Wednesday, November 27, 2019

नि:शब्द झंझा


रंग

जो रंग तुमने मुझे दिए

वे मेरे कमरे की दीवार पर फैल गए हैं

कमीज़ के बटन उनके छींटों से भीगे हैं

होमर और फिरदौस को पता था

कि बातें इतनी सरल नहीं होती हैं

कि रंग बिखेर दिए जाएँ और कहानी खत्म हो जाएगी



मेरे तुम्हारे दरमियान जो खला है

उसमें से सोच की तरंगें सैर करती हैं

हालाँकि रंगों में कुछ ऐसा होता है

जिससे खला में कंपन होता है

सोच अपने साथ रंग ले जाती है



ऐसे ही वक्त के पैमाने पर

खोते रहे हैं रंग

खला में से सोच

ढोती रही उन्हें

कुछ सच कुछ झूठ

जाने कितने खेल रंगों में



रोशनी और अँधेरे के दरमियान

खेल चलते रहते हैं

किस को पता होता है कि

कैसे खेल चलते हैं

क्या रंग बिखेरते या समेटते हम जानते हैं

कि ज़िंदगी किस मौसम से गुजरती है

बहार और पतझड़ का हिसाब ठीक-ठीक रखना

और उनके मुताबिक सही रंग बिखेरना

हमेशा हो नहीं पाता है



हम तड़पते रहते हैं

कि सही वक्त पर सही रंग क्यों नहीं बिखेर पाए

लगता है मानो एक ही खेल चल रहा है

खला को बीच में रख हम चक्कर काटते हैं



आखिर में जैसे सारे रंग खत्म हो जाते हैं

दीवारें फीकी रह जाती हैं

रागहीन सुबह शाम

न नीला न पीला

नि:शब्द झंझा।  (-मधुमती 2019)

Monday, November 25, 2019

यहाँ


'मधुमती' के ताज़ा अंक में प्रकाशित कविताएँ



यहाँ

जब गाती हैं तो एक एक कर सभी गाती हैं

रुक-रुक कर एक पर एक सवार हो जैसे

कौन सी धुन किस चिड़िया की है कैसे कहूँ

आँखें तलाशती हैं

तो दरख्त दिखते हैं जैसे

व्यंग्य सा करते हुए कि क्या कल्लोगे



खिड़की तक चला ही जाऊँ

तो गिलहरी फुदकती दौड़ती दिखती है

उनकी बड़ी दीदी हो मानो



दिखने लगता है भरापूरा संसार

जब चारों ओर इतनी जंग-मार



खिड़की के अंदर से

देखता हूँ

यहाँ बचा है संसार

बची है रात की नींद

और दिन भर का घरबार


यहाँ।  


थकी हुई भोर


सुबह हड्डियाँ पानी माँगती हैं

पहले खयाल यह कि

फिर उठने में देर हो गई है

कंबल अभी समेटूँ या बाद में कर लेंगे

खिड़की का परदा हटाते हुए एक बार सोचना कि

खुला रखते तो जल्दी उठ सकते थे



आईना देखे बिना जान लेना कि शक्ल

जरा और मुरझा गई है

एक और दिन यह कोशिश करनी है कि

थोड़ी चमक वापस आ जाए

भले ही कल उठने पर वह फिर गायब मिले



असल में बुढ़ापा एक सोच भर है

जिसमें यादें थकी हुई भोर बन कर आती हैं

यह बात मन में उमंग लाती है

कि मुरझाते जिस्म के अंदर

पहले जैसा कोई शख्स छिपा बैठा है

केंचुल फेंक कर

दिन रेंगता हुआ सामने आ जाता है

फिसलती भोर पीछे रह जाती है।


दरख्त


दरख्त में झेंप से अलग फक्कड़पन भी है

अमूमन शांत खड़े बरगद पीपल विदेशी दोस्तों के साथ

मस्त झूमने लगते हैं

गुलमोहर में वैसे भी बचपन से ही कुछ सनक-सी होती है



दरख्त की झेंप को पहचानता उसे बचाता हूँ

तो अपनी मस्ती में शामिल कर वह मुझे बचाता है।



मुझे अकेले में रोता हुआ देख कर दरख्त नाचता है

और अंजाने ही मैं उसके नृत्य में शामिल होता हूँ

अँधेरा उतरता हो तो वह कह जाता है कि

सुबह वापस उनसे बतियाना न भूलूँ



सुबह खिड़की दरवाजे खोलते ही

हवा दरख्त को पास ले आती है

उसकी डाल पर बैठा सूरज हँसता है

उसे पता है कि दरख्त ने मुझे फक्कड़ बना दिया है



झेंपता हूँ और दरख्त कहता है

अमां सूरज को ज्यादा मसाला मत दो

कायनात में हर प्यार को उजागर करना इसका काम है


मुतमइन हूँ कि दरख्त मुझे बचाता है।  

Thursday, November 21, 2019

सच चारों ओर धुँए सा  फैला है


काश्मीर

नींद से जागता हूँ और जानता हूँ कि माँओं की चीखें सपने में नहीं मेरी 

खिड़की पर हैं। सुबह काश्मीर वह सच है जो झूठ है।


कुहनियों में चेहरा छुपाए सोचता हूँ कितना बेरहम हो सकता हूँ। 
कितनी बदली गई धाराएँ मुझे बेचैनी से बचा सकती हैं। सच चारों ओर धुँए सा 
फैला है। सच वे छर्रे हैं जो मेरी उँगलियों के पोरों में धँसे हुए हैं। सच की कोई 
ज़रूरत नहीं रह गई है। कितनी बार काश्मीर लिखूँ

