प्रिय गौतम, यह बढ़िया कि तुमने जवाब दे दिया तो मुझे फिर एक चिट्ठा लिखने की हिम्मत मिल गयी, वरना इन दिनों मैं ऐसा थका हुआ हूँ कि लिखा नहीं जाता। मेरे भाई, तुम इतने गुस्से में हो कि मुझमें तुम्हारे प्रति प्यार बढ़ता जाता है। इतना गुस्सा कि बोल्ड font में जताना कि मुझे राक्षस कहा - ओये होए।
पर प्यारे भाई, एक बार ठंडे दिमाग से मेरा लिखा पढ़ लिया होता। मैं फिर एक बार लिख रहा हूँ - हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है।
मेरे दोस्त, 'हर इंसान' का खिताब क्या सिर्फ सैनिकों को मिला है?
गौर करो कि मैंने यह कहीं नहीं कहा कि हर व्यक्ति हर वक़्त दानव होता है। एक व्यक्ति एक ही साथ सैनिक भी हो सकता है और भाई बन्धु भी। दानव वह होता है 'जब तनाव तीव्र हो'
मैंने यह भी लिखा कि अपने सैनिक को कविता पाठक से अलग करो।
मैंने यह भी लिखा है कि 'अब तक सेनाओं का उपयोग शासकों ने इंसान का नुक्सान करने के लिए ही किया है'।
सम्प्रेषण एक जटिल प्रक्रिया है। हम सोचते हैं कि हमने बात कह दी, वह सही सही ठिकाने पर पहुँच गयी। ऐसा होता नहीं है, स्पष्ट है कि हमारे तुम्हारे बीच ऐसा हुआ नहीं है।
वैसे दोस्त मैंने गौर किया है कि गाली गलौज 'कथित' पर रुका नहीं। बहरहाल मैं फिर भी इसे प्यार की एक वजह मान कर चल रहा हूँ।
और यह बढ़िया कि मेरी कविता की मार मुझी पर ... कश्मीर में हो न, इसलिए लगता होगा कि लू तो है ही नहीं, कैद का वैसे भी कोई सवाल ही नहीं, भई भारतीय सेना के मेजर हो। (यह गाली मैंने पिछले पोस्ट में नहीं दी थी, उसके पहले तो भाई 'कथित' कहकर तुमने मुझे छेड़ा तो छेड़ने के बाद मम्मी मम्मी क्यों?)
हाँ, मुझे अपनी कैद का अहसास है, अच्छा लगता है कि तुम्हें लगता है कि तुम मुक्त हो।
तो दोस्त हमारी फौज में भर्ती चालू है, दर्दनाक ज़रूर है यह जानना कि इंसान सिर्फ इंसान होता है वह हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी किसी और की गलती से बना है।
जो कुछ बचपन से सुनते आये हैं, जो विचार आजतक हमारे सवालों के दायरे में नहीं आये, उन पर अचानक एक दिन सवाल खड़े करना सचमुच दर्दनाक होता है. इस दर्द को झेल सको तो आ जाओ, रैंक का तो पता नहीं इधर तो सभी सिपाही हैं।
और चूंकि हम किसी भी इंसान को पहले इंसान मानते हैं, इसलिए वे भी जो कभी कभार दानव की भूमिका अपनाने को मजबूर हैं, उन्हें भी न्योता है, हमारी फौज में भर्ती चालू है।
मैं अपने प्रिय कवि Walt Whitman की पंक्तियाँ लिख कर बात ख़त्म करता हूँ:
I CELEBRATE myself, and sing myself,
And what I assume you shall assume,
For every atom belonging to me as good belongs to you...
I am the poet of the Body and I am the poet of the Soul,
The pleasures of heaven are with me and the pains of hell are with
me,
The first I graft and increase upon myself, the latter I translate
into new tongue. ...
Have you outstript the rest? are you the President?
It is a trifle, they will more than arrive there every one, and
still pass on.
I am he that walks with the tender and growing night,
I call to the earth and sea half-held by the night।
बाद की लाइनें इस प्रसंग की नहीं हैं - हो भी सकती हैं
Press close bare-bosom'd night - press close magnetic nourishing
night!
Night of south winds - night of the large few stars!
Still nodding night - mad naked summer night.
Smile O voluptuous cool-breath'd earth!
Earth of the slumbering and liquid trees!
Earth of departed sunset - earth of the mountains misty-topt!
Earth of the vitreous pour of the full moon just tinged with blue!
Earth of shine and dark mottling the tide of the river!
Earth of the limpid gray of clouds brighter and clearer for my
sake!
Far-swooping elbow'd earth - rich apple-blossom'd earth!
Smile, for your lover comes.
Prodigal, you have given me love - therefore I to you give love!
O unspeakable passionate love.
हंस में तुम्हारी कहानी कभी पढ़ी है पर याद नहीं है, पाखी मेरे पास आती नहीं है। ढूँढ कर पढूंगा। मैं मानता हूँ कि एक दिन तुम हमारे साथ खड़े होगे।