Tuesday, November 27, 2012

प्रकृति-प्रेरित ऊर्जा के वैकल्पित स्रोत



हमारे समय में ऊर्जा का संकट एक बड़ा संकट है। औद्योगिक क्रांति के पहले जंगल से काट कर लाई गई लकड़ी ही ऊर्जा का मुख्य स्रोत थी। औद्योगिक क्रांति ने बड़े पैमाने पर कोयला और खनिज तेल की खपत बढ़ाई। कोयला और खनिज तेल का उत्पादन क्षेत्र और इनकी खपत के क्षेत्र में भौगोलिक दूरी से पूँजीवादी विकास सीमित रह गया होता, पर बिजली के आविष्कार और संचय में तरक्की से विकास और ऊर्जा की खपत धरती के हर क्षेत्र में फैला और ऊर्जा की खपत तेज़ी से बढ़ी। पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था द्रुत औद्योगिक प्रगति की माँग करती है। इसके लिए, खास तौर पर मैनुफैक्चरिंग सेक्टर यानी उत्पादन क्षेत्र को अधिकाधिक ऊर्जा चाहिए। साथ ही मध्य-वर्ग के लोगों की बदलती जीवन शैली और इस वर्ग में बढ़ती जनसंख्या से ऊर्जा की खपत तेज रफ्तार से बढ़ती चली है। बड़े पैमाने में ऊर्जा की पैदावार के लिए कोई भी सुरक्षित तरीका नहीं है। कूडानकूलम संयंत्र के खिलाफ जो जन-संघर्ष चल रहा है और हाल में जापान और फ्रांस की सरकारों ने अगले दो तीन दशकों में ही नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भरता से मुक्ति का जो ऐलान किया है, इससे यह तो सबको पता चल ही गया है कि तमाम दावों के बावजूद नाभिकीय ऊर्जा अभी तक ऊर्जा की सुरक्षित स्रोत नहीं बन पाई है। ऊर्जा की पैदावार के दूसरे पारंपरिक स्रोत, जैसे ताप-विद्युतीय या जल- विद्युतीय संयंत्रों की सीमाएँ हैं। कोयला, खनिज तेल या प्राकृतिक गैस के संसाधन इसी सदी नहीं तो अगली सदी के अंत तक खत्म होने लगेंगे। तो क्या भविष्य अंधकारमय है? पूँजीवाद और अंधाधुंध मुनाफाखोरी की सोच अगर हावी रहे तो भविष्य अंधकारमय है, अन्यथा ऊर्जा के वैकल्पिक सुरक्षित स्रोतों पर वैज्ञानिक शोध-कार्य निरंतर जारी है और उम्मीद की वजहें हैं। सौर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि कई विकल्पों पर आम आदमी के स्तर तक चेतना है और दुनिया भर में इन क्षेत्रों में तकनीकी तरक्की के लिए आर्थिक और मानव-श्रम का निवेश बढ़ता जा रहा है। तकरीबन सभी देशों की सरकारें और उनके विज्ञान सलाहकार ऊर्जा संबंधी शोध को अधिक प्राथमिकता दे रहे हैं। वैज्ञानिक शोध की दिशा पर जारी रिपोर्टों से भी यह जाहिर होता है।

समूची धरती पर सौर्य ऊर्जा की आमद लाखों करोड़ों सालों तक बनी रहेगी। सचेत रूप से बहुत ही छोटे पैमाने पर सौर्य ऊर्जा का इस्तेमाल अनादि काल से होता आया है। ठंड के दिनों में धूप सेकने से लेकर भवन-निर्माण की योजना में सौर्य ऊर्जा का फायदा उठाना या गर्दन दुखने पर तकिया धूप में रखना जैसे नुस्खे अपनाना आदि इसके बेशुमार उदाहरण हैं। मानवेतर प्रकृति में हर स्तर में सौर्य ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे होता रहा है, इस के बारे में हम हमेशा सचेत होते नहीं है। अरबों वर्षों से जो कुछ नैसर्गिक रूप से धरती पर होता रहा है, जैसे जैविक विकास आदि, यह सब कुछ सौर्य ऊर्जा के कारण ही है।

