Wednesday, December 21, 2005

शुभ नववर्ष


पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
शुभ नववर्ष

Monday, December 19, 2005

दिखना


दिखना


आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?
अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?
बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में
कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?

कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है
जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है
बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है
इंसान खाते हुए दिखता है
आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ
वैसे आदम किस को दिखता है !

देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है
मुझे कहना है दिखने के बारे में
यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं
जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

--पहल-७६ (२००४)
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मेरी मित्र बंगलौर के बाहर अकेली रहती है। क्या वह सुरक्षित है?
क्या इस धरती पर कहीं भी महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित हैं?
अगर महिलाएँ और बच्चे सुरक्षित न हों तो क्या आदमी सुरक्षित है?
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हाँ मसिजीवी, ठंड से भी, गर्मी से भी, ऐसे मरते हैं लोग मेरे देश में, कहीं भगदड़ में, कहीं आग में जलकर, कभी दंगों में, कभी कभी त्सुनामी ...

Saturday, December 17, 2005

जैसे

जैसे

जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता
तुम शाम बन
बरामदे पर बालों को फैलाओ
खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी
उतरती मेरी हथेलियों तक

जैसे मैं कविताएँ ढोता
रास्ते के अंतिम छोर पर
अचानक कहीं तुम
बादल बन उठ बैठो
सुलगती अँगड़ाई बन
मेरी आँखों के अंदर कहीं।

--१९८७ (आदमी १९८८; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)

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चंडीगढ़ के एक स्कूल में पढ़ाने आए युवा अमरीकी दंपति ने रोजाना अनुभवों पर खूबसूरत साइट बनाई है। उनसे मिले पूछे बिना ही सबसे कह रहा हूँ कि ज़रुर देखिए: jimmyandjen.blogspot.com चूँकि चिट्ठाकारी सार्वजनिक गतिविधि है, इसलिए मान कर चल रहा हूँ कि अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

Friday, December 16, 2005

इंदौर बैंक की जय ! बोलो हे !

भास्कर अखबार में लिखे आलेख का पारिश्रमिक। मेरे बैंक (SBIndia) ने इसे वापस भेजा क्योंकि उचित अधिकारियों के हस्ताक्षर नहीं हैं। भास्कर दफ्तर खबर भिजवाई, उन्होंने फोटोकापी रख ली और कहा हो जाएगा। दस दिन हो गए, कुछ हुआ नहीं तो मैंने नेट से इंदौर बैंक का अतापता ढूँढा। शाहपुर, भोपाल शाखा को ई-मेल के साथ ऊपर वाली तस्वीर भेजी। कोई जवाब नहीं। दो दिन बाद उनके चंडीगढ़ शाखा का नंबर ढूँढा। फोन किया तो वह मैनेजर साहब का घर का नंबर निकला। दफ्तर का नंबर पता कर फोन किया। दस मिनट बाद फोन करो की हिदायत आई। किया। डीलिंग व्यक्ति ने साफ मना कर दिया कि वह मदद नहीं कर सकता। कल जाकर भास्कर के दफ्तर लौटा ही आया - सोचा इसको दिमाग से निकालें। चेतन डाँट रहा है कि कंज़्यूमर फोरम को चिट्ठी भेजो। पर मुझे लगता है कि अगर मैं चिट्ठाकारी से छुट्टी माँग रहा हूँ तो अदालतबाजी का वक्त कहाँ से निकालूँ।
फिलहाल पूरी बात पर हँसता रहता हूँ और गाता हूँ - जय, भारतीय पूँजीवाद की जय। भारत के सफेद कालर पेशेवरों की जय। बोलो हे!

Wednesday, December 14, 2005

इसमें क्या?

मैंने कुछ भ्रष्ट काम किए हैं, जिनके लिए मुझे जेल तो नहीं, पर जुर्माने ज़रुर हो सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ अॉडिट का नियम है कि कागज़ात की बाइंडिंग का खर्च आप रिसर्च ग्रांट से नहीं ले सकते। हमें अक्सर शोध पत्र या विद्यार्थियों द्वारा बार बार इस्तेमाल की गई (फोटोकापी करवाई गई) किताबें या दूसरे कागज़ात बँधवाने पड़ते हैं। पैसे निकलवाने का आसान तरीका है कि आप दूकानदार से कहें कि वह आपको फोटोकापी का बिल बनवा दे। बात छोटी सी लगती है, पर इसके दो नतीजे हैं - एक तो यह कि हमारी कुढ़न कभी इतनी तीखी नहीं हो पाती कि हम इस निहायत ही बेहूदा नियम को बदलवाने के लिए हाथ पैर उछालें; दूसरी बात यह कि लकीर कहाँ खींचें, हम इतनी सी बेईमानी करते हैं तो कोई और संसद में सवाल उठाने के लिए पैसे लेने को तैयार होता है।

यह बात एक युवा पत्रकार मित्र से बतलाई तो उसने कहा - ऐसी बातें तो हर कोई करता है, जैसे मुझे साल में मेडिकल अलावेंस मिलता है, हम सब लोग जाली बिल बनवाते हैं कि पूरा पैसा ले सकें। यानी इसमें क्या? मेरी लकीर अगर यहाँ तक है कि जो पैसा मैंने वाकई काम के लिए खर्च किया है, वह मुझे मिलना चाहिए, तो उसकी लकीर उन पर्क्स या ऊपरी पैसों के पार है, जिन्हें तनख़ाह का हिस्सा मान लिया जाता है।

हम सभी लोग - एक बुज़ुर्ग साथी कहते हैं, खानदानी बदतमीज़ी और बेईमानी से ग्रस्त हैं। इसलिए इन बातों को करते हुए भी संदेह होता है कि क्या सुननेवाला व्यक्ति वाकई इतना कम भ्रष्ट है कि कहने का कोई फायदा भी है!

एक कुलपति सीना चौड़ा कर के भ्रष्ट न होने का दावा करता है। उसके बेटे की पत्नी एम एस सी करके पति के साथ रहने के लिए अमरीका पहुँच गई। पी एच डी के लिए भर्ती हो गई। पी एच डी के लिए शुरुआत में कोर्स करने हैं। कोर्स में होम असाइनमेंट या टर्म पेपर वगैरह होते हैं। ये कन्या से हल नहीं होते। तो हर बार असाइनमेंट मिलते ही फैक्स पहुँचता है और कुलपति का विशेष सहायक किसी अध्यापक के घर पहुँचता है, साब ने भेजा है। अध्यापक नाराज़गी दिखलाता है तो सहायक कहता है - औख्खा क्यों होते हो डाकसाब, किसी और से करवा लेंगे। इसमें क्या? हर बार किसी और से होता रहा।

अजीब बात यह है कि मुझे इस कहानी में यह इतना बुरा नहीं लगता कि कुलपति भ्रष्ट है या इतना नादान है कि अमरीकी यूनिवर्सिटी के सिस्टम के साथ खिलवाड़ कर रहा है, पकड़े जाने पर बहू बेटे को वापस भेज देने की पूरी संभावना है, मुझे सबसे बुरी बात यह लगती है कि वह खुद अध्यापक से बात क्यों नहीं करता, अपने मातहत को क्यों भेजता है ! यानी कि मेरी सोच इतनी भ्रष्ट हो चुकी कि बुनियादी बात से ही मैं भटक चुका हूँ। अंत में, जितने लोग इसमें जुड़े हैं, उनमें से कोई भी खुलकर सामने नहीं आएगा। यह एक और किस्म का भ्रष्टाचार है। ऐेसी घटनाएं देखने सुनने के हम इतने आदी हो चुके हैं कि घोर उदासीनता और असहायता के शिकार हो गए हैं। हर दूसरा व्यक्ति भ्रष्ट होगा, यही मान कर हम चलते हैं। इसलिए सामान्य काम करने में भी गलत तरीके अपनाने से हम परहेज नहीं करते।

पूरी की पूरी व्यवस्थाओं को भ्रष्ट कर डालने में हिंदुस्तानी दिमाग अव्वल दर्जे की काबिलियत रखता है। वैसे महानता का लबादा ओढ़ने वालों को इसमें आपत्ति होगी और दौड़ में हम थोड़े पीछे हैं बतलाने की उनकी कोशिश होगी। अपने अध्यापन के अनुभव में कई बार मैं ऐसी स्थितियों से वाकिफ हुआ हूँ, जिसमें किसी का नाजायज़ फ़ायदा होता दिख रहा है, कभी विरोध किया है तो कभी तंत्र की विशालता के सामने अक्सर यही मानकर रुक गया हूँ कि पहले ही गर्दन काफी कटवाई है, अब बचे हुए हिस्से से जितना भला खून बहता है, इसे बहने दें।

