आइए हाथ उठाएँ हम भी
About Me
- Name: लाल्टू
- Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India
बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप
Tuesday, December 31, 2013
सबको नया साल मुबारक।
अँधेरे
के बावजूद
यह
जो गाढ़ा सा अटके रहने का हिसाब
है
लंबे
अरसे से तकरीबन उस बड़े धमाके
के वक्त से चल रहा है
जब
हम तुम घनीभूत ऊर्जा थे
यह
हिसाब यह दुखों सुखों की बही
में हल्के और भारी पलड़े को
जानने की जद्दोजहद
यह
चलता चलेगा लंबे अरसे तक
तकरीबन
तब तक जब सभी सूरज अँधेरों में
डूब जाएँगे
और
हम तुम बिखरे होंगे कहीं किसी
अँधेरे गड्ढे में
इस
हिसाब में यह मत भूलना कि
निरंतर
बढ़ते जाते दुखों के पहाड़ के
समांतर
कम
सही कुछ सुख भी हैं
और
इस तरह यह जानना कि हमारे सुख
का ठहराव
उन
सभी अँधेरे गड्ढों के बावजूद
है जो हमारे इर्द गिर्द हैं
कि
कोई किसी की भी जान ले सकता है
बेवजह
या
कि कोई वजह होती होगी किसी में
जाग्रत दहाड़ते दानव होने की
कोई
कहीं सुंदरतम क्षणों की कल्पनाओं
मे डालता तेजाब
चारों
ओर चारों ओर ऐसी मँडराती खबरें
इन्हीं
के बीच बनाते जगह हम तुम
पल
छूने के, पल
पूछने के कि तुम क्यों हँसते
हो
और
यह जानने के कि थोड़ा सही कम
नहीं है सुख
परस्पर
अंदर की गलियों में खिलखिला
आना
मूक
बोलियों में कायनात के हर सपने
को गाना।
(रविवारी
जनसत्ता -
2013)
Thursday, December 26, 2013
जेंडर प्रसंग में एक बातचीत
एक रोचक बातचीत को समेट कर ढ़ंग से कुछ लिखना चाहता था, पर कर नहीं पाया। इसलिए जो बातें हुईं, उसी को थोड़े से संपादन के साथ फिलहाल पोस्ट कर रहा हूँ, ताकि किसी को कोई काम की बात लगे तो बढ़िया।
एक युवा कवि आलोचक साथी ने FB पर लिखा है -
'मैत्रेयी पुष्पा मेरी अत्यंत आदरणीय और प्रिय लेखिका हैं लेकिन उनके कल के बयान से, कि पुरुष हर हाल में सहमत होता है, मैं एकदम असहमत हूँ.
उनका बयान पढ़कर ऐसा लगता है कि हर पुरुष हर समय हर किसी के साथ यौन क्रिया में संलग्न होने के लिए तैयार बैठा रहता है. ठीक है, पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक और भोग्या में तब्दील करने की पूरी कोशिश की है. लेकिन इस क़दर सामान्यीकृत बयान को निजी अनुभवों भर से खारिज किया जा सकता है.
क्या आपने ऐसे पुरुष नहीं देखे जिन्होंने प्रेम प्रस्ताव ठुकराए हों? जिन्होंने सहज उपलब्ध अवसर का "उपयोग" करने से इनकार कर दिया हो? जिनकी एकांत संगत में भी महिला सहज रही हो? जो यौन पशु न हों?
स्त्रीवाद को लेकर मुझे हमेशा लगता है कि हिंदी साहित्य में इसका झंडा बुलंद करने वालों ने शायद इसका ककहरा भी ठीक से नहीं पढ़ा और वायवीय उग्र मर्द विरोध तथा उग्रतर शाब्दिक प्रहार के भरोसे चलने वाले इस कथित विमर्श का सबसे मजेदार पहलू यह है कि इसके अधिकतर नायक/नायिका सुखी-सफल-परिवारों के सफल एवं अनुकूलित सदस्य हैं.'
**********
इस पर निजी तौर पर भेजी मेरी टिप्पणी -
मैत्रेयी पुष्पा के बयान पर तुमने जो लिखा है, वह स्त्री-पुरुष के मौजूदा सामाजिक द्वंद्व को नहीं, मैत्रेयी पुष्पा को एक व्यक्ति विशेष की तरह देखते हुए लिखा है। क्या यह संभव है कि जिस प्रसंग में बात छिड़ी है, उसमें मैत्रेयी को हम सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में देखें और 'स्त्री' की द्वंद्वात्मक अस्मिता को न देखें। साथ ही तुम कुछ 'स्त्रीवादियों' की बात कर रहे हो, यानी सामाजिकता को कुछेक सीमित संदर्भों में लाने की कोशिश कर रहे हो। सचमुच स्त्रीवादियों से क्या झगड़ा हो सकता है - स्त्रीवाद एक लोकतांत्रिक और साम्य आधारित समाज के लिए संघर्ष है, जिसके विमर्ष में स्त्री-पुरुष के द्वंद्व को केंद्र में रखा जाता है।
हमलोग अपनी रेटरिक और पोलेमिक्स से न केवल आपस में एक दूसरे को चोट पहुँचाते रहते हैं, हम अक्सर उन लोगों को चोट पहुँचाते हैं, जिनको हम नितांत अपना देखना चाहते हैं।
इसी बात को समझ कर कुछ दशकों पहले हमलोग कहा करते थे कि समय आ गया है कि हम कहना शुरू करें 'Let us agree to disagree'. पर स्थिति सुधरी नहीं है।
मैं लंबे समय से सोचता और कहता रहा हूँ कि स्त्री मुक्ति का सवाल स्त्री का कम और पुरुष मुक्ति का सवाल ज्यादा है। हम यह समझने की कोशिश कितनी करते हैं कि किसी प्रसंग पर राय बनाते हुए हम अपनी पुरुष अस्मिता से बरी नहीं होते। मैत्रेयी के बयान पर नज़रिया और response यह भी हो सकता है - मैत्रेयी ने एक ज़रूरी बात पर ध्यान दिलाया है। स्त्री-पुरुष के मौजूदा सामाजिक द्वंद्व पर यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है। आपसी रिश्तों में औसतन स्त्री की अपेक्षा पुरुष की प्रतिबद्धता कम दिखती है। इससे संबंध तो टूटते ही हैं, लगातार तनाव और अवसाद का जीवन जीने के लिए दोनों मजबूर होते हैं। इसे समझे बिना किसी भी पुरुष की मुक्ति के संघर्ष की शुरूआत असंभव है।
'औसतन' कहने से ही हम यह कह देते हैं कि अपवाद भी हैं। इतना अपने पुरुष अहं को संतुष्ट करने के लिए काफी होना चाहिेए।
बड़ा सवाल :
हम सामाजिक बदलाव चाहते हैं या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमें ही सारे सच मालूम हैं - इस पर गंभीरता से सोचना पड़ेगा। थोड़ा सा self-doubt और ढाई आखर प्रेम का साथ रख कर चलना वाम का नारा होना चाहिए।
किसी भी संकट के रिश्ते में लोकतांत्रिक सोच और समझ के व्यक्ति को खुद को उस पक्ष में खड़े करने की कोशिश करनी चाहिए जो पीड़ित का पक्ष है।अक्सर लगता है कि हमने पीड़ितों के पक्ष में खड़े होना सही सही सीखा ही नहीं। अपनी पोलेमिक्स में हम बौद्धिक तलवारें भाँजते रहते हैं - इससे गले कटते नहीं; दोस्त कटते हैं।
हममें से हर कोई मार्क्स नहीं है, न ही हमसे थोड़ा पहुत मतभेद रखने वाले दोस्त प्रूधों हैं कि हम हर बातचीत अपनी 'वैज्ञानिक' कसौटी पर तौल कर ही करें (हाँ, 'वैज्ञानिक' कसौटियाँ भी अक्सर अपनी-अपनी होती हैं)
बहरहाल इसी बहाने मेरी तीन पुरानी कविताएँ -
अर्थ
खोना ज़मीन का
मेरा
है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का.
