Thursday, September 24, 2015

जब निर्मम हो जाओगी

और और सेरा टीसडेल - 

The Look


Strephon kissed me in the spring,
      Robin in the fall,
But Colin only looked at me
      And never kissed at all. 
Strephon’s kiss was lost in jest,
      Robin’s lost in play,
But the kiss in Colin’s eyes
      Haunts me night and day.

नज़र
बहारों में सत्तू ने चूमा था मुझे,
पतझड़ में रब्बी,
पर किसना ने नज़र उठाकर देखा भर था,
लेकिन नहीं चूमा भर कभी। 

सत्तू का बोसा हँसी हँसी भूल गया,
रब्बी का खेल खेल में,
पर किसना की नज़रों का चुंबन,
तड़पाए दिन रात खयाल में। 

Faults

They came to tell your faults to me,
They named them over one by one;
I laughed aloud when they were done,
I knew them all so well before,—
Oh, they were blind, too blind to see
Your faults had made me love you more.
खामियाँ
वे मुझे बताने आए खामियाँ तुम्हारी,
एक एक कर सुनाईं सारी;
सब कह चुके तो मैं हँसी भारी,
मुझे तो सब का पहले से पता था, -
ओह, उनकी नज़रें थीं धुँधली, बहुत ही धुँधली
तुम्हारी खामियों ने ही तो और करीब मुझको खींचा था ।

Four Winds

“Four winds blowing thro’ the sky,
You have seen poor maidens die,
Tell me then what I shall do
That my lover may be true.”
Said the wind from out the south,
“Lay no kiss upon his mouth,"
And the wind from out the west,
“Wound the heart within his breast,"
And the wind from out the east,
“Send him empty from the feast,"
And the wind from out the north,
“In the tempest thrust him forth,
When thou art more cruel than he,
Then will Love be kind to thee.”
चार हवाएँ 
"चार हवाओ, आस्माँ में बहती हो,
मरते देखा है तुमने बेचारी कुँवारियों को,
मुझे गुर सिखाओ कि कैसे
मेरा आशिक सच्चा रहे।"
कहा दक्खिनी हवा ने तब,
न देना उसको होंठों पर बोसा,”
बोली पच्छिम की हवा, 
चोट देना उसके सीने में धड़कते दिल को,”
और पूरब से हवा यह बोली,
खाली पेट भेज देना वापस दावत से उसको,”
और उत्तरी हवा की थी सलाह ये,
तूफानों में झोंके रखना उसे
जब उससे भी ज्यादा तुम निर्मम हो जाओगी
उसका प्यार तब भरपूर पाओगी।"
(सदानीरा - 2015)

Wednesday, September 23, 2015

मैं हूँ चकमक और आग

पिछले रविवार को भोपाल में 'जज़्बा' और 'विकल्प' के युवा साथियों द्वारा आयोजित कार्यक्रम में राजेश जोशी और मैंने कविताएँ पढ़ीं और कुछ बातचीत की। भोपाल और आसपास के कॉलेज से आए कई युवाओं ने अपनी एक-दो कविताएँ भी पढ़ीं। कविताओं का स्तर हताशाजनक था। बहरहाल यह अच्छा था कि करीब पचास युवा आए थे और कोई चार घंटे तक कार्यक्रम चला। 

सेरा टीसडेल की दो और कविताएँ यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, जिनका अनुवाद 'सदानीरा' में आया है - 

Moonlight

It will not hurt me when I am old,
     A running tide where moonlight burned
          Will not sting me like silver snakes;
The years will make me sad and cold,
          It is the happy heart that breaks.

The heart asks more than life can give,
     When that is learned, then all is learned;
          The waves break fold on jewelled fold,
But beauty itself is fugitive,
          It will not hurt me when I am old.

चाँदनी

बूढ़ी होने का मुझे कोई दुःख होगा नहीं,
धधकी चाँदनी में उमड़तीं लहरें
रुपहले विषधरों-सी नहीं डँसेंगी मुझे;
गुजरते हुए वक्त से ठंडी और ग़मगीन होती जाऊँगी मैं -
खुशहाल दिल ही टूटता है जो ।

सदा ही ज़िंदगी की सकत से दिल अधिक चाहता है,
यह समझ लो तो सब समझ लोगे;
लहरें सुनहरी तहों पर तहें बनाती रहतीं,
- हुस्न तो भगोड़ा है पर,
बूढ़ी होने का मुझको कोई दुःख नहीं होगा।

What Do I Care

What do I care, in the dreams and the languor of spring,
That my songs do not show me at all?
For they are a fragrance, and I am a flint and a fire,
I am an answer, they are only a call.

