Saturday, December 31, 2011

तीस साल पहले नया साल


तीस साल पहले कभी ये कविताएँ लिखी थीं. दूसरी वाली शायद 1990 के आसपास जनसत्ता के चंडीगढ़ एडीशन में छपी थी. उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में  नस्लवादी तानाशाही थी.

नया साल

ऐसे हर दिन वह उदास होता है
जब लोग नया साल मनाते हैं
हाथों में जाम थामे
एक दूसरे को चुटकुले सुनाते हैं
विडियो फिल्में देखते
हँसते हँसते बेहाल होते हैं

वह हवाओं में तैरता है
ऐसे किनार ढूँढता
जहाँ नाचती गाती भीड़ में
वह भी शामिल है
जब उल्लास के छोर पर पहुँचता है
ठंड की चादर आ जकड़ती है
बातों में मशगूल लोग
उससे दूर चले जाते हैं
वह उनकी ओर बढ़ते हुए
ज़मीन पर पाँव गाड़ने की
कोशिश करता है

वह डूबने लगता है
हवा उसके नथुनों में जोर से घुसती है
दम घुटते हुए सहसा उसे याद आते हैं
पुराने उन्माद भरे गीत
जो पहाड़ों के बीच अकेले गाए थे
हालांकि वह अकेला न था
न वो घाटियाँ
घाटियाँ थीं।


हर नए साल में एक बात होती है
वह बात पिछले साल के होने की होती है
पिछला साल होता है बहुत सारी धड़कनों का
समय अक्ष पर बंद हो चुका गणितीय समूह

पिछला साल होता है
उदासी भरा
आने वाले साल को काले साए सा घेरे हुए
अनगिनत सवालों भरी आँखों का तनाव होता है
अनगिनत अनिश्चितताएँ नए साल में पटकता
अपने किए पर अट्टहास कर गुजरता

पिछला साल होता है
खून से रंगे बड़े दिनों का
यौवन के बार बार असावधान आक्रोश का

पिछला साल होता है
तीन सौ पैंसठ दक्षिण अफ्रीकी दिन रातों का
अनगिनत उपहासों का
होता है पिछला साल

पिछले साल की ये बातें
होती हैं नए साल में
थके हुए हम
हर नए साल याद करते हैं पिछले सालों को
कब आएगा हमारा नया साल!

Wednesday, December 14, 2011

दुर्घटनाओं और दुस्वप्नों के दो हफ्ते और

तो सोचा यह गया था कि बुक फेयर में घूमेंगे। दो हफ्ते मैंने लिखा नहीं  तो बुक फेयर भी नहीं हुआ। अब कल से शुरू हो रहा है। स्थान भी बदल गया है। इसी बीच तमाम ताज़ा दुर्घटनाओं और पुराने दुस्वप्नों के बीच दो हफ्ते और गुज़र गए।

कई साल पहले मेरे पी एच डी सुपर्वाइज़र अमरीका से भारत आए हुए थे और मैं उनसे मिलने चंडीगढ़ से दिल्ली आया था। जे एन यू में उनके भाषण के  बीच हम बातचीत कर रहे थे, मेरे गुरुभाई जो इन दिनों हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, उनके आफिस में बातें हो रही थीं। बातें देश की तरक्की पर हो रही थीं। मैंने हताशा  से कुछ ही दिनों पहले हरियाणा के मंडी डभवाली इलाके में क्रिसमस के एक दिन पहले  एक स्कूल में एक समारोह के दौरान  लगी भयंकर आग का ज़िक्र  किया जिसमें कोई दो सौ लोग मारे गए थे, जिनमें अधिकांश बच्चे थे। सुनकर प्रोफ़ेसर ने कहा कि तुम इन बातों से ज़रा ज्यादा ही प्रभावित होते हो। हाल की कोलकाता की दुर्घटना को लेकर मैं इतना नहीं रोया जितना उन दिनों ऐसी घटनाओं पर सोचता था, तो क्या यह मेरी तरक्की की पहचान है या जमे हुए दुखों की, जिनसे मैं क्रमशः पत्थर बनता जा रहा हूँ।


मार्क टली ने कहा है कि 'जुगाड़' और 'चलता है' मानसिकता से हिंदुस्तान आगे नहीं बढ़ सकता। हमारा कहना है कि ज़मीनी सच्चाइयों से अलग हटकर हम महान ही महान हैं मानसिकता से भी नहीं।