यह हिसाब कि भला करना चाहते हैं तो ज़िंदा भी रहना है, एक किस्म की अनंत पहेली है। सच भी है कि मेरे जैसे लोग व्यवस्था में वाकई कम हैं, अगर मैं भी पिट गया तो बाकी और भी कम रह जाएंगे। और पारिवारिक या अन्य कमज़ोरियाँ अपनी जगह पर। यह एक डिफीटिस्ट तर्क है, जो हमें दबाए रखता है।

विदेशों में छोटे मोटे कानून तोड़ने में भी हम हिंदुस्तानी ही सबसे आगे हैं। न्यूयार्क की जैक्सन हाइट्स में किसी भी हिंदुस्तानी दूकान में बिना सेल्स टैक्स लगाए सामान का बिल मिल जाता है। यह याद नहीं कि मैंने जब भी जैक्सन हाइट्स से जब भी सामान लिया, माँगकर सही सेल्स टैक्स वाला बिल लिया या नहीं पर ऐसी बातें याद कर भारतीय होने पर शर्म ज़रुर आती है। मुझे याद है कि भारतीय व्यापारियों का ऐसा तरीका देखकर मुझे लगता था कि नस्लभेद की प्रवृत्ति के अलावा शायद यह भी एक कारण था कि अफ्रीकी मुल्कों से उन्हें खदेड़ा गया। आखिर लूट कभी तो जाहिर होती ही है। पहले पहल जब मैं कई साल अमरीका में बिता कर लौटा तो यहाँ हर दूकानदार से लड़ाई हो जाती थी कि बिल क्यों नहीं देते। दूकानदार समझाता कि वह मेरा ही भला चाहता है, बिल देने से मुझे ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। मैं हैरान होता कि बंदा मेरा दो पैसा बचाकर खुद सरकार को टैक्स देने से बच रहा है। धीरे धीरे एक दिन मैंने भी यह लड़ाई छोड़ दी। साथ ही अमरीका खुद इतना बड़ा लुटेरा मुल्क है कि वहाँ के औसत आदमी की ईमानदारी का जज्बा अधिक देर तक प्रभाव नहीं छोड़ता।

तो क्या मैं यह कह रहा हूँ कि इस लड़ाई में हार ही हार है, नहीं मैं यह नहीं कह रहा। मैं कह रहा हूँ कि अपनी अपनी सीमाओं में रहकर अपनी वैचारिक और वैश्विक समझ में रहकर, हर एक अपनी छोटी लड़ाई लड़ते रहें। अगली बार मैं कोशिश करुँ कि लकीर को और पीछे खींचूँ और गर्दन को और आगे बढ़ाऊँ। यही मेरी कामना है। यह कामना इसलिए नहीं कि इससे मैं किसी बड़े धरातल पर पहुँच जाऊँगा, महज इसलिए कि कुदरत की तमाम खूबसूरत देन में से एक ईमान का अहसास है। ईमान की ज़िंदगी में कई अर्थ दिखते हैं, बेईमानी में इतनी ही अर्थहीनता। बेईमानी और भ्रष्टाचार खुद से नफरत बढ़ाते हैं। बेईमान प्रशासकों ने इतने पेंचीदे नियम कानून बना दिए हैं कि कई छोटी चीज़ों के लिए आदमी कानून को तोड़ने में लग पड़ता है। भ्रष्ट लोग कानूनी शिकंजों से भी और नियमों के प्रपंचों से बचने के गुर जानते हैं। भले लोग जब इससे बच जाते हैं यानी बिना कानून तोड़े कुछ करने में कामयाब हो जाते हैं, तो मन आसमान हो उठता है, वैसा ही जैसा मानसी ने दिखलाया है। जहाँ तक गर्दन कटने की बात है, एक नारी वादी चिंतक का कथन है - Behold the lie of lies - since I am all alone, I cannot change the world. हताशा जब घनघोर हो तो खुद से कहता हूँ कि अकेले नहीं हो, लाखों सर कलम करवा रहे हैं, तुम तो घर से निकलने में ही रोने लग गए, 'चलते चलो कि अब डेरे मंज़िल पर ही डाले जाएंगे।'

इस चिट्ठे को संपादित कर अखबार के आलेख के लिए तैयार कर रहा हूँ। अखबार पहुँचता तो हजारों तक है, पर शब्द-सीमा होती है और तमाम बातें सोचनी पड़ती हैं कि क्या छप सकता है क्या नहीं।

Monday, December 12, 2005

इधर वाला गेट बंद हो गया होगा

चूँकि मैं किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता, इसलिए कह सकता हूँ - हे ईश्वर! मेरी इच्छा शक्ति को क्या हो गया। छुट्टी की घोषणा कर दी और फिर बेहया से वापस लौट आए।

बहरहाल भाई ने गरियाया तो औरों को, पर मुझे इतना हिलाया कि मैं वापस आ गया। चिट्ठा चर्चा में यह तो लिख दिया कि मैंने छुट्टी की घोषणा कर दी (पुरानी कविताओं का तर्क देकर!) पर यह नहीं लिखा कि कुछ बातें और भी कह गया हूँ - साधारण सी ही, जैसे शिक्षा व्यवस्था पर और शिक्षकों के मूल्यांकन पर। पर महज इतना हिलने भर से हम कहाँ इस अवसाद से लबालब आठ ही बजे पाँच डिग्री सेल्सियस पहुँची रात को एक किलोमीटर चल के दफ्तर पहुँचते कि चिट्ठा लिखें। सच यह है कि मुझे हिन्दी चिट्ठाकारों से प्यार हो गया है। भले लोग हैं। भाई मनोज, सच है कि अनुनाद सिंह ने आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... जैसा कुछ लिखा था, जो ई-मेल नैशनलिस्टों की मुहावरेबाजी का हल्का सा नमूना था, पर यह भी तो है न कि उसने लिखा तो। अब हम हैं कि रोते रहते हैं यार टाइम नहीं, टाइम नहीं, किसी का पढ़ा तो टिप्पणी नहीं छोड़ी, बदतमीज़ तो हम ही हुए न? वैसे इस आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... एपिसोड से एक पुराना चुटकुला याद आया। यह एक नैशनलिस्ट से ही सुना था (उन दिनों ई-संस्कृति का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था)। एक बार एक महाराज एक और महाराज से मिले। विनम्र भाव से बोले - महाराज, मैं अधम ! सुनते ही दूसरे महाराज बोले - अरे महाराज ! मैं तो अधमाधम ! पहले कहाँ पीछे रहने वाले थे, बोले - महाराज, अधमाधमधमधमादम !

भाई अनूप, मैं फक्कड़ मिजाज आदमी तो हूँ (हालाँकि प्रतीक मेरा चिट्ठा पढ़ते हुए धीरज खो बैठता है), पर इतना जिम्मेवार भी हूँ कि ढाई हफ्ते के लिए आई आई एस सी जाऊँ तो चिट्ठाकारी से बचूँ। फिर जिस लैब में रहूँगा वहाँ हिन्दी के लिए सही इनपुट मेथड है या नहीं, कट पेस्ट वगैरह आसानी से कर पाऊँगा या नहीं, ऐसी कई समस्याएँ हैं। बहरहाल अपनी बेशर्मी का ऐलान तो कर ही दिया, शायद लिख ही बैठूँ।

चिट्ठा चर्चा में सेलेक्टिव बयान से एक भारी खयाल दुबारा मन में बैठ गया। मैंने अतुल की रंगीन रात के सवाल के जवाब में कई भारतीय चिंतकों के नाम लिखे थे। उनमें अंबेदकर का नाम नहीं था। मैंने अंबेदकर पढ़ा नहीं है। हमारी स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में अंबेदकर नहीं होते थे, हालाँकि उन्होंने भारतीय संविधान लिखने के लिए बनाई गई समिति की अध्यक्षता की थी। खास तौर पर हिन्दी की पुस्तक का जिम्मा था कि वह हमें भाषा ज्ञान के अलावा बाकी चीज़ें पहले सिखाए, तो गाँधी जी, काका कालेलकर, घनश्याम दास बिड़ला सब थे, पर अंबेदकर नहीं। फिर भी मुझे लगा कि राजा राममोहन राय से लेकर विनोद मिश्र तक की लंबी लिस्ट में अंबेदकर को न रखना मेरी जाति-प्रश्न के प्रति संवेदना की कमी को दर्शाता है। लिखने के बाद चेतन को मैंने यह कहा (चेतन का कहना है कि जब भी उसे गाली देनी हो तो उसका जिक्र मैं चिट्ठे में कर देता हूँ। चेतन, इस वक्त गाली तुम्हें नहीं, खुद को ही दे रहा हूँ) और तब से इस सवाल पर सोचता रहा हूँ।