But what do I care, for love will be over so soon,
Let my heart have its say and my mind stand idly by,
For my mind is proud and strong enough to be silent,
It is my heart that makes my songs, not I.

मुझे क्या फर्क पड़ता है
मुझे क्या फर्क पड़ता है कि बहार के सपनों और नाज़ुकी में
अपने ही गीतों में कहीं नहीं हूँ मैं?
उनमें खुशबू है, और मैं हूँ चकमक और आग,
वे तो पुकार भर हैं और जवाब हूँ मैं।

मुझे क्या फर्क पड़ता है, इश्क का दौर जल्दी ही गुज़र जाए,
अक्ल हो बेकार, दिल की ही सुनूँगी मैं,
मेरे मन में गरूर है और इतनी ताकत कि वह चुप रहे
मेरे गीत मेरा दिल लिखा करता है, मैं तो नहीं।

Friday, September 18, 2015

मैं ढालूँगा ईश्वर को अपने ही साँचे में


मेरा ईश्वर




मैं जब नंगा होता हूँ

उस वक्त मैं सबसे खूबसूरत होता हूँ



मेरी माँ की छातियाँ बहुत खूबसूरत हैं

मुझे हल्का-सा याद है

बाप को सबसे खूबसूरत देखा था मैंने

जब देखा उसे वस्त्रहीन



सड़क पर घूमते जानवरों पक्षियों को नंगा ही देखा है

कोट पहने कुत्ते मुझे कोटधारी अफसरों जैसे लगते हैं

आषाढ़ में उन्मत्त जानवर क्या कर लेते

जब दहाड़ते बादल और उन पर लदे होते कपड़े



ऐ चित्रकारो मुझे मत दो वह ईश्वर

जो होता शर्मसार कपड़े उतर जाने से



मैं ढालूँगा ईश्वर को अपने ही साँचे में

जो फुदक सके चिड़ियों की तरह

मेरी तरह प्यार कर सके

रो सके प्रेम के उल्लास में

खड़ा हो सके मेरे साथ

उलंग हुसेन के चित्रों में।



(जलसा पत्रिका : 2010; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित)

Sunday, September 13, 2015

गीत गाते रहेंगे। हम पूछते रहेंगे



हम परचम बुलंद रखेंगे


ग़लत या सही, शोर है कि मुल्क तरक्की पर है। कैसी तरक्की? तक्नोलोजी की तरक्की। स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन वाली तरक्की। बड़ा अजीब वक्त है। हाल के एक ब्लॉग पोस्ट में बनारस के किसी संकठा जी का कथन है - ''इसको कुछ करने का जरूरते नहीं पड़ेगा। पब्लिक खुदै इसके विरोधियों का सफाया कर देगी। समझ रहे हैं न..'' हम समझ रहे हैं। आप चुनावी भाषण देते रहें। संसद में भी, मैदानों में भी, बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक सबको बेवकूफ बनाते रहें।

कोई कहता है कि कुछ लिखें। कलबुर्गी। बांग्लादेश में ब्लॉगर्स के कत्ल। दाभोलकर आदि भी।

'आदि'। ऐसा वक्त है। लोग मर रहे हैं। उनकी हत्याएँ हो रही हैं। हम इतने नाम याद नहीं रख सकते। वे दाभोलकर आदि हैं। वे पढ़े-लिखे हुनरमंद काबिल लोग थे। अपने लेखन, व्याख्यानों आदि से समकालीन भारतीय बौद्धिक चिंतन में उन्होंने स्थायी जगह बनाई थी। कलबुर्गी ने तो सौ से ज्यादा किताबें लिखी थीं। उन्हें कई राज्य-स्तरीय और राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे। उन्होंने कभी किसी को थप्पड़ मारा हो या गाली तक दी हो, ऐसा कोई सबूत मौजूद नहीं है। वे किसी राजनैतिक दल के साथ भी नहीं जुड़े थे। उनकी ज़ुर्रत कि समाज को तर्कशीलता की नसीहत दे बैठे थे। उन्हें लगता था कि हमारे लोग ढोंगियों से बचें और खुद सोचने के काबिल बन जाएँ तो उनकी ज़िंदगी बेहतर होगी। विरोधी राजनैतिक दल में होने से यह ज्यादा खतरनाक बात है। लोग सच समझने-जानने लगें तो पोंगापंथियों, फिरकापरस्तों की हैसियत क्या रहेगी? इसलिए उनका कत्ल होना था और हुआ। लोगों को अब आदत पड़ गई है कि हत्याएँ होती हैं। खुलेआम धमकियाँ दी जाती हैं, देश के प्रतिष्ठित साहित्यिकों को कहा जाता है कि वे क्या लिख सकते हैं और क्या नहीं। सचमुच इस मुल्क पर अँधेरा छा चुका है। शक होता है कि समय का पहिया किस ओर घूम रहा है।