Thursday, December 01, 2011

जैसे भी हैं दिन भले

यह साल का वह वक़्त है जब हम सोचते रहते हैं कि चलो अब ज़रा फुर्सत मिली और होता यह है कि कोई फुरसत वुर्सत नहीं मिलती. सेमेस्टर ख़त्म हो रहा है तो कापियां  देखनी हैं. फिर दम लेते लेते ही अगला सेमेस्टर आ जाता है. इसी बीच में शोध कर रहे छात्रों के साथ समय लगाना पड़ता है. जब यह लिख रहा हूँ तो कहीं गाना चल रहा है - दिल के अरमां आंसुओं में रह गए... फिर भी एक छुट्टी का भ्रम जैसा रहता है. मेरे शहर में तो मौसम भी बढ़िया होता है.
इसलिए सोचता हूँ कि इन दिनों कैम्पस से बाहर निकलने की कोशिश की जाए. तो मन बना रखा है कि आज से जो पुस्तक मेला शुरू हुआ है, कल परसों किसी दिन वहाँ चला जाएगा. पर सोचते ही आतंक भी होता है - इस शहर की ट्राफिक, तौबा - मुझे वैसे भी पेट की समस्याओं के साथ माइग्रेन वगैरह हो जाता है.  बहरहाल पुस्तक मेले जाएँगे इस बार. पर पुस्तक मेले में क्या होगा? हाल के सालों में जब भी यहाँ के पुस्तक मेलों में गया हूँ, अधिकतर वही व्यापार धंधों की या अलां फलां कम्पीटीशन की किताबें ही ज्यादा दिखती हैं.  पर उम्मीद है कि गलती से कोई दोस्त भटकता हुआ आ टकराएगा. ऐसी जगहों में यह अक्सर होता है - अरे तू इधर क्या कर रहा है? यहाँ कब आया? दस सालों के बाद देख रहा हूँ तुझे. फिर चल पड़ती है वह दास्तान पुराने कामन दोस्त मित्रों की. दुनिया वाकई छोटी है वगैरह.
******************************
यहाँ मार्च काफी गर्म होती है. पर १९९८ की मार्च में मैं ठन्डे इलाके में था.  इंद्र कुमार गुजराल के प्रधान-मंत्री बनने या न बनने की चर्चाएँ आम थीं. इस कविता मैं वे सन्दर्भ हैं.


आने वाले बसंत की कविताः १९९८

गुजराल जाएगा या दुबारा आएगा
इस खबर के साथ
मार्च की एक सुबह
हल्के स्वेटर में दफ्तर जाऊँगा

हवा के थपेड़ों में होगी बसंत की गंध
और देश की फाल्गुनी अँगड़ाइयाँ
सड़कों पर लोगबाग बात करेंगे
बी जे पी कांग्रेस जनता दल
इस इलाके में कम्युनिस्टों से ज्यादा बातें 
लड़कियों की टाँगों पर होंगी

अगली या पिछली शाम
बच्चे के साथ मैदान में 
दौड़ूँगा हाँफूँगा
बाद में घर उपन्यास के दो पन्ने लिखूँगा

सपनों में रेणु, शरत् या
समकालीन नाम होंगे
नज़रअंदाज सा करते हुए खबरों में
प्रधानमंत्री देखूँगा

आखिर अँधेरे में तमाम दुःख सिरहाने
सहेजते सोचूँगा
जैसे भी हैं 
दिन भले हैं।

(पश्यंतीः अप्रैल-जून २००१)



Tuesday, November 29, 2011

दो प्रेम कविताएँ


दो प्रेम कविताएँ।
पहली का सन्दर्भ पुराना है और दूसरी पुरानी है।
नहीं, ये नया ज्ञानोदय के प्रेम विशेषांक में नहीं छपी थीं। वह एक अजीब गड़बड़ कहानी है। मैंने ग्यारह टुकड़ों की प्रेम कविता भेजी, पता नहीं किस बेवकूफ ने बिना मुझसे पूछे दस टुकड़े फ़ेंक दिए और पहले टुकड़े को 'एक' शीर्षक से छाप दिया। यह हिन्दी में संभव है, क्योंकि कुछेक हिंदी की पत्रिकाओं के संपादक ऐसे बेवक़ूफ़ होते हैं। क्या करें, हिंदी है भाई। मैं दो साल से सोच रहा हूं कि सम्पादक से पूछूं कि उसने ऐसा किया कैसे. पर क्या करें, हिंदी है भाई, हिम्मत नहीं होती, कैसे कैसे भैंसों से टकरायें। वैसे नीचे वाली कविता नया ज्ञानोदय में ही छपी थी। ठीक ठाक छपी थी और कइओं ने फोन फान किया था कि बढ़िया कविता है।
इस मटमैले बारिश आने को है दिन

इस मटमैले बारिश आने को है दिन में सेंट्रल एविनिउ पर तुम्हारी गंध ढूँढ रहा हूँ।
मार्बल की सफेद देह पर लेटा हंस झाँक रहा है,
मैं दौड़ती गाड़ियों के बीच तुम्हारे पसीने का पीछा करता हूँ
जल्दी से पार करता हूँ चाहतों के सागर।
पहुँच कर जानता हूँ मैं पार कर रहा था तीस साल। तुम्हारा न होना कचोटता नहीं मुझे।
ढूँढता हूँ बैग में फाज़िल इस्कंदर की कहानियाँ।
तुम नहीं हो, न है वह किताब, हंस की सफेदी धूमिल हो गई है,
तुम हो कहीं आस पास।

(नया ज्ञानोदय – मार्च २००९)

वह मैं और कलकत्ता
इस बार कलकत्ता में
ठंडी बारिश और कीचड़ में
बुद्धिजीवी वह और बुद्धिजीवी मैं
समस्याओं की सच्चाई से थके
आपस में प्यार का बीज बो बैठे