धरती के वायुमंडल की ऊपरी सतह पर सूरज से 174 पीटा वाट ऊर्जा प्राप्त होती है (1 पीटा= 1015 यानी दस हजार खरब या 1 पद्म; 1 वाट= प्रति सेकंड 1 जूल ऊर्जा। सामान्य ट्यूब लाइट जलने पर 36 वाट ऊर्जा खर्च होती है) । इसका 30% वापस अंतरिक्ष में प्रतिफलित (रीफ्लेक्ट) होकर वापस चला जाता है। बाकी का जो हिस्सा वायुमंडल और बादलों से छन कर जो हम तक पहुँचता है, वही हमारे जीवन का स्रोत है। दस साल पहले के आँकड़ों के अनुसार साल भर में समूची दुनिया में मानव द्वारा ऊर्जा की जितनी खपत होती है, उसके बराबर सौर्य ऊर्जा घंटे भर में धरती की सतह यानी ज़मीं द्वारा शोषित होती है। प्रति वर्ष यह मात्रा तकरीबन 3,850,000 EJ या एक्स़ा जूल (1 एक्स़ा=1018) है, जबकि मानव द्वारा कुल मिलाकर प्रति वर्ष 600 एक्स़ा जूल ऊर्जा की ही खपत होती है। जल-चक्र सतह का तापमान बढ़ना, पानी का भाप बनना, भाप का हल्का होकर ऊपर ठंडे क्षेत्र में जाना और वहाँ से जम कर सतह पर वापस बरस आना और अन्य प्राकृतिक कई खेल इसी का परिणाम हैं। पर क्या सतह पर शोषित सारी ऊर्जा का पूरी तरह इस्तेमाल हो पाता है? इसका जवाब नहीं में है और विपुल परिमाण ऊर्जा जो वापस अंतरिक्ष में वापस जा रही है, उसे रोक कर काम में लाने की संभावना भी बहुत है। धरती पर कुल कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस जैसे अ-नवीकरणीय (non-renewable) ऊर्जा स्रोतों और समूचे उपलब्ध यूरेनियम स्रोतों (जिसका इस्तेमाल नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन में हो सकता है), सारे मिलाकर सतह पर आने वाली सौर्य ऊर्जा का आधा ही दे पाएँगे।
मानव के अलावा धरती पर अन्य प्राणी और वनस्पतियों ने भी ऊर्जा के भरपूर इस्तेमाल के लिए जटिल जैवरासायनिक तंत्र विकसित किए हैं। 1974 में 'टेलस' पत्रिका में प्रकाशित एक पर्चे में रसायनविद् जेम्स लवलॉक और जीवविज्ञानी लिन मार्गुलिस ने यह सिद्धांत पेश किया कि धरती के सभी प्राणी मिल कर परिवेश को जीवन के लिए मददगार बनाए रखते हैं। मानव के बारे में यह पूरी तरह सच न भी हो, यह सही है कि उपलब्ध ऊर्जा का कोई हिस्सा बर्बाद न हो, इसकी पूरी कोशिश अन्य कई प्राणियों और खास कर पौधों की बनावट में और उनकी जीवन प्रक्रियाओं में है। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा पौधे जैव-सामग्री निर्माण में प्रति वर्ष 3,000 EJ (130 टेरा वाट; 1 टेरा=1012) सौर्य ऊर्जा की खपत करते हैं। क्या नाभिकीय ऊर्जा जैसे खतरनाक विकल्पों की जगह प्रकाश संश्लेषण पर आधारित कोई विकल्प कारगर हो सकता है? प्रकृति में दीमक की कोशिकाओं में या दलदल की गहराई में सेल्यूलोज़ जैसी जैव-सामग्री से कुशलता से ईंधन बनाने की क्षमता मौजूद