किस बात को सच मानें? यह कि लोगों को उम्मीद थी कि सत्ता में आने के बाद हिंसक लोग सुधर जाएँगे और अच्छे शासन पर ध्यान देंगे। या कि जैसा हमने संसद के चुनावों के पहले कहा था कि ये लोग बीमार हैं, और समाज में नफ़रत फैलाना इनका धर्म है, ये अपने विरोधियों को चुन-चुन कर मारेंगे, वही हो रहा है। बांग्लादेश और पाकिस्तान में सरकारें कट्टरपंथियों से डरती हैं। वहाँ सरकार की चलती नहीं है। भारत में हमलोग क्या करें जब यहाँ सरकार ही कट्टरपंथी परिवार की है। फिरकापरस्तों की एक बड़ी फौज उनके साथ है जिनका तर्क यह होता है कि और मुल्कों में कट्टरपंथियों को देखो कि वे कितने बुरे हैं। यानी कि वे कहना चाहते हैं कि हम उनसे भी बुरे होकर दिखलाएँगे।
ऐसे में इस मुल्क का भविष्य क्या होगा, कहना मुश्किल है। धीरे-धीरे हम पाकिस्तान बनते जा रहे हैं। एक दिन उनसे भी बदतर हो जाएँगे। वैसे भी जिस पर मार पड़ी, उसके लिए क्या हिंद और क्या पाक? आत्महत्या करता किसान और मुजफ्फरनगर का मुसलमान किस मुल्क में है? यह पोंगापंथी राष्ट्रतोड़ू परिवार और इसके कारकुन इसी तरह सक्रिय रहे तो ज्यादा दिन तक मुल्क एक नहीं रह सकता। भारी जंग छिड़ेगी। हर मुहल्ले में जंग छिड़ेगी। दबंगों के पास असला होगा, उन के खिलाफ इंसान के जज़्बात होंगे। यह डर भी होता है कि वह हिंद-पाक जैसी जंग नहीं, उससे भी भयानक होगी।

तकलीफ यह है कि इतिहास के ऐसे दौर में जानबूझकर हम विनाश की ओर बढ़ते रहते हैं। जो लोग ऊपर से भले दिखते हैं और भोला बनने की कोशिश कर कहते हैं कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि हालात ऐसे हो जाएँगे, हम समझने की कोशिश करते हैं कि वे आखिर कैसे लोग हैं। ये लोग आज भी चुनाव हों तो इन्हीं कट्टरपंथियों को सत्ता में लाएँगे।
हमारे अंदर से एक आवाज़ कहती है कि अब और कुछ मत कहें। अभी अपने लफ्ज़ बचाकर रखें, कुछ तब काम आएँगे, जब हम भी दाभोलकर आदि में होंगे, हमारी हत्या होगी। और यह सोचते रहें कि क्या यही तरक्की होती है? स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन और भले लोगों की हत्याएँ!

हमारी फितरत कि हम ऐसी नसीहत नहीं मानते और गाते ही रहते हैं कि 'हो सके तो फिर कोई शमा जलाइए, इस दौर--सियासत का अँधेरा मिटाइए'। हम सड़कों पर, स्कूलों-कॉलेजों में तर्कशीलता का परचम बुलंद रखेंगे। वे हत्याएँ करते रहेंगे और हम इंसानियत के गीत गाते रहेंगे। हम पूछते रहेंगे कि आज़ादी के सत्तर साल बाद कितने लोग स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। सरकारी स्कूलों को क्यों तबाह किया जा रहा है। कितने गाँवों में पहले स्तर की चिकित्सा उपलब्ध है। विकास के नाम पर जिनको अपने घरों से उजाड़ा जा रहा है, वे किधर कहाँ हैं। हम पूछते रहेंगे जब तक हममें से एक भी इंसान ज़िंदा होगा। इस तरह वे कभी नहीं मरेंगे, जिनका कत्ल किया गया है। समय का पहिया अपनी कुदरती चाल चलेगा, अंधकार का यह दौर गुजरेगा। एक दिन रोशनी खिलेगी, इंसानियत जीतेगी और कलबुर्गी 'आदि' याद किए जाएँगे कि वे हमेशा ज़िंदा हैं।

