क्वांटम
कंप्यूटिंग – चमत्कार के
इंतज़ार में
('समकालीन जनमत' के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)
पिछली
बार हमने इनफॉर्मेशन
टेक्नोलोजी यानी सूचना
प्रौद्योगिकी के विज्ञान पर
बात की थी। हमने देखा कि
ट्रांज़िस्टर
के छोटे होते रहने की सीमाएँ
हैं। छोटे होते होते ट्रांज़िस्टर
अणुओं के स्तर तक पहुँच गए
हैं। ऐसी स्थिति में अर्द्धचालकों
की भौतिकी बदल जाएगी यानी कि
जो नियम इससे बड़े अर्द्धचालकों
के लिए लागू होते थे,
अब
वे लागू नहीं होंगे। जब अरबों
खरबों की तादाद में इलेक्ट्रॉन
एक ओर से दूसरी ओर जाते हैं तो
एक हद तक शास्त्रीय (क्लासिकल)
गतिकी
यानी न्यूटन के नियमों का
इस्तेमाल कर हम उनके गुणधर्मों
को समझ सकते हैं। पर जब यह
संख्या कम होकर सौ तक आ जाती
है,
तो
क्वांटम
गतिकी
के नियम ही लागू होंगे। दूसरी
समस्या यह है कि सूचना के
प्रोसेसिंग की प्रक्रिया में
जो बिजली इधर उधर होती है,
उससे
बहुत सारा ताप निकलता है,
और
अगर यह सारा ताप एक सूक्ष्म
आकार के प्रोसेसर पर केंद्रित
रह गया तो वह जल जाएगा। तो क्या
मूर का नियम यानी हर दो साल
में ट्रांज़िस्टर के आकार
में कमी और सूचना की प्रोसेसिंग
की गति में दुगुनी बढ़त का
नियम अब लागू नहीं होगा?
इंटेल
कंपनी का दावा है कि वे ऐसे
अर्द्धचालक पदार्थों से
ट्रांज़िस्टर बनाने में सफल
हो गए हैं,
जिनका
डाइइलेक्ट्रिक नियतांक
(dielectric
constant) सामान्य
से काफी ज्यादा है और इससे ताप
निकलने की समस्या कम हुई है।
पर तमाम दावों के बावजूद यह
बात सच है कि ट्रांज़िस्टर
अब और छोटे नहीं हो सकते और
कंप्यूटर टेक्नोलोजी में कोई
बड़ी तरक्की असंभव है,
अगर
कंप्यूटिंग
का आधार सॉलिड स्टेट भौतिकी
और अर्द्धचालकों
पर
ही निर्भर रहे।
स्पष्ट
है कि विकल्प के लिए या तो ऐसे
ट्रांज़िस्टर
बनाने पड़ेंगे,
जो
पूरी तरह क्वांटम
गतिकी
के नियमों पर आधारित हैं या
फिर सूचना
की प्रोसेसिंग को कोई नया
तरीका ईजाद करना पड़ेगा। पहले
विकल्प को सिंगल इलेक्ट्रॉन
ट्रांज़िस्टर (SET)
कहते
हैं। सिंगल इसलिए कि इसमें
एक-एक इलेक्ट्रॉन के प्रवाह
का लेखा जोखा होता है। इतने
छोटे आकार की चीज़ बनानी कोई
आसान बात नहीं है;
इस
पैमाने की कारीगरी को
नैनो-टेक्नोलोजी
कहते हैं। इसके लिए एक अजूबे
का इस्तेमाल होता है,
जिसे
स्कैनिंग टनलिंग माइक्रोस्कोप
(STM)
कहते
हैं। यह एक ऐसी खुर्दबीन या
अनुवीक्षण यंत्र है,
जिसके
जरिए किसी पदार्थ की सतह पर
अणुओं-परमाणुओं
तक को इच्छानुसार हिलाया-डुलाया
जा सकता है। टनल (tunnel-सुरंग)
एक
विशेष क्वांटम गतिकीय गुण
है,
जिससे
पर्याप्त ऊर्जा के अभाव में
भी इलेक्ट्रॉन
जैसे कण अवरोधों को पार कर
लेते हैं,
जैसे
कि अवरोध को छेदकर कोई सुरंग
बन गई हो। ऐसा क्लासिकल भौतिकी
में संभव नहीं है।
STM
का
इस्तेमाल कर अर्द्धचालक
सिलिकान (n-Si)
की
पतली परत पर सिलिकान-डाइ-ऑक्साइड
