Sunday, April 25, 2010

जंग - कुछ नई पुरानी बातें


धरती पर हर वक्त कहीं कोई जंग छिड़ी हुई है। कम समय में इस पर अध्ययन कैसे किया जाए? एक बेहतरीन नमूना यू एस ए के माउंट होलीयोक कालेज में दो प्रोफेसरों, सुहेल हाशमी और विंसेंट फेरारो ने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर पेश किया है। राजनीति शास्त्र, दर्शन, साहित्य आदि अलग अलग विषयों में पारंगत अध्यापकों ने छात्राओं को सहयोगी बनाकर यह कोर्स तैयार किया।

मैं सोच रहा हूँ कि ऐसा ही कोई कोर्स हम अपने विद्यार्थियों को पढ़ाएँ। जंग की मानसिकता हमारे चारों ओर है। कभी वह पाकिस्तान के लिए भड़कती है, कभी अपने ही लोगों के खिलाफ आपरेशन ग्रीनहंट बनती है या सांप्रदायिक दंगों में दिखती है। जंग के विरोध में और हजारों दोस्तों की तरह हम भी अक्सर कुछ न कुछ करते ही रहे हैं। जंग विषय पर तीन कहानियों का मैंने हिंदी में अनुवाद किया है। पहले विश्व युद्ध पर पिरांदेलो की 'वार' (मूल इतालवी, अनुवाद अंग्रेज़ी से) और आतंकवाद पर मित्त सैन मीत की 'लाम' (पंजाबी) के अनुवाद जनसत्ता में प्रकाशित हुए, नाभिकीय युद्ध पर रे ब्रैडबरी की 'ऐंड देयर विल कम सॉफ्ट रेन्स' का अनुवाद साक्षात्कार में आया था। इन तीनों कहानियों में कहीं भी वास्तविक युद्ध का विवरण नहीं है, पर ऐसी सशक्त युद्ध विरोधी कहानियाँ कम ही लिखी गई हैं। मेरा एक आलेख जो जनसत्ता में 'जंग के लिए ना' शीर्षक से छपा था, नीचे पेस्ट कर रहा हूँ। उन दिनों केंद्र में बी जे पी की सरकार थी। पोखरन कारगिल से बढ़ चुका नफरत का सिलसिला बरकरार था।

जंग नहीं, जंग नहीं, आइए हाथ उठाएं हम भी
(29 मई 2002, जनसत्ता में 'जंग के लिए ना' शीर्षक से प्रकाशित)


चारों ओर जंग का शोर। दुश्मन को मजा चखा दो। एक बार अच्छी तरह उनको सबक सिखाना है।

हर जंग में ऐसी ही बातें होती हैं। एक जंग खत्म होती है, कुछ वर्ष बाद फिर कोई जंग छिड़ती है। तो क्या दुश्मन कभी सबक नहीं सीखता! भारत और पाकिस्तान के हुक्मरानों ने पिछले पचपन बरसों में चार ब़ड़ी जंगें लड़ीं। इन जंगों में कौन मरा? क्या आई एस आई के वरिष्ठ अधिकारी मरे? क्या पाकिस्तान के तानाशाह मरे? नहीं, जंगों में मौतें राजनीति और शासन में ऊँची जगहों पर बैठे लोगों की नहीं, बल्कि आम सिपाहियों और साधारण लोगों की होती हैं क्या यह बात हर कोई जानता नहीं है? ऐसा ही है, लोग जानते हैं, फिर भी जंग का जुनून उनके सिर पर चढ़ता है। लोगों को शासकों की बातें ठीक लगती हैं; वे अपने हितों को भूल कर जो भी सत्ताधारी लोग कहते हैं, वह मानने को तैयार हो जाते हैं। अगर ऐसा है, तो उन मुल्कों में लोकतंत्र पर सवाल उठना चाहिए, जहाँ ऐसी जंगें लड़ी जाती हैं। हिटलर के खिलाफ जंग लड़ना या ओसामा बिन लादेन के खिलाफ जंग लड़ना एक बात है और हिंद-पाक की जंग एक और बात है! हिंद-पाक के बीच विवाद का एक मसला है, यह है काश्मीर का मसला। हिटलर या बिन लादेन के लिए नस्लवाद और धर्मयुद्ध के सिद्धांत सामने थे। यह सच है कि विवाद के मसले उनके भी थे, पर उन्होंने विकृत वैचारिक ज़मीन के जरिए इन विवादों को सुलझाने की कोशिश की। वह सुलझाना कम और उलझाना अधिक था। भारत और पाकिस्तान कम से कम सतही तौर पर किसी नस्लवादी या धर्मयुद्ध जैसे राह पर नहीं हैं। हालांकि सांप्रदायिक हिंदुत्ववाद और इस्लामी कट्टररपंथ से दोनों देशों के शासक मुक्त हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। काश्मीर के मसले को औसत भारतीय मुसलमानों की शरारत और औसत पाकिस्तानी हिंदुओं की शरारत मानता है, इसीलिए दोनों देशों में इस मसले पर लोकतांत्रिक बहस का गंभीर अभाव है। काश्मीरी पृथकतावादियों को फिर भी अखबारों में थोड़ी बहुत जगह मिलती है, पर काश्मीर समस्या पर कैसे विकल्प हमारे सामने हैं, इस पर मुख्यधारा के विचारकों ने लोकतांत्रिक बहस बहुत कम की है।

