,
हम कल्पना में जैसा सोचते हैं, मृत्यु उससे अलग है, और मृत्यु का आना सौभाग्य की बात है।


Thursday, May 29, 2014

माया ऐेंजेलू - दो कविताएँ


Phenomenal Woman

Pretty women wonder where my secret lies.
I'm not cute or built to suit a fashion model's size
But when I start to tell them,
They think I'm telling lies.
I say,
It's in the reach of my arms
The span of my hips,
The stride of my step,
The curl of my lips.
I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.

I walk into a room
Just as cool as you please,
And to a man,
The fellows stand or
Fall down on their knees.
Then they swarm around me,
A hive of honey bees.
I say,
It's the fire in my eyes,
And the flash of my teeth,
The swing in my waist,
And the joy in my feet.
I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.

Men themselves have wondered
What they see in me.
They try so much
But they can't touch
My inner mystery.
When I try to show them
They say they still can't see.
I say,
It's in the arch of my back,
The sun of my smile,
The ride of my breasts,
The grace of my style.
I'm a woman

Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.

Now you understand
Just why my head's not bowed.
I don't shout or jump about
Or have to talk real loud.
When you see me passing
It ought to make you proud.
I say,
It's in the click of my heels,
The bend of my hair,
the palm of my hand,
The need of my care,
'Cause I'm a woman
Phenomenally.
Phenomenal woman,
That's me.


कमाल की औरत

सुंदर स्त्रियाँ सोचती रहती हैं कि मेरे पास कौन सा मंत्र है

मैं खूबसूरत नहीं हूँ मेरी कद-काठी फैशन मॉडल के लायक नहीं

पर मेरी बातें सुनते ही

वे सोचती हैं कि मैं गप्पें उड़ा रही हूँ

सुनो

मंत्र मेरे कूल्हों के फैलाव

मेरे कदमों की तेजी

मेरे होंठों के तिरछेपन में है

मैं औरत हूँ

कमाल की

मैं कमाल की

औरत हूँ

जान लो।


मैं कमरे में आती हूँ

जितना चाहो उतना कूल

मैं मर्द के पास आती हूँ

बंदे थम से जाते हैं

या घुटनों पर गिरते लड़खड़ाते हैं

फिर मेरे चारों ओर मँडराते हैं

शहद ढूँढते भौंरे

सुनो

मंत्र मेरे आँखों की ज्वाला

मेरे दाँतों की चमक

मेरे कमर की लचक

मेरे पैरों के उल्लास में है

मैं औरत हूँ

कमाल की

मैं कमाल की

औरत हूँ

जान लो।


मर्द भी नहीं जान पाते

कि मुझमें क्या जादू है

कोशिश में रहते हैं कि जान लें

पर मेरे अंदर जो रहस्य है
उनसे परे है

जब उनके सामने खुल आती हूँ

वे कहते हैं वे नहीं देख पाते

सुनो

जादू मेरी पीठ के बाँकपन में है

मेरी मुस्कान में खिलती धूप में है

मेरे उरोजों के उत्थान में है

मेरी अदाओं के लालित्य में है

मैं औरत हूँ


कमाल की

मैं कमाल की

औरत हूँ

जान लो।


अब तुम समझ लो

कि मेरा माथा झुकता क्यों नहीं

मैं चीखती उछलती नहीं

या चिल्लाती नहीं

मैं तुम्हारे पास से गुजरूँ

तो तुम्हें गर्व होना चाहिए

सुनो

मंत्र मेरी एड़ियों की चटक में है

मेरे बालों के घुमाव में है

मेरी हथेलियों में है

मेरी ज़रूरत कि मुझे सँभालो में है

क्योंकि मैं औरत हूँ

कमाल की

मैं कमाल की

औरत हूँ

जान लो।

I Know Why The Caged Bird Sings

The free bird leaps
on the back of the wind
and floats downstream
till the current ends
and dips his wings
in the orange sun rays
and dares to claim the sky.

But a bird that stalks
down his narrow cage
can seldom see through
his bars of rage
his wings are clipped and
his feet are tied
so he opens his throat to sing.

The caged bird sings
with fearful trill
of the things unknown
but longed for still
and his tune is heard
on the distant hill for the caged bird
sings of freedom

The free bird thinks of another breeze
and the trade winds soft through the sighing trees
and the fat worms waiting on a dawn-bright lawn
and he names the sky his own.