(SiO2)
की
परत डालकर,
उसके
ऊपर विद्युत प्रवाहित कर एक
छोटे से खाने (island)
में
मुक्त इलेक्ट्रॉन इकट्ठे किए
जाते हैं। इनको कुचालक
टाइटेनियम-डाइ-ऑक्साइड
(TiO2)
की
दीवारों के जरिए बाँध रखा जाता
है। यह सब कुछ नैनो
पैमाने पर (1
nm= 10-9
m) होता
है। इलेक्ट्रॉन
जिस खाने में होते हैं,
वह
50
nm
X 50
nm
से
भी छोटा होता है। TiO2
की
दीवारों के पार जाने के लिए
इलेक्ट्रॉन को काफी ऊर्जा की
ज़रूरत होती है,
पर
क्वांटम गतिकीय टनलिंग के
जरिए एक एक कर उन्हें दूसरी
ओर भेजा जाता है। इलेक्ट्रॉन
के प्रवाह से हो रहे विद्युत
प्रवाह को मापा जा सकता है और
इस तरह कंप्यूटिंग यानी गणना
के लिए इसका इस्तेमाल हो सकता
है।
इस
पद्धति में गणना या सूचना के
प्रोसेसिंग में आज के सामान्य
कंप्यूटर की तुलना में कोई
बुनियादी परिवर्त्तन नहीं
होता। चूँकि प्रवाहित हो रहे
इलेक्ट्रॉन की संख्या लाखों
की जगह मात्र दो-चार
रह गई है,
इसलिए
ताप की समस्या का निदान संभव
होता है। पर साथ ही दूसरी तकनीकी
समस्याएँ बढ़ जाती हैं। इतने
छोटे पैमाने पर सही सही माप
की परतें बनाना,
प्रवाहित
हो रही बिजली का सही सही मापन,
ऐसी
कई दिक्कतों के कारण SET
अभी
भी एक सफल यंत्र नहीं बन पाया
है।
तो
इसका हल क्या है?
हमारे
जीवन काल में इस दिशा में ऐसी
एक क्रांति की संभावना है,
जो
अब तक के मानव इतिहास की सबसे
बड़ी क्रांति होगी। कंप्यूटिंग
के विभिन्न विकल्पों में सबसे
चामत्कारिक संभावनाएँ क्वांटम
और डी एन ए कंप्यूटिंग की हैं।
इस आलेख में हम क्वांटम
कंप्यूटिंग के बारे में संक्षेप
में चर्चा करेंगे। SET
के
संचालन के लिए भी क्वांटम
गुणधर्म का इस्तेमाल होता
है,
पर
वह क्वांटम कंप्यूटर बनाने
के लिए उपयोगी नहीं है।
आज
हम जिस कंप्यूटर का इस्तेमाल
करते हैं,
उसे
क्लासिकल या शास्त्रीय कंप्यूटर
कहा जाता है। सूचना सैद्धांतिकी
(इन्फॉर्मेशन
थीओरी),
कंप्यूटर
साइंस और क्वांटम भौतिकी के
मेल से क्वांटम कंप्यूटर
ईजाद हुआ। इसमें ट्रांज़िस्टर
में प्रवाहित विद्युत की जगह,
अणु-परमाणुओं
की अवस्था में अदला-बदली
कर सूचना की प्रोसेसिंग की
जाती है। चूँकि सामान्य मात्रा
में भी पदार्थ में अणुओं की
संख्या बहुत बड़ी है (1
ग्राम
पानी में 3X1022
अणु),
इसलिए
अगर क्वांटम कंप्यूटर
चित्र
2 – SET
में इलेक्ट्रॉन का source से drain तक जाना। पहले इलेक्ट्रॉन बीच
में दिखलाए द्वीप में इकट्ठे
होते हैं। दोनों ओर TiO2
के
अवरोध टनलिंग के जरिए पार किए
जाते हैं।
सफलता पूर्वक बनाए जा सकें,
तो
उनमें कल्पनातीत समांतर
प्रोसेसिंग की संभावना होगी।
वह आज के डुअल (दो)
या
क्वाड (चार)
प्रोसेसरों
की तुलना में खरबों गुना अधिक
संख्या के प्रोसेसरों का बना
यंत्र होगा।
सूचना
की प्रोसेसिंग की इकाई 'बिट'
है।
एक बाइनरी (द्विक)
बिट
में दो ही तरह की सूचनाएँ,
'0' और
'1', संभव
हैं।
जिस