मसलन, पिछले दो दशकों में विश्व में कई मुल्क टूटे; कई आर्थिक संबंधों में सुधारों के जरिए बहुत करीब हुए। रूस का विभाजन हुआ, चेकोस्लोवाकिया टूटा, दूसरी ओर यूरोपी संघ बना। यूरोप के दस देशों के बीच संधि के अनुसार उनकी सीमाएँ प्राय: विलुप्त हो गईं। पूर्वी तिमोर अभी कल ही आज़ाद हुआ। ऐसी स्थिति में भारत का `काश्मीर हमारा अविच्छिन्न अंग है' कहना और पाकिस्तान का काश्मीर को अपने में शामिल करने की रट बेमानी है। दोनों ओर आम लोगों को इसकी बेहिसाब कीमत चुकानी पड़ी है। भारत को प्रतिदिन सवा सौ करोड़ रूपए काश्मीर पर खर्च करने पड़ते हैं। दोनों मुल्कों के बीच करीब दस हजार वर्ग किलोमीटर की उपजाऊ जमीन अधिकतर बेकार पड़ी रहती है। काश्मीर से गुजरात तक सीमा पर यातायात, व्यापार, सब कुछ बंद है। विश्वव्यापार की बदलती परिस्थितियों में यह स्थिति सोचनीय है। मानव विकास के आंकड़ों में विश्व के दो-तिहाई देशों से पीछे खड़े ये मुल्क अरबों खर्चकर आयातित तकनीकी से नाभिकीय विस्फोट करते हैं और शस्त्र बनाने वाले मुल्कों को धन भेजते रहते हैं।

क्या काश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं है? क्या भारत और पाकिस्तान की जनता इतनी बेवकूफ है कि ये 'यह ज़मीन हमारी है' कहते-कहते खुद को और आनेवाली पीढ़ियों को तबाह कर के ही रहेंगीं। सोचा जाए तो विकल्प कई हैं पर क्या ये शासक आपस में बात करेंगे? क्या ये लोगों को समाधान स्वीकार करने के लिए तैयार करेंगे? क्या विभिन्न राजनैतिक पार्टियाँ सत्ता पाने के लिए काश्मीर के मसले से खिलवाड़ रोकेंगीं?