बारिश और ठंड ने
इस गंदे शहर के
हर रेंगते इंसान सा
हमें भी बातों ही बातों में
दे दी चाह
स्पर्श की उष्णता की
अनैतिक संपर्क की घातक वह चाह
अंकुरण को बढ़ती रही

(मुझसे अलग मेरी दुनिया
उसने खींच ली करीब
विद्रोह का संतुलन खो बैठी

उसकी दुनिया में
पाशविक मेरी कविताओं भरी आँखों से टपकती
लालसा की अभिव्यक्ति आ बैठी)

इसी बीच कलकत्ता सड़ रहा था
मकानों और झुग्गियों के साथ
गड्ढों भरी ज़िंदगी के
कीचड़ में।
(साक्षात्कार - १९८७; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)

Tuesday, November 22, 2011

स्याही फैल जाती है


इशरत

1
 इशरत!सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली!लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू
यह जान कर ही होगी चली!सो जा
अब सो जा पगली.

2

 इन्तज़ार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी
उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन
इन्तज़ार है
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएँगी
सपने देखे जायेंगे
इशरत तू भी जिएगी
गर्मी तो सरकार के साथ है.

3

एक साथ चलती हैं कई सड़कें.सड़कें ढोती हैं कहानियाँ.कहानियों में कई दुख.दुखों का स्नायुतन्त्र.दुखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान.
इतने दुख कैसे समेटूँ
सफेद पन्ने फर-फर उडते.
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते. इशरत रे!
(दैनिक भास्कर – 2005; वर्त्तमान साहित्य -2007; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित)
















Monday, November 07, 2011

निशीथ रात्रिर प्रतिध्वनि सुनी

भूपेन हाज़ारिका का चले जाना एक युग का अंत हैएक तरह से हबीब तनवीर के गुजरने के बाद से जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह गुरशरण सिंह और भूपेन हाज़ारिका के साथ युगांत पर गया हैयह हमारी पीढी, खासकर कोलकाता जैसे शहरों में साठ के दशक के आखिरी और सत्तर के दशक के शुरुआती सालों में कैशोर्य बिताने वाली पीढी के लोगों के लिए भी जैसे सूचना है कि हम अब बूढ़े हो चले हैंभूपेन हाज़ारिका हमारे उन प्रारंभिक युवा दिनों की दूसरी सभी बातों के साथ हमारी ज़िन्दगियों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े थे हमलोग रुना गुहठाकुरता का गाया ओ गंगा तुमी सुनते और कहते अरे भूपेन हाज़ारिका जैसी बात कहाँ यह हमलोगों का आग्रह था जैसे कोई और उनकी तरह गा ही नहीं सकता हमलोग सीना चौड़ा कर कहते कि पाल रोब्सन के 'ओल्ड मैन मिसिसीपी' को 'ओ गंगा तुमी' गाया है जैसे वह हमारे परिवार के कोई थे जिनको ऐसी ख़ास बातों के लिए सम्मान मिला हो रवींद्र, सलिल चौधरी आदि के बाद बांग्ला संगीत में (हालांकि मूलतः वे अहोमिया थे) वे आखिरी इंकलाबी थे उनके बाद सुमन हैं, पर बिलकुल अलग तरह के - सुमन हमसे उम्र में बड़े हैं, पर संगीत में जैसे वह हमारे बाद की पीढ़ी के हैं

नेल्सन मंडेला को जो स्वागत कोलकाता में मिला था, वह शायद ही कहीं और मिला हो, और उस दिन ईडेन स्टेडियम में मुख्य गायक
भूपेन हाज़ारिका थे मैं चंडीगढ़ में टी वी पर देख रहा था और गर्व से फूला जा रहा था जैसे मैं ही उस स्वागत का मुख्य मेजबान हूं उसी भूपेन हाज़ारिका ने बी जे पी की ओर से चुनाव लड़ा तो मैंने भू भू हा हा शीर्षक कविता लिखी तब से मैं उनसे नाराज़ रहता था उनके गानों को सुनता तो जैसे मन मसोस कर चुनाव हारने पर बहुत खुशी हुई थी


आज दो दिनों से इस बात को मानने की कोशिश में हूं कि
भूपेन हाज़ारिका अब नहीं है उनका गाया कुछ भी मुझे अच्छा लगता था, पर शायद सबसे खूबसूरत मुझे यह गाना लगता है (एक हिन्दी रूपांतर यहाँ है) :

মোর গাঁয়ের সীমানার পাহাড়ের ওপারে मोर गाँयेर सीमानार पाहाड़ेर ओपारे
নিশীথ রাত্রির প্রতিধ্বনি শুনি निशीथ रात्रिर प्रतिध्वनि सुनी
কান পেতে শুনি আমি বুঝিতে না পারি कान पेते सुनी आमी बुझिते ना पारी
চোখ মেলে দেখি আমি দেখিতে না পারি चोख मेले देखि आमी सुनीते ना पारी
চোখ বুজে ভাবি আমি ধরিতে না পারি चोख बुझे भाबी आमी धरीते ना पारी
হাজার পাহাড় আমি ডিঙুতে না পারি हाजार पाहाड़ आमी डिंगोते न पारी

