सीख मिली है कोविड की - बीजेपी को वोट नहीं - नो वोट टू बीजेपी
-'नया पथ' के ताज़ा अंक में प्रकाशित
पिछले डेढ़ साल से समूची धरती पर जो कहर बरपा है, उससे शायद ही कोई अछूता रह पाया है। हर किसी ने परिवार में या अपने परिचितों में किसी न किसी को खोया या गंभीर रूप से बीमार पाया है। लॉक डाउन और सामाजिक दूरी के बीच जीते हुए मानसिक थकान और अवसाद में हर कोई जाने-अंजाने आतंक के साए से घिर गया है। यह महामारी सचमुच इतना बड़ा आतंक नहीं है, जितना कि हमें लगता है। जो मौतें हुई हैं, वे धरती पर इंसान की पूरी तादाद के सामने नगण्य हैं। घरों में बंद रहने से सड़कों पर ट्रैफिक कम हुआ है, शहरी हवा में प्रदूषण कम हुआ है, और ऐसी वजहों से सामान्य हाल में जो मृत्यु-दर होती है, उससे कोई ज्यादा इस दौर में नहीं है। निकम्मी सरकार की वजह से हुई बेवजह मौतें और सनसनी फैला कर रोटी कमाने वाली मीडिया की मिलीभगत से आतंक का माहौल बढ़ा है।
आतंक न भी हो, फिर भी कोविड महामारी के बड़े प्रभाव होने चाहिए। इससे पहले जब भी महामारी आई है, वह छोटी अवधियों में यानी महीनों तक भौगोलिक रूप से सीमित रही है। जब बड़े पैमाने पर महामारी फैली भी और बड़ी तादाद में मौतें हुईं भी तो इसे कुदरती आपदा की तरह समझा गया। यह पहली बार है कि इंसानी हरकत की वजह से महामारी होने को लेकर हर कोई संजीदगी से सोच रहा है, हालाँकि यह कहना मुश्किल है कि इस सोच के साथ हम भविष्य में सावधानी बरतेंगे और सतही समझ से आगे बढ़कर सामूहिक जिम्मेदारी के साथ ऐसे संकटों को रोकने की कोशिश करेंगे। महामारी की व्यापकता के संकेतों पर पहले से एकाधिक बार चेतावनी दी गई थी, जिन पर ध्यान नहीं दिया गया। पिछली एक सदी में आलमी पैमाने पर हुई एक दर्जन महामारियों में 10 लाख से ज्यादा मौतें हुई हैं। पर उनकी भयावहता सार्वजनिक स्मृति में नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिर्देशक, अदनोम गेब्रिसस ने 2018 में दुनिया को चेतावनी दी थी, " किसी भी देश में किसी भी समय विनाशकारी महामारी शुरू हो सकती है और लाखों लोगों को मार सकती है।" भारत में तो आम लोगों को इसकी कोई जानकारी तक नहीं थी। महामारी में एक साल से अधिक गुजार चुकने के बाद भी भारत जैसे कई मुल्क कोविड की दूसरी लहर के लिए तैयार नहीं थे। बहरहाल कोविड कहाँ से आया, क्या वह चमगादड़ों से किसी और स्तनपायी जानवर के जरिए रूप बदलते हुए इंसान पर हमला कर पाया या इसे किसी प्रयोगशाला में तैयार किया गया जहाँ से निकल कर बड़ी तादाद में फैल गया, इस पर बहस-मशविरे चलते रहेंगे, पर यह बात साफ है कि इंसान ने जिस तरह कुदरत के साथ छेड़छाड़ की है, उसकी वजह से ही आज हम इस संकट की स्थिति में हैं। पर क्या इस छेड़छाड़ के लिए हर कोई जिम्मेदार है? सतही तौर पर इस सवाल का जवाब यही है कि हर इंसान कुदरत से फायदा उठाने की कोशिश करता है और इस तरह हर कोई जिम्मेदार ठहराया जाएगा। पर विस्तार से सोचने पर हम पाएँँगे कि आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्थाएँ और निहित स्वार्थों ने इंसानियत की बहुतायत को इस तरह मजबूर किया हुआ है कि इंसान और कुदरत में परस्पर मुठभेड़ का रिश्ता बन गया है।