इसके अलावा अगर मैं युवा मित्र आशीष अलसिकंदर (अरे वही अलेक्ज़ेंडर) की बात कहे बिना छुट्टी ले ली होती तो अन्याय होता। छात्रों की संस्था क्रिटीक से न जुड़े पर बौद्धिक विचारों की कसरत में सक्रिय होने की इच्छा रखने वाले कुछ मित्रों को आशीष ने संगठित किया। ये लोग कभी कभी आर्ट्स म्युज़ियम (विश्वविद्यालय के) के सामने हरी घास पर बैठते हैं और मैं सबसे उम्रदराज़ पापी कभी कभार इनकी गुफ्तगू में शामिल होता हूँ। काश्मीर, विश्वविद्यालय में छात्र संगठनों के चुनाव, बढ़ती हुई अश्लीलता की संस्कृति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे कई मुद्दों पर ये चर्चा कर चुके हैं। मैं चूँकि इनदिनों अकेला हूँ तो मेरे घर पर दो बार डी वी डी प्लेयर चलाकर फिल्में भी देख चुके हैं। तो दस तारीख को जिस दिन मानव अधिकार था, ये मेरे घर इकट्ठे हुए। संयोग से इन्हें पता चल गया कि उस दिन मेरा जन्मदिन भी था, तो मेरी बढ़ती उम्र का स्यापा भी मनाया गया। इसके दो दिन पहले आशीष ने तो कमाल ही कर दिया। खुशबू और सानिया मिर्जा के बयानों पर उठे बवालों और प्लेबॉय के भारतीय संस्करणों के संदर्भ में बुलाई बैठक में कोई बीस छात्र-छात्राओं के बीच अश्लीलता, यौन शिक्षा आदि पर खुली बहस का आयोजन। इन विषयों पर युवा छात्र-छात्राओं में ऐसी खुली चर्चा यहाँ मैंने पहली बार देखी और सुनी।

उम्र से याद आया, मैंने सोचा था कि उम्र पर एक पुरानी कविता पोस्ट कर दूँ। भाई मसिजीवी, अब इसपर ध्यान से टिप्पणी करना, फिर किसी महेश ने तुम्हारे ब्लॉग पर गाली दे देनी है, चोट मुझे लगती है।

उम्र

उम्र दर उम्र
ढूँढते हैं
बढ़ती उम्र रोकने का जादू

भरे छलकते प्याले हैं
एक-एक टूटता प्याला
लड़खड़ाते सोच सोच कि
टूटने से पहले प्यालों में
रंग कुछ और भी होने थे

टूटता हर प्याला
बचे प्यालों से होता बेहतर
झुर्रियों के साथ इकट्ठे बचते प्याले
डबल चार सौ बीस का जिन पर नंबर

जितनी बढ़ती तमन्ना जीने की
उतनी ही होती तकलीफ जीने की

टूटी सोच से डरे घबराए
बदतर प्याले ढोने को लाचार
गिरते और गहरे गड्ढों में

उम्र पर हँसने की सलाह देते हैं वैज्ञानिक।

--१९९५ (उत्तर प्रदेश पत्रिका-मार्च १९९७ ; विपाशा - १९९६)

चार सौ बीस का प्रसंग हमारे अत्यंत सम्माननीय अध्यापक अगम प्रसाद शुक्ला जी से चुराया (पैदा हुआ बनमानुष का बच्चा, बीस पर आधा चार सौ बीस, चालीस पर पूरे और साठ पर डबल - तो प्यारे छात्रों, हम तो चले डबल चार सौ बीसी की ओर, तुम ठहरे आधे, अब किसी तरह कहानी बनानी है)।

तो शुकुल जी, उम्र तो हो गई, पर काम के दबाव से नर्वस हम उतने ही हैं, जितने रंगीन रातों (अतुल वाली नहीं) के दौर में हुआ करते थे। हमारे बड़े दोस्त कोलैबोरेटर तेजवीर सिंह मुजफ्फरनगर वाले, जिनकी सिंथेटिक कार्बनिक रसायन में दम डालने के लिए कुछ कंप्यूटर का कमाल हम कर देते हैं, उन्होंने मेरे ऊपर ही डाल दिया कि अपनी मिलीजुली खुराफात का खुलासा विभाग के वार्षिक मेले में करुँ, जो इस साल कुछ फिरंग भाइयों की उपस्थिति में हो रहा है। यार, उसकी तैयारी कर लेने दो। तब तक बाज आओ मुझे हिलाने से, क्या ?

बाई द वे, अगर कोई ई-मेल नैशनलिस्ट मेरी बातों से आहत हो रहे हैं तो उनकी सांत्वना के लिए कह दूँ कि मैं और मेरा दोस्त विश्वंभर पति (जो दुनिया का सबसे खतरनाक व्यंग्यकार है, सामना होने पर पेट फटने की भरपूर संभावना होती है) एक जमाने में वामपंथी साहित्य पढ़ते हुए बोर होकर 'अमरीकी पूँजीवादी साम्राज्यवाद, सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद और भारतीय बुर्ज़ुआ दलालों' की जगह धड़ाम धड़ाम धड़ाम पढ़ा करते थे। इसलिए दोस्तों, आड़ंबड़ंबड़ंबड़ंबड़ं... बोलो, पर रीलैक्स यार। भारत महान बोलो, बाजार महान बोलो, आराम से यार।

सच तो यह है अतुल राष्ट्रवाद के नाम पर आदमी आदमी नहीं रहता - लिंडी इंग्लैंड और क्या वो दूसरी जारपिंस्की या ऐसी ही कुछ जिसे मर्द जिस्मों की जरा ज्यादा ही चाहत थी, .....इसलिए अतुल सवाल यह है, राष्ट्रगान की तोतारट कहाँ ले जा रही है। वैसे गाना अच्छा लगता है तो क्यों न गाओ, एक कविगुरु ने लिखा है (किसके लिए यह मत पूछना), दूसरा एक अंग्रेज़ी सरकार के मुलाजिम ने (किसकी भाषा में मत पूछना)। सुंदर है, साधु साधु।

धत् तेरी की, दस बज गए। इधर वाला गेट बंद हो गया होगा।

Sunday, December 11, 2005

महीने भर की छुट्टी

'लाल्टूजी अपना सारा पुराना स्टाक छापे दे रहे हैं नेट पर भी।' - चिट्ठा चर्चा

चिट्ठे में नई कविताएँ इसलिए नहीं डाल सकते कि कहीं प्रकाशन के लिए भेजनी होनी होती हैं।
अधिकतर जो कविताएँ डाली थीं, वे प्रासंगिक थीं और ज्यादातर चिट्ठाकारों के लिए तो नई ही होंगी। पुराने होने का विवरण साथ में देते हैं कि जिसने प्रकाशित किया उनका भी जिक्र होना चाहिए। कुछेक पुरानी कविताएँ पहले से कंप्यूटर पर पड़ी हैं,....

अब महीने भर की छुट्टी ले रहा हूँ। दस दिनों के बाद बंगलौर के भारतीय विज्ञान संस्थान जाना है, वहाँ ढाई हफ्ते।
जाने से ठीक पहले यहाँ विभाग में एक अंतर्राष्ट्रीय सिंपोज़ियम में भाषण देना है।

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पहली तारीख को हमारे एक साथी के अवकाशनिवृत्त होने पर हमलोगों ने उच्च शिक्षा पर एक गोष्ठी आयोजित की। उसी प्रसंग में बातें जो दिमाग में हैं (भारत को महान बनाने और बताने वालो, कुछ इस पर भी सोचो) -

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः-

१) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है।
२) राष्ट्रीय बजट का ४०-४५% सुरक्षा के खाते में लगता है, जबकि शिक्षा में मात्र १०-११% ही लगाया जाता है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की सबसे शर्मनाक बातः-

अफ्रीका के भयंकर गरीबी से ग्रस्त माने जाने वाले sub-सहारा अंचल के देशों में भी शिक्षा के लिए निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के पैमाने में भारत की तुलना में अधिक है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के बारे में दो सबसे बड़े झूठ:-

१) समस्या यह है कि हमने बहुत सारे विश्वविद्यालय खोल लिए हैं।
२) हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा बहुत सस्ती है।

शिक्षा में जो सीमित संसाधन हैं भी, उनके उपयोग का स्तर अयोग्य और भ्रष्ट प्रबंधन की वजह से अपेक्षा से कहीं कम हो पाता है। खास कर, नियुक्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार है।
वैसे बिना तुलनात्मक अध्ययन किए लोग, खास तौर पर हमारे जैसे सुविधा-संपन्न लोग, जो मर्जी कहते रहते हैं; कोई निजीकरण चाहता है, कोई अध्यापकों की कामचोरी के अलावा कुछ नहीं देख पाता। पश्चिमी मुल्कों से तो हम लोग क्या तुलना करें, जरा चीन के आँकड़ों पर ही लोग नज़र डाल लें (हालाँकि चीन के बारे में झूठ सच का कुछ पता नहीं चलता)। साथ में शाश्वत सत्य ध्यान में रखें - पइसा नहीं है तो माल भी नहीं मिलेगा। अच्छे अध्यापक चाहिए तो अच्छे पैसे तो लगेंगे ही। अच्छे लोग आएंगे तो भ्रष्टाचार भी कम होगा। राजनैतिक दबाव के आगे भी अच्छे लोग ही खड़े हो सकते हैं।