(हंस — 1998; मुक्तिबोध - 1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का.
(हंस — 1998; मुक्तिबोध - 1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)
डरती हूँ
जब
तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर.
(हंस - 1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर.
(हंस - 1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)
साथी ने फिर इसका जवाब दिया -
'ज़ाहिर
है कि मैं मैत्रेयी जी से असहमत
था. इसे
मैंने यथासंभव आदर और सम्मान
के साथ ही दर्ज़ कराया.
आगे एक
कमेन्ट में भी लिखा कि नारीवाद
से मेरा कोई झगडा नहीं,
मैं उसका
बहुत सम्मान करता हूँ और कई
स्तर पर ख़ुद को उसके साथ पाता
हूँ. सवाल
यह है कि मैत्रेयी जी ने जो
लिखा क्या वह स्त्रीवाद की
कसौटी पर एक सही वक्तव्य है?
दुर्भाग्य
से नहीं. यह
इस अराजक लेकिन सहज स्त्रीवाद
की नारी बनाम पुरुष वाली
मानसिकता से पैदा हुआ है जिसे
अब अपनी चौथी लहर आते आते खुद
नारीवाद तिरोहित कर चुका है.
कामना कोई
पुरुषवाचक शब्द नहीं है,
न ही सहमति
कोई स्त्रीवाचक.
मैत्रेयी
जी ने तो खैर औसतन वाले कवच का
उपयोग भी नहीं किया था,
लेकिन
मेरा मानना यह है कि अपवाद वे
पुरुष हैं जो कभी भी,
कहीं भी,
किसी के
साथ भी सेक्स के लिए तैयार
होते हैं. यह
एक मानसिक बीमारी है,
विचलन
है..सामान्य
नियम नहीं और दुर्भाग्य से
यह भी पुरुषवाचक नहीं.उसी थ्रेड पर एक सहभागी ने कहा -
आगे
यह बयान जो मैत्रेयी जी ने
दिया है ,
उनका
व्यक्तिगत मत है जो बहुत हद
तक उनके व्यक्तिगत अनुभव पर
आधारित होगा। सम्भवतः उनके
समय में अधिकाश मध्यवर्गी -
सामंतवादी
पुरुषों के लिए सत्य। परन्तु
आज के समाज में यह बात ऐसे
सामान्यीकरण के साथ नही कही
जा सकती।
दूसरी
बात "हर
समय सहमत होने"
में
भी कोई बुराई नही है। ।जब तक
वह दूसरों कि सहमति/असहमति
को स्थान देता रहे। हाँ जबर्दस्ती
हर स्थिति में बुरी है। तो
सहमत होना और जबर्दस्ती करने
में फर्क है। इसलिए इसे इतने
सरल तरीके से नही देखा जा सकता।
जिसके
भी जीवन में दैहिक सुख कि कमी
होगी। वह अगर समाने वाले पर
विश्वाश करता हो सहमत होगा।
समझ नही आया इसमें गलत क्या
है। शेष फिर कभी।
तो बात वहां
नहीं है साथी,
जहाँ से
आप देख रहे हैं.
विमर्श
के नाम पर "कुछ
भी" को
बर्दाश्त करना,
इस हद तक
अपोलोजेटिक होना दूसरे विचलनों
को जन्म देता है.
दृढ़ता और
सौजन्यता विरोधी शब्द नहीं
हैं.'फिर मैंने लिखा -
मेरे खयाल से 'स्त्रीवाद का ककहरा भी नहीं पढ़ा' (अभी सामने नहीं है, पर ऐसा कुछ तुमने लिखा है)- ऐसी बातों से हमें बचना चाहिए।
'नारी बनाम पुरुष वाली मानसिकता' वाला कोई सहज स्त्रीवाद कभी भी नहीं रहा। यह स्त्री-विरोधी प्रचार है कि ऐसा कुछ था।
जैसा हर आंदोलन में होता है, कुछ लोग उग्रता से अपनी बात रखते हैं (ऐसा ही वह 'सहज स्त्रीवाद' रहा है, प्रखर अंदाज़ में 'पुरुष मानसिकता' के खिलाफ बात कहनी जो दूसरों को 'पुरुष विरोधी' लगती है)।
स्त्रीवाद में बुनियादी स्तर पर विविधता नहीं, स्त्रीवादियों में संघर्ष के रास्ते और प्रमुख सवालों के चुनाव की विविधताएँ रही हैं। किसी भी चरण पर स्त्रीवाद के बुनियादी सिद्धांतों में कभी कोई बदलाव नहीं आया। पहली लहर में ही सहमति के आधार पर यौन-संबंधों की छूट पर जोर था, बाद के चरणों में इस मुद्दे पर जोर कम हुआ और मेहनताना में बराबरी, नस्ल और वर्ग के सवाल, सुरक्षा के सवाल, इन पर जोर बढ़ा। बेटी फ्रीडन ने अस्सी के शुरूआती सालों में एक आलेख में पहले चरणों के खुलेपन पर सवाल उठाया। फायरस्टोन शुलामिथ ने स्त्रीवाद को द्वंद्वात्मक आधार देते हुए किताब लिखी। अमेरिका की काली औरतों और तीसरी दुनिया की औरतों ने यौन से इतर नस्ल और वर्ग संबंधी दूसरे सवालों को मुख्य मुद्दे बनाने का संघर्ष शुरू किया।
किसी
साथी का जो कमेंट तुमने उद्धृत
किया है, उसी
से एक बात और -
'सम्भवतः
उनके समय में अधिकाश मध्यवर्गी
-
सामंतवादी
पुरुषों के लिए सत्य। परन्तु
आज के समाज में यह बात ऐसे
सामान्यीकरण के साथ नही कही
जा सकती। '
क्या आज का
मध्य-वर्ग
सामंती नहीं है?