कुदरत के बारे में अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक पिछली एक सौ सोलह सदियों या तक़रीबन साढ़े ग्यारह हजार साल तक की अवधि को होलोसीन या अभिनव युग कहते हैं। पिछली एक सदी को छोड़कर इस पूरी अवधि में वायुमंडल और धरती की सतह में रासायनिक संतुलन तक़रीबन एक सा बना रहा। हाल की सदियों में औद्योगिक क्रांति के बाद से यह संतुलन बिगड़ने लगा और 1950 के आस-पास बड़े बदलाव नज़र आने लगे। खास तौर पर धरती की सतह पर और वायुमंडल में औसत तापमान में बढ़त दिखने लगी। पिछले छ: दशकों में हालात इतने बिगड़ गए कि वैज्ञानिक यह मानने लगे कि अब हम होलोसीन से निकल कर नए युग में आ गए हैं। यह साफ था कि ये बड़े बदलाव कुदरत के संतुलित निज़ाम में इंसानी घुसपैठ से हुए हैं, इसलिए नए युग का नाम ऐंथ्रोपोसीन रखा गया। ऐंथ्रोपोस का मतलब इंसान से जुड़ा है, जैसे ऐंथ्रोपोलोजी मानव-शास्त्र को कहते हैं। धीरे-धीरे यह स्कूली स्तर की बातें हो गईं कि वायुमंडल में ओज़ोन की छतरी में छेद हो गया है, जिसकी वजह से सूरज की पराबैंगनी किरणें पहले से कहीं ज्यादा मात्रा में धरती की सतह तक पहुँच रही हैं और इस वजह से इंसान की ज़िंदगी खतरे में है; कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की परत बनते जाने से धरती से ताप अंतरिक्ष में निकल नहीं पा रहा और धरती का तापमान बढ़ रहा है; समुद्रों में पानी का सतह ऊँचा हो रहा है और इससे तटीय इलाक़े समंदर में डूब जाएँगे। आम तौर पर इन दो बातों पर ही चर्चा होती है, पर इनके अलावा और कई ऐसी बातें हैं, जो धरती और धरती पर इंसान की ज़िंदगी के लिए खतरा बन रही हैं। मसलन बड़े पैमाने पर कृत्रिम खाद के उत्पाद और इस्तेमाल से मिट्टी में नाइट्रोजन और फॉस्फोरस का संतुलन बिगड़ गया है। इंसान की जनसंख्या बढ़ने से और कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल से कई पशु-पक्षी-वनज विलुप्त हो रहे हैं। हमारी पीढ़ी ने अपनी आँखों के सामने गौरैया, कौवा, तोता जैसे पंछी ग़ायब या तादाद में कम होते देखा है। इसका सीधा प्रभाव पर्यावरण और ईको- या पारिस्थितिकी-संतुलन पर पड़ा है। पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। इन संकटों में कुछ तो ऐसी स्थिति में हैं कि अब उनसे उबरा नहीं जा सकता। पर ज्यादातर अब भी नियंत्रण लायक हैं।