Sunday, September 06, 2015

घर छोड़ते हैं जब घर रहने नहीं देता

हलद्वानी के अशोक पांडे की दीवार पर यह कविता दिखी (साझा की गई पोस्ट्स की शृंखला में), तो मैंने तुरत फुरत अनुवाद कर डाला। हाल में हुई घटनाओं से जुड़ी है।

"HOME," by Somali poet Warsan Shire:
no one leaves home unless
home is the mouth of a shark
you only run for the border
when you see the whole city running as well

your neighbours running faster than you
breath bloody in their throats
the boy you went to school with
who kissed you dizzy behind the old tin factory
is holding a gun bigger than his body
you only leave home
when home won't let you stay.

no one leaves home unless home chases you
fire under feet
hot blood in your belly
it's not something you ever thought of doing
until the blade burnt threats into
your neck
and even then you carried the anthem under
your breath
only tearing up your passport in an airport toilets
sobbing as each mouthful of paper
made it clear that you wouldn't be going back.

you have to understand,
that no one puts their children in a boat
unless the water is safer than the land
no one burns their palms
under trains
beneath carriages
no one spends days and nights in the stomach of a truck
feeding on newspaper unless the miles travelled
means something more than journey.
no one crawls under fences
no one wants to be beaten
pitied

no one chooses refugee camps
or strip searches where your
body is left aching
or prison,
because prison is safer
than a city of fire
and one prison guard
in the night
is better than a truckload
of men who look like your father
no one could take it
no one could stomach it
no one skin would be tough enough

the
go home blacks
refugees
dirty immigrants
asylum seekers
sucking our country dry
niggers with their hands out
they smell strange
savage
messed up their country and now they want
to mess ours up
how do the words
the dirty looks
roll off your backs
maybe because the blow is softer
than a limb torn off

or the words are more tender
than fourteen men between
your legs
or the insults are easier
to swallow
than rubble
than bone
than your child body
in pieces.
i want to go home,
but home is the mouth of a shark
home is the barrel of the gun
and no one would leave home
unless home chased you to the shore
unless home told you
to quicken your legs
leave your clothes behind
crawl through the desert
wade through the oceans
drown
save
be hunger
beg
forget pride
your survival is more important

no one leaves home until home is a sweaty voice in your ear
saying-
leave,
run away from me now
i dont know what i've become
but i know that anywhere
is safer than here.


'घर'

- सोमाली कवि वारसान शायर की कविता
घर दानव बन खाने को नहीं आता
तो कोई घर छोड़कर नहीं जाता
जब कोई सारे शहर को भागते देखता है
तभी वह सरहद की ओर दौड़ता है


तुम्हारे पड़ोसी तुमसे भी तेज दौड़ते हैं
उनके गले में साँसों में खून बहता है
स्कूल साथ गया वह छोरा
जिसने पुरानी टिन फैक्ट्री के पिछवाड़े
चूमकर तुम्हें था बेहोश कर छोड़ा
आज अपने कद से भी बड़ी बंदूक थामे हुए है
घर तभी छोड़ते हैं
जब घर तुम्हें रहने नहीं देता


घर कौन छोड़ता है
जब तक पैरों तले आग न हो
पेट में गर्म खूं न खलबलाए
ऐसा करने की कहाँ सोचते हैं
जब तक तलवार की धार
से न पड़े तुम्हारी गर्दन पर आतंक की मार
और अपनी साँसों में भी राष्ट्रगीत गाना पड़ता हो
और तुम हवाई अड्डों के टॉएलेट्स में
पासपोर्ट के पन्ने फाड़ते हो
हर कागज़ को फाड़ते यह जानकर रोते हो
कि अब तुम कभी वापस नहीं जा सकते।


इस बात को समझो
कि कोई अपने बच्चों को नावों में नहीं बैठाता
अगर पानी में बचने की उम्मीद ज़मीं पर से ज्यादा न हो
अपनी हथेलियों को कोई रेलगाड़ियों के नीचे
डिब्बों के नीचे नहीं जलाता
अगर मीलों का पार होना सफर से आगे कुछ और न हो
तो कोई ट्रक के पेट में अखबार के कागज़ खाकर दिन रात नहीं गँवाए
कोई बाड़ों के नीचे नहीं है रेंगता
कोई मार खाना या दया की भीख नहीं चाहता