But a caged bird stands on the grave of dreams
his shadow shouts on a nightmare scream
his wings are clipped and his feet are tied
so he opens his throat to sing

The caged bird sings
with a fearful trill
of things unknown
but longed for still
and his tune is heard
on the distant hill
for the caged bird
sings of freedom.

मैं जानती हूँ कि पिंजड़े में कैद चिड़िया क्यों गाती है

खुली चिड़िया हवा पर सवार

फुदकती है

बहती चलती है

जहाँ तक धार चले

अपने पंख बसंती धूप में

भिगोती है

और आस्मान पर अपना राज चलाती है


जो कैद है छोटे पिंजड़े में

वह चिड़िया कहाँ देख पाती है

अपने क्रोध की सँकरी सलाखों के पार

उसके पंख कुतर दिए गए हैं

उसके पैर बँधे हैं

वह बस खुल कर गा लेती है


पिंजड़े की चिड़िया घबराती

काँपते सुर में

अनजान दुनिया के गीत गाती

जहाँ वह जाना चाहती है

और उसकी धुन दूर पहाड़ियों तक पहुँचती है

चूँकि वह तो खुली हवा के गीत गाती है


खुली चिड़िया किसी और हवा

साँस लेते पेड़ों के बीच से गुजरती पुरवाई

के संग होती है

सुबह की रोशनी में चमकती घास पर मोटे कीड़े उसकी नज़र में होते हैं

और वह आस्माँ पर अपनी मिल्कियत का ऐलान करती है


पिंजड़े की चिड़िया सपनों की कब्र पर खड़ी होती है

उसकी छाया रात के दुःस्वप्नों में चीखती है

उसके पंख कुतर दिए गए हैं

उसके पैर बँधे हैं

वह बस खुल कर गा लेती है


पिंजड़े की चिड़िया घबराती

काँपते सुर में

उस अनजान दुनिया के गीत गाती

जहाँ वह जाना चाहती है

उसकी धुन दूर पहाड़ियों तक पहुँचती है

चूँकि वह तो खुली हवा के गीत गाती है।

Saturday, May 24, 2014

बौद्धिकों के नए (पुराने) मुहावरे


यह आलेख आज जनसत्ता में 'बौद्धिकों के बदलते सुर' शीर्षक से छपा है। इसे पहले मैंने अंग्रेज़ी में थोड़ा और विस्तार से लिखा था। मेरे अंग्रेज़ी ब्लॉग में उस  मूल लेख को पढ़ सकते हैं।
नई सरकार बनने के बाद से उदारवादी जाने जाने वाले बुद्धिजीवियों में बदले हालात में खुद को ढालने की कोशिशें दिखने लगी हैं। नए रुख को किसी नई नौकरी की तरह नहीं समझाया जा सकता। नए मुहावरे गढ़ने पड़ते हैं या जिन मुहावरों को पहले ग़लत कहकर अपनी जगह बना रहे थे, अब उनको दुबारा ढूँढकर सही का जामा पहनाना पड़ता है। ऐसी ही एक कोशिश हाल में अंग्रेज़ी के 'द हिंदू' अखबार में छपे शिव विश्वनाथन के आलेख में दिखती है। नरेंद्र मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा और फिर उसके बाद गंगा में आरती से बात शुरू होती है। टी वी पर यह दृश्य आने पर संदेश आने लगे कि बिना कमेंट्री के पूरी अर्चना दिखलाई जाए। कइयों का कहना था कि इस तरह पूरी पूजा की रस्म को पहली बार टी वी पर दिखलाया गया। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की गंगा आरती पहली बार दिखलाई गई। पर धार्मिक रस्म हमेशा ही टी वी पर दिखलाए जाते रहे हैं। राष्ट्रीय नेता सार्वजनिक रूप से धार्मिक रस्मों में शामिल होते रहे हैं, यह हर कोई जानता है। राजेंद्र प्रसाद के हवन से सोनिया गाँधी का मंदिरों में जाना तक हर कोई जानता है। तो एक अध्येता को यह बड़ी बात क्यों लगी? शिव बतलाते हैं कि मोदी जी के होने से यह संदेश मिला कि हमें अपने धर्म से शर्माने की ज़रूरत नहीं है। यह पहले नहीं हो सकता था।