कुदरत की इस बर्बादी से किसका फायदा हुआऔर किसका नुक्सान, यह हिसाब ज़रूरी है। इसमें कोई शक नहीं कि पिछली सदियों में इंसानी ज़िंदगी में कुछ बेहतरी हुई दिखती है। आधुनिक दवाओं के चमत्कार से औसत आयु बढ़ी है। विकसित मुल्कों में अस्सी और हमारे यहाँ पैंसठ तक पहुँच गई है। तालीम और जानकारी में बढ़त हुई है। पर इसके साथ ही जीवन में तनाव और बेचैनी लगातार बढ़ती रही है। किसी भी वक्त सारी दुनिया में दर्जनों जंगें चल रही हैं। जंगों में एकमुश्त मौतें और जानमाल का नुक्सान होता है। यह जंग-लड़ाई जहाँ अक़सरीयत के लिए पीर का समंदर है, वहीं कुछेक लोगों के लिए यही भौतिक सुखों का स्रोत है। जहाँ जंगें नहीं भी हो रही हैं, वहाँ पूँजीवाद और बाज़ार के हाथों हर कोई और हर कुछ बिक रहा है। तालीम, सेहत, घरबार, हर खित्ते में अमीर-ग़रीब की खाई बढ़ती ही जाती है। क्यूबा जैसे जिन मुल्कों ने अपनी सरहदों के अंदर इस गैर-बराबरी को रोका है, उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सौदागर और उनकी सरकारें बचे रहने नहीं दे रही हैं।
सेहत पर ध्यान दें तो कोविड-संकट के कुछ पहलुओं की बात कर सकते हैं। जनवरी 2020 में COVID-19 महामारी फैलने के बाद, भारत में रिपोर्ट किए गए केस लोड में धीरे-धीरे बढ़त हुई और पहली लहर सितंबर 2020 तक प्रति दिन 1 लाख नए मामलों के नीचे पहुंच गई, फिर फरवरी 2021 तक धीरे-धीरे घटकर 10% हो गई। भारत सरकार ने मान लिया कि सबसे बुरा वक्त खत्म हो गया है।
फरवरी 2021 के अंतिम सप्ताह में, संक्रमण विस्फोटक रूप से बढ़ गया। मई की शुरुआत तक, हर दिन 4लाख से अधिक नए मामले सामने आए और 4,000 से अधिक मौतें हुईं, यानी दो महीने पहले की तुलना में 40 गुना अधिक। हर कोई जानता है कि संख्याएँ बहुत कम रिपोर्ट की गई हैं, और वास्तविक केस लोड 10-20 गुना अधिक हो सकता है। पहली लहर के दौरान लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों के साथ जो हुआ और चरमराती सेहत व्यवस्था की जो छवि दिखी, दूसरी लहर में उससे कहीं ज्यादा आतंक ऑक्सीजन की कमी, दवाओं की कालाबाज़ारी और मौतों में लगातार इजाफे से बढ़ा। ऑक्सीजन की कमी उत्पादन क्षमता की कमी के कारण नहीं है, बल्कि अपर्याप्त परिवहन और भंडारण के बुनियादी ढांचे में खामियाँ हैं। राजधानी दिल्ली जैसे शहर में लोग गुरुद्वारों के आसरे जी रहे दिख रहे थे। दुनिया भर में लोग देख रहे थे कि भारत की स्थिति कितनी खराब है और एक के बाद सभी अंतर्रष्ट्रीय प्रिंट और दृश्य मीडिया में भारत सरकार के निकम्मेपन पर टिप्पणियाँ छप रही थीं। मेडिकल विज्ञान की नामी शोध पत्रिका 'लांसेट' में भी मोदी सरकार के खलाफ रिपोर्ट आई।
सरकार की भूमिका क्या रही? भारत में फिरकापरस्त और फासीवादी विचार का केंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पार्टी की सरकार और उसके मुखिया मोदी और शाह से लोगों के भले के लिए कोई कदम सोचना नादानी और नासमझी है। फिर भी चूँकि सरकार उनकी है और कहने को लोकतांत्रिक ढाँचा है, इसलिए ये प्रसंग चर्चा में रहते हैं। लगातार झूठ बोलते रहना और मक्कारी को वैचारिक आधार बनाकर चलने वाली संघ की मशीनरी ने कोविड की पहली लहर की शुरूआत