आगे साथी ने लिखा है कि 'समझ में नहीं आया'
उत्पीड़न की अभिव्यक्ति शब्दों में इस तरह हो जो हमेशा साफ-साफ समझ में आए, ऐसी 'तर्कशीलता' सच जानने में बाधा पैदा करती है। ऐसा बहुत कुछ है जो कहा नहीं जाता, इसलिए हम कुछ कह बैठते हैं जो 'विमर्श के नाम पर "कुछ भी" लगता है। मैंने अपनी पुरानी कविताएँ इसलिए साझा कीं कि शायद उनमें ऐसी कुछ बातों की ओर इशारा है।
मेरा सुझाव यह है कि इस "कुछ भी" लगती बातों को सहानुभूति से न केवल 'बर्दाश्त करना', बल्कि इससे भी आगे, उस "कुछ भी" में से 'कुछ' ढूँढना, इस प्रक्रिया को हमने अपनी सोच में पुख्ता नहीं किया है।
बर्दाश्त करना अपोलोजेटिक होना नहीं है। बात तो बर्दाश्त करने से भी आगे की है।
मुझे कुमार विकल की ये पंक्तियाँ बहुत पसंद हैं -
मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे।
मैं इसको उलट कर पढ़ना चाहता हूँ - मार्क्स और लेनिन जब नहीं सोए थे, उसके पहले वे रोए थे।
रोना विचलन नहीं होता। यह हमारे आगे जागते रहने के लिए ज़रूरी है।
मैं मानता हूँ कि बातें जटिल हैं - यही कहना भी चाहता हूँ।
Labels: जनपक्ष, दमन और विरोध, स्त्री प्रसंग
Saturday, December 07, 2013
अलविदा मांडेला - हम भूलेंगे नहीं 'अमांडला अंवेतू'
आज जनसत्ता में पहले पन्ने पर
प्रकाशित स्मृति आलेख:
'अमांडला
अंवेतू!' - सत्ता
किसकी, जनता
की! यह
नारा अस्सी और नब्बे के दशकों
में दुनिया के सभी देशों में
उठाया जाता था। हमारे अपने
'इंकलाब
ज़िंदाबाद' जैसा
ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न
के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय
आवाज थी।
जब
नेलसन मांडेला 1 मई
1990 को
जेल से छूटे, बाद
के सालों में जब वे कई देशों
के दौरे पर आए, हर
जगह यह नारा गूँजता। कोलकाता
में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन
में भूपेन हाजारिका के साथ
ही नहीं, सड़कों
पर आ कर लोगों ने 'मांडेला,
मांडेला'
की गूँज के
साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स
जिसने सारी दुनिया को अन्याय
और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े
होने को प्रेरित किया,
27 साल तक
अमानवीय परिस्थितियों में
दुनिया के सबसे खतरनाक जेलों
में से माने जाने वाले रॉबेन
आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल
में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि
डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर
दिखलाया था कि कैसे सामान्य
नियमों के उल्लंघन मात्र से
उनको गोली मारी गई थी,
जो सीने के
आर पार हो गई थी।
नेल्सन
रोलीलाला मांडेला बीसवीं सदी
का अकेला ऐसा व्यक्ति था,
जिसने अपने
जीवन काल में समूची धरती पर
अन्याय के खिलाफ लोगों को,
खास कर युवाओं
को सड़कों पर उतर आने को प्रेरित
किया था। गाँधी जी ने 1894
में दक्षिण
अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों
को संगठित कर नेटाल इंडियन
कांग्रेस बनाई। इसी से प्रेरित
होकर सभी अश्वेतों के अधिकारों
की रक्षा के लिए आफ्रीकन नेटिव
नैशनल कॉंग्रेस 1912 में
बनी, जो
बाद में आफ्रीकन नैशनल कॉंग्रेस
(ए एन
सी) बन
गई। सदी के आखिरी दशकों तक
मांडेला और ए एन सी एक दूसरे
के पर्याय बन गए। इसके पीछे
1962 में
आजीवन कारावास में जाने से
पहले दो दशकों तक उनका ज़मीनी
काम था। 1944 में
ए एन सी में शामिल होने के बाद
वकालती करते हुए अपने साथी
वकील ऑलिवर तांबो के साथ मिलकर
वे बर्त्तानवी उपनिवेशवाद
से ताज़ा आज़ाद हुए अपने मुल्क
में नस्लवादी व्यवस्थाओं के
खिलाफ जनांदोलनों में पार्टी
के झंडे तले जी जान से काम करते
रहे। वे युवाओं के लिए पार्टी
की शाखा उमखोंतो वे सिजवे
(राष्ट्र
की बरछी) के
प्रमुख संस्थापकों में थे।
1948 में
जब नस्लभेदी व्यवस्था 'अपार्थीड'
औपचारिक रूप
से देश की शासन-व्यवस्था
बन गई और अलग-अलग
नस्ल के लोगों के लिए भिन्न
कानून बना दिए गए, ए
एन सी और दक्षिण अफ्रीका की
कम्युनिस्ट पार्टी ने मिलकर
जोरों से विरोध शुरू किया।
जल्दी ही मांडेला और साथी पकड़े
गए और उन पर देशद्रोह का मामला
चला। चार सालों के बाद निकले,
पर तभी कुछ
समय बाद ही शार्पविले में
शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों
पर गोलीबारी की गई और 69
लोग मारे
गए। इसके बाद मांडेला के नेतृत्व
में ए एन सी ने 'अपार्थीड'
के खिलाफ
युद्ध की घोषणा की। मांडेला
जल्दी ही पकड़े गए और पहले मौत
की सजा की संभावना होने के
बावजूद आखिरकार उन्हें आजीवन
कारावास की सजा मिली। ए एन सी
को विश्व स्तर पर सभी लोकतांत्रिक
ताकतों से समर्थन मिलता था।
गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता
उन्हें मिली थी। भारत जैसे
कई देशों ने अपने नागरिकों
को उस जघन्य देश दक्षिण अफ्रीका
में जाने से रोक लगा दी थी जहाँ
वे अपनी पहचान के साथ नहीं,
बल्कि 'ऑनररी
ह्वाईट' बन
कर ही जा सकते थे। वहाँ 11
नस्लें
परिभाषित थीं। सत्तर के दशक
में ए एन सी ने दक्षिण अफ्रीका
की सरकार को कमजोर बनाने के
लिए सभी अंतर्राष्ट्रीय
संस्थाओं से आग्रह किया कि
वे उस देश पर आर्थिक प्रतिबंध
(एंबार्गो)
लगाएँ। हर
साल भारत और अन्य देश संयुक्त
राष्ट्र संघ में आर्थिक नाकेबंदी
का प्रस्ताव लाते और सोवियत
रूस के समर्थन के बावजूद सुरक्षा
परिषद में यू एस ए, यू
के और फ्रांस जैसे देश वीटो
का इस्तेमाल कर इसे रद कर देते।
इन मुल्कों की सरकारों पर उन
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का
दबाव था, जो
दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापार
कर करोड़ों कमा रहे थे। पर धीरे-
धीरे
अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ता
गया और खास कर यू एस ए के अफ्रीकी
मूल के नागरिकों और दूसरे
प्रगतिशील लोगों के पुरजोर
विरोध के सामने उनकी न चली।
यूनिवर्सिटियों में छात्रों
ने, शहरों
की पौर-सभाओं
में कर्मचारियों ने लगातार
विरोध करना शुरू किया और अंतत:
पश्चिमी
सरकारों ने दक्षिण अफ्रीका
में व्यवस्था परिवर्तन के
लिए दबाव डालना शुरू किया। 1
मई 1990
में मांडेला
जोल से छूटे। 1994 में
दक्षिण अफ्रीका में पहली सभी
वर्गों का प्रतिनिधित्व करती
लोकतांत्रिक सरकार बनी। 1999
तक सरकार
में राष्ट्रपति के पद पर रह
कर मांडेला ने राजनीति से
सन्यास ले लिया। इसके बाद से
उन्होंने अपना पूरा वक्त
विश्व-शांति
के लिए लगा दिया। साल भर वे
गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य
सचिव भी रहे।
आखिरी
वर्षों में मांडेला का दुनिया
को सबसे अनोखा उपहार नोबेल
शांति विजेता रेवरेंड डेसमंड
टूटू के साथ मिलकर सोचा गया
'ट्रुथ
ऐंड रीकंसीलिएशन कमीशन (सत्य
और समझौता समति)' है।
पुरानी बीमार मानसिकता वाली
नस्लवादी व्यवस्था के अधिकारियों
को सजा न देकर उनको अपना अपराध
मान लेने को कहा गया। पुलिस
की गोली खाकर मरे बच्चों की
माँओं के साथ उन पुलिस अधिकारियों
को बैठाया गया जिन्होंने
गोलीबारी के आदेश दिए थे।
दोषियों ने सच्चे दिल से अपना
अपराध कबूल किया और पीड़ितों
को राहत दी गई। मानवता का ऐसा
आदर्श संसार के इतिहास में
पहली बार देखा गया। मानव
अधिकारों के हनन से जूझने का
यह तरीका दूसरे विश्व-युद्ध
के बाद हुए न्यूरेंबर्ग पेशियों
की तुलना में अधिक सफल माना
गया और कई देशों में ऐसे ही
प्रयास होने लगे। इसके अलावा
अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर गरीबी
दूर करने और एड्स के बारे में
जागरुकता फैलाने और उसके उपचार
के लिए व्यापक कोशिशों को
बढ़ावा देने के लिए मांडेला
ने काफी काम किया।
उन्हें
कम्युनिस्ट कह कर खारिज करने
वालों की कमी नहीं रही,
पर अपनी
ईमानदारी और निष्ठा के बल पर
उन्हें एक के बाद एक कोई 250
अंतर्राष्ट्रीय
सम्मान मिले, जिनमें
1993 का
नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल
है। निजी तौर पर वे बड़े विनोदी
स्वभाव के व्यक्ति थे। ब्रिटेन
की महारानी के न केवल उनके नाम
'एलिजाबेथ'
से पुकारने
वाले वे अकेले शख्सियत थे,
उन्होंने
मजाक में यहाँ तक कहा कि
'एलिजाबेथ,
लगता है आप
कमजोर हो गई हैं' - आखिर
इसी रानी के साथ काम करने वाली
'लोकतांत्रिक'
सरकार ने
कभी कई दशकों तक नस्लवादी
अपार्थीड सरकार को बचाए करने
में भूमिका निभाई थी। कहीं
और उन्होंने कहा कि मौत के बाद
भी वे जहाँ भी जाएँ, ए
एन सी का दफ्तर ढूँढेंगे।
ऐसे
महान शख्सियत को अलविदा कहते
हुए हम कभी न भूलें कि अभी हमें
'अमांडला
अंवेतू!' कहते
रहना है। अपनी ज़मीन पर खड़े
जहाँ भी धरती पर बराबरी के
संघर्षों में हम शामिल हैं,
उनकी याद
हमारे साथ होगी।
1984-1985 में
मैं प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी,
यू एस ए,
में अपार्थीड
सरकार के साथ व्यवसाय में लगाए
पैसे को वापस लाने और मांडेला
की रिहाई के लिए हुए आंदोलन
में शामिल था। इससे जुड़ी कुछ बातें यहाँ।
Tuesday, November 19, 2013
ऐ वे मैं चोरी चोरी
करीब
पंद्रह दिनों पहले मैंने नीचे
के तीन पैरा लिखे थे। पोस्ट
नहीं कर पाया था। उसके बाद
एक-एक
कर हिंदी के दो बड़े साहित्यकार
गुजर गए। विजयदान देथा और
ओमप्रकाश बाल्मीकि। और फिर
मेरी प्रिय लेखिका डोरिस लेसिंग। मौत तो सबकी होनी है.
ये सभी बड़ी
उम्र में ही गुजरे, पर
इनका जाना एक वर्तमान का इतिहास
बन जाना है।
बापू
साधारण मजदूर था। सरकारी गाड़ी
चलाता था। कभी कभी दारू पीकर
लौटता तो एक संदूक में पड़ी
पोथियाँ निकालकर हमें हीर-राँझा,
नल-दमयंती
आदि गाकर सुनाता। हम उसे 'तुसीं'
यानी आप कहते
थे, पर
माँ को 'तू'
कहते थे। अब
स्मृति में वह अपना ऐसा हिस्सा
लगता है कि उसके लिए आप नहीं
सोच पाता। बड़े होकर जाना था
कि बापू के गाए कई गीत पंजाब
के प्रसिद्ध लोकगीत हैं और
इनके गानेवालों में जमला जट,
आलम लोहार
और रेशमा आदि हैं। विदेश में
पढ़ते हुए एकबार न्यूयॉर्क के
जैक्सन हाइट्स की दूकानों
में हिंदुस्तानी संगीत के
कैसेट ढूँढ रहा था तो किसी
बुज़ुर्ग ने रेशमा का कैसेट
पकड़ाया। अब भी मेरे पास है,
पर अरसे से
प्लेयर खराब है तो बजाया नहीं
जाता। रेशमा को याद करना बापू
को याद करना है, उससे
सीखी पंजाबी भाषा को याद करना
है।
तीनेक
साल पहले जब कोक-स्टूडियो
पाकिस्तान के गीतों को सुनने
की खुशी में यू-ट्यूब
से और संगीत ढूँढता रहा,
तो मीशा सफी
का गाया 'ऐ
वे मैं चोरी चोरी' के
कई गायन ढूँढ निकाले। तभी
यू-ट्यूब
पर ही रेशमा को लंदन के एक
प्रोग्राम में यह गाते देखा।
नम्रता के साथ यह कहते हुए कि
लता बहन ने भी इसी सुर का गाना
गाया, उसने
पहले 'यारा
सिल्ली सिल्ली' के
दो लाइन सुनाए, फिर
'ऐ वे
मैं चोरी चोरी' ।
तब
से कई बार मुड़ मुड़ कर रेशमा के
गीत यू-ट्यूब
पर सुने और औरों को सुनाए।
रेशमा को जाना तो था ही;
अरसे से बीमार
थी; सब
को कभी न कभी जाना है ही। पर
मुझे लगा जैसे कि एक बार फिर
बापू की मौत हो गई। रेशमा अपनी
पीढ़ी के उन गायकों में थी,
जिन्होंने
फ्यूज़न नहीं गाया - गाया
हो तो मुझे नहीं मालूम। शायद
लंबी बीमारी से वह इस फितूर
में शामिल नहीं हो सकी। इसलिए
उसका गाया खालिस पुराने किस्म
का लोकगायन रह गया। और वह क्या
खूब है, यह
तो जो जानते हैं वे जानते हैं।
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Sunday, November 03, 2013
मुक्ता दाभोलकर
पिछले
एक पोस्ट में मैंने जिक्र किया
था कि हमलोगों ने डॉ.