कौन सा धर्म? कैसी शर्म? क्या मोदी महज एक धार्मिक रस्म निभा रहे थे? अगर ऐसा है तो इसके पहले कितनी बार उन्होंने यह आरती की; आखिर वे 63 साल के हैं, उनके पास क्षमता थी और आने जाने में कोई दिक्कत न थी। कभी तो लगा होगा कि दीन पुकार रहा है।

सच में वह कोई धार्मिक काम नहीं था। वह आरती किसी भी धार्मिकता से बिल्कुल अलग एक विशुद्ध राजनीतिक कदम थी। उसमें से उभरता संदेश यही था कि राजा आ रहा है।

तकरीबन डेढ़ पहीने पहले एक और आलेख में बनारस में केजरीवाल और मोदी की भिड़ंत पर लिखते हुए शिव ने लिखा था, 'मोदी जिस भारत-इंडिया, हिंदू-मुस्लिम फर्क को थोपना चाहते हैं, बनारस उसे खारिज करता है।' अब मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल गया है।

आगे वे किसी दोस्त को उद्धृत कर बिल्कुल निशाने पर मार करते हैं अंग्रेज़ी बोलने वाले सीक्यूलरिस्ट लोगों ने बहुसंख्यकों को अपना स्वाभाविक जीवन जीने में परेशान कर दिया। इंग्लिशवालों की दयनीय स्थिति पर मैं पहले लिख चुका हूँ, पर स्वाभाविक क्या है, इस पर मेरी और शिव की समझ में फर्क है। आगे वे लिखते हैं कि वामपंथी घबरा गए हैं कि अब धर-पकड़ शुरू होगी। वैसे सही है कि 31% मतदाताओं ने ही भाजपा को बहुमत दिलाया है। ऐसा नहीं है कि सारा मुल्क तानाशाह के साथ है। अगर मतदान में शामिल न हुए लोगों को गिनें तो जनसंख्या का पाँचवाँ हिस्सा भी भाजपा के साथ नहीं होगा। घबराने की कोई बात सचमुच नहीं है। पर क्या हम भूल जाएँ कि पिछली बार के भाजपा शासन के दौरान किताबें कैसे लिखी गईं। आज हम सब वामपंथी दिखते हैं, पर डेढ़ महीने पहले यह डर उन्हें भी था कि मोदी हिंदू-मुस्लिम फर्क को थोपना चाहते हैं। एन सी ई आर टी की एक किताब में भारत के विभाजन पर अनिल सेठी का लिखा एक अद्भुत अध्याय है, जिसमें दोनों ओर आम नागरिक को विभाजन से एक जैसा पीड़ित दिखलाया गया है। यह वाजिब चिंता है कि इस अध्याय को अब हटा दिया जा सकता है। यह सब जानते हैं कि दक्षिणपंथियों के आने से इतिहास की नई व्याख्या की जाएगी।

शिव का मानना है कि उदारवादी इस बात को न समझ पाए कि मध्य-वर्ग के लोग तनाव-ग्रस्त हैं और मोदी ने इसे गहराई से समझा। पहले इन तनावों की वाम की समझ के साथ शिव सहमत थे, पर अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता है, जिसने धर्म को जीने का सूत्र नहीं, बल्कि एक अंधविश्वास ही माना। यह 50 साल पुरानी बहस है कि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा या कि उसे उत्पीड़ितों की आह माना। आगे वे वाम को एक शैतान की तरह दिखलाते हैं, जिसने संविधान में वैज्ञानिक चेतना की धारणा डाली ताकि धर्म की कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति मिले। रोचक बात यह है कि अंत में वे दलाई लामा को अपना प्रिय वैज्ञानिक कहते हैं। तो क्या वैज्ञानिक में 'वैज्ञानिक चेतना' की भ्रष्ट धारणा नहीं होती! उनके मुताबिक यह धारणा एक शून्य पैदा करती है, और धर्म-निरपेक्षता बढ़ाती है, जिससे ऐसा एक दमन का माहैल बनता है जहाँ आम धार्मिक लोगों को नीची नज़र से देखा जाता है। बेशक विज्ञान को सामाजिक मूल्यों और सत्ता-समीकरणों से अलग नहीं कर सकते, पर यह मानना कि जाति, लिंगभेद आदि संस्थाएँ, जिन्हें धार्मिक आस्था से अलग करना आसान नहीं, विज्ञान उनसे भी अधिक दमनकारी है, ग़लत है। शिव धर्म-निरपेक्षता को विक्षोभ पैदा करने वाला औजार मानते हैं। उनके अनुसार पिछली सरकार ने चुनावों के मद्देनज़र लघुसंख्यकों की तुष्टि की और इससे बहुसंख्यकों को लगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। तो वह तुष्टि क्या है? शाह बानो का मामला, पर्सनल लॉ, काश्मीर के लिए धारा 370, कॉंग्रेस या दूसरे दलों के चुनावी मुद्दे तो ये नहीं हैं, हालांकि संघ परिवार के लिए ये संघर्ष के मुद्दे हैं। चुनाव के मुद्दों में आरक्षण भी है। पैसा, शराब, मादक पदार्थ, हिंसा, क्या नहीं चलता। जातिवाद और सांप्रदायिकता भी। सवाल यह है कि कहाँ तक गिरना ठीक है। संघ ने खास तौर पर उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों और दलितों में झूठी बहुसंख्यक अस्मिता का अहसास पैदा किया और फिर उनमें गुस्सा पैदा किया कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है। दूसरी ओर अगर लघु-संख्यकों को कुछ सुविधाएँ दी जाएँ तो क्या वह हमारे पारंपरिक मूल्यों के खिलाफ है? अगर नहीं तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट जैसे दस्तावेजों से उजागर लघु-संख्यकों के बुरे हालात के मद्देनज़र अगर उनकी तरफ अधिक ध्यान दिया गया तो इससे एक बुद्धिजीवी को क्या तकलीफ?

