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निकारागुआ - एल पुएबलो उनीदो

निकारागुआ लीब्रे

मेरा स्लीपिंग बैग बाईस साल पहले दो बार निकारागुआ हो आया, पर मैं नहीं जा पाया। कॉफी ब्रिगेड में हिस्सा लेने मेरी मित्र मिशेल पारिस मानागुआ गई। उन्हें ब्रिगादिस्ता कहते थे। फिर बाद में शायद प्रिंस्टन एरिया कमेटी अगेंस्ट इंटरवेंशन इन लातिन अमेरिका का संयोजक रैंडी क्लार्क ले गया था।
दानिएल ओर्तेगा उनदिनों बड़ा हैंडसम दिखता था। निकारागुआ का मुक्ति संग्राम अनोखा था। इसमें वामपंथी और कैथोलिक (जिनमें प्रमुख एर्नेस्तो कार्देनाल थे, जो जाने माने कवि थे - इनका भाषण मैंने सुना था, जिस दौरान कविता भी पढ़ी थी) दोनों तबके शामिल थे।

जब निकारागुआ आजाद हुआ, तब तक रोनल्ड रीगन की सरकार ने अपने करोड़ों डालर वहाँ लगा दिए थे। अमरीकी मदद से 'कॉन्त्रा' नाम से पूरी एक फौज इंकलाबिऔं के खिलाफ जिहाद लड़ रही थी। आतंक के उस माहौल में चुनाव करवा कर अमरीका ने अपनी पपेट सरकार बनवाई। पर देर सबेर लोगों की आवाज सुनी जानी ही थी। लगता है दुनिया भर में दक्षिणपंथी दुम दबाकर पतली गली से भागने की राह देख रहे हैं। अमरीका के दक्षिणपंथिओं को इससे बड़ी चपत क्या लगती कि जब सीनेट और कांग्रेस हाथ से छूटे तो निकारागुआ में भी दानिएल ओर्तेगा वापस। El pueblo unido jamás será vencido! एल पुएबलो उनीदो, हामास सेरा वेन्सीदो! (एकजुट जनता को कोई नहीं हरा सकता), निकारागुआ लीब्रे!

पर उम्र का तकाजा यह भी होता है कि पहले जैसा आशावाद का नशा नहीं रहता। वैसे तो दक्षिणपंथ के फूहड़पन को अधिकतर प्रायः अनपढ़ भारत की जनता ने ही दो साल पहले अच्छी तरह पीट दिया है, फिर भी ।।।।

भारत लौटकर एक पिक्चर पोस्टकार्ड (अब भी पास है - ढूँढना पड़ेगा ) देखते हुए कविता लिखी थी, अब याद नहीं बाद में किस पत्रिका में प्रकाशित हुई, संभवतः साक्षात्कार में।

निकारागुआ की सोलह साल की वह लड़की

सोलह साल की थी
जब एर्नेस्तो कार्देनाल
कविताओं में कह रह थे -
निकारागुआ लीब्रे!

उसने नज़रें उठाकर आस्मां देखा था
कंधे से बंदूक उतारकर
कच्ची सड़क पर
दूर तक किसी को ढूँढा था
हल्की साँस ली थी

उसने सोचा था -
वह दोस्त
जो झाड़ियों में खींच ले गया था
बहुत प्यार भरा
चुंबन ले कर जिसने कहा था
इंतज़ार करना! एक दिन तुम्हें
इसी तरह देखने आऊँगा -
लौट आएगा

उसकी माद्रे
गाँव के गिर्जा घर ले जाएगी
पाद्रे हाथों में हाथ रखवा कहेगा
सुख दुःख संपदा विपदाओं में
एक दूसरे का साथ निभाओगे
और वे कहेंगे - हाँ हम निभाएँगे

दस वर्षों बाद उसकी तस्वीर
मेरे डेस्क पर वैसी ही पड़ी है

सोलह साल का वह चेहरा -
आँखों में आतुरता
होंठों के ठीक ऊपर
पसीने की परत
कंधे पर बंदूक
आज भी वहीं रुका हुआ

आज भी कहीं
ब्लू फील्ड्स के खेतों में
या उत्तरी पहाड़ियों में
जंगलों में उसे लड़ना है

आज भी उसकी आँखें
आतुर ढूँढती हैं
एक-अदने इंसान को
जिसने उसे प्यार से बाँहों में लिया था
और कहा था
मैं लौटूँगा।

(१९८८; एक झील थी बर्फ की -१९९०)

Comments

Anonymous said…
बहुत ही अच्छी रचना ।
Anonymous said…
रचना पसंद आई
Pratyaksha said…
कविता अच्छी लगी !

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