कोई कविता लिख रहा है

कोई तस्वीर बना रहा है

कोई आँखें मूँद सोच रहा है काश्मीर।

अगस्त सितंबर, धरती अंबर, काश्मीर।

अंदर बाहर, जीना मरना, क्यों है ऐसा काश्मीर। काल की शुरुआत काश्मीर

काल का अंत काश्मीर।

क्या काश्मीर सच बन चुका है? सच का मतलब क्या है? सपनों में लाशों पर 

उछलते खेलते बच्चों को देखता क्या मैं और नहीं रोऊँगा? मैं कायनात का 

मालिक। मैं सृष्टि मैं स्रष्टा, मैं दृष्टि मैं द्रष्टा, मैं। मैं अगड़म, मैं बगड़म। मैं बम 

लहरी बम बम। मैं अनहद सच।




एक कुत्ते को भी चैन की मौत चाहिए होती है,

क्या मैं चैन से मर सकता हूँ


जब खिड़की पर बार-बार दस्तक देता काश्मीर। (-उद्भावना 2019)

Friday, November 15, 2019

तीन कविताएँ

ये दो कविताएँ 'मधुमती' में आ रही हैं। तीसरी अप्रकाशित है। 

जरा सी गर्द

ऐसा नहीं कि तुम अपने शहर से निकलती नहीं हो
मेरा शहर है जो तुम्हारी पहुँच से बाहर है
तुम्हारे शहर में साँस लेते मैं थक गया हूँ
और तुम कहती हो कि मेरी चाहत में गर्द आ बैठी है

अपने शहर की जरा सी गर्द भेज रहा हूँ
इसकी बू से जानो कि यहाँ की हवा को कब से तुम्हारा इंतज़ार है
इसे नज़ाकत से अपने बदन में मल लो
यह मेरी छुअन तुम तक ले जा रही है

यह सूखी गर्द जानती है कि कितना गीला है मेरा मन
इसके साथ बातें करना, इसके गीत सुनना
पर इस पर कोई रंग मत छिड़कना
यह मेरी तरह संकोची है

चूमना मत
इसे क़रीब लाकर मेरी साँसों को सुनना
पैक करते हुए साँसें साथ क़ैद हो गई थीं
और इससे ज्यादा मैं तुम्हें क्या भेज सकता हूँ
मेरी साँसों में बसी खुद को महसूस करना
इस तरह मुझे अपने में फिर से शामिल कर लेना

कभी तुम्हें याद आएगा
कि मेरी साँसों को कभी चाहा था
खुद से भी ज्यादा तुमने।

नींद

वे अक्सर सोने से पहले कपड़े बदलते हैं
और बीच रात उन्हें कभी सोए कपड़ों को जगाना पड़ता है
कि गोलाबारी में सपने घायल न हो जाएँ

कोई शाम महक लिए आती है
जरा सी छुअन को आतुर कोई पागल गीत गाता है
कोई चारों ओर के मलबे में से उफनती आती
हसरत के घूँट पीता है

नींद उनको भी आती है जो
जंग के माहौल में पलते हैं। 


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जन्नत का चौकीदार

नाम रिज़वान है
मैंने हाल में जाना है कि वह जन्नत का चौकीदार है
छोटी उम्र में मोटी काँच की ऐनक पहनी है

और बच्चों की तरह वह
कंचों से खेलता है
हर कंचे में रंगों की भरी-पूरी कायनात है
उसके लिए धीरे-धीरे कायनात को खुलना है
खेलता हुआ रुक कर उँगलियों में मिट्टी दबाता है
अचरज से चूर-चूर मिट्टी के कण देखता है

जिस्म पर मिट्टी रगड़ते हुए
जाने किन बड़े सवालों को
ज़हन के पोरों में रोप रहा है
हम उसे खेलते देखते हैं
हमारी सोच और समझ फिलहाल कुछ रंगों पर अटकी है
जो उसकी शर्ट पर जड़े हैं जैसे छत्ते पर मधुमक्खियाँ हों

कुछ है जो हमें तंग करता है
हम जन्नत और दोज़ख के दरमियान सैर करते हैं
उसे देखते या कि उसकी ओर देखकर घबराते हुए

वह बच्चा है
घास-मिट्टी पर लोटता है
रेत के ढेर बनाता है फिर उन्हें तोड़ता है
खिलखिलाता है कि उसने कुछ जोड़ा तोड़ा है

चार साल का है
दरख्त देख कर झेंपते हैं कि कुदरत में
ऐसा खूबसूरत भी कुछ होता है

बारिश होती है तो पत्ते फैल जाते हैं कि उस पर
इतनी बूँदें गिरें जितनी कि वह अपनी कायनात में सँभाल पाए

हम उसे नन्हा फरिश्ता मानते हैं
दुआ करते हैं कि वह खेलता रहे
पर कुछ है जो हमें तंग करता है
खयाल कि 2020 में वह चार साल का है
और भारत नामक देश में रिज़वान नाम लिए पल रहा है

कि खिलौनों को वह उछाल फेंक रहा है
ऐसे ही फेंके न जाएँ उसके जीवन में से खूबसूरत एहसास
कमाल है कि नाम में इतना ख़ौफ़ होता है
और ज़ुबान वक्त के कटघरे में बदल जाती है

हम काँपते हैं
खुद से नज़रें बचाकर किसी और
सदी की ओर चल पड़ते हैं

दुआएँ करते कि कोई ज़ुबान कोई नाम ख़ौफ़नाक न रहे।