नरेंद्र
दाभोलकर की हत्या के खिलाफ
दुख और रोष प्रकट किया था।
साथी भूपेंद्र ने उनकी बेटी
मुक्ता के साथ संपर्क किया
और 25 अक्तूबर
को हमने उनका व्याख्यान रखा।
साथ ही अंधश्रद्धा उन्मूलन
समिति की ओर से प्रशांत ने कुछ
प्रयोग भी दिखलाए। मुक्ता
बहुत ही अच्छा बोलती हैं। उनकी
बातों में जेहनी प्रतिबद्धता
झलकती है और साथ ही अपनी तकरीर
में वह सहिष्णुता का अद्भुत
नमूना पेश करती हैं। उस दिन
हॉल खचाखच भरा हुआ था और चूँकि
मैंने मंच सँभालने की जिम्मेदारी
ली थी, आज
तक कई साथी आ-आकर
मुझे धन्यवाद कह रहे हैं कि
यह कार्यक्रम आयोजित किया
गया। आखिर क्या वजह है कि लोगों
ने इसे इतना पसंद किया।
प्रतिबद्धता और सहिष्णुता
ही दो बातें हैं जो अलग से दिखती
हैं। कुछ लोग दुख साझा करने
के मकसद से आए होंगे और मैंने
मुक्ता से आग्रह भी किया था
कि वह अपने पिता के मानवीय
पक्ष पर बोले। पर मुक्ता ने
निजी संदर्भों के साथ आंदोलन
के पहलुओं को जोड़ कर लोगों को
गहराई तक प्रभावित किया। सवाल
जवाब देर तक चला। एक बात कई
बार आई कि स्वयं नास्तिक होते
हुए भी अंधविश्वास के खिलाफ
लड़ने वालों को लोगों की धार्मिक
आस्थाओं से आपत्ति नहीं होनी
चाहिए। यहाँ तक कि अगर किसी
को आध्यात्मिक जीवन से बेहतर
इंसान होने की प्रेरणा मिलती
है तो वह अच्छी बात है। मूल
बात धर्म या आस्था के नाम पर
होते शोषण का विरोध है न कि
आस्था मात्र का विरोध।
मुझे ये बातें खास तौर पर अच्छी लगीं क्योंकि हम लंबे अरसे से यह कहते आए हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि और चेतना एक बुनियादी मानवीय प्रवृत्ति है। इसमें और आस्था-जनित विश्वासों में भेद समझना ज़रूरी है। पर हर वक्त हर चीज़ को वैज्ञानिक दृष्टि से ही देखने की माँग रखना ठीक नहीं। विज्ञान या तर्कशीलता से इतर किसी सोच से जब संकट की स्थिति पैदा हो, जब किसी को चोट पहुँचती हो, तो वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कशीलता के आधार पर चीज़ों को परखा जाना चाहिए। जैसे अगर किसी की आस्था का फ़ायदा उठाकर कोई ढोंगी व्यक्ति उसे लूटता है, तब हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इसका विरोध करे। अपने विरोध को सार्थक बनाने के लिए यह समझाना पड़ेगा कि आस्था के नाम पर कैसे ग़लत बातें कही जा रही हैं। यानी कि अंधविश्वास जो एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के प्रति अन्याय करने का तरीका बन जाता है, वहाँ यह वैज्ञानिक तर्कशीलता से ही समझाना पड़ेगा कि यह ग़लत है। सवाल जवाब के दौरान मुक्ता ने ठोस उदाहरणों के साथ इस बात को समझाया। जैसे कोई बाबा उँगलियों से शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का दावा कर लोगों से पैसे लूट रहा था तो अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति ने इसका खुलासा किया और बाबा का भंडाफोड़ किया। यह ज़रूरी नहीं कि सामान्य धर्मभीरु लोगों को धर्म के खिलाफ कहा जाए, बस इतना कि उन्हें जागरुक किया जाए कि उनकी धार्मिकता का फ़ायदा उठाकर कुछ लोग कैसे उनका शोषण करते हैं।
यह सवाल ज़रूर रह जाता है कि कैसे तय करें कि कोई भी मान्यता वैज्ञानिक दृष्टि के साथ संगति रखती है या नहीं। इसके लिए यह जानना होगा कि विज्ञान क्या है; इसलिए हर किसी को ज्ञान प्राप्ति के साधनों के बारे में जानना सीखना चाहिए। सामान्य तर्कशीलता मात्र ही विज्ञान नहीं है। हर तरह की आस्था की अपनी तर्कशीलता होती है। ईश्वर की धारणा अक्सर उपयोगी होती है, पर यह क्यों वैज्ञानिक धारणा नहीं है, इसे समझने के लिए विज्ञान की कुछ बुनियादी विशिष्टताओं के बारे में जानना ज़रूरी है। इस पर फिर कभी। और यह भी कि विज्ञान नामक संस्था भी धर्म जैसी संस्थाओं की तरह शोषण और विनाश का औजार होती रही हैं। कई लोग, खास तौर पर समाज विज्ञान में पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में मुखर हुए उत्तर-आधुनिक विद्वान इसे विज्ञान की संरचनात्मक सीमा मानते हैं, पर मैं इस बात से असहमत हूँ। मेरी नज़र में विज्ञान की एकमात्र सीमा भावनात्मकता यानी emotion को ज्ञान प्राप्ति के साधन के बतौर इस्तेमाल न कर पाना है। वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना और वैज्ञानिक पद्धति भावनात्मकता को कोई जगह नहीं देती। यह विज्ञान की ताकत भी है और सीमा भी।
मुझे ये बातें खास तौर पर अच्छी लगीं क्योंकि हम लंबे अरसे से यह कहते आए हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि और चेतना एक बुनियादी मानवीय प्रवृत्ति है। इसमें और आस्था-जनित विश्वासों में भेद समझना ज़रूरी है। पर हर वक्त हर चीज़ को वैज्ञानिक दृष्टि से ही देखने की माँग रखना ठीक नहीं। विज्ञान या तर्कशीलता से इतर किसी सोच से जब संकट की स्थिति पैदा हो, जब किसी को चोट पहुँचती हो, तो वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कशीलता के आधार पर चीज़ों को परखा जाना चाहिए। जैसे अगर किसी की आस्था का फ़ायदा उठाकर कोई ढोंगी व्यक्ति उसे लूटता है, तब हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इसका विरोध करे। अपने विरोध को सार्थक बनाने के लिए यह समझाना पड़ेगा कि आस्था के नाम पर कैसे ग़लत बातें कही जा रही हैं। यानी कि अंधविश्वास जो एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के प्रति अन्याय करने का तरीका बन जाता है, वहाँ यह वैज्ञानिक तर्कशीलता से ही समझाना पड़ेगा कि यह ग़लत है। सवाल जवाब के दौरान मुक्ता ने ठोस उदाहरणों के साथ इस बात को समझाया। जैसे कोई बाबा उँगलियों से शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का दावा कर लोगों से पैसे लूट रहा था तो अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति ने इसका खुलासा किया और बाबा का भंडाफोड़ किया। यह ज़रूरी नहीं कि सामान्य धर्मभीरु लोगों को धर्म के खिलाफ कहा जाए, बस इतना कि उन्हें जागरुक किया जाए कि उनकी धार्मिकता का फ़ायदा उठाकर कुछ लोग कैसे उनका शोषण करते हैं।