बिना विस्तार में गए सिर्फ इस अहसास को बढ़ाना कि लघु-संख्यकों का तुष्टीकरण होता है, एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। होना यह चाहिए कि हम सोचें कि देश में लघु-संख्यकों का हाल इतना बुरा क्यों है कि उनका चुनावों के दौरान फायदा उठाना संभव होता है। उनकी माली और तालीमी हालत इतनी बुरी क्यों है कि उनके बीच से उठने वाली तरक्की-पसंद आवाज़ें दब जाती हैं।

यह एक नज़रिया हो सकता है कि बहु-संख्यक धर्म-निरपेक्षता को खोखला दमनकारी विचार मानते हैं। पर यह भी देखना चाहिए कि ग़रीबी और रोज़ाना मुसीबतों से परेशान लोग बहु-संख्यक अस्मिता से जुड़े राष्ट्र की संकीर्ण धारणा के शिकार हो जाते हैं, यह ऐसा विचार है जिसके मुताबिक अपने ही अंदर दुश्मन ढूँढा जाता है, जैसे जर्मनी में यहूदी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू और भारत में मुसलमान। इसी असुरक्षा को मोदी और संघ ने पकड़ा। इसके साथ रोज़ाना ज़िंदगी में धर्म और अध्यात्म का संबंध ढूँढना ग़लत होगा। धर्म-निरपेक्षता बहु-संख्यकों पर कोई कहर नहीं ढाती। इसके विपरीत होता यह है कि संघ परिवार जैसी ताकतों के भेदभाव वाले प्रचार से इंसान की बुनियादी प्रेम और भलमनसाहत की प्रवृत्तियाँ दब जाती हैं।

शिव बतलाते हैं कि हमारे धर्मों में हमेशा ही संवाद की परंपरा रही है। पर इतना कहना काफी नहीं है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि समाज में धर्म की भूमिका बड़े तबकों को क्रूरता से मनुष्येतर रखने की रही। हमारे चिकित्सा-विज्ञान की परंपरा में बहुत सी अच्छी बातें हैं, वहीं लाशों के साथ काम करने वालों को अस्पृश्य मानना भी इसी परंपरा का हिस्सा है। एक ओर यह सही है कि हमारे लोगों के लिए धर्म पश्चिम की तरह महज रस्मी बात नहीं, वहीं यह भी सही है कि हर धार्मिक रस्म आध्यात्मिक उत्थान से नहीं जुड़ी है। इस देश के किसी भी हिस्से में सुबह उठते हुए इस बात को समझा जा सकता है, जब मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारों से सुबह की कुदरती शांति को चीरती लाउड-स्पीकरों की कानफाड़ू आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे जीवन में धर्म का हस्तक्षेप अधिकतर बड़ा दुखदायी होता है।

निजी आस्था और सार्वजनिक जीवन में फर्क करने वाली धर्म-निरपेक्षता का सेहरा वाम को चढ़ाना भी ग़लत होगा। ऐसी खबरों की संख्या कम नहीं जब वाम नेता पूजा मंडपों का उद्घाटन करते देखे गए थे। जिस वाम को लेकर जैसी बहस शिव या दीगर बुद्धिजीवी कर रहे हैं, वह सिर्फ अकादमिक संस्थानों के घेरे में है। आज ऐसी बहस को पढ़ कर लगता है मानो नई सरकार क्या बनी, भारत से स्टालिन का शासन खत्म हुआ!