হতে পারে কোন যুবতীর শোক ভরা কথা होते पारे कोनो युवतीर शोक भरा कथा
হতে পারে কোন ঠাকুমার রাতের রূপকথা होते पारे कोनो ठाकुमार रातेर रूपकथा
হতে পারে কোন কৃষকের বুক ভরা ব্যাথা होते पारे कोनो कृषकेर बुक भरा व्यथा
চেনা চেনা সুরটিকে কিছুতে না চিনি चेना चेना सुर टि के किछुते ना चीनी
নিশীথ রাত্রির প্রতিধ্বনি শুনি
শেষ হল কোন যুবতীর শোক ভরা কথা
শেষ হল কোন ঠাকুমার রাতের রূপকথা
শেষ হল কোন কৃষকের বুক ভরা ব্যাথা
চেনা চেনা সুরটিকে কিছুতে না চিনি
নিশীথ রাত্রির প্রতিধ্বনি শুনি
মোর কাল চুলে সকালের সোনালী রোদ পড়ে
চোখের পাতায় লেগে থাকা কুয়াশা যায় সরে
জেগে ওঠা মানুষের হাজার চিৎকারে
আকাশ ছোঁয়া অনেক বাঁধার পাহাড় ভেঙে পড়ে
মানব সাগরের কোলা‌হল শুনি
নতুন দিনের যেন পদধ্বনি শুনি
आखिरी लाइनें हैं - मानव सागारेर कोलाहल सुनी, नोतून दिनेर जेनो पदध्वनि सुनी.
मानव सागर का कोलाहल सुनता हूं, नए दिनों कि पदध्वनि सुनता हूं। यह हमारी पीढी की आवाज़ है जो हमें पिछली पीढियों से विरासत में मिली हैग़जब यह कि सारे संकेत विपरीत से लगते हुए भी हमारी यह आवाज़ मंद नहीं पड़ी है. ...इसलिए भूपेन हाज़ारिका को सलाम


Tuesday, October 25, 2011

उनका क्या करें

एक मित्र ने बतलाया कि बंगाली बिरादरी रात को बारह बजे कहीं पूजा के लिए जाने की सोच रही है। काली पूजा है रात को होती है। मैंने कहा कि मैं पूजा आदि में रूचि नहीं रखता। मुझे लगता है कि पूजा का हुल्लड़ बच्चों के लिए बढ़िया या फिर आप धार्मिक प्रवृत्ति के हों। मेरा तो मानना है कि कोलकाता में कानून बनाना चाहिए कि एक वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में एक से ज्यादा पूजा मंडप नहीं होंगे। इससे लोगों में यानी आस पास के मुहल्लों के लोगों में भाईचारा भी बढ़ेगा। पूरे शहर में फिर भी हजार मंडप तो होंगे ही और इतने कम नहीं। आखिर भगवान मानने वालों को थोड़ा सा चल फिर के भगवान तक पहुँचने कि कोशिश तो करनी चाहिए।

मुझे कोई आपत्ति नहीं कि कोई ईश्वर अल्लाह रब्ब मसीहा आदि में यकीन करता है। मैं एक हद तक साथ चलने को भी तैयार हूं, पर दूर तक चले गए तो फिर आप कर्मकांडों से अलग नहीं हो सकते। और वहां मुझे दिक्कत है।

वैसे काश मेरा भी कोई मसीहा होता, कम से कम अपना रोना सुनाने के लिए तो कोई होता। इसलिए धार्मिक लोगों से मुझे ईर्ष्या ही होती है। कोई ज्यादा तंग करे तो फिर चिढ़ भी होती है। पर ठीक है, वह हमें झेलते हैं, तो हम भी उन्हें झेल लेते हैं। पर उनका क्या करें जो बच्चे नहीं पर आधी रात को पटाखा फटायेंगे।

इधर लग रहा है कि भारत और इंगलैंड में कोई समझौता हुआ है। हम वहां हारेंगे तुम यहाँ हारो। अच्छी बात यह कि महीने भर पहले मैंने टी वी बंद कर दिया है। पर फ़िल्में देखता रहता हूं। इधर कुछ अच्छी हिंदी फ़िल्में देखीं। देल्ही बेली, दास विदानिया आदि। बढ़िया।

आज कल मन नहीं करता चिट्ठा लिखने का। कुछ लिखता हूं तो जैसे भरने के लिए । इधर अरसे बाद अंग्रेज़ी में भी लिखना शुरू किया। अंग्रेज़ी लिखते हुए तो जैसे मेरा दिमाग भी रुक जाता है। अजीब बात है कि सारा दिन अंग्रेज़ी बोलता हूं, सारा काम अंग्रेज़ी में करता हूं, यहाँ तक कि टाइपिंग भी अंग्रेज़ी से ट्रांस्लिटरेट करके करना ज्यादा आसान लगता है, फिर भी अंग्रेज़ी में लिखने में चिढ़ होती है।

Thursday, October 13, 2011

इन बर्बरों का मुकाबला करें


फासिस्ट धड़ल्ले से नंगा नाचन नाच रहे हैं। एक वो जो राम या रहीम के नाम पर हमले करते हैं, जैसा हमारे मित्र प्रशांत पर किया, दूसरे वो जो सरकारी तंत्र में हैं, जिन्होंने सोनी सोरी की हड्डियाँ तोड़ने की कोशिश की है। क्या सचमुच यह देश इतनी तेजी से अँधेरे की ओर बढ़ता जा रहा है। सामान्य नागरिक को शांति से जीने के लिए हत्यारों के साथ सहमत होना पड़ेगा?
इन बर्बरों का मुकाबला जो जहाँ जैसे भी कर सकता है, करें।

Monday, October 03, 2011

मानव मूल्य क्या हैं?