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चार दिन पहले कालेज और विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए ओरिएंटेशन कोर्स में विचार-गोष्ठी का विषय था - अध्यापकों का मूल्यांकन।
मैं जब एम एस सी छात्र था, तो अध्यापकों का मूल्यांकन हमने किया था, जब टी ए (टीचिंग असिस्टेंट) था तो हमारा मूल्यांकन छात्रों ने किया। इसलिए जब यहाँ आया तो स्वाभाविक था कि उसी तरह अपना मूल्यांकन करवाते। पर कुछ शुभ चिंतकों ने रोका। पाँचेक साल के अनुभव के बाद मैंने शुरु कर ही दिया। तकरीबन पंद्रह साल हर कोर्स के अंत में मूल्यांकन करवाने के बाद आखिर पिछले साल बंद कर दिया। कारण - आजकल जो एन आर आई सीट के छात्र आते हैं, उनकी संख्या नियत नहीं होती, इसलिए शिक्षक के लिए औसत छात्र समझ पाना मुश्किल होता जा रहा है। मेरी एक भयंकर समस्या यह है कि पिछले कुछ सालों से ऐसे छात्र आने लगे हैं जिन्होंने हाई स्कूल के बाद गणित नहीं पढ़ी। हाई स्कूल में जो पढ़ा भी वह भूल गए। इसलिए मूल्यांकन का अर्थ ही नहीं रहता।
बहरहाल, मेरा मानना है कि मूल्यांकन न केवल अध्यापक की अपनी बेहतरी के लिए ज़रुरी है, शिक्षक और छात्र के बीच बेहतर और लोकतांत्रिक संबंध बनाने के लिए भी बहुत ज़रुरी है। पर मैं यह भी मानता हूँ कि छात्र भले ही मूल्यांकन के निष्कर्षों पर चर्चा करें, प्रशासन में व्यापक भ्रष्टाचार और गुटबाजियों को देखते हुए मूल्यांकन को प्रशासनिक हथकंडा बनाने के खिलाफ लड़ते रहना ज़रुरी है।

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एक महीने बाद फिर लिखेंगे। सबको नए साल की शुभकामनाएँ।

Saturday, December 10, 2005

सूरज सोच सकने को लेकर

मसिजीवी ने सच ही शक जाहिर किया।
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सूरज सोच सकने को लेकर

सूरज सोच सकने को लेकर
मैंने पहले भी कभी लिखा है
इन दिनों लड़ता हूँ इस शक से कि
सूरज सोचना शायद धीरे-धीरे
असंभव हो रहा है

सूरज सोच सकने के पूर्ववर्ती क्षणों में
वह बूढ़ा भर लेगा उन सभी जगहों को
अपने बच्चे की राख से
जहाँ मेरे पैर हैं
फिलहाल उसे सूरज नहीं सिर्फ एक रुपया
चाहिए या महज कुछ पैसे

मुझे लगता है मैं अभी भी
सूरज सोच सकता हूँ
शक है उस बूढ़े का असंभव ही हो
सूरज सोच सकना

1994
(पश्यंती-1995; 'डायरी में तेईस अक्तूबर में' संकलित)

Friday, December 09, 2005

सारी दुनिया सूरज सोच सके

कल मानव अधिकार दिवस है।
अपने पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में से यह कविता -
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सारी दुनिया सूरज सोच सके

हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं

सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज

रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है

नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात

पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं

ऐसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर

कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे

मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी

बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।

१९८८ (पहल -१९८९)

Thursday, December 08, 2005

जैसे खिलता है आसमान

"प्रेम सुधा में विष घुलेगा जब मन हो नहाया पाप से
मेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से" - मानसी

पाप ? पाप ?
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जैसे खिलता है आसमान

जैसे खिलता है आसमान
सीने में उल्लास की चीत्कार भर दौड़ो
प्यार जब चाहिए तो
चोटी पर बाँहें फैला सरगम गाओ

हो सकता है साथ आ बैठें दढ़ियल रवींद्रनाथ
हू हू बह निकले गंगा
महादेवी की जाने किन कविताओं से

प्यार जब चाहिए तो
होंठों को स्तब्ध न रखो
जिन आँखों को छूना है
जीवन की तहें वहाँ फैलाओ
साँस सिसकियाँ आवाज़ें
जिस्म रूह कविताएँ
होंठों की बाँसुरी में बजाओ
बाँसुरी नहीं चिरंतन फरीद वह
ईसा का सपना
खिलो जैसे खिलता है आसमान।

1994
(पश्यंती - 1995; 'डायरी में २३ अक्तूबर')

Wednesday, December 07, 2005

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर दिनों की बारिश की गंध
लिखा पसीना हवा में उड़ता सूक्ष्म-सूक्ष्म
लिखा पसीना जो अपनी सत्ता
देश से उधार लिए बहता दिमाग़ में
स्पष्ट कर दूँ यह कोई मजदूर का नहीं
महज उस देश का पसीना
जिस पर तमाम बेईमानियों के ऊपर
मीठी सी हँसी का लबादा
हमारी एकता का हिस्स... ...
हमारी हें-हें हें समवेत हँसी का फिस्स... ...

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर बंदर
आसपास थे घर और बंदर में घर
नहीं हो सकता
लिखा वीरानी जो चेहरे के भीतर बैठी
टुकड़े-टुकड़े
लिखा महाजन वरिष्ठ
लिखा राजन विशिष्ट मेरे इष्ट
जिन्हें इस बात का गुमान
कि पढ़े लिखों को
यूँ करते मेहरबान
जैसे नाले में कै लिखा कै के उपादान
पीलिया ग्रस्त देश के विधान

हालाँकि लिखना था पेड़
लिखी बातें लगीं संस्कृत असंस्कृत।

१९९४ (पश्यंती १९९५; 'डायरी में तेईस अक्तूबर' में संकलित)

Tuesday, December 06, 2005

सात दिसंबर 1992

यहाँ नहीं कहीं औरः सात दिसंबर1992


कहना दोधी से कम न दे दूध नहीं जा सकती इंदौर
कर दूँगा फ़ोन दफ्तर से मीरा को अनु को
तुम नहीं जा सकती इंदौर अब
मेसेज भेजा लक्ष्मी को मत करो चिंता
नहीं आएगी स्टेशन मरे हैं चार दिल्ली में कर्फ्यू भी है
एक पत्थर और पत्थर पर पत्थर गिरे गुंबदों से
समय अक्ष बन रहा अविराम समूह पत्थरों का


सभी हिंदुओं को बधाई
सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों, दुनिया के
तमाम मजहबियों को बधाई
बधाई दे रहा विलुप्त होती जाति का बचा फूल
हँस रहा रो रहा अनपढ़ भूखा जंगली गँवार


पहली बार पतिता शादी जब की अब्राह्मण से
अब तो रही कहीं की नहीं तू तो राम विरोधी
कहेगी क्या फिर विसर्जन हो गंगा में ही
निकाल फ्रेम से उसे जो चिपकाई लेनिन की तस्वीर
मैंने
मैं कहता झूठा सूरज झूठा सूरज रोती तू
अब तू जो कहती रही ग़लत है झगड़ा लिखा दीवारों पर
निश्चित तू धर्मभ्रष्टा
ओ माँ !


पुरुषोत्तम !
सभी नहीं हिन्दू यहाँ रो रही मेरी माँ आ बाहर आ
कुत्ता मरा पड़ा घर के बाहर पाँच दिनों से
ओवरसीयर नहीं देता शिकायत पुस्तिका
ला तू ही ला लिख दूँ सड़ती लाशें गली गली
कुछ कर हे ईश्वर !