है। जैविक जगत की कृत्रिम प्रतिकृतियाँ बनाना आसान नहीं है, पर आणविक जैवरसायन में बड़ी तेज़ी से तरक्की हो रही है और अगले कुछ दशकों में वायुमंडल से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड (CO2) को सौर्य ऊर्जा की मदद से ऐसी जैव-सामग्री में बदलने में सफलता मिलने की उम्मीद है, जिनका ईंधन की तरह इस्तेमाल हो सके। रासायनिक तरीकों से विकल्पों के संधान में जैव-ईंधन पर शोध काफी आगे बढ़ चुका है। इस दिशा में पहले चरण में काष्ठ(लकड़ी) - ईंधन में रासायनिक तरीकों से बदलाव लाने से लेकर मक्का (मकई) से अल्कोहल बनाकर उसे डीज़ल में मिलाना या पौधों से निकले तैलीय पदार्थों (जैसे सोयाबीन तेल) से जैव-डीज़ल बनाना आदि पर काफी शोध हुआ। इसका खास फायदा न हुआ, क्योंकि कई नई तरह की सामाजिक (जैसे फसलों की पैदावार संबंधी या बड़े पैमाने पर कचरा बनना) और आर्थिक समस्याएँ (अपर्याप्त मुनाफा आदि) सामने आईं। दूसरे चरण में जैविक स्रोतों से अल्कोहल बनाने के नए विकल्प, जैसे लिग्नोसेल्यूलोज़ (लिग्निन और सेल्यूलोज़ - काष्ठ के बुनियादी अंश) को सूक्ष्म-जीवों (microorganisms) द्वारा ग्लूकोज़ और ज़ाईलोज़ (xylose) जैसे शर्कराओं में बदलकर और फिर उनसे किण्वन (फर्मेंटेशन) से ईथानोल प्राप्त करने, या ताप के जरिए जैविक सामग्री को ईंधन में बदलने पर काम होता रहा है। तीसरे (वर्त्तमान) चरण में प्रकाश (सौर्य ऊर्जा) के सीधे इस्तेमाल से पानी और CO2 को जैव-डीज़ल में बदलने पर जोर है। खास तौर पर जलाशयों में आम तौर पर पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों जैसे शैवालों (algae) और सायानोबैक्टीरिया (cyanobacteria) आदि में प्रकाश संश्लेषण के जरिए सामान्य अणुओं को ईंधन में बदलने की अद्भुत क्षमता पाई गई है (चित्र देखिए)। इसमें खास बात यह है कि पहले दो चरणों में जैव-सामग्री से जुड़ी जो समस्याएँ सामने आई थीं, वे अब नहीं हैं, क्योंकि यहाँ सीधे ईंधन का उत्पादन हो रहा है। पौधों और इन सूक्ष्म-जीवों में प्रकाश संश्लेषण की क्रियाओं में यह एक बुनियादी फर्क है। सूक्ष्म-जीवों का एक गुण यह भी है कि इनके जैविक परिवेश के लिए कोई औद्योगिक संयंत्र जैसै बड़ा ताम-झाम नहीं चाहिए।


हाइड्रोजन के व्यवसायिक स्तर पर उत्पादन के लिए उत्पादन-दर में बढ़त ज़रूरी है। अब तक पाए गए सबसे द्रुत (260 ml/mg/h) गति से हाइड्रोजन उत्पादन करने वाले बैक्टीरिया का नाम आर. स्फेरोयडिस (R. Sphaeroides) है। इससे उत्पादित हाइड्रोजन के ज्वलन से आरंभ में ली गई सौर्य ऊर्जा का 7% काम में लाया जा सकता है। वैज्ञानिक इस से मिलती जुलती अन्य प्रजाति के बैक्टीरिया पर शोध कर रहे हैं जिनसे सौर्य बैटरी के बराबर ऊर्जा का उत्पादन संभव हो सके। नए बैक्टीरिया जनने के लिए जीनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकें भी काम में लाई जा रही हैं। कई बैक्टीरिया अँधेरे में भी स्टार्च जैसे यौगिकों का रासायनिक खंडन कर हाइड्रोजन बनाते हैं।


