Sunday, July 28, 2013

समय बीतता है


समय बीतता है और धीरे धीरे हमारे समय के लोग हमें छोड़ जाते हैं। इस महीने जिन के जाने का ग़म भारी रहा, उन दोनों को निजी रूप से मैंने नहीं जाना। शर्मिला रेगे से एक बार मिला, पर बड़ी गोल मेज के इधर उधर और ओबेद सिद्दीकी से कभी नही मिला। एकबार शायद बंगलौर विज्ञान अकादमी की सभा में देखा था।

पिछले साल यू जी सी की एक समिति में मैं और शर्मिला दोनों थे। अक्तूबर के आस-पास मैं उनसे जानना चाहता था कि प्रस्तावित फेलोशिप्स के बारे में उनकी राय क्या है और मैंने फ़ोन पर बात करने की कोशिश की। दो एक बार कोशिश करने पर भी नहीं मिलीं। उनके दफ्तर की किसी महिला ने बतलाया कि वे सुबह साढ़े सात बजे दफ्तर आती हैं और लंबी क्लास लेती हैं। डेढ़ बजे तक नहीं मिलतीं। मुझे आश्चर्य हुआ। दो एक बार कोशिश कर छोड़ दिया। एक बार मीटिंग में जब मिला था, थोड़े समय के लिए वे आईं, क्योंकि स्त्री प्रसंग पर बनी किसी और समिति में भी वे थीं। तब वे मुझे थकी हुई दिखीं। उनकी तस्वीर मैंने देखी थी, पर सामने देख कर चकित हुआ था। इतनी दुबली सी एक इंसान, जिसने इतना महत्त्वपूर्ण काम किया है! दलित और स्त्री प्रसंग पर मैंने उनके कुछ आलेख पढ़े हैं, किताबों पर समीक्षाएँ पढ़ी हैं, पर पूरी किताब कोई नहीं पढ़ी। पर जितना पढ़ा, उनसे प्रभावित हुआ। अब मुझे लगता है कि एक माह कैंसर से पीड़ित रहकर उनके गुज़र जाने की ख़बर शायद सही नहीं, शायद उनको लंबे समय से पता था कि वे बीमार हैं। इसलिए अपने आप को पूरी तरह काम में झोंक दिया होगा। एक इतने बढ़िया इंसान को और अधिक न जान पाने की तकलीफ कचोटती है।

1987 में जब पहली बार हरदा गया था, उसके कुछ ही दिनों पहले ओबेद वहाँ आए थे। एकलव्य संस्था के स्थानीय केंद्र के प्रभारी अनवर जाफरी के वे मामा लगते थे। हरदा में उन्होंने पुरानी लाइब्रेरी में आम लोगों के लिए विज्ञान पर व्याख्यान दिया था। बाद में जब चंडीगढ़ में जब चेतन से परिचय हुआ तो पता चला कि उसने मुंबई की टी आई एफ आर (टाटा बुनियादी शोध संस्थान) में उनकी लैब में एक अरसा काम किया था। अनवर, चेतन दोनों से उनके बारे में रोचक कहानियाँ सुनी थीं। विज्ञान और वैज्ञानिक शोध में उनकी निष्ठा के किस्से, उनकी बच्चों जैसी जिज्ञासा, हर जगह इन पर चर्चे होते। अभी दो साल पहले उनके बेटे इमरान से मिला था जो स्वयं हैदराबाद के सी सी एम बी (कोशिकीय और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) में कार्यरत प्रख्यात वैज्ञानिक हैं। अनवर और इमरान के साथ तकरीबन पूरा दिन बिताया और शाम को मेरे घर लंबी बातचीत हुई, जिसमें अक्सर ओबेद का ज़िक्र होता।

इस तरह दिन बीतते हैं। पिछले बुधवार को ओरल हिस्ट्री असोसिएशन ऑफ इंडिया (भारतीय वाचिक इतिहास संगठन) आयोजित प्रो. प्रमोद श्रीवास्तव के काला पानी कैदियों के वाचिक इतिहास पर व्याख्यान सुनने मैं अपने दो युवा सहयोगियों के साथ जा रहा था। बंगलौर में बढ़ती ट्रैफिक समस्या पर चर्चा करते हुए शांतनु ने कहा कि अभी एन सी बी एस (राष्ट्रीय जैविक-विज्ञान केंद्र) के एक बड़े वैज्ञानिक स्कूटर की टक्कर खाकर जान गँवा बैठे, मैंने नाम पूछा तो ओबेद। फिर दो एक दिनों में खबर देश भर में फैली और बड़ी तादाद में लोगों ने अफसोस व्यक्त किया।