धर्म-निरपेक्षता की बात करते हुए ईसाई धर्म और विज्ञान की लड़ाई को ले आना शायद यह बतलाता है कि धर्म-निरपेक्षता पश्चिमी धारणा है। पर क्या आधुनिक राज्य-सत्ता की धारणा भारतीय है? संघ सरचालकों का प्रेरक हिटलर क्या भारतीय था?

इसमें कोई शक नहीं कि कई लोग इस बात से सही कारणों से परेशान होते हैं कि पेशेदार वैज्ञानिक अपनी धार्मिक आस्थाओं और विज्ञान-कर्म को अक्सर अलग नहीं कर पाते। पर हमारी इस परेशानी का व्यापक समाज में चल रही प्रक्रियाओं पर कोई असर नहीं पड़ता। वैसे ही हमारे वैज्ञानिकों में नास्तिकों की संख्या बड़ी कम है। और अधिकतर व्यवस्था-परस्त हैं। किसी भी राष्ट्रीय सम्मेलन में चले जाएँ तो पाएँगे कि अधिकांश वैज्ञानिक इसी चर्चा में मशगूल हैं कि गुजरात में क्या गजब का विकास हुआ है।

सभ्यताओं को पूरब, पश्चिम में बाँट कर देखना कितना सही है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। पिछली सदी की मान्यताओं के विपरीत अब यह जानकारी आम है कि पिछले दो हजार सालों में पर्यटकों और ज्ञानान्वेषियों के जरिए धरती पर एक से दूसरी ओर ज्ञान का प्रवाह व्यापक स्तर पर होता रहा है।

यह सरासर ग़लत है कि हिंदुत्व को बुरा मानते हुए भी धर्म-निरपेक्ष लोग दूसरे धर्मों में मूलवाद को नर्मदिली से देखते रहे। ऐसा कहना न केवल झूठ है, बल्कि वक्ता के निहित स्वार्थों पर सवाल उठाता है। धर्म-निरपेक्षता में वह शैतान मत ढूँढिए जिसे मध्य-वर्ग के लोगों ने उखाड़ फेंका हो। सच यह है कि हममें में से हरेक में एक नरेंद्र मोदी बैठा है। हमारी सांप्रदायिक सोच का फायदा उठाया जा सकता है। 31% मतदाताओं के अधिकांश के साथ को मोदी और संघ परिवार यही करने में सफल हुआ है। बाकी काम दस हजार करोड़ रुपयों से हुआ, जिसमें मीडिया के अधिकांश को खरीदा जाना भी शामिल है। यह तो होना ही है कि जब 'हिंदू' नाम का राजनैतिक समूह विशाल बहुसंख्या में मौजूद है तो हिंदुत्व पर नज़र ज्यादा पड़ेगी, जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में उदारवादी इस्लामी मूलवाद पर ज्यादा गौर करेंगे।

यह सचमुच तकलीफदेह है कि मोदी के विरोध को शिव जैसे बुद्धिजीवी विज्ञान और आधुनिकता से जोड़ रहे हैं। वैसे यह एक तरह से विज्ञान के पक्ष में ही जाता है। आखिर 2002 से पहले मोदी के बयानों को कौन भूल सकता है। मुसलमानों के लिए उनके बयान असभ्य और अक्सर आक्रामक होते थे। 'हम पाँच हमारे पचीस' उनका तकियाकलाम था। मुख्य मंत्री बनने के बाद वे सावधान हो गए, फिर भी कभी-कभार ज़बान चल ही पड़ती है। यह सबको पता है। अगर विज्ञान हमें इस मानवविरोधी कट्टरता से टक्कर लेने की ताकत देता है, तो जय विज्ञान। -

Thursday, May 22, 2014

ज़मीं पर ही खड़ा हूँ


रद उड़ानें
उनकी तरफ उड़ानें बरसों पहले रद हो गई हैं।

युवा कवि जो कापीराइटर बन गया,
अर्थशास्त्री जो एम एन सी का सी ई ओ है, 
सरकारी गलियारों के वरिष्ठ कवि, समीक्षक, वैज्ञानिक, सबकी ओर
मेरी उड़ानें पटरी से ऊपर उठकर फिर उतर आती हैं।