कोई शौक से शरणार्थी शिविर नहीं जाता
या कपड़े उतार जाँच नहीं करवाता
जिससे बदन है दुखता रहता
कोई कैद चाहता नहीं है
ऐसा होता है क्योंकि कैद
आग में जलते शहर से बेहतर है
क्योंकि तुम्हारे पिता जैसे दिखते ट्रक में ठुँसे मर्दों से
रात में कैदखाने का एक संतरी बेहतर है
किसी से नहीं सहा जाता
कोई नहीं झेल पाता
किसी की चमड़ी इस काबिल नहीं होती


कालो वापस जाओ
रिफ्यूजी
गंदे आप्रवासी
शरणार्थी
हमारे देश को चूसते सोख रहे
हाथ फैलाते निगर
उनसे अजीब गंध आती है
जंगली
अपना मुल्क तबाह कर आए
अब हमारा मुल्क तबाह करना चाहते हैं
ऐसे लफ्ज़
नफ़रत भरी निगाहें
पीठ पर से रेंग-रेंग उतर जाते हैं
शायद इसलिए कि काट कर अलग की गई बाँह या टाँग
के बनिस्बत यह चोट मुलायम है


ा कि तुम्हारी जाँघों पर चढ़े चौदह मर्दों से
ये लफ्ज़ ज्यादा नर्म हैं
या हड्डियाँ और मलबे देखने से
अपने बच्चे का बदन टुकड़ों में कटे देखने से
गालियाँ सहना ज्यादा बेहतर है
मैं घर लौटना चाहती हूँ
पर घर दानव का खुला मुँह है
घर बंदूक की नाल है
और कोई घर छोड़ कर नहीं जाता
अगर घर तुम्हें समंदर के किनारों तक दौड़ाए नहीं
अगर घर तुमसे पैर तेजी से बढ़ाने को
कपड़े पीछे छोड़ जाने को
मरुथलों में से रेंग निकलने को
डूबने को
बचने को
भूख बन जाने को
भीख माँगने को
अपना गरूर भूल जाने को न कहे
यह न कहे कि तुम्हार ज़िंदा रहना ज्यदा ज़रूरी है


कोई घर नहीं छोड़ता
जब तक कि घर तुम्हारे कानों में पसीने से लदी आवाज़ बन
यह नहीं कहता - जा
मुझसे दूर चली जाओ
मैं नहीं जानता कि मैं क्या बन चुका हूँ
पर मैं जानता हूँ कि
हर कहीं और तुम यहाँ से ज्यादा सुरक्षित हो

Thursday, September 03, 2015

रातों को गिनते थे दिन


खबर

उस आदमी को मार देंगे यह खबर पुरानी थी

उसे मारना ग़लत होगा यह खबर धीरे-धीरे बढ़ी

दिन-दिन खबर की रफ्तार बढ़ती चली

और तब अहसास होने लगा कि कोई खबर है

वरना आजकल आदमी को मारना

खबरों जैसी खबर कहाँ होती है

यह उस ऱफ्तार का असर था

जैसे कोई इंतज़ार करता है नए चाँद का

हम सब इंतज़ार में थे कि वह मार दिया जाएगा


जो दाढ़ी नहीं बनाते वे सोचने लगे कि दाढ़ी बना लेनी चाहिए

दाढ़ी बनाने वाले भूल गए कि उनको दाढ़ी बनानी है

अजीब हालात थे कि दिन गुजरते जा रहे थे

और हम रातों को गिनते थे दिन


जिन्हें दिखलाना था कि ग़लत होना है होकर रहेगा

वे इंतज़ार में थे

जो खौफ़ज़दा थे कि ग़लत होना है होकर रहेगा

वे इंतज़ार में थे


इस तरह एक दिन आया वह दिन

हम सोकर उठे तो घोषणा हुई कि उसे मारा जा रहा है

फिर वह वक्त गुजरा कि वह मार दिया गया

वह दिन गुजरा

जिन्हें दिखलाना था कि ग़लत होना है होकर रहेगा

वे सो गए

जो खौफ़ज़दा थे कि ग़लत होना है होकर रहेगा

वे सो गए।

-उद्भावना (2015)