काश्मीर पर कई बातें आम लोगों तक पहुंचाई नहीं जातीं। वैकल्पिक समाधान क्या हैं? पहला तो यही कि कम से कम पचीस या पचास सालों तक नियंत्रण रेखा को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए और सीमा पर रोक हटा दी जाए। सांस्कृतिक और व्यापारिक आदान-प्रदान पूरी तरह चालू किया जाए। नियत अवधि के बाद मतगणना के जरिए काश्मीर का भविष्य हमेशा के लिए तय हो। पूरे क्षेत्र को असामरिक (डी-मिलिटराइज़ड) घोषित किया पाए और संयुक्त राष्ट् संघ को वहां शांति बहाल करने के लिए कहा जाए। इसका दो-तिहाई खर्च भारत और एक-तिहाई पाकिस्तान दे।

काश्मीर को पूरी तरह आज़ाद घोषित करना भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में हो सकता है। अगर ऐसा हो, आने वाले दशक में आर्थिक संबंधों में सुधार के साथ दक्षिण एशिया में देशों का एक महासंघ बन सकता है। ज़रा सोचिए, हमें कैसा काश्मीर चाहिए, जहाँ हम जाने से डरते हों या जहाँ खुशी से जाएं और सम्मान के साथ लौटें! एक आखिरी विकल्प है अभी से दक्षिण एशियाई व्यापार संघ की ओर तेजी से कदम उठाना। यह एक तरह हिंद पाक का फिर से इकट्ठा होना जैसा होगा। फिलहाल तो यह एक फंतासी है। पर सोच कर देखें तो करोड़ों खर्च कर एक दूसरे की हत्या करने की तुलना में यह फंतासी भी अधिक संभव होनी चाहिए। सच है कि हिंदू मुसलमान आपस में टकराते रहेंगे, क्योंकि सांप्रदायिक राजनीति खत्म नहीं होगी। पर मौत का भी हिसाब होता है एक युद्ध दर्जनों सांप्रदायिक दंगों से बदतर है। हर युद्ध का लंबे समय तक देश कि आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। आवश्यक सामग्रियों की कीमतें बढ़ती हैं। असुरक्षा का माहौल वर्षों तक बना रहता है।

दक्षिण एशिया के आम आदभी का भाग्य फिलहाल तो किसी समाधान से दूर ही नजर आता है। विडंबना यह है कि ऐसी पार्टी देश को नेतृत्व दे रही है जिसके कुछ लोगों ने गुजरात में खुले आम कत्लेआम करवाया और साम्यवादियों के अलावा समूचा विपक्ष अनके साथ जंग का शोर मचा रह़ा है। ऐसे में देश की जनता को तय करना है कि इस जुनून में उसका क्या फायदा हो रहा है। अगर देश में लोकतंत्र है तो लोगों को सरकार से पूछना होगा कि आखिर काश्मीर मसले पर वह पाकिस्तान से बात करने में कतराती क्यों है? देशहित या सत्ता का लालच - शासकों की नीतियों की प्रेरणा का स्रोत सचमुच क्या है? अभी तो ऐसा लगता है कि जहाँ एक ओर आतंकवादी गुटों को पाकिस्तान की सरकार के कुछ हिस्सों का सक्रिय समर्थन है, वहीं दूसरी ओर कई मामलों में भारत की सरकार का रवैया नैतिक दृष्टि से सरासर गलत है। बातचीत के रास्ते बंद कर देना, उच्चायुक्त स्तर के अधिकारियों को वापस बुलाना - ये गुस्सा तो जाहिर करती हैं, पर कोई समाधान नहीं देतीं।

हमें देर-सबेर यह समझना होगा कि बड़ी ज़मीन से देश बड़ा नहीं होता है। जंगखोरी किसी भी मुल्क की तबाही की गारंटी है। हमारे संसाधन सीमित हैं। काश्मीर समस्या के सभी विकल्प तकलीफदेह हो सकते हैं, पर इस भावनात्मक जाल से हमें निकलना होगा और देश की बुनियादी समस्याओं के मद्देनजर दुनिया के और मुल्कों की तरह हमें भी कुछ तकलीफदेह निर्णय लेने होंगे। इसमें जितनी देर होगी, उसमें हमारी ही हार है।

जहां तक जंग का सवाल है, अनगिनत विचारकों ने यह लिखा है कि `सीमित युद्ध' या `लिमिटेड वार' नाम की कोई चीज अब नहीं है। दोनों मुल्कों के पास नाभिकीय शस्त्र हैं। दोनों ओर कट्टरपंथ और असहिष्णुता है। अगर जंग छिड़ती है तो दोनों मुल्क में लाखों लोगों को जानमाल का गंभीर खतरा है और इस बंदरबाँट में अरबों रूपयों के शस्त्र और जंगी जहाज बेचनेवाले मुल्कों को लाभ ही लाभ है।