में दिल्ली में तबलीगी जमात के सम्मेलन पर दोष मढ़कर सबको समझाने की कोशिश की कि देश में महामारी का फैलना मुसलमानों की वजह से है। पिछली सदी में इतालवी फासीवाद और जर्मन नात्सी विचारधारा के मुताबिक फिरकापरस्त हिंसक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पूँजीवाद को खुली छूट के घोल की नीतियों पर चलने वाले संघ के मुखिया ने हाल के इतिहास मेें सबसे बेवकूफ नस्लवादी घटिया रुचि के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और उसके साथ आए कई सैंकड़े लोगों की आवभगत में अमदाबाद में बहुत बड़ा आयोजन किया। ये लोग सीधे अमेरिका से आए थे जहाँ कोविड फैल चुका था। भारत के हवाई अड्डों पर भी विदेशों से आ रहे लोगों में कोविड का संक्रमण पाया जा रहा था। ऐसा माना जाता है कि संक्रमण का बड़ा स्रोत अमदाबाद का यह आयोजन रहा, हालाँकि इस पर कोई शोध नहीं किया गया। इसके तुरंत बाद जब अचानक लॉकडाउन की घोषणा हुई तो प्रवासी मजदूरों का जो हाल दुनिया ने देखा, वैसी नृशंसता आज के वक्त दुनिया में और कहीं मुमकिन नहीं है। महीनों तक भूखे-प्यासे ग़रीब बच्चों के साथ अपनी पोटलियाँ ढोते सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलते रहे। कहीं किस्मत से कोई बस मिली तो पैसे देने के बावजूद भेड़-बकरियों की तरह लादे गए। सैंकड़ों इसी तरह चलते-चलाते मारे गए। आखिर संघ के लोगों में ऐसी अमानवीय प्रवृत्ति कहाँ से आई? ज़मीनी स्तर अक्सर समाज सेवा के भ्रम में कई किशोर और युवा संघ के कार्यकर्ता बन जाते हैं, फिर वर्षों तक उनके ज़हन में ज़हर डाला जाता है। पर सब एक जैसे तो नहीं हो सकते। जो भले लोग हैं, उन सबने ऐसी बेरहमी को मान कैसे लिया।
दरअसल इतालवी-जर्मन फासीवाद को बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यूरोप-अमेरिका के पूँजीवादियों यानी तत्कालीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मदद पहुँचाई थी, जिनमें उन दिनों लगातार बढ़ रही खनिज तेल उत्पाद कर रहीं कंपनियाँ शामिल हैं। उसी तरह आज हिंदुस्तान में देशी-विदेशी पूँजी का फिरकापरस्त हत्यारों के साथ संगठित गठजोड़ है। नब्बे के दशक के शुरूआत से जब से तथाकथित वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण और नवछूटवादी (आम तौर पर ग़लत तर्जुमे में नवउदारवादी) माली निजाम चल पड़ा है, यह गठजोड़ बढ़ता रहा है। पहले पूँजीवादियों ने वैचारिक बिखराव और पूरी तरह दक्षिणपंथी रुख न रख केंद्र की राजनीति का साथ दिया, पर चूँकि हर तरह की गैरबराबरी से लदे लोकतांत्रिक ढाँचे में शोषण के स्थाई तरीके मुमकिन हो नहीं रहे थे, इसलिए गुजराती अडाणी-अंबानी द्वय से शुरू होकर धीरे-धीरे सारे पूँजीवादी घराने जघन्य सांप्रदायिक नफ़रत की राजनीति का साथ देने लग गए। यही असल गुजरात मॉडल है, जिसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र से सारा निवेश धीरे-धीरे खत्म