Tuesday, December 31, 2013

अँधेरे के बावजूद


सबको नया साल मुबारक।

अँधेरे के बावजूद

यह जो गाढ़ा सा अटके रहने का हिसाब है
लंबे अरसे से तकरीबन उस बड़े धमाके के वक्त से चल रहा है
जब हम तुम घनीभूत ऊर्जा थे
यह हिसाब यह दुखों सुखों की बही में हल्के और भारी पलड़े को जानने की जद्दोजहद
यह चलता चलेगा लंबे अरसे तक
तकरीबन तब तक जब सभी सूरज अँधेरों में डूब जाएँगे
और हम तुम बिखरे होंगे कहीं किसी अँधेरे गड्ढे में
इस हिसाब में यह मत भूलना कि
निरंतर बढ़ते जाते दुखों के पहाड़ के समांतर
कम सही कुछ सुख भी हैं
और इस तरह यह जानना कि हमारे सुख का ठहराव
उन सभी अँधेरे गड्ढों के बावजूद है जो हमारे इर्द गिर्द हैं
कि कोई किसी की भी जान ले सकता है बेवजह
या कि कोई वजह होती होगी किसी में जाग्रत दहाड़ते दानव होने की
कोई कहीं सुंदरतम क्षणों की कल्पनाओं मे डालता तेजाब
चारों ओर चारों ओर ऐसी मँडराती खबरें
इन्हीं के बीच बनाते जगह हम तुम
पल छूने के, पल पूछने के कि तुम क्यों हँसते हो
और यह जानने के कि थोड़ा सही कम नहीं है सुख
परस्पर अंदर की गलियों में खिलखिला आना
मूक बोलियों में कायनात के हर सपने को गाना।
(रविवारी जनसत्ता - 2013)

Thursday, December 26, 2013

जेंडर प्रसंग में एक बातचीत




एक रोचक बातचीत को समेट कर ढ़ंग से कुछ लिखना चाहता था, पर कर नहीं पाया। इसलिए जो बातें हुईं, उसी को थोड़े से संपादन के साथ फिलहाल पोस्ट कर रहा हूँ, ताकि किसी को कोई काम की बात लगे तो बढ़िया।
एक युवा कवि आलोचक साथी ने FB पर लिखा है -


'मैत्रेयी पुष्पा मेरी अत्यंत आदरणीय और प्रिय लेखिका हैं लेकिन उनके कल के बयान से, कि पुरुष हर हाल में सहमत होता है, मैं एकदम असहमत हूँ.


उनका बयान पढ़कर ऐसा लगता है कि हर पुरुष हर समय हर किसी के साथ यौन क्रिया में संलग्न होने के लिए तैयार बैठा रहता है. ठीक है, पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक और भोग्या में तब्दील करने की पूरी कोशिश की है. लेकिन इस क़दर सामान्यीकृत बयान को निजी अनुभवों भर से खारिज किया जा सकता है.


क्या आपने ऐसे पुरुष नहीं देखे जिन्होंने प्रेम प्रस्ताव ठुकराए हों? जिन्होंने सहज उपलब्ध अवसर का "उपयोग" करने से इनकार कर दिया हो? जिनकी एकांत संगत में भी महिला सहज रही हो? जो यौन पशु न हों?


स्त्रीवाद को लेकर मुझे हमेशा लगता है कि हिंदी साहित्य में इसका झंडा बुलंद करने वालों ने शायद इसका ककहरा भी ठीक से नहीं पढ़ा और वायवीय उग्र मर्द विरोध तथा उग्रतर शाब्दिक प्रहार के भरोसे चलने वाले इस कथित विमर्श का सबसे मजेदार पहलू यह है कि इसके अधिकतर नायक/नायिका सुखी-सफल-परिवारों के सफल एवं अनुकूलित सदस्य हैं.'
**********