प्रसिद्ध अमेरिकी काथाकार रे ब्रेडबरी ने 1949 में नाभिकीय युद्ध के बाद की स्थिति पर एक कहानी लिखी थी, जिसमें सेरा टीसडेल नामक कवि की ये पंक्तियां हैं:

"हल्की फुहारें आएंगी और महक जमीं की होगी
और चिंचियाती चकरातीं चिड़ियाएँ होंगी.....

...कोई नहीं जानेगा जंग के बारे में कोई नहीं
सोचेगा जब जंग खत्म हो चुकी होगी

किसी को नहीं फर्क पड़ेगा, न चिड़िया न पेड़ों को
जब आदमजात तबाह हो चुकी होगी

और जब सुबह पौ फटेगी
हमारे न होने से अंजान खुद बहार आएगी"

अगस्त 2026की इस कल्पना कथा में रे ब्रैडबरी ने सिर्फ एक कुत्ते को जीवित दिखाया है। इंसान की बची हुई पहचान उसकी छायाएँ हैं जो विकिरण से जली हुई दीवारों पर उभर गई हैं। बाकी उस की कृतियाँ हैं- पिकासो और मातीस की कृतियाँ जिन्हें आखिरकार आग की लपटें भस्म कर देती हैं। कहानी के अंत में कुत्ते की मौत के साथ इंसान की पहचान भी विलुप्त हो जाती है।

नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल ऐसी कल्पनाएँ पैदा कर सकता है। वास्तविकता कल्पना से कहीं ज्यादा भयावह है। अब नाभिकीय या ऐटमी युद्ध की जो क्षमता भारत और पाकिस्तान के पास है, उसकी तुलना में हिरोशिमा नागासाकी पर डाले एटम बम पटाखों जैसे हैं। मौत के सौदागरों पर किसको भरोसा हो सकता है? जो राष्ट्रभक्ति या धर्म के नाम पर दस लोगों की हत्या कर सकते हैं, वे दस लाख लोगों को मारने के पहले कितना सोचेंगे, कहना मुश्किल है। पारंपरिक युद्ध में भारत की जीतने की संभावना अधिक है। पाकिस्तान के राष्ट्रीय बजट का सामरिक खाते में जो भी अनुपात खर्च होता हो, कुल निवेशित राशि में वह भारत की बराबरी नहीं कर सकता। अगर पारंपरिक युद्ध में पाकिस्तान हारता है तो वह ऐटमी शस्त्रों का उपयोग करने को मजबूर होगा। जवाबी कार्रवाई में भारत भी ऐसा ही करेगा। इसके बाद की स्थिति में कम से कम सौ सालों तक दक्षिण एशिया क्षेत्र में जी रहे लोगों को इस भयंकर तबाही का परिणाम भुगतना पड़ेगा। आज सीना चौड़ा कर निर्णायक युद्ध और मुँहतोड़ जवाब की घोषणा करने वालों के कूच करने के बाद की दसों पीढ़ियों तक विनाश की यंत्रणा रहेगी। लिमिटेड वार की जगह हमें आलआउट यानी पूर्णतः नाभिकीय युद्ध ही झेलना पड़ेगा।

इसलिए भारत पाक तनाव के बारे में हर समझदार व्यक्ति को गंभीरता से सोचना होगा। मीडिया की जिम्मेदारी इस बार पहले से कहीं ज्यादा है। आम लोगों को भड़काना आसान है। देश की मिट्टी, हवा पानी से हम सबको प्यार है। वतन के नाम पर हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं। इस भावनात्मक जाल से लोगों को राजनेताओं ने नहीं निकालना। यह काम हर सचेत व्यक्ति को करना है। जहाँ पाकिस्तान में सभ्य समाज का नारा दे रहे कुछ लोग जंग के विरोध में खड़े हए हैं, उसी तरह हमें भी समझना होगा कि इस वक्त सबसे वड़ा संकट जंगखोरों द्वारा हम और आनेवाली पीढ़ियों को निश्चित विनाश की ओर धकेला जाना है।