कर निजी कंपनियों को बेचा जा रहा है। मक्कार चरित्र के साथ संगति रखते हुए राष्ट्रवाद का नारा देकर सुरक्षा के खित्ते तक को निजी निवेश के लिए खोला जा रहा है। महामारी की आपदा का फायदा उठाकर किसानों-मजदूरों के हितों के खिलाफ क़ानून लाए जा रहे हैं। खासतौर पर सेहत और तालीम के खित्तों में निवेश को लगातार कम किया जा रहा है। इन खित्तों में पहले से ही ज़रूरत से कहीं कम पैसा लगाया जा रहा था। मसलन सब-सहारन अफ्रीका के बहुत ही ग़रीब मुल्कों की तुलना में भी हमारे यहाँ सेहत और तालीम पर कम पैसा लगाया जाता है। सेहत में सकल घरेलू उत्पाद का तक़रीबन साढ़े चार प्रतिशत और राष्ट्रीय बजट का तक़रीबन बारह प्रतिशत ही खर्च होता है, जबकि फौज और अर्द्ध-फौजी बलों और असलाह की खरीद आदि के लिए राष्ट्रीय बजट का तक़रीबन चौदह-पंद्रह प्रतिशत घोषित रूप से खर्च होता है। ऐसे में तालीम और सेहत के इदारे लगातार चरमराते वजूद लिए मौजूद हैं। इसलिए जब महामारी आई तो देश को उस पर काबू पाने में नाकामयाब होना ही था।
भारत में COVID-19 की कुल मौतों की घोषित संख्या अब 4 लाख से ऊपर है। 1918 के स्पेनिश फ्लू के बाद एक ही आपदा में हुई मौतों की यह सबसे बड़ी संख्या है, जिसमें पूरे दक्षिण एशिया में 1करोड़ 80 लाख लोग मारे गए थे। जब दुनिया के सभी देश अपने नागरिकों को जल्द-से-जल्द टीका लगाने में जुट गए, भारत में टीका का भयंकर अभाव है। सबको मुफ्त टीकाकरण का झूठ हर कोई देख रहा है। आलमी स्तर पर फार्मा दिग्गज माने जाने वाले भारत की स्थिति ऐसी गंभीर कैसे हो गई, जब दुनिया भर की सैंकड़ों बीमारियों के लिए बनने वाली टीकाओं का तक़रीबन 60% यहाँ बनता है? भारत के नागरिक यह वाजिब सवाल पूछेंगे ही।
इसका जवाब यह है कि इस साल की शुरूआत में खुद को स्वघोषित विश्वगुरू मानने वाले फासिस्टों ने देश में बनी टीकाओं का तक़रीबन सारा ही कहीं बेच दिया और कहीं वैसे ही बाँट दिया, क्योंकि अपनी दमनकारी सियासत के लिए दुनिया के दीगर देशों से चुप्पी खरीदनी थी। जब दूसरी लहर आई और बंगाल के चुनावों में लाखों लोगों को पैसे देकर शोहदों जैसी घटिया बातें सुनाने वाली रैलियों में बुलाकर कोविड संक्रमण फैलाने में पूरा जोर लगा दिया। अपनी सहूलियत के लिए चुनाव आयोग के जरिए आठ चरणों में चुनाव करवाए गए, जिसकी वजह से हिंसा की घटनाएँ भी बढ़ती रहीं। संघ के हजारों कार्यकर्ताओं को दूसरे प्रांतों से लाया गया था। वे सब आते-जाते कोविड फैलाते रहे। नतीजतन मार्च के अंत तक भयावह दूसरी लहर हर ओर थी। दिल्ली में ऑक्सीजन के अभाव से लोग अस्पतालों के बाहर सड़कों पर मारे जा रहे थे। पर फासिस्ट तब भी चुनाव अभियान में लगे रहे। और अव्वल तो लगाने के लिए टीका ही कम थे और इसका प्रचार न होने के कारण लोगों में टीका पर शंकाएं भी थीं। मध्य-वर्ग के लोगों को पहली बार यह एहसास हुआ कि संकट के वक्त सरकारी अस्पताल ही सबसे बेहतर हैं