इस पर निजी तौर पर भेजी मेरी टिप्पणी -
मैत्रेयी पुष्पा के बयान पर तुमने जो लिखा है, वह स्त्री-पुरुष के मौजूदा सामाजिक द्वंद्व को नहीं, मैत्रेयी पुष्पा को एक व्यक्ति विशेष की तरह देखते हुए लिखा है। क्या यह संभव है कि जिस प्रसंग में बात छिड़ी है, उसमें मैत्रेयी को हम सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में देखें और 'स्त्री' की द्वंद्वात्मक अस्मिता को न देखें। साथ ही तुम कुछ 'स्त्रीवादियों' की बात कर रहे हो, यानी सामाजिकता को कुछेक सीमित संदर्भों में लाने की कोशिश कर रहे हो। सचमुच स्त्रीवादियों से क्या झगड़ा हो सकता है स्त्रीवाद एक लोकतांत्रिक और साम्य आधारित समाज के लिए संघर्ष है, जिसके विमर्ष में स्त्री-पुरुष के द्वंद्व को केंद्र में रखा जाता है।


हमलोग अपनी रेटरिक और पोलेमिक्स से न केवल आपस में एक दूसरे को चोट पहुँचाते रहते हैं, हम अक्सर उन लोगों को चोट पहुँचाते हैं, जिनको हम नितांत अपना देखना चाहते हैं।
इसी बात को समझ कर कुछ दशकों पहले हमलोग कहा करते थे कि समय आ गया है कि हम कहना शुरू करें 'Let us agree to disagree'.  पर स्थिति सुधरी नहीं है।


मैं लंबे समय से सोचता और कहता रहा हूँ कि स्त्री मुक्ति का सवाल स्त्री का कम और पुरुष मुक्ति का सवाल ज्यादा है। हम यह समझने की कोशिश कितनी करते हैं कि किसी प्रसंग पर राय बनाते हुए हम अपनी पुरुष अस्मिता से बरी नहीं होते।  मैत्रेयी के बयान पर नज़रिया और response यह भी हो सकता है - मैत्रेयी ने एक ज़रूरी बात पर ध्यान दिलाया है। स्त्री-पुरुष के मौजूदा सामाजिक द्वंद्व पर यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है। आपसी रिश्तों में औसतन स्त्री की अपेक्षा पुरुष की प्रतिबद्धता कम दिखती है। इससे संबंध तो टूटते ही हैं, लगातार तनाव और अवसाद का जीवन जीने के लिए दोनों मजबूर होते हैं। इसे समझे बिना किसी भी पुरुष की मुक्ति के संघर्ष की शुरूआत असंभव है।


 'औसतन' कहने से ही हम यह कह देते हैं कि अपवाद भी हैं। इतना अपने पुरुष अहं को संतुष्ट करने के लिए काफी होना चाहिेए।


बड़ा सवाल :
हम सामाजिक बदलाव चाहते हैं या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमें ही सारे सच मालूम हैं - इस पर गंभीरता से सोचना पड़ेगा। थोड़ा सा self-doubt और ढाई आखर प्रेम का साथ रख कर चलना वाम  का नारा होना चाहिए।


किसी भी संकट के रिश्ते में लोकतांत्रिक सोच और समझ के व्यक्ति को खुद को उस पक्ष में खड़े करने की कोशिश करनी चाहिए जो पीड़ित का पक्ष है।अक्सर लगता है कि हमने पीड़ितों के पक्ष में खड़े होना सही सही सीखा ही नहीं। अपनी पोलेमिक्स में हम बौद्धिक तलवारें भाँजते रहते हैं - इससे गले कटते नहीं; दोस्त कटते हैं।


हममें से हर कोई मार्क्स नहीं है, न ही हमसे थोड़ा पहुत मतभेद रखने वाले दोस्त प्रूधों हैं कि हम हर बातचीत अपनी 'वैज्ञानिक' कसौटी पर तौल कर ही करें (हाँ, 'वैज्ञानिक' कसौटियाँ भी अक्सर अपनी-अपनी होती हैं)