सड़ती लाशें गली गली
नहीं यहाँ नहीं कहीं और
फिलहाल दुनिया की सबसे शांत
धड़कन है यहाँ
फिलहाल।

1992 (जनसत्ता -1992, परिवेश -1993, आधी ज़मीन - 1993, 'यह ऐसा समय है' (सहमत) और 'डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रहों में)

Monday, December 05, 2005

प्रेमचंद १२५

हरियाणा साहित्य अकादमी के आयोजन से आशा से अधिक संतुष्ट हुआ। प्रेमचंद की एक सौ पचीसवीं वर्षगाँठ पर सुबह व्याख्यान और शाम को रंगभूमि का मंचन। व्याख्यान सुनने देर से पहुँचा और पता चला कि मैनेजर पांडे आए नहीं। विकास नारायण राय और कमलकिशोर गोएनका को सुना। विकास पुलिस के अफसर हैं और अपने बड़े भाई विभूति नारायण राय ('वर्त्तमान साहित्य' के पहले संपादक और प्रसिद्ध उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू' के लेखक) की तरह साहित्य में सक्रिय हैं। पहले हरियाणा और वह भी चंडीगढ़ के पास पंचकूला में ही पोस्तेड होते थे तो अक्सर मुलाकात होती थी। पर कल उनको सुनकर कहीं ज्यादा अच्छा लगा। प्रेमचंद की रचनाओं के subtext को सामने लाकर और समकालीन स्थितियों से तुलनाकर बड़े रोचक ढंग से बात रखी, जैसे गोहाना में हाल में लिए किसी साक्षात्कार का हवाला देकर प्रेमचंद के दलित चरित्रों की स्थिति को समझना आदि। कमलकिशोर गोएनका के लेख पढ़े थे, कभी सुना नहीं था। सुनकर अच्छा लगा और मन में पहले से बनी धारणा कि प्रेमचंद के बारे में फैली रोमांटिक किस्म की धारणाओं को गलत सिद्ध करने में उनकी कोई बुरी मंशा नहीं है, को सही पाया। दूसरी तरफ प्रेमचंद के अप्रकाशित रचना संसार से भी परिचय हुआ, जिससे वाकई एक नया प्रेमचंद सामने आता है। कमलकिशोर जी ने बतलाया कि भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से उनका यह काम पुस्तक रुप में प्रकाशित हुआ है। मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि साधारण में असाधारणता ही सोचने लायक या प्रेरणा लायक होती है। असाधारण तो कोई भी नहीं होता, कृतियाँ ही असाधारण होती हैं। पहले से ही किसी को असाधारण बना डालना एक तरह से उसका अपमान ही है।

रंगभूमि का मंचन दिल्ली से आई संस्था रंगसप्तक ने किया था। नाटक का मजा तो है ही, खासकर लोक शैली में गायन ('निरगुन' और 'रामायन') और बिदेसिया जैसी नृत्य शैली का समायोजन हो, पर अभिनय में स्टीरियोटाइप शैली से मैं बड़ा हताश होता हूँ। मुश्किल यह कि प्रेमचंद की रचना हो तो नाटक के अर्थ कई बन जाते हैं। वह साहित्य भी है, इतिहास भी है, नाटक से साहित्येतर कलात्मक पक्ष भी उसका है। रंगभूमि पर हाल में बहुत विवाद रहा है और दलितों के एक वर्ग ने उपन्यास की प्रतियाँ जलाई हैं। मैंने उपन्यास बचपन में पढ़ा था, इसलिए आपत्तिजनक क्या है, स्पष्ट याद नहीं। पर चूँकि दलित चरित्र हैं तो उनसे बुलवाई भाषा और उनके व्यवहार पर आपत्ति होगी। नाटक देखते हुए हम आपत्तिजनक अंश ढूँढते रहे। पर या तो वे सब छन चुके थे या उनका परिष्कार हो चुका था, कुछ भी आपत्तिजनक लगा नहीं।

सुनील के छायाचित्रों को देखकर सचमुच अपनी पुरानी कसरत याद आ गई। एक ज़माना था कि ओलिंपस का अपना कैमरा लेकर हम भी निकले होते थे। फॉल के रंग, जाड़ों की बर्फ, भई अब तो लगता है नोस्टाल्जिया में ही खो जाएंगे। एकबार बसंत के मौसम में एक महिला को समरसूट (बिकिनी किस्म की) पहने घर के सामने सड़क बुहारते देखा। इतना अच्छा लगा कि कोई उसे घूर नहीं रहा, स्वच्छंद मन से प्रोफेसर की पत्नी टाइप झाड़ू लगा रही है। उन दिनों कोडाक की कलर स्लाइड्स बनाने की फिल्में आती थीं और मेरे कैमरे में रील भरी हुई थी। तो अपनेराम ने महिला से गुहार की कि आपका फोटू लेना माँगता है। तुरंत न हो गई। बड़ा बुरा सा लगा। मैंने कहा कि दरअसल अपनी माँ और बहन को भेजना चाहता हूँ यह दिखलाने कि यहाँ औरतें कितनी आज़ाद हैं। महिला ने थोडी देर सोचा, फिर पूछा कि किसी पत्रिका (प्लेबॉय) का एजेंट तो नहीं, फिर मेरा थैला देखा और कहा खींचो।

वो स्लाइडें पच्चीस साल के बाद आज भी कहीं पड़ी हैं। कभी देखना चाहिए।

दिसंबर का पहला हफ्ता हाल के भारतीय इतिहास में अंधकार के समय का है। कल एक जहर फैला था भोपाल में और कल एक और जहर फैला था अयोध्या में। हमें बचपन में पता ही नहीं था कि अयोध्या है कहाँ! वैसे भी जहर की क्या बात करें!

Sunday, December 04, 2005

फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी

सुनील यानी बकौल शुकुल जी 'भुलक्कड़ प्रेमी' का प्रेम प्रसंग बहाना है कि समय से पंद्रह दिन पहले ही आ टपकी शीत लहर (वैन्कूवर ही नहीं यहाँ भी) में कुछ प्यार की बातें हम भी कर लें। हाँ भई, लोगों ने मुझे भारी भरकम ही बना दिया! और छूट मिली भी तो चर्चित कहानीकार - अरे भाई, मैं कविताएँ भी लिखता हूँ! साहित्य की राजनीति और उठा पटक से दूर हूँ, पर हिन्दी कविता में भी सेंधमारी हमने भी की है । लिखने में जल्दबाजी का ज़ुर्म है, पर वो मेरे बस की बात नहीं....

फ़ोन पर दो पुराने प्रेमी


कहते कुछ
सोचते कुछ और हैं
फ़ोन पर बातचीत करते
पुराने प्रेमी

बातों में
पिछले संघर्षों के संदर्भ हैं
जिनमें एकाध जीते भी थे

आजकल जिन नौकरियों में लगे हैं
उनकी हताशाएँ एक दूसरे को
सुनाते हैं

ख़यालों में ज़िंदा
हैं पुराने गीत
एक दूसरे के शरीर की गंध
होंठों का स्वाद।

१९९० ( साक्षात्कार १९९२)

हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में व्याख्यान देने प्रोo मैनेजर पांडे आए हैं, सुनने जा रहा हूँ।
शाम को टैगोर थिएटर में 'रंगभूमि' का मंचन है। देखना है, एक अखबार के लिए समीक्षा भी लिखनी है।

मानसी और सुनील, अच्छे छायाचित्रों के लिए धन्यवाद। बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं।

Saturday, December 03, 2005

कंप्यूटर

कंप्यूटर

स्मृति
का एक टुकड़ा इस कार्ड में है
दूसरा उसमें

एक टुकड़ा यह विकल्प देता है
कि स्मृति को हम
बचपन जवानी या बुढ़ापे में बाँटें
या बाँटें लिखने और पढ़ने के कौशल में
या देखने सूँघने या चखने की आदत में
बाँटने के अलग अलग विकल्पों की उलझन से
हमें उबारता है एक और टुकड़ा

हम बटनों पर बैठे हैं
निर्जीव स्मृतियाँ अब चमत्कार नहीं
हमारी उँगलियों के स्पर्श से पैदा करती हैं
स्पर्धाएँ
स्पर्धाओं में हार जीत
अहं, रक्तचाप

एक टुकड़ा
बुझते ही
बुझता है
एक टुकड़ा प्यार

चेतना और कंप्यूटर
में तुलना
चलती लगातार।

१९९५ (उत्तर प्रदेश(पत्रिका)-मार्च १९९७)

Friday, December 02, 2005

प्रत्यक्षा, धन्यवाद!

यार लाल्टू, चिट्ठाकारी में मत फँस। अपना काम कर। इग्ज़ाम-शिग्ज़ाम करा। रिसर्च का काम देख।
पर प्रत्यक्षा ने बच्चों पर इतना बढ़िया लिखा, उसके बारे में कुछ भी नहीं?
चलो ढूँढो वह कविता जो चकमक के सौवें अंक में आई थी, जो पुलकी पर लिखी थी।
'भैया ज़िंदाबाद' संग्रह में है, कहाँ गई वह किताब....
पागल हो क्या, अरे नौ बजे इग्ज़ाम करवाना है,
धत् तेरे की, आधे घंटे से मिल ही नहीं रही....

हे भगवान, चलो यह चकमक का सौवाँ अंक मिल गया,
****************************************************

वो आईं गाड़ियाँ

वो आईं गाड़ियाँ !
वो आईं गाड़ियाँ !

बत्ती जो हो गई हरी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी खिड़की पे खड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

पुलकी बदमाश बड़ी
खींच लाई कुर्सी
खिड़की पे जा चढ़ी

ओ हो हू हा
ऊँची मंज़िल से चीखे
पुलकी बार बार
नीचे हल्ला गुल्ला
दौड़ें खुल्लम खुल्ला
रंग रंग की कार

बहुत कहा मत करो शोर
पुलकी न मानी न मानी
रही अड़ी की अड़ी
वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !

अब बत्ती हो गई लाल
कैसा हुआ कमाल
छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी
लाल गाड़ी पीली गाड़ी
हल्की गाड़ी ट्रक भारी
रुक गईं सारी सारी की सारी

मन मसोस पुलकी ने की उतरने की तैयारी
कुर्सी पर उतारे पैर, फिर छलाँग मारी
तब तक हुई बत्ती हरी फिर से
और फिर ....

वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ !
***********************************************१९९२ (चकमक १९९३)

प्रत्यक्षा, आप को इतना बढ़िया चिट्ठा लिखने के लिए धन्यवाद! बच्चों की सोचें तो मेरे जैसा नास्तिक भी प्रार्थना करने लगता है
हे ईश्वर ! बच्चों को सँभाले रख।
मेरी बेटी ने जब चलना ही सीखा था, उन दिनों यह कविता लिखी थी।
इन दिनों मुझसे बहुत दूर कहीं है। शायद यह चिट्ठा पढ़े।
*******************************************************************************
मिर्ची, इलाके की एक और खबर।
करनाल के पाश पुस्तकालय में एन एस डी यानी नैशनल स्कूल अॉफ ड्रामा की कार्यशाला चल रही है। मैं तो नहीं जा पा रहा।
तुम्हारा मूड हो तो उड़कर आ ही जाओ।
पंजाबी के क्रांतिकारी कवि (अवतार सिंह) पाश के नाम पर बनी यह लाइब्रेरी पुलिस विभाग के अधीन है और इसका संचालक एक पुलिस का कर्मचारी है - है न मज़ेदार बात।
दूसरी बात, अंबाला भी इतना बुरा नहीं, घर आओ तो हिन्दी साहित्य की बड़ी हस्ती स्वदेश दीपक से कभी ज़रुर मिलना। युवा कवि समर्थ वशिष्ठ से भी।

Thursday, December 01, 2005

दोस्तों, जवाब नहीं, कुछ बातें ही

मेरा दोस्त चेतन जो खुद लिखने के पचड़े में नहीं पड़ता, पीछे पड़ा है कि लोग सवाल उठाते हैं तो जवाब क्यों नहीं देते। आखिरकार उसने मजबूर किया कि रमण कौल के चिट्ठे में मेरे लिखे 'साझी लड़ाई' पर जो सवाल उठाए गए, उन्हें पढ़ूँ। मैं नहीं समझता कि किसी की तकलीफ को हम दो चार बातें कर के मिटा सकते हैं। इसलिए यह सोचना कि मैं कोई तर्कयुद्ध जीतने की कोशिश कर रहा हूँ, गलत होगा। बचपन से ही देश के बँटवारे और दंगों से पीड़ित लोगों की व्यथाएँ सुनते आया हूँ। मेरी माँ का बचपन पूर्व बंगाल (आज के बाँग्लादेश) में गुजरा। पिता पंजाबी सिख थे। मिर्ची यार, मेरा जद्दी गाँव (जैसा पंजाबी में कहते हैं) रामपुराफूल से थोड़ी दूर मंडी कलाँ (या गुलाबों की मंडी) है। बचपन में गाँव आते तो रात को सोने के पहले दादी से बँटवारे की कहानियाँ सुनते। यह भी सुना था कि किस तरह गाँव के मुसलमान आकर उससे पूछते थे कि गाँव के सरदार उनके बारे में क्या सोचते हैं। फिर एक दिन इस भरोसे के साथ कि तुम्हें सुरक्षित सीमा पार करवा देंगे मुसलमानों को गाँव के बाहर ले गए और वहाँ पहले से ही तलवारें और गँडासे लिए गुरु के सिख खड़े थे (अब सोचते हुए आँखें भर आती हैं, उन दिनों लगता था वाह खून का बदला खून!)। माँ और पिता दोनों ही साधारण नागरिक थे। मतलब दोनों ही में आम लोगों के पूर्वाग्रह और आम लोगों सी ही संवेदनाएँ थीं। इसलिए बचपन में मुसलमानों से नफरत करनी भी सीखी और साथ ही यह भी सीखा कि 'एक पिता सब वारिस उनके' (कबीर का है, गलती से नानक का लिखा कहा जाता है)। पिता जी सरकारी गाड़ी चलाते थे तो गरीबी भी देखी और अमानवीकरण भी। पिता की गाली गलौज, माँ का रोना धोना सब देखा (इसलिए गोर्की की 'माँ' को माँ समझा जैसे बाद में कुमार विकल की कविता में पढ़ा)। दोस्तो उस जमाने में हमारे जैसे बच्चे मेरी आज की ज़िंदगी की कल्पना नहीं कर पाते थे। चलो आत्मकथा लिखने जैसे बुढ़ापे का दौर अभी आया नहीं है, मूल बात यह कहनी है कि बेलेघाटा के तकरीबन झुग्गियों से लेकर एकबार जेसी जैक्सन की रीसेप्सन कमेटी में अकेला हिंदुस्तानी बनने तक बहुत रोना रोया है (कुमार विकल की लाइन हैः मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे)। दोस्तों, उनको तो मैं कुछ नहीं समझा सकता जिनके जीन्स में मार्क्स और लेनिन के नाम से नफरत के कोडॉन हैं या जिन्हें अपने अलावा दुनिया के सभी धर्मग्रंथ कट्टरपंथ के सांद्र वचन लगते हैं। पर खुले मन से बात हो तो दो चार बातें हैं।

एकबार आई आई टी कानपुर में पढ़ने के दौरान काश्मीर पर बहस छिड़ गई। तबतक मैं बिना किसी पार्टी का सदस्य बने भी ऐसी श्रेणी में आ चुका था कि सभ्य लोगों के बीच मुझे प्रगतिवादी, जनवादी, मार्क्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, नक्सलवादी हर कुछ कहकर दरकिनार किया जा सकता था। इस सबके बावजूद मैं था महज एक देशभक्त - हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान मेरे ऊपर पूरी तरह सवार था। काश्मीर के बारे सीधी सी समझ थी कि काश्मीर पर अमरीका की नज़र है, इसलिए काश्मीर आज़ाद तो हो ही नहीं सकता, या तो पाकिस्तान जैसे पिछड़ी हुई सोच वाले मुल्क को जाएगा या सीधे ही अमरीका के साथ हो जाएगा। एक गाँधीवादी मित्र ने बहुत दुत्कारा कि मैं अपने आप को सचेत समझते हुए भी भारत की इस गलत पोज़ीशन का कैसे समर्थन कर सकता हूँ कि संयुक्त राष्ट्र संघ के जनमत संग्रह के प्रस्ताव के बावजूद काश्मीर में जनमत संग्रह नहीं करवाया गया। स्पष्ट है कि काश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं हैं, वगैरह वगैरह। पर हम थे कि नहीं यह काश्मीर के लोगों के हित में नहीं है कि काश्मीर भारत से अलग हो।

पता नहीं मेरे विचार कब कैसे कितना बदले। यह जानता हूँ कि यह बदलाव आसानी से नहीं आया। यह बहुत बड़ी तकलीफ के साथ ही हुआ है कि देशभक्ति - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी - जिसके मुताबिक जन्मभूमि के चप्पे चप्पे के लिए हमारे खून का आखिरी कतरा तक न्यौछावर होना है, ऐसे महान विचार से हम आज अपने आप को सहमत नहीं पाते। शायद कालेज के दिनों से ही समझ आने लगा था कि राष्ट्र की अवधारणा (शायद बनारसी लाल चतुर्वेदी का लेख स्कूल में पढ़ा था कि भूमि, भाषा, संस्कृति, जन, आदि कुछ तत्व मिलकर राष्ट्र बनाते हैं) में काफी गड़बड़ है। हमारे बचपन में आजादी की लड़ाई के दौरान फले फूले अंध राष्ट्रवाद का बड़ा जोर था - खासकर उत्तर भारत में। विडंबना यह है कि भारत में सबसे पिछड़े और दबाए लोगों में - जैसे कोलकाता में काम कर रहे बिहारी मजदूरों में या मेरे पिता जैसे पंजाब से आए कामगारों में यह राष्ट्रवाद सबसे प्रबल था। हम उनके बच्चे थे और उन से उत्तराधिकार में हमें यह मिला था। पिताजी ने कुछ समय ब्रिटिश फौज से बंदी बनाए लोगों से बनी सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फौज में भी काम किया था। उत्तराधिकार में मिले राष्ट्रवाद का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के समर्थन में खड़े होना होता था, आखिर कांग्रेस के नेत्तृत्व में हमें आज़ादी मिली थी। खालसा स्कूल से प्रेसीडेंसी कालेज आते तक (१९७३) मुझमें एक बड़ा परिवर्त्तन यह हुआ कि मैं इस अजीब राष्ट्रवाद से निकला। अब अपनी बेटी का लिखा पढ़ते हैं जो पंद्रह साल की उम्र में राष्ट्रवाद ही नहीं देशभक्ति तक पर गंभीर प्रश्न उठाती है तो हँसी आती है।