यह सवाल ज़रूर रह जाता है कि कैसे तय करें कि कोई भी मान्यता वैज्ञानिक दृष्टि के साथ संगति रखती है या नहीं। इसके लिए यह जानना होगा कि विज्ञान क्या है; इसलिए हर किसी को ज्ञान प्राप्ति के साधनों के बारे में जानना सीखना चाहिए। सामान्य तर्कशीलता मात्र ही विज्ञान नहीं है। हर तरह की आस्था की अपनी तर्कशीलता होती है। ईश्वर की धारणा अक्सर उपयोगी होती है, पर यह क्यों वैज्ञानिक धारणा नहीं है, इसे समझने के लिए विज्ञान की कुछ बुनियादी विशिष्टताओं के बारे में जानना ज़रूरी है। इस पर फिर कभी। और यह भी कि विज्ञान नामक संस्था भी धर्म जैसी संस्थाओं की तरह शोषण और विनाश का औजार होती रही हैं। कई लोग, खास तौर पर समाज विज्ञान में पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में मुखर हुए उत्तर-आधुनिक विद्वान इसे विज्ञान की संरचनात्मक सीमा मानते हैं, पर मैं इस बात से असहमत हूँ। मेरी नज़र में विज्ञान की एकमात्र सीमा भावनात्मकता यानी emotion को ज्ञान प्राप्ति के साधन के बतौर इस्तेमाल न कर पाना है। वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना और वैज्ञानिक पद्धति भावनात्मकता को कोई जगह नहीं देती। यह विज्ञान की ताकत भी है और सीमा भी।
Tuesday, October 29, 2013
उनसे मिलना अच्छा लगता था
'हंस'
में मेरी
पाँच कहानियाँ और करीब पच्चीस
कविताएँ प्रकाशित हुई हैं,
अधिकतर नब्बे
के दशक में। उस ज़माने में जब
बहुत कम लोगों को जानता था,
चंडीगढ़ से
कहीं आते-जाते
हुए दिल्ली से गुजरते हुए एक
दो बार स्टेशन से ही पैदल चल
कर राजेंद्र यादव से मिला था।
कविताओं में उनकी रुचि कम थी,
यह तो जग-जाहिर
है, मेरी
कहानियाँ पसंद करते थे। उनका
बहुत आग्रह था कि मैं लगातार
लिखूँ। स्नेह से बात करते थे।
वैचारिक बात-चीत
करते थे। इसलिए उनसे मिलना
अच्छा लगता था। आखिरी बार मिले
तीन साल से ऊपर हो गए। शायद
2010 में
इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी
में कविता पाठ था, तब
मुलाकात हुई थी। या कि उसके
भी दो साल पहले आई आई सी में
रज़ा अवार्ड के कार्यक्रम
में मिले थे।
आखिरी
सालों में उनके वक्तव्यों
में वैचारिक संगति का अभाव
दिखता था और तरह तरह के विवादों
में ही उनका नाम सामने आता
रहा। पर खास तौर पर नब्बे के
दशक में 'हंस'
को हिंदी की
प्रमुख पत्रिका बनाने में
उनका विशाल योगदान था। कॉलेज
के दिनों में 'सारा
आकाश' और
बाद में कहानियाँ पढ़कर ही
उन्हें जाना था। मेरे प्रिय
रचनाकारों में से थे। हरि
नारायण जो बाद में 'कथादेश'
का संपादन
करने लगे और बीना उनियाल जैसे
वे लोग जिन्होंने लंबे अरसे
तक उनके साथ काम किया,
उन्हें कैसा
लग रहा होगा यही सोच रहा हूँ।
संजीव भी कई वर्षों तक उनके
साथ थे, उनके
संस्मरण सुनने का मन करता है।
शायद ये सभी साथी लिखेंगे और
हमलोग राजेंद्र जी के बारे
में और जानेंगे, और
बहसें करेंगे।
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Monday, October 28, 2013
हादसा और उदारवादी उलझनें
जीवन में बड़े हादसे हुए हैं। औरों के हादसों की सूची देखें तो मुझसे लंबी ही होगी। फिर भी हर नया हादसा कुछ देर के लिए तो झकझोर ही जाता है। आमतौर पर अपनी मनस्थिति के साथ समझौता करने यानी अपनी थीरेपी के लिए ही मैं चिट्ठे लिखता हूँ। यह चिट्ठा खासतौर पर एक अपेक्षाकृत छोटे हादसे में घायल मनस्थिति से उबरने के खयाल सा लिख रहा हूँ।
शनिवार को महज एक स्टॉप यानी पाँच मिनट से भी कम की इलेक्ट्रॉनिक सिटी से होसा रोड की बस यात्रा में मैं पॉकेटमारी का शिकार हुआ। आमतौर पर वॉलेट में अधिक पैसे होते नहीं। कार्ड भी एक दो ही होते हैं। संयोग से उस दिन तकरीबन साढ़े बारह हजार रुपए, एक क्रेडिट कार्ड, दो ए टी एम कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और कुछ पासपोर्ट साइज़ फोटोग्राफ साथ थे। सब गए।
मन के घायल होने की वजह सिर्फ पैसों का नुकसान नहीं है। बेंगलूरु में नया हूँ, कब तक ठहरना है, पता नहीं, इसलिए सारे कार्ड हैदराबाद के पते के थे। उनको दुबारा बनवाने की परेशानी है। पर जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह है कि मैं खुद को मुआफ नहीं कर पा रहा।
मैंने भाँप लिया था कि जो दो लोग मुझे गेट पर धकेल कर खड़े हैं (बस में भीड़ नहीं थी), वे कुछ खुराफात करने वाले हैं। मैंने पैंट की एक जेब में अपने मोबाइल फोन पर हाथ रखा, दूसरे से ऊपर का रॉड थामे हुए था। दूसरी जेब में पड़े वॉलेट का अहसास लगातार बनाए हुए था।
कंडक्टर ने भी कुछ भाँपा या किसी और कारण से उनसे कुछ पूछा। उन्होंने कन्नड़ में कुछ कहा शायद यह कि वे नीचे उतरने वाले हैं।
स्टॉप
पर बस रुकने पर उन्होंने मुझे
धकेला तो मैंने एक को वापस
धकेलने की कोशिश की। पहला आदमी
झट से उतर गया। दूसरा आदमी कुछ
रुक कर बोला और लँगड़ाते हुए
वक्त लेकर उतरा। मुझे अफसोस
हुआ कि मैंने उसकी पैरों की
तकलीफ पर गौर नहीं किया था।
उतरते
ही मैंने जेब में हाथ डाला तो
यकीन नहीं हुआ कि वॉलेट गायब।
कंधे पर खाली झोला था। एक बार
झोले में देखा कि वहाँ तो नहीं
है। फिर उस लँगड़ाते आदमी को
न ढूँढकर वापस गाड़ी में चढ़ गया
और कंडक्टर को कहा कि पर्स
गायब है। उसने कंधे उचकाए
(क्या
मैंने उसके होंठों पर एक छद्म
मुस्कान देखी या कि यह मेरे
घायल मन की उपज है!)
मैं वापस उतरा और होसा रोड स्टॉप पर कहाँ वे दो आदमी? मानव और गाड़ी-बसों के उस समुद्र में उन्हें कहाँ ढूँढूँ?
रुँआसे
मन से तय किया कि पहले घर जाकर
कार्ड्स ब्लॉक करूँ। ऐसे मौकों
पर अहसास होता है कि अब उम्र
बढ़ रही है और एक असहायता आ घेरती
है। तनाव और घबराहट में कुछ
दोस्तों को भी फोन किया,
फिर किसी
तरह सारे कार्ड और हैदराबाद
का एक सिम जो वॉलेट में ही था
और जिसका नंबर मेरे नेट बैंकिंग
का नंबर था, सब
रुकवाए। शाम को थाने में शिकायत
की ताकि कभी हैदराबाद जाकर
लाइसेंस की दूसरी प्रति निकलवाने
की कोशिश करें।
तब से इसी कोशिश में हूँ कि किसी तरह इस मनस्थिति से निकलूँ कि एक के बाद एक कैसे मैंने उस दिन ग़लतियाँ कीं और कैसे खुद को लुटने दिया। रह-रह कर कभी कुछ कभी कुछ ग़लत हुआ – दिमाग में चलता रहता है।
हादसों से उबरने के लिए ईश्वरवादियों के पास खुदा होता है। हमारे पास भले दोस्तों के अलावा अंतत: हम खुद ही होते हैं। ठीक यह तो नहीं, पर कुछ ऐसा ही सोचते हुए कभी लिखा था -
सुख
दुःख जो मेरे हो चले थे अचानक