बहरहाल इसी बहाने मेरी तीन पुरानी कविताएँ -


अर्थ खोना ज़मीन का
मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिण्डलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना 
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का.
(
हंस — 1998; मुक्तिबोध - 1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)

डरती हूँ

जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अन्दर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी स्वास
अन्दर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर.
(
हंस -  1998; 'लोग ही चुनेंगे रंग' (शिल्पायन 2010) में शामिल)
तीसरी कविता (शीर्षक 'उसकी कविता') पहले कभी पोस्ट कर चुका हूँ, इसलिए यहाँ नहीं डाल रहा।
साथी ने फिर इसका जवाब दिया -
'ज़ाहिर है कि मैं मैत्रेयी जी से असहमत था. इसे मैंने यथासंभव आदर और सम्मान के साथ ही दर्ज़ कराया. आगे एक कमेन्ट में भी लिखा कि नारीवाद से मेरा कोई झगडा नहीं, मैं उसका बहुत सम्मान करता हूँ और कई स्तर पर ख़ुद को उसके साथ पाता हूँ. सवाल यह है कि मैत्रेयी जी ने जो लिखा क्या वह स्त्रीवाद की कसौटी पर एक सही वक्तव्य है? दुर्भाग्य से नहीं. यह इस अराजक लेकिन सहज स्त्रीवाद की नारी बनाम पुरुष वाली मानसिकता से पैदा हुआ है जिसे अब अपनी चौथी लहर आते आते खुद नारीवाद तिरोहित कर चुका है.
कामना कोई पुरुषवाचक शब्द नहीं है, न ही सहमति कोई स्त्रीवाचक. मैत्रेयी जी ने तो खैर औसतन वाले कवच का उपयोग भी नहीं किया था, लेकिन मेरा मानना यह है कि अपवाद वे पुरुष हैं जो कभी भी, कहीं भी, किसी के साथ भी सेक्स के लिए तैयार होते हैं. यह एक मानसिक बीमारी है, विचलन है..सामान्य नियम नहीं और दुर्भाग्य से यह भी पुरुषवाचक नहीं.


उसी थ्रेड पर एक सहभागी ने कहा -


आगे यह बयान जो मैत्रेयी जी ने दिया है , उनका व्यक्तिगत मत है जो बहुत हद तक उनके व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित होगा। सम्भवतः उनके समय में अधिकाश मध्यवर्गी - सामंतवादी पुरुषों के लिए सत्य। परन्तु आज के समाज में यह बात ऐसे सामान्यीकरण के साथ नही कही जा सकती। 
दूसरी बात "हर समय सहमत होने" में भी कोई बुराई नही है। ।जब तक वह दूसरों कि सहमति/असहमति को स्थान देता रहे। हाँ जबर्दस्ती हर स्थिति में बुरी है। तो सहमत होना और जबर्दस्ती करने में फर्क है। इसलिए इसे इतने सरल तरीके से नही देखा जा सकता। 


जिसके भी जीवन में दैहिक सुख कि कमी होगी। वह अगर समाने वाले पर विश्वाश करता हो सहमत होगा। समझ नही आया इसमें गलत क्या है। शेष फिर कभी।
तो बात वहां नहीं है साथी, जहाँ से आप देख रहे हैं. विमर्श के नाम पर "कुछ भी" को बर्दाश्त करना, इस हद तक अपोलोजेटिक होना दूसरे विचलनों को जन्म देता है. दृढ़ता और सौजन्यता विरोधी शब्द नहीं हैं.'