मानव मूल्य क्या हैं?
मैंने एक युवा साथी का सवाल सुना और मुझे बिल्कुल ही बेमतलब तरीके से Walt Whitman की पंक्तियाँ याद आ गईं-

A child said, What is the grass? fetching it to me with full hands;
How could I answer the child? I do not know what it is, any more than he.

वक्त गुजरने के साथ यह शक बढ़ता जा रहा है कि जो यह दावा करते हैं कि उनको मानव मूल्यों की समझ है, पेंच उन्हीं का ढीला है।

'सुना रहा है ये समाँ, सुनी सुनी सी दास्ताँ'

दोस्तों, बुनियादी बात प्यार है, बाकी सब कुछ उसी में से निकलता है। यह हमारी नियति है। हम किसी दूसरे ब्रह्मांड में नहीं जा सकते, कोई और गति के नियम हम पर लागू नहीं हो सकते।

आंद्रे मालरो के उपन्यास 'La Condition Humaine (मानव नियति)' में हेमेलरीख (नाम ग़लत हो सकता है; जहाँ तक स्मृति में है) राष्ट्रवादियों के साथ लड़ाई में कम्युनिस्टों की मदद करने से इन्कार करता है, प्यार की वजह से; और जब राष्ट्रवादी उसके बीमार बच्चे की हत्या कर देते हैं, तो वह लड़ने मरने के लिए निकल पड़ता है -प्यार की वजह से।

कुबेर दत्त की आदत थी कि आधी रात के बाद फोन करते और अपना रोना सुनाते। कोई दो हफ्ते पहले मैंने वादा किया था कि अपने पिछले कविता संग्रह और कहानी संग्रह भेजूँगा। तीसरा संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग' उन्हीं की वजह से आया था, आवरण भी उन्हीं ने बनाया था। कहानी संग्रह की अतिरिक्त प्रति ढूँढता रह गया और आज नीलाभ का पोस्ट देखा - वह आदमी चला गया। आखिरी बार जब फोन पर बात हुई तो कुछ अंतरंग बातें की थीं, क्या इसीलिए कि अब कूच करना था। मैं कुल तीन बार मिला था, पता नहीं क्यों इतना प्यार!

कविता (श्रीवास्तव) से मिले कई युग बीत गए। करीब पच्चीस साल। वह वंचितों के लिए लड़ती रही है। लगातार।
और कल उसके घर जयपुर में छत्तीसगढ़ पुलिस का हमला हुआ। किसी को शक है क्या कि नरेंद्र मोदी अगला प्रधान मंत्री बन रहा है? एक साथी संतुष्ट है कि हमें 'imagined fear' से घबराना नहीं चाहिए। क्या करूँ, डरपोक हूँ, डरता हूँ। चारों ओर संतुष्ट लोग हैं। अफ्रीका से भगाए पूँजीपतियों ने मनमोहन के एल पी जी का फायदा उठाकर ऐसी मलाई बाँटी है कि बंधु सकल गुड गवर्नेंस के नशे में हैं। हिटलर का गुणगान करते बुज़ुर्ग अभी भी दो चार मिल जाएँगे।
कहते हैं जर्मन टेक्नोलोजी का कोई जोड़ नहीं था।

Wednesday, September 28, 2011

भ्रा जी चले गए


भ्रा जी चले गए। लंबी अस्वस्थता के बाद जाना ही था। फिर भी तकलीफ होती है।
मार्च में मिला था तो बिस्तर पर लेटे हुए समझाते रहे कि हमें दुबारा सोचना है कि क्या गलतियाँ हुईं हैं हमसे।
फिर अपने छात्र जीवन की क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में बतलाने लगे।

जुलाई 1983 में विदेश में पी एच डी के दौरान एक महीने के लिए घर आया था। बापू बीमार था। गले का कैंसर था। अंतिम मुलाकात के लिए आया था। उन्हीं दिनों कोलकाता में स्टेट्समैन में पढ़ा कि 'बाबा बोलता है' शृंखला के नाटकों के जरिए भाई मन्ना सिंह नामक एक व्यक्ति पंजाब में गाँव गाँव में सांप्रदायिक ताकतों और राज्य द्वारा दमन दोनों के खिलाफ चेतना फैला रहा है।