ही तिलिस्म से
कहीं
खो जाते हैं,
वापस
बैठता
हूँ खुद ही के साथ
फिर से
सँजोता हूँ अपने पुराने दुःख
नींद
में भी नहीं दिखता जिसे चाहा
था देखना
मरहम
लेपते हैं अपने ही दुःख।
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Saturday, October 19, 2013
उसकी कविता
मैं
अकेला नहीं, सभी
संवेदनशील लोग कह रहे हैं कि
चीखों की तो आदत हो गई है। अपने
हैदराबाद के छात्रों से महीने
की मुलाकात के लिए आया हूँ।
कल पूर्णिमा की रात मकान के
पीछे जंगल में आधी रात के बाद
कुछ युवा छात्र शोर मचा रहे
थे, नींद
टूट गई और दिल धड़कने लगा। देर
तक शोर चीत्कार सुनता रहा औऱ
शोर बंद होने के बाद भी जगा
रहा। सोचकर बड़ी तकलीफ हुई कि
ऐसी हर आवाज जिसे सुनकर खुश
होना चाहिए कि सृष्टि में
प्राण है, भय
क्यों पैदा कर रही है। यह हमारा
समय है।
इसी
बीच कुछ अच्छा देख सुन लें तो
क्या बात। पिछले कुछ दिनों
में नूराँ बहनों को सुना -
सचमुच क्या
बात
पंजाब
के लोकगीत हमेशा से ही एक अपार
ऊर्जा के स्रोत रहे हैं,
पर जिस तरह
नूराँ बहनों ने इसे दिखाया
है वह कमाल का है। cokestudioindia पर उनका गाया अल्ला हू वह मजा नहीं देता जो उनके मेलों में गाए गीतों में है।
हिंदी
में इन दिनों फिर स्त्री रचनाकार
और पुरुष व्यभिचार प्रसंग पर
चर्चाएँ सरगर्म हैं। मैं अक्सर
सोचता हूँ कि हम पुरुष इन
चर्चाओं में किस हद तक गंभीर
होते हैं और हम में कितना सिर्फ
चटखारे लेने वाला कोई शख्स
काम कर रहा होता है। मेरी एक
पुरानी कविता पेस्ट कर रहा
हूँ जो उन दिनों जब 'हंस'
में ठीक ठाक
कविताएँ भी आती थीं, तब
छपी थी।
उसकी
कविता
उसकी कविता में है प्यार पागलपन विद्रोह
देह जुगुप्सा अध्यात्म की खिचड़ी के आरोह अवरोह
उसकी हूँ मैं उसका घर मेरा घर
मेरे घर में जमा होते उसके साथी कविवर
मैं चाय बनाती वे पीते हैं उसकी कविता
रसोई से सुनती हूँ छिटपुट शब्द वाह-वाह
वक्ष गहन वेदांत के श्लोक
अग्निगिरि काँपते किसी और कवि से उधार
आगे नितंब अथाह थल-नभ एकाकार
और भी आगे और-और अनहद परंपार
पकौड़ों का बेसन हाथों में लिपटे होती हूँ जब चलती शराब
शब्दों में खुलता शरीर उसकी कविता का बनता है ख़्वाब
समय समय पर बदलती कविता, बदलता वर्ण, मुक्त है वह
वैसे भी मुझे क्या, मैं रह गई जो मौलिक वही एक, गृहिणी
गृहिणी, तुम्हारे बाल पकने लगे हैं
अब तुम भी नहीं जानती कि कभी कभार तुम रोती हो
उसकी कविता के लिए होती हो नफ़रत
जब कभी प्यार तुम होती हो।
(हंस 1997; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित))
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Monday, September 16, 2013
छात्रों की संस्था 'क्रांति'
बेंगलूरू
की राष्ट्रीय लॉ यूनीवर्सिटी
(विधि
शिक्षा वि.वि.)
के कुछ छात्रों
की पहल से बनी संस्था 'क्रांति'
ने पिछले एक
हफ्ते में शहर में जैसे जान
डाल दी। पिछले हफ्ते शनिवार
को रवींद्र कलाक्षेत्र के
मुक्त आकाशी प्रेक्षागृह में
कबीर कला मंच और तमिलनाड के
एक दलित संगीत ट्रुप का अद्भुत
कार्यक्रम था। सबसे अच्छी
बात यह थी कि बड़ी तादाद में
युवा मौजूद थे और उन्होंने
लगातार नाचते हुए ऐसा समां
बाँधा कि मज़ा आ गया। पर दूसरे
दिन रविवार को फिल्मों के
आयोजन में उनकी अनुपस्थिति
उतनी ही अखरती रही। आनंद पटवर्धन
स्वयं मौजूद थे और अपनी सभी
फिल्मों के टुकड़े दिखलाने के
अलावा 'जय
भीम कामरेड' पूरी
दिखला कर आनंद ने विस्तार से
अपनी फिल्मों पर चर्चा की।
आज 'प्रतिरोध
सम्मेलन' का
आयोजन था और युवाओं की अनुपस्थिति
खास तौर पर अखर रही थी। प्रफुल्ल
सामंतरा, आनंद
तेलतुंबड़े, वोल्गा,
गौतम मोदी,
मिहिर देसाई,
पराणजॉय
गुहाठाकुरता, जया
मेहता के भाषण के बाद गोआ से
आई संस्था 'स्पेस'
ने अभिनय
पेश किए।
मैं
डेढ़ घंटे की बस यात्रा कर सिर्फ
अपना साथ देने के लिए गया था।
आजकल बहुत ज्यादा अंग्रेज़ी
सुनकर मुझे चिढ़ होती है,
पर क्या कीजे
कि अंग्रेज़ी का ही ज़माना
है :-)
जया
मेहता का भाषण सुनकर मुझे बड़ा
मज़ा आया। एक तो उसने एक बढ़िया
चुटकुला सुनाया कि रीगन के
हज़ार सलाहकारों में कोई के
जी बी का था, पर
उसे पता नहीं था कि कौन है,
मितराँ (अस्सी
के दशक में फ्रांस के राष्ट्रपति)
के हज़ार
प्रेमियों में कोई एड्स का
शिकार था, पर
उसे पता नहीं था कि कौन है,
और गोर्बाचेव
के सलाहकारों में कोई अर्थशास्त्री
भी था, पर
उसे पता नहीं.......
पर
ज़रूरी बात उसने यह कही (मैं
जानता था पर फिर भी दुबारा
सुनकर अच्छा लगा) कि
सोवियत रूस के पतन के बाद क्यूबा
ने अपने संकटों से जूझने के
अनोखे तरीके अपनाए। चीन से
हज़ारों साइकिलें खरीदी गईं
कि पेट्रोल का खर्चा कम हो,
कास्त्रो
ने स्वयं साइकिल चलाकर लोगों
को प्रोत्साहित किया कि वे
साइकिल चलाएँ। इसी तरह कीटनाशकों
और रासायनिक खादों की आमद में
कमी की समस्या से निपटने के
लिए उन्होंने ऑर्गानिक फार्मिंग
(कीटनाशक
और रासायनिक खादों के बिना
खेती) की
शुरूआत की। सचमुच यह फर्क है
क्रांतिकारी सोच और बुर्ज़ुआ
उदारवाद में। बुर्ज़ुआ उदारवादी
अपने से दूर किसी समाज को बदलने
की बात करते हैं और क्रांतिकारी
खुद को समाज में शामिल करते
हुए बदलाव की बात करते हैं।
जया
मेहता की एक और बात बड़ी रोचक
थी। भारत में अगर कोई तरक्की
है तो वह सिर्फ दनादन बनते
हाईवेज़ और गाड़ियों की बढ़ती
तादाद की है। बाकी देश तो अँधेरे
में डूबा है।
पिछले
शनिवार के सांस्कृतिक कार्यक्रम
और आनंद पटवर्धन की फिल्मों
में संवाद को छोड़कर भारतीय
भाषाओं में कुछ न होना अखरता
रहा। पर यह हमारे उदारवादी
बुद्धिजीवियों की पहचान बनती
जा रही है। सबकुछ कहीं और बदलना
है, हम
तो जैसे हैं ठीक हैं। हम सवर्ण,
हम अंग्रेज़ीदाँ,
हम गाड़ीवाले,
हम आपस में
बातचीत करेंगे कि 'उन'की
दुनिया बदलनी है। इसलिए
अंग्रेज़ी में अंग्रेज़ीवालों
के लिए भाषण, उनके
लिए नाटक, फिल्में
- यह
सब। दूसरी जो बड़ी सीमा मुझे
हमारे उदारवादी विमर्शों में
दिखती है, वह
है पूरे दक्षिण एशिया में
सामरिक खाते में तबाह होते
राष्ट्रीय संसाधनों पर चुप्पी।
राष्ट्रवादी देशभक्ति का यह
झूठा गौरव किसके हित में है
- जब तक
विपुल परिमाण खर्च सामरिक
खाते में होता रहेगा,
शिक्षा और
स्वास्थ्य पर चर्चा का तुक
ही क्या रहता है?