दोस्तों, माफ़ करना कि न चाहते हुए भी आत्मकथा में फँस ही जा रहा हूँ। मेरी कोशिश यह कहने कि है कि प्रतिष्ठित मान्यताओं के विपरीत विचार बना पाना एक बड़ा दर्दनाक संघर्ष होता है। जीवन के अनुभव और गंभीर साहित्य के पढ़ने से ही ऐसे बदलाव आते हैं। अपने अनुभवों से मैंने पाया कि किसी भी व्यक्ति पर मुख्यधारा का हिस्सा बनने का बहुत बड़ा सामाजिक दबाव होता है, जबकि अपनी नैसर्गिक अराजक प्रवृत्तियों से मानव अपना अलग और स्वच्छंद अस्तित्व बनाना चाहता है। अमूमन इस लड़ाई में हम हार जाते हैं और ले दे कर मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं। जो नहीं हारता अगर वह अकेला पड़ जाता है तो उसे मानसिक रुप से विक्षिप्त मान लिया जाता है। पर इतिहास में ऐसे मोड़ प्रायः आते हैं जब मुख्यधारा से अलग विचार रखनेवालों की तादाद इतनी बड़ी होती है कि वे संगठित हो जाते हैं और धीरे धीरे उनका संगठन एक आंदोलन का रुप अख्तियार कर लेता है। यह आंदोलन सही हो कोई ज़रुरी नहीं, पर अगर इसे बलपूर्वक दबाया जाए तो यह बढ़ता ही रहता है। ऐसी परिस्थिति में मुख्यधारा से फायदा उठानेवाले लोग समझदार हों तो वे थोड़ी बहुत रियायतें देकर विरोधियों को खुद में शामिल कर लेते हैं (co-option)। कभी कभी पानी इतना ऊपर चढ़ आता है कि वापस लौटने का रास्ता नहीं दिखता।

प्रसिद्ध नक्सली नेता नागभूषण पटनायक एकबार हमारे विश्वविद्यालय (१९८६-८७) आए थे। तब हाल में ही उन को दी गई मौत की सजा हटा ली गई थी और वे कानूनी मान्यता प्राप्त संगठन 'इंडियन पीपल्स फ्रंट' के अध्यक्ष थे। भिन्न मतों के वामपंथियों से बात करते हुए भावुकता पूर्ण लहजे में उन्होंने एक बात कही कि सबसे पहले तो हम यह समझ लें कि हम सब देशभक्त हैं। उनकी यह बात मैं भूलता नहीं हूँ। सोचो दोस्तो, देशद्रोह के लिए मौत की सजा पाया व्यक्ति कहता है वह देशभक्त है, मौत की सजा देनेवाले कहते हैं वे देशभक्त हैं। स्पष्ट है कि देशभक्ति का अर्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग है। कुछ के लिए भूमि, भाषा प्रमुख है, तो दूसरों के लिए जन प्रमुख है। काश्मीरी लोगों के बारे में सोचें। आई आई टी कानपुर छोड़कर अमरीका जाने तक मैं किसी काश्मीरी मुसलमान से नहीं मिला था, हालाँकि काश्मीरी हिन्दू (पंडित) प्रोफेसरों को मैं जानता था। इतने सालों के बाद भी पंजाब में रहते हुए मैं एक ही काश्मीरी मुसलमान प्रोफेसर को जानता हूँ, जो आई आई टी दिल्ली में केमिस्ट्री पढ़ाते हैं। कई काश्मीरी बुद्धिजीवियों को मैं जानता हूँ जो संयोग से पंडित हैं। बेशक इस तरह से दुनिया को देखना एक सांप्रदायिक नज़रिया है, पर इसके बिना हम यह जान ही नहीं पाएंगे कि काश्मीरी बहु-संप्रदाय बौद्धिक रुप से हाशिए पर रहा है। मुसीबत यह है कि कुछेक मुसलमान परिवारों में सुविधाएं बाँटकर एक बहुत बड़े तबके को हमेशा अपने नियंत्रण में नहीं रखा जा सकता। सारा हिंदुस्तान जानता है कि काश्मीरियों को रियायतें दी गई हैं। पर जब आप काश्मीरी मुसलमान से मिलते हैं तो वह शिमला में 'अल्लाहू' कहता हुआ सामान ढो रहा होता है। मैं जानता हूँ कि आज काश्मीर के अंदर स्थिति ऐसी नहीं है। जबरन पंडितों को हटाकर मुसलमान नागरिकों को नौकरियाँ दी गई हैं। तकलीफ होती है कि फिर भी सभी काश्मीरी हिंदुस्तान के साथ नहीं हैं। मैं जब कहता हूँ कि एक आज़ादी की लड़ाई है, तो उसका मतलब यही है कि एक आज़ादी की लड़ाई है। उसमें मैं शामिल नहीं हूँ, पर एक लोकतांत्रिक देश में मुझे यह कहने का हक होना चाहिए कि यह एक आज़ादी की लड़ाई है। आज़ादी को बदलकर तथाकथित आज़ादी कर देने से वह तथाकथित आज़ादी नहीं बन जाती, हाँ यह ज़रुर सिद्ध हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं है।

जो पीड़ित है, उसे हमेशा ही लगता है कि उसकी बात कम हुई है। रमण की तकलीफ को मैं या कोई भी शब्दों में नहीं बखान सकता। चाहे मीडिया में कितनी ही बार पांडुंग काश्मीर की बात हो, वह काफी नहीं हो सकता। मैंने एक ऐतिहासिक प्रक्रिया को अपने ढंग से देखकर उसे कहने की कोशिश की है। तो क्या मैं यह मानता हूँ कि काश्मीर पाकिस्तान में चला जाए? नहीं, मैं यह मानता नहीं और चाहता भी नहीं, पर मैं यह समझता हूँ कि ऐतिहासिक कारणों से औसत काश्मीरी भारत के साथ नहीं है। हो सकता है यह स्थिति जल्दी ही बदल जाए, पर यह सीमा को बंद रखकर और आम नागरिकों की तकलीफों को बढ़ाकर नहीं हो सकता। जो कुछ भी हो, सही गलत, यह निर्णय काश्मीरियों के द्वारा ही होगा। पाकिस्तान और भारत दोनों ही सरकारें इस मामले में अपराधी हैं और इतिहास इन दोनों सरकारों को मुआफ़ नहीं करेगा।

हममें से हर कोई इस मसले पर भावुक होकर सोचता है। मैं भी होता हूँ। यह मेरा सपना है -मैंने इस पर कई साल पहले अखबारों के op-ed आलेखों में लिखा भी है - भारत पाकिस्तान और काश्मीर समेत दक्षिण एशिया के अन्य देश खुली सीमाओं वाले एक महासंघ का हिस्सा बनें। इसके लिए ज़रुरी है कि काश्मीर को पच्चीस साल तक संयुक्त राष्ट्र संघ के हाथ छोड़ा जाए। भारत और पाकिस्तान दोनों की फौजें वहाँ से निकलें। इन पच्चीस सालों में भारत और पाकिस्तान की सीमाएं खुलें, जम्मू से राजस्थान के उत्तरी क्षेत्र तक की अंतर्राष्ट्रीय सीमा की हजार मील वाली उपजाऊ जमीन पर पूरी फसल उपजे, खुला व्यापार हो, सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान हो, आदि आदि। पच्चीस सालों के बाद काश्मीर में जनमत संग्रह हो और जो भी निकले वह सर्वमान्य हो।