और पहले से ही कम बजट में साल-दर-साल लगातार हुई कटौती से इनका हाल खस्ता है। भारत की सेहत व्यवस्था को यूँ चरमराते देख कर सारी दुनिया अचंभित थी। सीना पीट कर खुद को विश्वगुरू कहता यह मुल्क दरअसल इतना पिछड़ा हुआ हो सकता है, किसी को यह खयाल तक नहीं था। दूसरे कई देशों में कोविड की दूसरी लहर ने कहर बरपाया, पर कहीं भी भारत जैसे संकट का सामना नहीं करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने भारत की तुलना में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल में अधिक निवेश किया था। जॉर्डन, ईरान, ब्राजील, कोलंबिया, चिली, उरुग्वे, बहामास जैसे देशों ने स्वास्थ्य देखभाल पर भारत के 4.7% की तुलना में अपने सकल घरेलू उत्पाद का 7-8% निवेश किया। जहाँ भारत में प्रति दस हजार जनसंख्या पर अस्पतालों में 5.3 ही बिस्तर थे, उन देशों में तीन से छ: गुना बिस्तर ज्यादा थे, और भारत के 9.3 डॉक्टरों की तुलना में प्रति दस हजार लोगों के लिए डॉक्टरों की संख्या डेढ़ से 5 गुना ज्यादा थी।
कोविड त्रासदी पर बहुतों ने बहुत कुछ लिखा है। पर जैसा कि मार्क्स ने कहा था, 'दार्शनिकों ने कई तरीकों से दुनिया को समझने की कोशिश की है। सवाल इसको बदलने का है।' तो हम क्या करें। सबसे पहली बात तो यह कि बड़ी जल्दी बहुत बड़ा बदलाव कहीं आता नहीं दिखता। पिछली सदियों में समाज में गैरबराबरी के खिलाफ जद्दोजहद से दुनिया भर में इंसानी रिश्तों और जीवन-स्तर में जो थोड़ी सी बेहतरी दिखने लगी थी, नवछूटवादी अर्थ-व्यवस्था ने उस पर रोक लगा दी है। हर कहीं जालिम शोषक ताकतें मजहब, राष्ट्र, आदि तरह-तरह के हथकंडों से लोगों में फूट डालकर न केवल गैरबराबरी को बनाए रखने में बल्कि उसे और बढ़ाने में कामयाब हुई हैं। तो क्या मजहब, राष्ट्र, आदि के खिलाफ लड़ें? यह ज़रूरी नहीं है कि हर कोई नास्तिक हो या राष्ट्र की सीमाओं को न माने। ज़रूरत है कि हम हर संस्कृति, हर मजहब, हर राष्ट्र का सम्मान करें। संस्कृति-वाद, मजहब-वाद और राष्ट्र-वाद से बचें। जाहिर है यहाँ सरलीकरण हो रहा है, विस्तार से इन बातों में जाने के लिए लंबी चर्चाओं की ज़रूरत है। संक्षेप में, एक शब्द 'विविधता' को सँजोए रखना है। अगर इंसानी इल्म और काबिलियत से हमें कुछ अच्छा मिला है तो उसमें सबसे अहम विविधता को बचाए रखने की क्षमता है। जैविक विविधता, इंसानी विविधता, हर स्तर पर विविधता को बचाना है। बड़ी लड़ाइयाँ, जैसे हमारे ग्रह, धरती को बचाने की लड़ाई, चलती रहेंगी, पर कुछ छोटी लड़ाइयाँ तुरंत लड़नी हैं, और पूरी ताकत के साथ लड़नी हैं। खास तौर पर राष्ट्रवाद के घिनौने स्वरूप के खिलाफ आलमी पैमाने पर लड़ना है। दक्षिण एशिया में, खास तौर पर भारत में पड़ोसी देशों को अब दुश्मन ही माना जाता है। हुकूमतें दुश्मन हैं, पर आम इंसान दुश्मन नहीं हैं और होना भी नहीं चाहते। हर कोई प्यार-मोहब्बत की ज़िंदगी बिताते सुख चैन से