यमुना पार बसे दोस्तों में एक के पास मेरा दिल है
उधर उड़ने से रोकता हूँ खुद को बार बार
वर्षों पहले रद हो चुकीं जो उड़ानें
उन्हें दुबारा उड़ने पर खुद ही खींच उतारता हूँ

हालाँकि सब के साथ खुद को भी लगता है कि
ज़मीं पर ही खड़ा हूँ हर क्षण।



(प्रतिलिपि 2009; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' (वाणी - 2012) संग्रह में संकलित)

Sunday, May 18, 2014

क्या आप भी अखबार में पढ़ते हैं


एक बार पहले यह कविता कुछ और बातचीत के साथ पोस्ट कर चुका हूँ। फिर कर रहा हूँ। 


लड़ाई हमारी गलियों की

किस गली में रहते हैं आप जीवनलालजी
किस गली में

क्या आप भी अखबार में पढ़ते हैं
विश्व को आंदोलित होते (देखते हैं)

आफ्रिका, लातिन अमरीका
क्या आपकी टीवी पर
तैरते हैं औंधे अधमरे घायलों से
दौड़कर आते किसी भूखे को देख
डरते हैं क्या लोग – आपके पड़ोसी
लगता है उन्हें क्या
कि एक दक्षिण अफ्रीका आ बैठा उनकी दीवारों पर

या लाशें एल साल्वाडोर की
रह जाती हैं बस लाशें
जो दूर कहीं
दूर ले जाती हैं आपको खींच
भूल जाते हैं आप
कि आप भी एक गली में रहते हैं

जहाँ लड़ाई चल रही है
और वही लड़ाई
आप देखते हैं

कुर्सी पर अटके
अखबारों में लटके
दूरदर्शन पर

जीवनलालजी
दक्षिण अफ्रीका और एल साल्वाडोर की लड़ाई
हमारी लड़ाई है।                (साक्षात्कार - 1989)

Thursday, May 15, 2014

आँखों के लिए भी सूत्र हैं


 एक बहुत पुरानी कविता - 

दुख के इन दिनों में

छोटे दुःख बहुत होते है
कुछ बड़े भी हैं दुःख
हमेशा कोई न कोई
होता है हमसे अधिक दुःखी

हमारे कई सुख
दूसरों के दुःख होते हैं
न जाने किन सुख दुखों
के बीज ढोते हैं
हम सब

सुख दुःखों से
बने धर्म
सबसे बड़ा धर्म
खोज आदि पिता की
नंगी माँ की खोज
पहली बार जिसका दूध हमने पिया

आदि बिन्दु से
भविष्य के कई विकल्पों की
खोज
जंगली माँ के दूध से
यह धर्म हमने पाया है
हमारे बीज अणुओं में
इसी धर्म के सूक्ष्म सूत्र हैं

यह जानते सदियाँ गुजर जाती हैं
कि इन सूत्रों ने हमें आपस में जोड़ रखा है

अंत तक रह जाता है
सिर्फ एक दूसरे के प्यार की खोज में
तड़पता अंतस्
आखिरी प्यास
एक दूसरे की गोद में
मुँह छिपाने की होती है

सच है
जब दुख घना हो
प्रकट होती है
एक दूसरे को निगल जाने की
जघन्य चाह
इसके लिए
किसी साँप को
दोषी ठहराया जाना जरूरी नहीं

आदि माँ की त्वचा भूलकर
अंधकार को हावी होने देना
धर्म को नष्ट होने देना है

अपनी उँगलियों को उन तारों पर चलने दो
आँखें जिन्हें बिछा रही हैं
फूल का खिलना
बच्चे का नींद में मुस्कराना
जाने कितने रहस्यों को
आँखें समझती हैं
आँखों के लिए भी सूत्र हैं
जो उसी अनन्य सम्भोग से जन्मे हैं

अँधेरा चीरकर
आँखें ढूँढ लेंगी
आस्मान की रोशनी
दुख के इन दिनों में
धीरज रखो
उसे देखो
जो भविष्य के लिए
अँधेरे में निकल पड़ा है
उसकी राहों को बनाने में
अपने हाथ दो
हवा से बातें करो
हवा ले जायेगी नींद
दिखेगा आस्मान।  (1991)