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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Saturday, May 27, 2006

राममोहन और ब्रिस्टल

एक अरसे बाद ब्लाग लिखने बैठा हूँ। पिछ्ले डेढ महीने से इंग्लैंड में हूँ। ब्रिस्टल शहर में डेरा है। लिखने का मन बहुत करता रहा, पर खुद को बाँधे हुए था कि काम पर पूरा ध्यान रहे।

जिस दिन सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने राजा की मूर्ति देखी, बहुत सोचता रहा. यह तो पता था कि राममोहन इंग्लैंड में ही गुज़र गए थे, पर किस जगह, यह नहीं मालूम था। 1774 में जनमे राममोहन 1833 में यहाँ आकर वापस नहीं लौट पाए। उनकी कब्र यहाँ टेंपल मीड रेलवे स्टेशन के पास आर्नोस व्हेल कब्रिस्तान में है

राममोहन का जमाना भी क्या जमाना था! बंगाल और अंततः भारत के नवजागरण के सूत्रधार उन वर्षों में जो काम राममोहन ने किया, सोच कर भी रोमांच होता है। हमने सती के बारे में बचपन में कहानियाँ सुनी थीं। जूल्स वर्न के विख्यात उपन्यास ‘अराउंड द वर्ल्ड इन एइटी डेज़’ में पढ़ा था। जब झुँझनू में 1986 में रूपकँवर के सती होने पर बवाल हुआ, तो बाँग्ला की जनविज्ञान पत्रिका ‘विज्ञान ओ विज्ञानकर्मी’ ने राममोहन का लिखा ‘प्रवर्त्तक - निवर्त्तक संवाद’ प्रकाशित किया, जिसे पढ़कर उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति मन में अगाध श्रद्धा भी हुई। यह अलग बात है कि उनके तर्कों को आज भी हमलोग समझना नहीं चाहते हैं। इसीलिए तो हालैंड से आया पड़ोसी बेन्स मुझे हाल में उत्तर प्रदेश में हुई सती की घटना के बारे में पूछता है। वह जानना चाहता है इस बारे में मेरी राय क्या है। राय क्या? अपराधियों को पकड़ो और उम्र भर की सजा दो। इन मामलों में मैं विशुद्ध आधुनिक हूँ। पर मन विषाद से भर जाता है। (तस्वीरें ब्रिस्टल की सरकारी वेबसाइट से)

राममोहन यहाँ आकर भी खुश तो नहीं रह पाए होंगे। समुद्र से थोड़ी दूर बसे इस शहर में गुलामों के व्यापार का अड्डा था। गुलामों को अफ्रीका से भेजा जाता था, पैसे आते थे अंग्रेज़ व्यापारियों के पास। उन दिनों तक यह व्यापार मंदा पड़ने लगा होगा, क्योंकि 1777 में अमरीका अलग हो चुका था, पर व्यापारियों के पास हर परिस्थिति में पैसे कमाने के तरीके होते हैं। यहाँ औद्योगिक संग्रहालय में गुलामों के व्यापार पर पूरा एक हिस्सा है, जिसमें इन बातों पर प्रदर्शनियाँ हैं। हाल में एक टी वी चैनेल द्वारा इस बात पर लोगों से मत लिए गए थे कि उन्हें गुलामों के व्यापार के घिनौने इतिहास के लिए माफी माँगनी काहिए या नहीं। 91% लोगों ने माफी माँगने के खिलाफ मत दिया। वैसे भी आज की पीढ़ी इतिहास के बारे में सोचना नहीं चाहती, इसलिए मुझे तो इसी बात पर आश्चर्य था कि ऐसा मत माँगा भी गया। शायद टी वी चैनेल्स को कभी कभी इतिहास का मजाक उड़ाने लायक सामग्री भी चाहिए।


बहरहाल, आज इतना ही। अरे भई, हमें तो इतना ही लिखने के लिए कोई अवार्ड मिलना चाहिए। इतने दिनों के बाद टाइप कर रहा हूँ, दम निकला जा रहा है।

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4 Comments:

Blogger रवि रतलामी said...

और हम जानने की कोशिश रहे थे कि रोज लिखने वाले लाल्टू जी कहाँ ग़ायब हो गए हैं :)

5:43 PM, May 27, 2006  
Blogger विजय वडनेरे said...

बाय द वे, आप आजकल जिस शहर में हैं उसका संबंध धुम्रपान दण्डिका बनाने वाली कम्पनी से भी है क्या? नाम तो यही दर्शाता है. :)

8:32 AM, May 28, 2006  
Blogger Sunil Deepak said...

कम्पाला के पेनआफ्रिकन नेटवर्क के ताजूद्दीन अब्दुल रहीम ने २५ मई को अफ्रीका दिवस के अवसर पर लिखा था था कि आज अगर यूरोप जाने के लिए गुलाम ढ़ूँढ़ने का विज्ञापन दे लाखों अफ्रीकी युवक लाईन में खड़े हो जायेंगे, यह कहने के लिए कि वह गुलाम बनने के लिए तैयार हैं. बहुत विचारोतेजक लेख है अगर पढ़ना चाहे तो http://www.pambazuka.org/en/category/features/34496 पर पढ़ सकते हैं.

10:42 AM, May 28, 2006  
Blogger Pratyaksha said...

बडे दिनों बाद आपको पढा.आगे भी लिखें. जब क्राई माई बिलवेड कंट्री पढी थी तब कई मुद्दों पर सोचा था, कई बातों से सहमति नहीं हुई.
हाँ, किल अ मॉकिंगबर्ड बहुत अच्छी लगी थी..गुलामी ,रेशियलिस्म..ये सब मुद्दे हमेशा रहेंगे अलग अलग रूप में, अलग अलग तरीके से.इन्हेशायद कम ही किया जा सकता है, मिटाया नहीं

12:35 PM, May 29, 2006  

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