अपना घर-परिवार सँभालना चाहता है। बच्चों को अच्छी सेहत के साथ बेहतर तालीम देना चाहता है। इसलिए हर किसी को टेक्नोलोजी का पूरा फायदा उठाते हुए सरहदों के पार दोस्तियाँ कायम करनी हैं। प्यार बढ़ाना है। हुक्काम हमारे संसाधनों को अपने निहित स्वार्थों के लिए तबाह कर रहे हैं। सेहत, तालीम जैसे खित्तों में से पैसा निकाल कर लाखों-करोड़ों फौज-पुलिस और असलाह की खरीद में फेंक देते हैं। इसके खिलाफ हर मुल्क में भले इंसान शिद्दत से लामबंद हैं। हमें उनके साथ जुड़ना है और सरकारों को मजबूर करना है कि वे हमें अम्न-व-चैन से जीने दें। इस प्रसंग में हमें अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन का यह नारा भूलना नहीं चाहिए कि 'ऐनदर वर्ल्ड इज़ पॉसिबल (एक और दुनिया मुमकिन है)’। नई-छूट-वादी व्यवस्था और अमेरिका-ब्रिटेन-फ्रांस के बरक्स क्यूबा जैसे छोटे पर जुझारू मुल्क को हमें अपना आदर्श बनाना चाहिए।
शासन-तंत्र पर फासिस्टों के काबिज होने के पहले से ही विविधता पर खतरा मँडराता रहा है। जंगलों में रहने वाले लोगों और उनके लिए आवाज़ उठाने वालों पर जुल्म लंबे अरसे से हो रहे हैं। नई-छूटवादी अर्थ-व्यवस्था लागू होने के बाद से राजनैतिक-सामाजिक हालात लगातार बदतर हुए हैं। महंगाई और बेरोज़गारी बढ़ती रही है। फासिस्टों के सत्तासीन होने के बाद से अर्थव्यवस्था भी बदहाली की ओर लुढ़क गई और जीडीपी की वृद्धि दर का न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। भुखमरी के आँकड़ों में भारत की स्थिति में गिरावट आई, जब कॉरपोरेट घरानों ने मुनाफे में अभूतपूर्व छलाँगें लगाईं। पहले कुछ हद तक विरोध की जगह थी। अब वह जगह खत्म होती जा रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों, संसदीय परंपराओं और चुनाव आयोग और जाँच ब्यूरो जैसी संवैधानिक संस्थाओं का पतन हुआ है। न्यायपालिका तक में आर एस एस की घुसपैठ दिखती है।
जर्मनी में नात्सी पार्टी के उभार के दौरान साम्यवादियों और समाजवादियों में जैसा बिखराव था, और उसका फायदा हिटलर को मिला, बदकिस्मती से हमारे यहाँ वाम ताकतों ने उस इतिहास से भरपूर सीख नहीं ली है। जैसे बंगाल के चुनावों में वाम दलों में इस बारे में मतभेद रहा कि पहला दुश्मन कौन है, नफ़रत की सियासत करने वाले या माफिया और सिंडिकेट के जरिए भ्रष्ट शासन करने वाले। लोगों ने खुद खतरे को पहचाना, बड़े फासिस्ट नेताओं को शोहदों की तरह रैलियों में स्त्रियों का अपमान करते देखा और तमाम सवालों के बावजूद लोकतांत्रिक विरोध की ज़मीन बचाए रखने के पक्ष में मतदान किया। चुनावों से पहले इस बात को न समझ पाने की अपनी ग़लती को सीपीएम ने भी अब स्वीकार किया है। इसलिए फिलहाल ज़रूरी है कि बंगाल में आम नागरिकों और बुद्धिजीवियों ने जो 'नो वोट टू बीजेपी' आंदोलन खड़ा किया है, उसे देश भर में फैलाया जाए। खास तौर पर उत्तर प्रदेश में अगले साल आने वाले चुनावों को लेकर हर तरह की तैयारी में पहला नारा यही होना चाहिए कि बीजेपी को वोट नहीं, नफ़रत की राजनीति करने वाले फासिस्टों को वोट नहीं।