उन
सभी युवाओं को सलाम जिन्होंने
मेहनत कर इन कार्यक्रमों का
आयोजन किया।
Saturday, September 14, 2013
सितंबरनामा
पिछले
पोस्ट में 'पुरुष
पर अगली पोस्ट में' लिखते
हुए दिमाग में क्या था अब याद
नहीं। इस बीच भोपाल गया और
वहाँ बड़े कवियों और अन्य
साहित्य-प्रेमियों
के बीच कविता
पाठ का मौका मिला। सोचा था
वहाँ जो स्नेह मिला उस पर
लिखूँगा, पर
इसके पहले कि लिख पाता,
मुजफ्फरनगर
के दंगों की खबरें आने लगीं।
पता नहीं मैं कब उम्र की वह
दहलीज़ पार कर चुका हूँ कि अब
गुस्सा कम और रोना ही ज्यादा
आता है। यहाँ मैं हूँ कि इस
बात से परेशान हूँ कि तीन कमरों
वाले मकान में मेरे कमरे के
साथ जो गुसलखाना है वह ऐसे बना
है कि दिनभर फर्श गीला ही रहता
है और उधर नफ़रत के सौदागरों
के शिकार बच्चों की दिल दहलाने
वाली कथाएं हैं। जाने कब से
यह अतियथार्थ हमारा सच बना
हुआ है। हम जीते हैं पर कब तक
जिएँगे, इस
तरह कौन जीना चाहता है,
इस तरह कौन
जीना चाह सकता है।
भोपाल
में 'स्पंदन'
संस्था की
ओर से कविताएँ पढ़ने का आयोजन
था। आयोजन 'स्पंदन'
के निर्देशक उर्मिला शिरीष के सौजन्य से हुआ, पर
मुझे पता है कि इसके पीछे
राजेंद्र शर्मा का स्नेह
था। युवा मित्र ईश्वर दोस्त
ने उनसे कहा था और इस तरह बात
आगे चली। पाठ के दौरान श्रोताओं में बड़े
रचनाकार तो थे ही, साथ
में पुराने साथी जिनको पता
चला वे भी आ गए थे। कुछ दोस्तों
से कई वर्षों के बाद मुलाकात
हुई। मुझे सबसे ज्यादा खुशी
कुमार अंबुज के वहाँ होने से
थी। अंबुज मेरे हमउम्र हैं
और प्रतिष्ठित तो हैं ही।
राजेश जोशी, रमेशचंद्र
शाह, इनका
होना भी मेरे लिए बड़ी बात थी।
शशांक से पहली बार मिला। वे
और रमेश जी दोनों साथ मंच पर
थे।
दूसरे
दिन आग्नेय से मिला। आग्नेय 'सदानीरा' पत्रिका के संपादक हैं। तेरह साल पहले उन्हीं के आयोजित 'कविता यहीं' कार्यक्रम में मैंने कविताएँ पढ़ी थीं। उस दिन साथ में
सुधीर रंजन सिंह भी थे। दोनों
में हिंदी कविता के समकालीन
संदर्भों और औचित्य पर अच्छी
बहस हुई, मैं
सुनता रहा।
मैं
और विस्तार से भोपाल में समकालीन साहित्यकारों से मिलने के इस
अनुभव पर लिखना चाहता हूँ,
पर इसके लिए
लंबा समय चाहिए।
इधर
विनोद रायना की कैंसर से मौत
हो गई। एकलव्य संस्था में मेरा
पहला संपर्क विनोद से ही हुआ
था। 1986 में
मैं आई आई टी कानपुर में
केमिस्ट्री विभाग में अपने
शोध-कार्य
पर भाषण देने गया था तो अमिताभ
मुखर्जी (पिछले
कई वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय
में भौतिकी के प्रोफेसर)
से मुलाकात
हुई। अमिताभ से मैंने अपने
वैज्ञानिक शोध पर चर्चा करते
हुए बीच में कहीं ज़मीनी स्तर
पर विज्ञान में मेरी रुचि के
बारे में कहा तो उसने विनोद
से संपर्क करने को कहा। दस
पैसे का पोस्टकार्ड डाला और
विनोद का तुरंत जवाब आया कि
होशंगाबाद विज्ञान के प्रशिक्षण
शिविर में आओ। उन दिनों अनारक्षित
यात्राएँ कर लेता था। चंडीगढ़
से हिमालयन क्वीन में दिल्ली,
फिर शायद
पश्चिम एक्सप्रेस में नागदा
तक – रास्ते में केटरिंग के
वेटर ने भीड़ में से निकलते हुए
मेरे ऊपर दाल सब्जी गिरा दी
- फिर
नागदा से उज्जैन। गर्मी के
दिन। पहुँचते ही एक ढाबे में
मैंने लस्सी मँगवाई। पता न
था कि वहाँ लस्सी पी नहीं खाई
जाती है। बाकायदा चम्मच से
खाई। प्यास मिटी नहीं तो एक
ग्लास और खाई। फिर विवेकानंद
कॉलोनी में एकलव्य के दफ्तर
गया तो कोई न मिला। सीधे प्रशिक्षण
केंद्र गया जो आजकल जिसे डाएट
(DIET – District Institute of Education Technology)
कहते हैं,
ऐसे किसी
कॉलेज में था। विनोद ने मिलते
ही सीने से लगा लिया। मुझसे
आठ साल बड़ा था, पर
उसके साथ संबंध शुरू से ही ऐसा
बना कि मैं उसके लिए 'तुम'
ही कह सकता
हूँ। दो साल बाद जब तक मैं यू
जी सी टीचर फेलो बनकर एकलव्य
में आया, बीच
में हुई मुलाकातों में विनोद
से कई मतभेद हो चुके थे। मैं
अंतत: हरदा
केंद्र में रहा। चंडीगढ़ (पंजाब
वि. वि.)
लौटने के
बाद भी अक्सर विनोद से मुलाकात
होती रही, चूँकि
उसका परिवार चंडीगढ़ मे ही था।
एकबार हमलोगों ने अध्यापक
संगठन की ओर से जनविज्ञान
आंदोलन पर उससे भाषण भी दिलवाया।
विनोद
ने जनविज्ञान और अन्य क्षेत्रों
में जो काम किया है, उस
पर लिखने की ज़रूरत नहीं है।
पर जनांदोलनों में रहते हुए
भी आधुनिक विज्ञान के जटिलतम
विषयों में उसकी रुचि बनी रही
और अक्सर ऐसे कई विषयों पर वह
भाषण भी देता था। उसके बोलने
में अद्भुत स्पष्टता थी।
संप्रेषण की दक्षता ऊँचे स्तर
की।
आज
विनोद की बात सोचते हुए वह गले
मिलना ही सबसे ज्यादा याद आता
है। जो मतभेद थे, वे
गंभीर हैं, पर
उसका स्नेह स्मृति में है और
उससे टीस उठती है। आखिरी बार
अभी एक साल पहले ही मिला था -
हैदराबाद
में इंस्टीटिउट ऑफ लाइफ साइँसेस
के निर्देशक जावेद इकबाल के बेटे
की शादी के अवसर पर वह और अनीता
अपने ग़ज़ल गायक मित्र दिनेश
शर्मा के साथ आए थे। गायन खत्म
होने पर मुझे सीने से लपेट कर
उसने दिनेश से दो बार कहा -
यह लाल्टू
है, देख
लो, ठीक
है न, यह
लाल्टू है। मैं सोचता रहा कि
वह क्या कहना चाह रहा है।