तरह आज के कंप्यूटर में इन दो
सूचनाओं को ट्रांज़िस्टर के
दो छोरों में वोल्टेज के फर्क
का एक नियत मान से कम या ज्यादा
होने से दिखलाते हैं,
उसी
तरह क्वांटम कंप्यूटर में
अणु या परमाणु की दो भिन्न
अवस्थाओं से भी इन्हें दिखलाया
जा सकता है। शुरूआती दौर में
(नब्बे
के दशक में)
इसके
लिए नाभिकीय 'स्पिन'
का
इस्तेमाल किया गया। 'स्पिन'
को
समझने के लिए अक्सर पृथ्वी
के दैनिक घूर्णन की तरह कणों
के लट्टू जैसे नाचने की कल्पना
की जाती है,
पर
सचमुच ऐसा कुछ नहीं है। यह
इलेक्ट्रॉन,
प्रोटोन
या न्यूट्रॉन जैसे कणों का
एक बुनियादी गुणधर्म है,
जिससे
कण का चुंबकीय स्वरूप निर्धारित
होता है,
जिसे
हम बाहरी विद्युत-चुंबकीय
क्षेत्र लगा कर देख सकते हैं।
मसलन हम क्लोरोफॉर्म (CHCl3)
के
अणु को लें। कार्बन के परमाणु
की नाभि का स्पिन सामान्यत:
( कार्बन-12
आइसोटोप)
शून्य
होता है,
पर
अगर कार्बन-13
आइसोटोप
लिया जाए तो स्पिन ½
होता
है। चुंबकीय क्षेत्र में
कार्बन-13
को
+½ और
– ½
नाभिकीय
स्पिन की दो अलग अवस्थाओं में
देखा जा सकता है। ऐसा ही हाइड्रोजन
के परमाणु के साथ है। अब हम
कार्बन-13
वाले
क्लोरोफॉर्म में रासायनिक
बंधन में बँधे कार्बन-13
और
हाइड्रोजन,
इन
दोनों परमाणुओं के नाभिकीय
स्पिन को समांतर और असमांतर
– इन दो स्थितियों में कल्पना
करें। यही क्वांटम कंप्यूटिंग
के '0'
और
'1' हैं।
चित्र
3 :
कार्बन-13
क्लोरोफॉर्म
(13CHCl3)
का
अणु -
पीले
रंग के तीर के निशान कार्बन-13
और
हाइड्रोजन के नाभिओं के विपरीत
'स्पिन'
के
प्रतीक हैं।
यानी
एक क्लोरोफॉर्म का अणु,
जिसका
आकार 1nm
के
पैमाने से भी छोटा है,
एक
क्वांटम कंप्यूटर बन सकता
है। इतना ही नहीं,
क्वांटम
गतिकी से हमें एक और गुणधर्म
का लाभ मिलता है। इसे सुपरपोज़ीशन
का सिद्धांत कहते हैं। इसके
अनुसार क्वांटम बिट (संक्षेप
में क्यूबिट),
या
अणु की अवस्था,
दरअसल
'0' और
'1' का
मिश्रण होती है। अगर हम क्यूबिट
को |x>
से
दर्शाएँ तो |x>
= a1 |0>+b1 |1>, यानी
a1:b1
के
अनुपात में '0'
और
'1'
मिश्रित
हैं। अब हम |x>
को
बदलकर |y>
= a2 |0>+b2 |1> कर
दें तो कई संभावनाएँ दिखती
हैं। जैसे,
b2 =0 हो
तो इसका मतलब हुआ कि |x>
का
'0' वाला
अंश बदला नहीं,
पर
'1' वाला
अंश बदल कर '0'
हो
गया। इसका उल्टा भी हो सकता
है। यह भी हो सकता है कि b2
= a1; a2= b1 यानी
कि '0'
और
'1' की
परस्पर अदला बदली हो गई।
तात्पर्य यह कि '0'
और
'1' में
जो सूचनाएँ निहित हैं,
उनकी
प्रोसेसिंग हम एक साथ या समांतर
रूप से कर रहे हैं। यह एक डुअल
कोर की तरह है। आज के क्लासिकल
कंप्यूटर में यह दो अलग अलग
प्रोसेसरों के जरिए ही संभव
हो सकता है ('0'
के
इनपुट को एक और '1'
के
इनपुट को दूसरे प्रोसेसर से
भेजना पड़ेगा)।
अगर
एक की जगह दो अणु हों,
तो
चार अवस्थाओं का सुपरपोज़ीशन
या मिश्रण होगा। दोनों में
से हर अणु को '0'
या
'1' की