वाचिक इतिहास संगठन ने परसों दीपा धनराज की बनाई फिल्म 'क्या हुआ इस शहर को' दिखलाई। 1984 में राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में कांग्रेस की भ्रष्ट राजनीति और बी जे पी/आर एस एस और एम आई एम की सांप्रदायिक राजनीति के शिकार आम लोगों की ज़िंदगी पर यह अद्भुत डाक्यूमेंटरी है और आज भी बहुत प्रासंगिक है। कविता के अंत में सर्वेश्वर की इस कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी जाती है (अफलातून ने 'असम' शीर्षक इसकविता के बारे में लिखा है कि '1982 में समता संगठन द्वारा आयोजित 'असम-बचाओ साइकिल यात्रा' के मौके पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने यह कविता साइकिल यात्रियों को लिख दी थी')-
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो ?यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो ?यदि हां
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है ।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां , पर्वत,शहर,गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है ।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन ।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है ।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो -
तुम्हें यहाँ साँस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार ,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार ।
मुझे यह बात रोचक लगी कि 1984 के चारमीनार में वह भाग्यलक्ष्मी मंदिर कहीं नहीं दिखता जिसको लेकर हाल में छिटपुट दंगे हुए हैं। हालाँकि मुझे तो यह मालूम था, फिर भी इस मायने में यह फिल्म एक और दस्तावेज बन गई है।
हैदराबाद के हाल के इतिहास के बारे में और 1948 के पुलिस ऐक्शन (हैदराबाद राज्य के भारत में विलयन) में हुए निर्दोषों के कत्लेआम पर हाल में बनी एक बढ़िया फिल्म 'दक्खनी सोल्स' काज़ रहमान की है। मैंने पिछले साल यह फिल्म हैदराबाद विश्वविद्यालय में देखी थी। मौका मिले तो इसे ज़रूर देखिए। मैं उन दिनों वहाँ आए अतिथि प्रोफेसर रमेशचंद्र शाह को साथ ले गया था - उन्हें फिल्म अच्छी नहीं लगी थी। पर मुझे यह ज़रूरी फिल्म लगी। 

Monday, July 22, 2013

कैसा हूँ

मैं कैसा हूँ? बस जद्दोजहद में हूँ कि कैसे कहाँ जमूँ। 1 अगस्त से एक 
फ्लैट में जमने की उम्मीद है - फिर आगे की लड़ाई - सफाई, खाना बनाना वगैरह। 
जीवन। :-)



सत्रह साल पहले प्रकाशित एक कविता - रुको 
 
 रुको

कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।

रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की

कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।

इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल, 
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको

इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।
        (इतवारी पत्रिकाः ३ मार्च १९९७)


ला.

Sunday, July 14, 2013

जयपुर 2013


कई सालों बाद – 1986 के बाद पहली बार - जयपुर गया। 1986 में सत्यपाल सहगल के साथ गया था - मैं उसे खींच ले गया था कि दुनिया चंडीगढ़ से  बड़ी है, पर जाहिर है कि मेरी कोशिश बेअसर रही। अब दफ्तरी काम पर ही गया था, पर साहित्य की दुनिया के लोगों से मिलने का मौका मिला। देवयानी भारद्वाज से पहले से संपर्क था, हालाँकि पहले कभी मिला न था। नंद भारद्वाज ने पंद्रह साल पहले मेरे कहानी संग्रह की समीक्षा की थी, पर मुलाकात कभी न हुई थी।
5 जुलाई को हरीश करमचंदानी ने, जो स्वयं अच्छे कवि हैं और इन दिनों आकाशवाणी के जयपुर केंद्र के प्रबंधक हैं, रेडियो रेकॉर्डिंग के लिए बुलाया। कई वर्षों के बाद (जालंधर केंद्र में आखिरी बार 2004 या 2005 में रेकॉर्डिंग की थी, हैदराबाद में एक FM प्रोग्राम संचालक ने भी फिल्मी संगीत के बीच कविताएँ पढ़वाई थीं, पर वह अनुभव भूल ती जाऊँ तो बेहतर) रेडियो के लिए कविताएँ पढ़ीं। रेकॉर्डिंग सीमा ने की, और उनके निजी और प्रोफेशनल दोनों रवैयों ने मुझे प्रभावित किया। वे अच्छी इंसान हैं। इसके बाद शाम नंद जी के साथ गुजारी। उन्होंने बड़े स्नेह के साथ अपनी किताबें दिखलाईं और मैं शर्मिंदा होता रहा कि उनकी पीढ़ी की तुलना में हमलोग कितना कम लिख पाते हैं। 6 को प्रेस क्लब में प्रतिलिपि और कुरजाँ के आयोजन में हरीश और मैंने कविताएँ पढ़ीं। मुझे ऐसे मौके कम ही मिलते हैं, इसलिए मैंने मिल रहे स्नेह का थोड़ा ग़लत फायदा उठाते हुए (सचमुच अंजाने में) बहुत सारी कविताएँ पढ़ीं। मैंने हल्के मिजाज़ में हरीश से माफी तो माँग ली, पर बाद में - अभी तक – मुझे लगता रहा है कि मुझसे ग़लती हो गई, उनको पढ़ने का समय कम मिला। आम तौर से मैं इतना बदतमीज़नहीं हूँ, पर जो हो गया अब क्या किया जाए। चूँकि अध्यक्ष मोहन श्रोत्रिय जी ने रोका नहीं, मैं पढ़ता ही गया। मैं सचमुच जरा नर्वस था - यहाँ तक कि औपचारिक धन्यवाद भी ढंग से नहीं कहा। प्रेमचंद गाँधी ने, जो इन दिनों उम्दा कविताएँ लिख रहे हैं, मंच का संचालन किया और मैं उन्हें भी शुक्रिया कहना भूल गया। कुल मिलाकर अपनी बदतमीज़ी के अपराधबोध से छूट नहीं पा रहा हूँ।