फिर 1984 आया। 1985 में मैं देश लौटते ही सितंबर में चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय में आ गया। उदारवादी प्रगतिशील छात्रों की एक संस्था 'संस्कृति' ने भ्रा जी का एक नुक्कड़ नाटक कैंपस के बाज़ार के ठीक सामने हेल्थ सेंटर के पास करवाया। मैंने देखा और तुरंत उन छात्रों के साथ दोस्ती हो गई। उनमें से ज्यादातर जल्दी ही कैंपस छोड़ गए और बाद में वामपंथी राजनैतिक दलों के साथ जुड़े छात्र संगठनों ने दुबारा 'संस्कृति' को सँभाला। इसी बीच भ्रा जी के साथ इधर उधर मिलता रहता। भ्रा जी ने राज्य के सभी क्रांतिकारी वाम गुटों को एक मंच पर लाने की एक अनोखी कोशिश की। हर साल 1 मार्च को आठ संगठनों के कार्यकर्त्ता भ्रा जी के नेतृत्व में निकलते और सारे पंजाब का दौरा कर भगत सिंह के शहीदी दिवस 23 मार्च को उनके पुश्तैनी गाँव खटकर कलाँ में इकट्ठे होते। यात्राओं के दौरान जगह जगह सभाओं का आयोजन कर लोगों में सांप्रदायिक ताकतों और राज्य द्वारा दमन दोनों के खिलाफ चेतना फैलाई जाती। 1986 के मार्च महीने में रामपुराफूल शहर में ऐसी एक सभा में क्रांतिकारी लोकगीतों के गायक संत राम उदासी को मैंने गाते सुना था। फिर 'ना हिंदू राज ना खालिस्तान, राज करे मजदूर किसान' के नारों के साथ कोई तीन सौ लोगों का जुलूस शहर भर में घूमता रहा। आखिर एक जगह रुक कर भाषण बयान आदि हुए, तो मैंने भी उसमें शिरकत की। मैं भ्रा जी से मिलने आया था, पर उस दिन वे कहीं और रुक गए थे। बहुत बाद में पता चला था कि उनकी जान को खतरा था। इसके बाद चंडीगढ़ में ही एकाधबार उनके नाटक देखे। नाटकों में विषय वस्तु हमेशा समकालीन सामाजिक राजनैतिक विषयों से जुड़े होते। असगर वजाहत की कहानी 'गड्ढा' (पंजाबी में 'टोआ') हो या उनका अपना लिखा 'कर्फ्यू' - उनकी कोशिश रहती कि क्रांतिकारी विचारधारा की सीमाओं में रहते हुए भी नुक्कड़ नाटक के फार्म में भी सौंदर्य-शास्त्र के स्तर पर भी कुछ काम किया जाए। यह बहुत कठिन काम था और आलोचक निष्ठुरता से उनको तुच्छ दिखलाने में लगे रहते। निजी तौर पर भ्रा जी भावुक होकर गरजते - उनके लिए नाटक मुख्यतः एक माध्यम था, उद्देश्य क्रांतिकारी ताकतों को सहारा देना था, लोगों में क्रांतिकारी चेतना फैलाना था।

1988-89 में जब में हरदा में था, मैंने मित्त सैन मीत की कहानी 'लाम' का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद किया, जो जनसत्ता में प्रकाशित हुआ। भ्रा जी के समता प्रकाशन से प्रकाशित '1986 दी चोणवीं कहानियाँ' में यह कहानी संकलित थी। संयोग से दिल्ली में मंडी हाउस में भ्रा जी से मुलाकात हो गई। उनसे मित्त सैन मीत का पता लिया ताकि उनसे अनुमति ले सकूँ। अभी भी याद है कि भ्रा जी 'ऐटोर्नी ऐट ला' कह रहे थे तो पहली बार समझ नहीं आया था। इसके बाद उनसे निजी स्तर पर संबंध घनिष्ट हो गया। उनकी बेटी नवशरण और दामाद अतुल जिनको पंजाब विश्वविद्यालय के सूत्रों से ही जानता था, उनसे भी करीबी बढ़ी।

भ्रा जी अब जब भी मिलते तो आग्रह करते कि मैं पंजाबी कहानियों को हिंदी के पाठकों तक पहुँचाऊँ। इसी के फलस्वरूप मैंने पाँचेक कहानियों का अनुवाद किया, जो जनसत्ता, साक्षात्कार आदि में प्रकाशित हुए।

मौका मिलते ही उनके साथ हम कुछ करने की कोशिश करते। हम कुछ साथियों ने मिलकर लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए 'चंडीगढ़ सिटिजन्स कमेटी' नाम की संस्था बनाई, तो उसके मुख्य संरक्षक भ्रा जी थे। बड़े स्नेह के साथ हमारी बातें सुनते, हमें सलाह देते। पोखरण नाभिकीय विस्फोटों और कारगिल युद्ध के बाद 'साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप' के नाम पर हमलोग स्कूलों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर घूम घूम कर युद्धविरोधी चेतना फैलाने में लगे थे। हमारे पास राष्ट्रीय स्तर पर युवा वैज्ञानिकों का तैयार किया स्लाइड शो था, जिसमें नाभिकीय विस्फोटों और हिरोशिमा नागासाकी की विभीषिका पर जानकारी थी। भ्रा जी ने हमारी स्क्रिप्ट के आधार पर नाटक तैयार किया और वह नाटक भी कम से कम सौ बार खेला गया। चंडीगढ़ के सेक्टर 17 में भ्रा जी के साथ कई बार हम लोग खड़े होते, कभी सरकारी दमन के प्रतिवाद में तो कभी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ आवाज उठाने। एक बार बारिश में भीगते हुए यूनिवर्सिटी से सेक्टर 17तक गए। नीलम मानसिंह चौधरी भी साथ थीं, हमलोग दीपा मेहता की फिल्म की शूटिंग पर हुए हमले के खिलाफ प्रतिवाद कर रहे थे। रास्ते भर हम जनगीत गाते रहे। युद्धविरोधी नाभिकीय विस्फोटों वाले नाटक के साथ भी गीत गाए जाते - मैं और साथी साहिर लुधियानवी के इस गीत

'टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें, कोख धरती की बाँझ होती है....
फतह का जश्न हो के हार का शोक, जिंदगी मय्यतों पे रोती है....
इस लिए ऐ शरीफ इंसानों, जंग टलती रहे तो बेहतर है...
आप और हम, सभी के आँगन में शमा जलती रहे तो बेहतर है...'

का पोस्टर बनाकर ले जाते और मैं ऊँची आवाज में पढ़ता।


भ्रा जी के नाटक जितने बार खेले गए हैं, वह संख्या असाधारण है। ऐसा न पहले कभी हुआ है, न ही फिर कभी हो सकता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई मुल्कों में, जहाँ भी पंजाबी या हिंदी बोलने वाले लोग हैं, वे अपना छोटा सा ट्रुप लेकर गए हैँ और सैंकड़ों बार नाटक किए हैं। उनकी छवि ऐसी बन गई थी कि लोग उनका नाम सुनते ही आना चाहते थे, उनको और उनका नाटक देखना चाहते थे।

भ्रा जी ने क्या नहीं किया। वे भगत सिंह और गदर पार्टी के इतिहास पर हुए काम के मुख्य प्रेरणा स्रोत थे। जालंधर के देश भगत यादगार हाल में सालाना इन्कलाबी सांस्कृतिक सम्मेलनों की जान भ्रा जी थे।

मुझे पता था कि वे संजीदगी से काम न करने वालों को बुरी तरह डाँटते हैं, पर मेरे लिए उनके मन में अगाध स्नेह था, शायद मेरी सीमाओं को वे समझते थे। अध्यापक संगठन का काम करते हुए कई बार उन्हें यूनिवर्सिटी ले आया, उन्होंने कभी मना नहीं किया। कम से कम खर्च में वे काम करते और खुद तो पूरी लगन के साथ काम करते ही, ट्रुप के बाकी सभी से भी अपेक्षा रखते कि सभी अपना बेहतरीन काम दर्शकों को दें।
उनके आग्रह से मैं चंडीगढ़ की संस्था 'साहित्त चिंतन' और बाद में राजनैतिक कैदियों के अधिकारों के लिए बनाई मानव अधिकार संस्थाओं के संस्थापक सदस्यों में शामिल हुआ, हालांकि मै काम कुछ भी नहीं कर पाया।

जैसा कि भावुक मानवतावादियों के साथ हमेशा होता है, भ्रा जी भी ताज़िंदगी बेहतर भविष्य के लिए लड़ते रहे। उनकी ऊर्जा असीम थी। पंजाब के अनगिनत कलाकारों ने उनसे प्रारंभिक शिक्षा ली।

मैंने उनको बहुत कम जाना, जितना जाना वही कभी पूरा लिख नहीं पाऊँगा। रह रह कर बातें याद आती रहेंगी। उनपर एक छोटी फिल्म यहाँ हैः