फिर मैंने लिखा -


मेरे खयाल से 'स्त्रीवाद का ककहरा भी नहीं पढ़ा'  (अभी सामने नहीं है, पर ऐसा कुछ तुमने लिखा है)- ऐसी बातों से हमें बचना चाहिए।


 'नारी बनाम पुरुष वाली मानसिकता' वाला कोई सहज स्त्रीवाद कभी भी नहीं रहा। यह स्त्री-विरोधी प्रचार है कि ऐसा कुछ था।


 जैसा हर आंदोलन में होता है, कुछ लोग उग्रता से अपनी बात रखते हैं (ऐसा ही वह 'सहज स्त्रीवाद' रहा है, प्रखर अंदाज़ में 'पुरुष मानसिकता' के खिलाफ बात कहनी जो दूसरों को 'पुरुष विरोधी' लगती है)


स्त्रीवाद में बुनियादी स्तर पर विविधता नहीं, स्त्रीवादियों में संघर्ष के रास्ते और प्रमुख सवालों  के चुनाव की विविधताएँ रही हैं। किसी भी चरण पर स्त्रीवाद के बुनियादी सिद्धांतों में कभी कोई बदलाव नहीं आया। पहली लहर में ही सहमति के आधार पर यौन-संबंधों की छूट पर जोर था, बाद के चरणों में इस मुद्दे पर जोर कम हुआ और मेहनताना में बराबरी, नस्ल और वर्ग के सवाल, सुरक्षा के सवाल, इन पर जोर बढ़ा। बेटी फ्रीडन ने अस्सी के शुरूआती सालों में एक आलेख में पहले चरणों के खुलेपन पर सवाल उठाया। फायरस्टोन शुलामिथ ने स्त्रीवाद को द्वंद्वात्मक आधार देते हुए किताब लिखी। अमेरिका की काली औरतों और तीसरी दुनिया की औरतों ने यौन से इतर नस्ल और वर्ग संबंधी दूसरे सवालों को मुख्य मुद्दे बनाने का संघर्ष शुरू किया।


किसी साथी का जो कमेंट तुमने उद्धृत किया है, उसी से एक बात और - 'सम्भवतः उनके समय में अधिकाश मध्यवर्गी - सामंतवादी पुरुषों के लिए सत्य। परन्तु आज के समाज में यह बात ऐसे सामान्यीकरण के साथ नही कही जा सकती। '
क्या आज का मध्य-वर्ग सामंती नहीं है?


आगे साथी ने लिखा है कि 'समझ में नहीं आया'
उत्पीड़न की अभिव्यक्ति शब्दों में इस तरह हो जो हमेशा साफ-साफ समझ में आए, ऐसी 'तर्कशीलता' सच जानने में बाधा पैदा करती है। ऐसा बहुत कुछ है जो कहा नहीं जाता, इसलिए हम कुछ कह बैठते हैं जो 'विमर्श के नाम पर "कुछ भी" लगता है। मैंने अपनी पुरानी कविताएँ इसलिए साझा कीं कि शायद उनमें ऐसी कुछ बातों की ओर इशारा है।
मेरा सुझाव यह है कि इस "कुछ भी" लगती बातों को सहानुभूति से न केवल 'बर्दाश्त करना', बल्कि इससे भी आगे, उस "कुछ भी" में से 'कुछ' ढूँढना, इस प्रक्रिया को हमने अपनी सोच में पुख्ता नहीं किया है। 


बर्दाश्त करना अपोलोजेटिक होना नहीं है। बात तो बर्दाश्त करने से भी आगे की है।


 मुझे कुमार विकल की ये पंक्तियाँ बहुत पसंद हैं -
मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे।


मैं इसको उलट कर पढ़ना चाहता हूँ - मार्क्स और लेनिन जब नहीं सोए थे, उसके पहले वे रोए थे।
रोना विचलन नहीं होता। यह हमारे आगे जागते रहने के लिए ज़रूरी है।


मैं मानता हूँ कि बातें जटिल हैं - यही कहना भी चाहता हूँ।




Saturday, December 07, 2013

अलविदा मांडेला - हम भूलेंगे नहीं 'अमांडला अंवेतू'


आज जनसत्ता में पहले पन्ने पर  प्रकाशित स्मृति आलेख:

'अमांडला अंवेतू!' - सत्ता किसकी, जनता की! यह नारा अस्सी और नब्बे के दशकों में दुनिया के सभी देशों में उठाया जाता था। हमारे अपने 'इंकलाब ज़िंदाबाद' जैसा ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय आवाज थी।
जब नेलसन मांडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे, बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए, हर जगह यह नारा गूँजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हाजारिका के साथ ही नहीं, सड़कों पर आ कर लोगों ने 'मांडेला, मांडेला' की गूँज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया, 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया के सबसे खतरनाक जेलों में से माने जाने वाले रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी, जो सीने के आर पार हो गई थी।

नेल्सन रोलीलाला मांडेला बीसवीं सदी का अकेला ऐसा व्यक्ति था, जिसने अपने जीवन काल में समूची धरती पर अन्याय के खिलाफ लोगों को, खास कर युवाओं को सड़कों पर उतर आने को प्रेरित किया था। गाँधी जी ने 1894 में दक्षिण अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों को संगठित कर नेटाल इंडियन कांग्रेस बनाई। इसी से प्रेरित होकर सभी अश्वेतों के अधिकारों की रक्षा के लिए आफ्रीकन नेटिव नैशनल कॉंग्रेस 1912 में बनी, जो बाद में आफ्रीकन नैशनल कॉंग्रेस (ए एन सी) बन गई। सदी के आखिरी दशकों तक मांडेला और ए एन सी एक दूसरे के पर्याय बन गए। इसके पीछे 1962 में आजीवन कारावास में जाने से पहले दो दशकों तक उनका ज़मीनी काम था। 1944 में ए एन सी में शामिल होने के बाद वकालती करते हुए अपने साथी वकील ऑलिवर तांबो के साथ मिलकर वे बर्त्तानवी उपनिवेशवाद से ताज़ा आज़ाद हुए अपने मुल्क में नस्लवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ जनांदोलनों में पार्टी के झंडे तले जी जान से काम करते रहे। वे युवाओं के लिए पार्टी की शाखा उमखोंतो वे सिजवे (राष्ट्र की बरछी) के प्रमुख संस्थापकों में थे। 1948 में जब नस्लभेदी व्यवस्था 'अपार्थीड' औपचारिक रूप से देश की शासन-व्यवस्था बन गई और अलग-अलग नस्ल के लोगों के लिए भिन्न कानून बना दिए गए, ए एन सी और दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी ने मिलकर जोरों से विरोध शुरू किया। जल्दी ही मांडेला और साथी पकड़े गए और उन पर देशद्रोह का मामला चला। चार सालों के बाद निकले, पर तभी कुछ समय बाद ही शार्पविले में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई और 69 लोग मारे गए। इसके बाद मांडेला के नेतृत्व में ए एन सी ने 'अपार्थीड' के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। मांडेला जल्दी ही पकड़े गए और पहले मौत की सजा की संभावना होने के बावजूद आखिरकार उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। ए एन सी को विश्व स्तर पर सभी लोकतांत्रिक ताकतों से समर्थन मिलता था। गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता उन्हें मिली थी। भारत जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को उस जघन्य देश दक्षिण अफ्रीका में जाने से रोक लगा दी थी जहाँ वे अपनी पहचान के साथ नहीं, बल्कि 'ऑनररी ह्वाईट' बन कर ही जा सकते थे। वहाँ 11 नस्लें परिभाषित थीं। सत्तर के दशक में ए एन सी ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को कमजोर बनाने के लिए सभी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से आग्रह किया कि वे उस देश पर आर्थिक प्रतिबंध (एंबार्गो) लगाएँ। हर साल भारत और अन्य देश संयुक्त राष्ट्र संघ में आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव लाते और सोवियत रूस के समर्थन के बावजूद सुरक्षा परिषद में यू एस ए, यू के और फ्रांस जैसे देश वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद कर देते। इन मुल्कों की सरकारों पर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव था, जो दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापार कर करोड़ों कमा रहे थे। पर धीरे- धीरे अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया और खास कर यू एस ए के अफ्रीकी मूल के नागरिकों और दूसरे प्रगतिशील लोगों के पुरजोर विरोध के सामने उनकी न चली। यूनिवर्सिटियों में छात्रों ने, शहरों की पौर-सभाओं में कर्मचारियों ने लगातार विरोध करना शुरू किया और अंतत: पश्चिमी सरकारों ने दक्षिण अफ्रीका में व्यवस्था परिवर्तन के लिए दबाव डालना शुरू किया। 1 मई 1990 में मांडेला जोल से छूटे। 1994 में दक्षिण अफ्रीका में पहली सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती लोकतांत्रिक सरकार बनी। 1999 तक सरकार में राष्ट्रपति के पद पर रह कर मांडेला ने राजनीति से सन्यास ले लिया। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा वक्त विश्व-शांति के लिए लगा दिया। साल भर वे गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य सचिव भी रहे।