स्थिति में तैयार किया जा सकता
है। अर्थात अब 2
क्यूबिट
का इनपुट होगाः
|x>=|x1x2>
= a |00>+b |01>+c|10>+d|11> और
यह क्वाड कोर की तरह का कंप्यूटर
होगा जहाँ चार तरह की सूचनाओं
की समांतर प्रोसेसिंग हो
सकेगी। इसी तरह 1023
अणुओं
से हम 1023
समांतर
प्रोसेसर्स का कंप्यूटर बना
सकेंगे।
सूचना
की प्रोसेसिंग या गणनाओं के
लिए क्वांटम कंप्यूटर के लिए
जो कोड या प्रोग्राम (जिसे
सॉफ्टवेयर कहते हैं)
लिखे
जाते हैं,
वे
अभी के कंप्यूटर सॉफ्टवेयर
से बुनियादी तौर पर अलग हैं।
क्वांटम गुणधर्मों का लाभ
उठाते हुए ऐसे कठिन सवाल बहुत
ही कम समय में हल किए जाते हैं,
जिनको
आज के कंप्यूटर हफ्तों महीनों
तक हल नहीं कर पाते। उदाहरण
के लिए किसी बहुत बड़ी संख्या
के अभाज्य उत्पादक (prime
factors) निकालना
एक कठिन सवाल है। इसे क्वांटम
कंप्यूटर पर हल करने के लिए
'शोर'
नामक
कंप्यूटर वैज्ञानिक ने तरीका
निकाला,
जिसे
शोर का आलगोरिदम कहते हैं।
इसी तरह भारतीय मूल के लव ग्रोवर
ने बिखरे हुए आँकड़ों को क्रम
में सजाने के लिए ग्रोवर
आलगोरिदम लिखा। क्रिप्टोग्राफी
या संकेतों को गोपनीय तरीकों
से भेजने और उन्हें पढ़ पाने
के विज्ञान में भी क्वांटम
कंप्यूटिंग के जरिए क्रांतिकारी
बदलाव होंगे।
तो
क्वांटम कंप्यूटर बाज़ार
में उपलब्ध क्यों नहीं?
प्रसिद्ध
विज्ञान शोध पत्रिका 'नेचर'
के
2 जून
2011 के
अंक में पहले क्वांटम कंप्यूटर
की बिक्री की खबर छपी। कनाडा
के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत
की कंपनी 'डी
वेभ'
ने
अमेरिका के मेरीलैंड प्रांत
की 'लॉकहीड
मार्टिन'
कंपनी
को यह मशीन बेची। लॉकहीड मार्टिन
लड़ाकू हवाई जहाजों को बनाने
वाली सबसे बड़ी कंपनियों में
से है। एकबार फिर हम इस निष्ठुर
सच के रूबरू हैं कि वैज्ञानिक
और टेक्नोलोजिकल आविष्कारों
का लाभ सबसे पहले सामरिक और
पूँजीवादी क्षेत्रों को ही
मिलता है।
बड़े
पैमाने पर क्वांटम कंप्यूटरों
के बाज़ार में आने में अभी देर
है। अणुओं को इच्छानुसार
अवस्थाओं में तैयार करना,
पर्याप्त
समय तक उन अवस्थाओं में बनाए
रखना,
सूचना
की प्रोसेसिंग के लिए उन्हें
इच्छानुसार बदलना और बदली
हुई अवस्थाओं को तब तक बनाए
रखना जब तक कि वे सही सही दर्ज़
न हो जाएँ,
यह
सब आसान नहीं है। डी वेभ की
मशीन में नायोबियम धातु के
अतिचालक गोल चक्रों के जरिए
8 क्यूबिट
का कंप्यूटर बनाया गया है।
अतिचालकता के लिए शून्य से
बहुत कम तापमान की ज़रूरत होती
है। उनका दावा है कि वे 128
क्यूबिट
का कंप्यूटर भी बना चुके हैं।
संभवतः
पहले बाज़ार में आने वाले
क्वांटम कंप्यूटर पूरी तरह
से 'क्वांटम'
स्वरूप
के न होंगे। वे आज के क्लासिकल
कंप्यूटरों और कुछ हद तक क्वांटम
पुर्जों के मिले जुले रूप में
ही सामने आएँगे। यही बात डी
एन ए कंप्यूटरों के बारे में
भी सही है। इस पर विस्तार से
चर्चा अगले किसी अंक में होगी।