जब अफगानिस्तान पर रुसी नियंत्रण था, उसके आखिरी दौर में शायद फरवरी १९८४ में National Geographic का एक दक्षिण एशिया विशेषांक (जिसके आवरण पर एक सचमुच की नीली आँखों वाली - यानी ऐश्वर्य राय नहीं- खूबसूरत अफगानी महिला की तस्वीर थी) निकला, जिसमें एक साम्यवाद विरोधी अमरीकी रीपोर्टर ने लिखा कि जो रुसी डाक्टर अफगानिस्तान के गाँवों में काम कर रहे थे, वे किसी वैचारिक आग्रह से नहीं, बल्कि मानवतावादी दृष्टिकोण से काम कर रहे थे। मैंने यह भी पढ़ा है कि तत्कालीन साम्यवादी शासक दल के कार्यकर्त्ता गाँवों में जाकर लड़कियों को पढ़ाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे, उनकी पिटाई होती थी - कई तो मार ही दिए गए। जो कुछ भी ऊपर से थोपा जाता है, वह कितना भी भला क्यों न हो, अक्सर मनुष्य इसके खिलाफ होता है और अनुकूल परिस्थितियों में (अफगानिस्तान में अमरीका और पाकिस्तान की और काश्मीर में पाकिस्तान की मदद से) यह व्यापक विद्रोह का रुख ले लेता है। यह धर्मग्रंथों की वजह से नहीं, विशुद्ध मानवीय प्रवृत्तियों की वजह से होता है। एक ऐसे मुल्क में जहाँ अधिकतर लोग व्यवहारिक रुप में निरक्षर हैं, वहाँ सरकारें कभी भी जनपक्षधर नहीं हो सकतीं, चाहे वे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी। सरकारों का रवैया कितना जनविरोधी होता है, इसका एक उदाहरण मुझे दो काश्मीरी पंडित मित्रों ने अलग अलग वक्त पर दिया है - कहा जाता है कि नब्बे के दशक की शुरुआत में काश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल ने पंडितों के मुख्य प्रतिनिधियों को बुलाया और उनसे आग्रह किया कि वे अपने समुदाय से कहें कि कुछ समय के लिए घाटी छोड़कर चले जाएं, ताकि आतंकवाद विरोधी प्रशासनिक कार्रवाई में उनको क्षति न पहुँचे। मैं राजनीति शास्त्र का विद्यार्थी तो नहीं कि इस बात की सच्चाई पर शोध करुँ, पर अगर ऐसा हुआ तो सोचिए कि कितनी मूर्खतापूर्ण बात है, जो सभी काश्मीरियों के हितों के खिलाफ है। इन सरकारों ने असंख्य निर्दोष जानें ली हैं। जो फौज की नौकरी करते मारे जाते हैं, वे मारे ही जाते हैं, चाहे हम जितना भी कुछ आँख में भर लो पानी गाकर इसे भूलते रहें। यह भी सोचने की बात है कि जिस तरह अमरीका का सैन्य-तंत्र अपना वजूद बनाए रखने और राष्ट्रीय बजट में अपने अनुदान बनाए रखने के लिए जगह जगह जंगें करवाने को मजबूर है, क्या उसी तरह पाकिस्तानी और भारतीय सैन्य-तंत्र और राजनैतिक स्वार्थ भी काश्मीर की समस्या को बनाए रखने के लिए मजबूर नहीं?


एक चिंता हम सब लोगों को खाती रहती है:

बकौल रमण: "हम तो अपनी जन्मभूमि कश्मीर खो ही चुके हैं, अब चाहे उसे आज़ादी दे दें या पाकिस्तान को दे दें हमारी बला से। पर क्या इस्लाम के कारण कश्मीर को अलग करना भारत के सेक्यूलरिज़्म को नकारना नहीं होगा? देश के बाकी हिस्सों में इस का क्या असर होगा? और क्या इस से जिहादी चुप हो जाएँगे? उन का ध्येय तो तब पूरा होगा, जब पूरे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में “रौशनी” नहीं फैलती, भले ही वह तलवारों से और बमों से ही क्यों न फैले।"

हो सकता है यही सच हो। पर मैं नहीं मानता ऐसा है। मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसा कहते हुए जाने अंजाने (सचमुच न चाहते हुए भी) रमण यह कह रहे हैं कि हमारी तकलीफ तो जो है सो है काश्मीर में किसी भी हालत में बहु-संख्यक लोगों का राज्य नहीं होने देंगे, चाहे इसके लिए हजारों जानें जाती रहें, करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो (सिर्फ काश्मीरियों की नहीं, तकरीबन पूरे दक्षिण एशिया की) मैं दुबारा कह रहा हूँ, न तो विद्रोह या प्रगति और न ही इनको दबाने कि प्रवृत्तियाँ धर्मग्रंथों से आती हैं। किसी एक कारण को सही मान कर गैरलोकतांत्रिक दमनकारी ताकतों के साथ खड़े होने की गल्ती सभ्य समाज ने कई बार की है और बहुत बाद में जब कुछ बच नहीं जाता, इस पर रोना धोना होता रहता है। मेरे कई अच्छे अपूर्ण कामों में से एक है Howard Zinn की पुस्तक 'A People's History of the United States' का हिन्दी अनुवाद। प्रकाशित बारह (अनूदित) अध्यायों में पहला अध्याय १९८८ में 'पहल' में आया था। इसमें ज़िन ने इतिहास लेखन पर टिप्पणी की है और सवाल उठाया है कि कोलंबस और उसके बाद अमरीकी महाद्वीप पर आ बसे दूसरे यूरोपी मूल के लोगों ने वहाँ के मूल निवासियों का जो कत्ले-आम किया था, उसे हम नज़र अंदाज़ क्यों नहीं कर सकते या दूसरे इतिहासकारों की तरह उसके बारे में जरा सा कहकर आगे क्यों नहीं बढ़ सकते। ज़िन का मानना है कि इतिहास को सीमित और वैचारिक आग्रहों के नज़रिए से देखने की वजह से ही बार बार कत्ले-आम होते रहे हैं: जैसे पश्चिमी सभ्यता को बचाने के नाम पर हिरोशिमा नागासाकी, साम्यवाद को बचाने के नाम पर स्टालिन के ज़ुल्म और पूर्वी यूरोप पर रुसी बर्बरताएं आदि।

रमण, इस सूची में आप हम जोड़ रहे हैं, इस्लाम से बचाने के नाम पर काश्मीरियों के साथ ही दक्षिण एशिया के अनगिनत दूसरे लोगों की लगातार चल रही हत्याएं (यह तकलीफ जरुर देती है, पर बात तो यही है, देशभक्ति के नाम पर हत्याएं - जैसे गुलाब किसी और नाम से गुलाब ही होता है, हत्या भी किसी और नाम से हत्या ही होती है)।

आखिर में, अलसिकंदरिया (Alexandria) के पुस्तकालय को ध्वंस कर और वहाँ अकथ मेहनत से इकट्ठी की गई पोथियाँ जलानेवाले मूर्तिपूजक थे, सोमनाथ का ध्वंस करने वाले मूर्तिपूजा के विरोधी थे। मार्कोपोलो भारत के जिन इलाकों में पहुँचा, वहाँ उसे घिनौने, लंपट और उसकी नजरों में असभ्य लोग मिले। इन सब बातों का अर्थ देश-काल के सीमित संदर्भों में ही होता है। यह आपकी मर्जी कि आप बहुत सारे लोगों को अपना दुश्मन मानते रहें। लोग हर जगह एक जैसे ही होते हैं, इसलिए नहीं कि धर्मग्रंथों में ऐसा लिखा है, महज इसलिए की वे जैविक रुप से एक जैसे हैं। अब तो HGR (Human Genomics Research) ने भी यह साबित कर दिया है। धर्मग्रंथों को हमें पढ़ना चाहिए क्योंकि ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। जितनी जल्दी हम समझ जाएं कि धर्मग्रंथों में तथ्यात्मक रुप से कुछ भी प्रामाणिक नहीं और जिसकी जैसी मर्जी उनकी व्याख्या करता रहता है, उतना ही भला।

बिहार और देश के दूसरे इलाकों में पृथकतावादी आंदोलन क्यों नहीं? वाजिब सवाल है। सीमावर्त्ती सभी इलाकों में पृथकतावादी आंदोलन किसी न किसी स्वरुप में रहे हैं, कहीं ज्यादा तो कहीं कम। उत्तर-पूर्व के इलाकों में बिना किसी दूसरे मुल्क के सीधे हस्तक्षेप के उग्र पृथकतावादी आंदोलन रहे हैं, एक समय वे काश्मीर से भी ज्यादा तीव्र थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में 'आमरा बाँगाली' आंदोलन ने थोड़ी बहुत ज़मीन बनाई थी। यह भी देश की मुख्यधारा से नाराज़ तबके का ही आंदोलन था। पर मुख्यधारा वाली वाम पार्टयों की पकड़ लोकमानस पर ज्यादा गहरी थी और पृथकतावादी भावनाएँ धीरे धीरे कमज़ोर पड़ गईं। हिन्दी प्रदेश के राज्यों में भयंकर असंतोष तो है ही, यह तो हर कोई जानता है। जहानाबाद का जेल ब्रेक कोई ऐसे ही तो नहीं हुआ।

दोस्तो, मेरा लिखा अक्सर किसी न किसी को बुरा लगेगा और सवाल भी उठेंगे। अगर अंग्रेज़ी की ही स्पीड से टंकण कर पाता तो भी सवालों के जवाब देने लायक हालत में नहीं हूँ। कई सारी चीज़ों में टाँग अड़ाना एक उम्र तक तो ठीक है, पर अब नहीं हो पाता। यह कोई बचने की कोशिश नहीं, अपने आप से ही क्षमा याचना है, क्योंकि गंभीर विषयों पर कुछ कह देना और फिर कहना कि समय नहीं है, यह अच्छी बात नहीं है। पर, कुछ कविताएं लिखने को भी समय तो चाहिए न? सबको नहीं कुछ को तो पसंद होती ही हैं, क्यों प्रत्यक्षा जी :-)
इसलिए अब आप लोग बहस करते रहिए, मैं और जवाब नहीं दे पाऊँगा।

देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने हत्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।

मार्च २००४ (पश्यंती २००४)