आखिरी वर्षों में मांडेला का दुनिया को सबसे अनोखा उपहार नोबेल शांति विजेता रेवरेंड डेसमंड टूटू के साथ मिलकर सोचा गया 'ट्रुथ ऐंड रीकंसीलिएशन कमीशन (सत्य और समझौता समति)' है। पुरानी बीमार मानसिकता वाली नस्लवादी व्यवस्था के अधिकारियों को सजा न देकर उनको अपना अपराध मान लेने को कहा गया। पुलिस की गोली खाकर मरे बच्चों की माँओं के साथ उन पुलिस अधिकारियों को बैठाया गया जिन्होंने गोलीबारी के आदेश दिए थे। दोषियों ने सच्चे दिल से अपना अपराध कबूल किया और पीड़ितों को राहत दी गई। मानवता का ऐसा आदर्श संसार के इतिहास में पहली बार देखा गया। मानव अधिकारों के हनन से जूझने का यह तरीका दूसरे विश्व-युद्ध के बाद हुए न्यूरेंबर्ग पेशियों की तुलना में अधिक सफल माना गया और कई देशों में ऐसे ही प्रयास होने लगे। इसके अलावा अंतर्रष्ट्रीय स्तर पर गरीबी दूर करने और एड्स के बारे में जागरुकता फैलाने और उसके उपचार के लिए व्यापक कोशिशों को बढ़ावा देने के लिए मांडेला ने काफी काम किया।


उन्हें कम्युनिस्ट कह कर खारिज करने वालों की कमी नहीं रही, पर अपनी ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उन्हें एक के बाद एक कोई 250 अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें 1993 का नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है। निजी तौर पर वे बड़े विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। ब्रिटेन की महारानी के न केवल उनके नाम 'एलिजाबेथ' से पुकारने वाले वे अकेले शख्सियत थे, उन्होंने मजाक में यहाँ तक कहा कि 'एलिजाबेथ, लगता है आप कमजोर हो गई हैं' - आखिर इसी रानी के साथ काम करने वाली 'लोकतांत्रिक' सरकार ने कभी कई दशकों तक नस्लवादी अपार्थीड सरकार को बचाए करने में भूमिका निभाई थी। कहीं और उन्होंने कहा कि मौत के बाद भी वे जहाँ भी जाएँ, ए एन सी का दफ्तर ढूँढेंगे।
ऐसे महान शख्सियत को अलविदा कहते हुए हम कभी न भूलें कि अभी हमें 'अमांडला अंवेतू!' कहते रहना है। अपनी ज़मीन पर खड़े जहाँ भी धरती पर बराबरी के संघर्षों में हम शामिल हैं, उनकी याद हमारे साथ होगी।


1984-1985 में मैं प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी, यू एस ए, में अपार्थीड सरकार के साथ व्यवसाय में लगाए पैसे को वापस लाने और मांडेला की रिहाई के लिए हुए आंदोलन में शामिल था। इससे जुड़ी कुछ बातें यहाँ।