रे ब्रैडबरी की अगस्त 2026 की कल्पना को साकार करना भी हमारे हाथों में है, जब हम न होंगे, बहार होगी, फुहारें होंगी। यह भी काश्मीर समस्या का एक विकल्प है। जंगखोरों के पास काश्मीर समस्या का यही एक समाधान है। न्यूक्लीयर बटन यानी नाभिकीय शस्त्रों का इस्तेमाल और कुछ ही मिनटों में कहानी खत्म।

क्या यही विकल्प हम चाहते हैं? नहीं, सीमा के दोनों ओर लोग शांति चाहते हैं। हम शिक्षा, रोजगार और स्वस्थ जीवन चाहते हैं। इसलिए काश्मीर समस्या के समाधान के लिए जंग के खिलाफ हम खड़े होंगे। काश्मीर के लोगों को भी यह अधिकार मिले कि वे सुरक्षित जीवन बिता सकें और अपने बच्चों को पढ़ते लिखते और खेलते देख सकें - जंग विरोधी मुहिम में यह भी हमें कहना है।
जंग नही; जंग नहीं-आइए हाथ उठाएँ हम भी!

Sunday, April 04, 2010

हमें खुद से लड़ना है

हाल में लिखी मेरी एक कविता, जो एक ज़िद्दी धुन ब्लाग पर पोस्ट हुई है, पर कुछ टिप्पणियाँ इस तरह से आई हैं कि इसमें एक बड़े कवि को निशाने पर लेने की कोशिश है। यह सच है कि कविता लिखते हुए जनसत्ता में हाल में प्रकाशित विष्णु खरे के हुसैन पर लिखे आलेख से मैं परेशान था, पर मेरा मकसद विष्णु जी पर छींटाकशी करने से नहीं था। मैं समझता हूँ हमलोगों में सांप्रदायिक सोच व्यापक पैमाने में मौजूद है। विष्णु जी के लेख से परशानी होती है क्योंकि वे हमारे आदर्श कवियों में से हैं। पर यह सोचना कि बाकी हम लोग संकीर्ण पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, बचकानी बात है। हमें खुद से लड़ना है - दूसरों को दिखलाते रहने से काम नहीं चलेगा। बहरहाल मैंने निम्न टिप्पणी उसी ब्लाग पर पोस्ट की है।

'मैंने तो सिर्फ अपनी मनस्थिति का बयान किया है। सवाल यह नहीं कि कौन अपराधी है, सवाल यह है कि बहुसंख्यक लोगों की संस्कृति(यों) और परंपराओं के वर्चस्व में जीते हुए हममें से कोई भी मुख्यधारा से अलग मुद्दों पर किस हद तक खुला दिमाग रख सकता है। कहने को हम किसी एक कवि या लेखक को निशाना बना सकते हैं, पर मेरा मकसद यह नहीं है, मैं एक तरह से खुद को निशाना बना रहा हूँ। किसी भी बड़े और सजग कवि से तो मैं सीख ही सकता हूँ। अगर एक सचेत कवि की किसी बात में हमें किसी प्रकार की संकीर्णता दिखती है, तो मैं या कोई और भी उस संकीर्णता से मुक्त हों, ऐसा नहीं हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि हममें से हर कोई इस बात को सोचे कि हम कितनी ईमानदारी से जो कहते हैं उसको वाकई अपने जीवन में जीते हैं। मुझे लगता है कि हमें आपस की खींचातानी या किसी एक कवि या लेखक का नाम लेकर बहस करने से बचना चाहिए। मैं अक्सर देखता हूँ कि इस तरह की बहस से मूल बात हाशिए पर चली जाती है। अपनी कमजोरियों और पूर्वाग्रहों को समझते हुए और उन्हें स्वीकार करते हुए ही हम बेहतरी की ओर बढ़ सकते हैं।'