बीजेपी को वोट नहीं कहते हुए हमें उन सभी सवालों को लोगों के सामने रखना होगा जो हमारे सवाल हैं। कोविड त्रासदी और मोदी-शाह-योगी झूठ-तंत्र का भंडाफोड़ करते हुए हमें लोगों को समझाना होगा कि किस तरह अपने 'आपदा में फायदा' सिद्धांत को अपनाते हुए त्रासदी के दौरान किसान-मजदूर विरोधी क़ानून लागू किए गए, तालीम में गैरबराबरी बढ़ाने वाली नई शिक्षा नीति लाई गई और दमनकारी यू ए पी ए क़ानून लगाकर युवा छात्रों तक को बेवजह झूठे इल्ज़ाम लगाकर क़ैद किया गया। फासिस्ट शासन ने मुख्यधारा के मुहावरे को इतना अधिक दक्षिण की ओर धकेल दिया है कि फौज-पुलिस पर बढ़ते खर्च के खिलाफ कोई आवाज़ तक उठाने से डरता है। यह मान लिया गया है कि जै श्री राम जैसे धार्मिक नारों का इस्तेमाल हमला करने और हत्याएँ करने के लिए करना कोई अपराध नहीं है, सरकार में होते हुए सार्वजनिक रूप से विरोधियों को गद्दार कहकर उनको गोली से मार देने को कहना आम बात मान ली गई है। प्रधान मंत्री को ओहदे का ग़लत इस्तेमाल करते हुए लोगों में थाली पीटकर कोरोना भगाने जैसे अंधविश्वास फैलाए गए और लोग सम्मोहित से भेड़चाल में शामिल हुए। इसके साथ ही खास पूँजीपतियों के व्यापारिक मुनाफे में बेइंतहा बढ़त पर आँखें मूँद लेना, सारी मीडिया को खरीद कर अपनी जेब में कर लेना और संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए देश के संघीय ढाँचे को लगातार कमज़ोर करना, यह सब धड़ल्ले से चल रहा है। लोग मानो यह मान चुके हैं कि उनकी भलाई की कोई जिम्मेदारी सरकार की नहीं है। ऐसे हाल में कुदरत और इंसान के रिश्ते पर बात करना अब जैसे दूर की बात लगती है। इसलिए फिलहाल लड़ाई साफ है, हमें अपने सारे संसाधन फासिस्टों को हराने में लगाने हैं। जाहिर है कि दूसरे राजनैतिक दलों में ईमानदार नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमी है और आर एस एस की पूरी ताकत उनको खरीद कर अपने साथ कर लेने में लग जाएगी। इसलिए सभी लोकपक्षी, साम्यवादी-समाजवादी वाम युवा, किसान-मजदूर संगठन यह तय कर लें कि यह उनके लिए जीने-मरने की लड़ाई है। उत्तर प्रदेश में चुनावों को अब सात महीने रह गए हैं, पर ज़मीनी स्तर पर विरोध में काफी बिखराव है। पार्टी नेता अपने हिसाब-किताब में लगे रहेंगे, वाम में भी पुराने झगड़े कभी खत्म नहीं होंगे। इसलिए युवाओं को आगे आकर 'बीजेपी को वोट नहीं' आंदोलन खड़ा करना होगा। बंगाल के तजुर्बे से सीखकर, वहाँ के साथियों को मुहिम में शामिल कर लड़ाई लड़नी होगी। आपदाएं अभी और आनी हैं, जैसे एक के बाद एक साइक्लोन अब आने लगे हैं, भविष्य में खतरे कम नहीं है। इसलिए संगठित विद्रोह की ज़मीन बनाए रखने के लिए हर कोई हर वक्त कहे - नो वोट टू बीजेपी, भाजपा को वोट नहीं।