चित्र: बायीं ओरः प्रकाश संश्लेषण की सामान्य धारणा; दायीं ओरः सूक्ष्मशैवाल (Microalgae) प्रकाश संश्लेषण द्वारा पानी, CO2, और सूरज की रोशनी से सीधे, (बिना कोई जैव-सामग्री बनाए), कई प्रकार के ईंधन बनाने में सक्षम हैं। (स्रोत: http://science.howstuffworks.com/environmental/earth/geophysics/earth3.htm; http://www.photobiology.info/Seibert.html)


सामान्यतः प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को कार्बन-डाइ-ऑक्साइड और पानी को कार्बोहाइड्रेट में बदलकर ऑक्सीज़न उत्पन्न करना ही जाना जाता है। पौधों के हरित पदार्थ में मौजूद क्लोरोफिल के अणु द्वारा ऊर्जा के सोखने से रासायनिक क्रियाओं का एक जटिल तंत्र चल पड़ता है। इसके तीन मुख्य चरण हैं i) प्रकाश ऊर्जा का विद्युत ऊर्जा में बदलना, ii) विद्युत ऊर्जा का रासायनिक ऊर्जा में संचित होना (ATP synthesis), और iii) ATP की रासायनिक क्रियाएँ (fixation of CO2, and hydrogen production) इन क्रियाओं के विस्तार में जाने पर हम जानते हैं कि इस प्रक्रिया में सौर्य ऊर्जा की मदद से पौधे पानी के अणुओं को ऑक्सीजन और हाइड्रोजन में तोड़ते हैं। इसके बाद हाइड्रोजीनेज़ एंज़ाइम आणविक हाइड्रोजन के ऑक्सीकरण को उत्प्रेरित (कैटालाइज़) करते हैं यानी इलेक्ट्रॉन अपचय की गति बढ़ाते हैं। अंततः हाइड्रोजन और इलेक्ट्रॉन की धारा मिलकर कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को जैव सामग्री में बदल देते हैं। मानव निर्मित ईंधन सेल में भी H–H बंधन को तोड़कर इलेक्ट्रॉन मुक्त किए जाते हैं। इसके लिए भी उत्प्रेरक (कैटलिस्ट) की ज़रूरत होती है। विश्व भर में ऐसे सस्ते और आसानी से बनाए जा सकने वाले उत्प्रेरक की खोज जारी है। वर्त्तमान में इसके लिए प्लैटिनम धातु का इस्तेमाल होता है, जो काफी महँगा है। खर्च कम करने के लिए कोई सस्ता पदार्थ ढूँढना होगा। अभी तक यह समझ नहीं बन पाई है कि H–H बंधन को तोड़कर इलेक्ट्रॉन मुक्त कर हाइड्रोज़न के ऑक्सीकरण में प्लैटिनम की भूमिका ठीक क्या है। बिना इसे पूरी तरह जाने बिना प्लैटिनम का सस्ता विकल्प ढूँढ पाना कठिन ही है।
प्रोटीन क्रिस्टलोग्राफी (एक्सरे किरणों के द्वारा आणविक संरचना जानने की पद्धति) से यह पता चला है कि प्राकृतिक हाइड्रोजीनेज़ एंज़ाइम अणुओं में लौह और निकेल जैसे धातु के अणु होते हैं, जो मानव निर्मित उत्प्रेरकों का बेहतर विकल्प हैं। इनमें पेंडेंट अमीन (pendant amines) नामक अणुओं की ऐसी लटकती छोटी शृंखलाएं भी होती हैं, जिनमें नाइट्रोजन के परमाणु विशेष जगहों पर स्थित होते हैं। ये नाइट्रोजन अणु क्षारीय गुणधर्म दर्शाते हुए H2 के ऑक्सीकरण के साथ टूट कर बने प्रोटोन (इलेक्ट्रॉन रहित H परमाणु) को हटाते हैं। इसी से प्रेरित होकर अमेरिकी वैज्ञानिक मॉरिस बुलॉक के