मैं अभी तक जयपुर में आए उन सभी युवा साथियों से मिलने के आनंद में डूबा हुआ हूँ जो अध्यापकों के लिए पठनीय सामग्री तैयार करने के लिए कार्यशाला में आए थे। इतनी ऊर्जा और इतना स्नेह दुर्लभ है। अप्रेनि में आने के बाद पहली बार मुझे लगा कि मैं भी काम का आदमी हूँ। मुझे हमेशा यही लगता रहा है कि हम कितने अनपढ़ हैं और जब ऐसे मौके आते हैं कि युवा साथी यह अहसास दिलाएँ कि हमारी बातों से उन्हें कोई फायदा होता है तो अच्छा लगता है। मेरा मानना यह है कि यह जो हमारे होने का औचित्य है, यह सिर्फ अपनी पढ़ाई लिखाई से नहीं, कुछ और बातों से निकलता है, जैसै जूलियन बार्न्स ने अपनी किताब 'Levels of Life' में लिखा हैः
'Early in life, the world divides crudely into those who have had sex and those who haven’t. Later, into those who have known love, and those who haven’t. Later still – at least, if we are lucky (or, on the other hand, unlucky) – it divides into those who have endured grief, and those who haven’t. These divisions are absolute; they are tropics we cross.'

दुखों के बारे में क्या कहा जा सकता है। मैंने कोई दस साल पहले यह लिखा था जो मेरे संग्रह 'सुंदर लोग और अन्य कविताएं' में संगृहित हैः

मैं अब और दुखों की बात नहीं करना चाहता

1
मैं अब और दुखों की बात नहीं करना चाहता
दुख किसी भी भाषा में दुनिया का सबसे गंदा शब्द है
एक दुखी आदमी की शक्ल
दुनिया की सबसे गंदी शक्ल है
मुझे उल्लास शब्द बहुत अच्छा लगता है
उल्लसित उच्चरित करते हुए
मैं आकाश बन जाता हूँ
मेरे शरीर के हर अणु में परमाणु होते हैं स्पंदित
जब मैं कहता हूँ उल्लास।
2
 कौन सा निर्णय सही है
शास्त्रीय या आधुनिक
उत्तर या दक्षिण
दोसा या ब्रेड
सवालों से घिरा हूँ
3
चोट देने वाले को पता नहीं कि वह चोट दे रहा है
जिसे चोट लगी है वह नहीं जानता कि चोट थी ही नहीं
ऐसे ही बनता रहता है पहाड़ चोटों का
जो दरअस्ल हैं ही नहीं
पर क्या है या नहीं
कौन जानता है
यह है कि दुखों का पहाड़ है
जो धरती पर सबसे ऊँचा पहाड़ है
संभव है उल्लास का पहाड़ भी ऊँचा हो इतना ही
जो आँख दुखों का पहाड़ देखती है वह
नहीं देख पाती मंगलमंदिर
यह नियति है धरती की
कि उसे ढोना है दुखों का पहाड़।
4
जो लौटना चाहता है
कोई उसे समझाओ कि
लौटा नहीं जा सकता
अथाह समंदर ही नहीं
समांतर ब्रह्मांड पार हो जाते हैं
जब हम निर्णय लेते हैं कि
एक दुनिया को ठेंगा दिखाकर आगे बढ़ना है
लौटा नहीं जा सकता ठीक ठीक वहाँ
जहाँ वह दुनिया कभी थी
यह एक अनसुलझी गुत्थी है
कि क्यों नहीं बनते रास्ते वापस लौटने के
क्यों नहीं रुकता टपकता आँसू और चढ़ता वापस
आँख की पुतली तक।


(शब्द संगत 2009) 

यह कविता भी जयपुर प्रेस क्लब में पढ़ना तय था, पर शुक्र है कि भूल गया। या कि पढ़ी थी, अब तो याद भी नहीं।