नेतृत्व में प्राकृतिक एंज़ाइम जैसा ही काम करने वाले एक ऐसे अणु को बनाने की कोशिश ज़ारी है, जिसमें लौह परमाणु का उपयोग किया गया है। हाल में ही अमेरिकन केमिकल सोसायटी की पत्रिका में प्रकाशित अपने परचे में बुलॉक और सहयोगियों ने विस्तार से समझाया है कि इस कृत्रिम उत्प्रेरक में हाइड्रोज़न अणुओं के साथ क्रिया करने के लिए लटकते पेंडेंट अमीन को सही जगह रखने के लिए एक छः भुजाओं के रिंग (चक्राकार) का इस्तेमाल किया गया है, जिसमें फास्फोरस का भी एक अणु मौजूद है। इस पेंडेंट अमीन में मौजूद सक्रिय लौह परमाणु हाइड्रोज़न अणु को प्रोटोन (H+) और हाइड्राइड (H) आयन में बदल देता है। प्रोटोन विलायक में घुल जाता है और सारी क्रिया दुबारा शुरू हो जाती है। हाइड्रोजन अणु को प्रोटोन और हाइड्राइड आयन में तोड़ने लिए ऊर्जा चाहिए और इस तरह बने प्रोटोन को अगर तुरंत हटाया न गया तो वह दुबारा हाइड्राइड के साथ मिल कर हाइड्रोज़न अणु बनाएगा। यही काम नाइट्रोजन के परमाणु का है। इस पर मौजूद युग्म इलेक्ट्रॉन से बना क्षारीय स्वरूप इस काम आता है। प्रोटोन अमीन के नाइट्रोजन के साथ, और हाइड्राइड लौह परमाणु के साथ बँध जाते हैं। इस तरह पौधों में हो रही क्रिया प्रक्रियाओं से प्रेरित इस उत्प्रेरण में नाइट्रोजन को लिगेंड ( ligand) अणु में सही जगह स्थापित कर प्रोटोन को हटाने के लिए आवश्यक ऊर्जा की मात्रा को कम किया जाता है। वैज्ञानिकों को यह पता कैसे चलता है कि अणुओं के स्तर पर यह सब कुछ हो रहा है? पिछली सदी में ऐसी कई तकनीकें विकसित हुई हैं, जिनसे यह जानकारी मिलती है। एक तरीका यह है कि हाइड्रोजन के साथ थोड़ा सा ड्यूटीरियम (D2) भी लिया जाता है। ड्यूटीरियम परमाणु हाइड्रोज़न का समस्थानिक (आइसोटोप) है, जिसकी नाभि में एक अतिरिक्त न्यूट्रॉन होने से इसका परमाणु भार हाइड्रोजन का दुगुना होता है, अन्यथा रासायनिक गुणधर्मों में यह हाइड्रोजन जैसा ही होता है। जब हाइड्रोजन और ड्यूटीरियम के अणु टूट कर विलयन में आपस में जुड़ते हैं, तो HD बनता है, और नाभिकीय चुंबकीय अनुनाद (nmr – nuclear magnetic resonance) के जरिए इसकी पहचान की जा सकती है।
बुलॉक की टीम का मकसद प्रकृति में पाए जाने वाले उत्प्रेरक की नकल करना है। अन्य कई प्रयोगशालाओं में प्राकृतिक एंज़ाइम अणुओं की संरचना वाले कृत्रिम उत्प्रेरक बनाए जा रहे हैं और उनके रासायनिक गुणधर्मों को परखा जा रहा है। फिलहाल लक्ष्य मात्र रासायनिक क्रियाओं को समझने का है; अंततः मकसद एक ही है - प्रकृति जितनी कुशलता से सौर्य ऊर्जा का फायदा उठाती है, उतना ही हम भी कर पाएँ। हालाँकि कोई आसान समाधान तुरंत नहीं मिलने वाला है, पर नैसर्गिक प्रक्रियाओं की बेहतर समझ से और प्रयोगशालाओं में अणुओं के स्तर पर कारीगरी में बढ़ती कुशलता से यह उम्मीद बढ़ती चली है कि सौर्य ऊर्जा के इस्तेमाल के विभिन्न तरीके जल्दी ही विकसित हो जाएँगे।