Sunday, August 28, 2011

साधारण असाधारण


'हिंदू' में खबर है कि संजय काक ने किसी साक्षात्कार में कहा कि काश्मीर के मसले पर प्रगतिशील भारतीय भी डगमगा जाते हैं। एक काश्मीरी पंडित जिसका पिता देश के सुरक्षा बल में काम करता था, उसने ऐसा क्यों कहा? जिन्हें संजय काक की बातें ठीक नहीं लगतीं, वे कहेंगे - गद्दार है इसलिए! 'हिंदू' में मृत्यु दंड के खिलाफ संपादकीय भी छपा है - अच्छे भले पढ़े लिखे लोग ऐसा क्यों कहते हैं? अरे, सब चीन के एजेंट हैं, कमनिष्ट हैं।
इतने सारे लोग सूचनाओं की भरमार होते हुए भी जटिल बातों का सहज समाधान ढूँढते हुए, जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं, तो आसानी से गद्दार और कमनिष्ट कहते हुए मुँह फेर लेते हैं। इंसान में कठिन सत्य से बचने की यह प्रवृत्ति गहरी है। दर्शन की सामान्य शब्दावली में इसे denial (अस्वीकार) की अवस्था कहते हैं। इसका फायदा उठाने के लिए बहुत सारे लोग तत्पर हैं। सरकारें जन-विरोधी होते हुए भी टिकी रहती हैं, दुनिया भर में सेनाएँ और शस्त्रों के व्यापारी करोड़ों कमाते हैं और तरह तरह के अनगिनत हत्यारे आम लोगों की इसी प्रवृत्ति के आधार पर रोटी खाते हैं। आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह तो समझ में आता है कि ज्यादा पढ़ना लिखना - तहकीकात करना, इन सब पचड़ों में जाने की जहमत से बचने की कोशिश कौन नहीं करेगा, पर अज्ञान और अल्प ज्ञान के साथ नैतिकता की संरचना कैसे जुड़ी होती है! वह भी ऐसी नैतिकता जो यह घमंड पैदा करती है कि मैं ही ठीक हूँ, बाकी न केवल गलत हैं, बल्कि निकृष्ट हैं। मनोवैज्ञानिक लोग उन बीमारियों को ढूँढते परखते होंगे, जिनकी वजह से आदमी में संकीर्णता के साथ गहरा नैतिकता बोध पनपता है। एक तरह से कहा जा सकता है कि मस्तिष्क विज्ञान में महारत के बिना ही अज्ञानता और नफरत की व्यापार-व्यवस्था अपने गुलामों पर नैतिकता की संरचना थोपने में सफल हो जाती है। यह व्यवस्था अपने शोधकर्त्ता पैदा करती है, जो सच का 'निर्माण' करते हैं। स्पष्ट है कि निर्मित सच ज्यादातर थोड़े समय के बाद अपनी मौत मरता है, पर बहुत बड़ी तादाद में लोग उसी को सच मानते रहते हैं। भविष्य में जब मस्तिष्क विज्ञान में तरक्की होती चली है, यह सोचकर आतंक होता है कि लोगों को गुलाम बनाए रखने के क्या तरीके अपनाए जाएँगे।
संजय काक, साँईनाथ, नोम चाम्स्की, हावर्ड ज़िन जैसे लोग जो सच वाला सच ढूँढने बतलाने में जीवन दाँव पर लगा चुके हैं, उनको पता है कि उनकी लड़ाई लंबी है। सबसे रोचक बात यह कि अक्सर जब अन्याय के खिलाफ लोग उठ खड़े होते भी हैं तो उनका नेतृत्व किसी बहुत जानकार व्यक्ति के हाथ ही हो, यह ज़रूरी नहीं। वेनेज़ुएला में जनपक्षधर तख्ता पलट करने वाला हूगो चावेज़ कोई बड़ा ज्ञानी व्यक्ति नहीं है और न ही फिदेल कास्त्रो क्यूबा में तानाशाह को गद्दी से उतारते वक्त वैसा ज्ञानी था, जैसा समय के साथ उसमें दिखलाई दिया। यह मानव इतिहास की विड़ंबना है कि जननेता हमेशा बहुत समझदार लोग नहीं हुआ करते। लातिन अमरीका में यह बात क्रांतिकारियों ने समझी है। हमारे यहाँ ऐसी समझ है या नहीं कहना मुश्किल है। पर न समझ पाने से जूझने के तरीके अजीब हैं। जैसे मुल्क भर में गाँधी को अतिमानव बनाने के बड़े उद्योग में जो लोग शामिल हैं, क्या ये सभी लोग गाँधी के जीवनकाल में उसे वह स्थान देते, जो आज वे देते हैं। संभवतः सभी नहीं। मैं तो आज भी उसे एक सामान्य व्यक्ति मानता हूँ, जिसे अपनी सुविधाओं और ऐतिहासिक परिस्थितियों का ऐसा फायदा मिला कि वह विश्व इतिहास में एक असाधारण अध्याय रच गया। ठीक इसी तरह आज भी मेरे जैसे कई लोग साधारण में असाधारण देखकर परेशान होते हैं। कभी कभी मुझे शक होता है कि इसकी वजह हमारा वह दंभ तो नहीं, जो हममें जाति, वर्ग आदि से उपजी सुविधाओं से पनपा है। जो भी हो, किसी आंदोलन में अगर ऐसी संभावनाएँ दिखें कि ज्यादा नहीं तो कुछ ही लोगों को denial (अस्वीकार) की अवस्था से निकालने का मौका मिले तो हमें इस कोशिश में जुटना चाहिए। असाधारण में साधारण या साधारण में असाधारण दिखने से हमें परेशान नहीं होना चाहिए।

Sunday, August 21, 2011

कास्मिक एनर्जी


आज 'हिंदू' अखबार में पढ़ा कि येदीउरप्पा ने गद्दी छोड़ने के पहले 'हज्जाम' शब्द को कन्नड़ भाषा से निष्कासित करने का आदेश दिया है। सतही तौर पर यह इसलिए किया गया कि हज्जाम शब्द के साथ हजामत करने वालों की अवमानना का भाव जुड़ा हुआ है - कन्नड़ भाषा में। हो सकता है कि 'हज्जाम' की जगह प्रस्तावित 'सविता' शब्द ठीक ही रहे। पर कन्नड़ भाषा का ज्ञान न होने की वजह से मुझे यह बात हास्यास्पद लगी कि जात पात का भेदभाव रखने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति से उपजे एक शब्द के लाने से अब तक हो रहा भेदभाव खत्म हो जाएगा। जून के महीने में मैं शृंगेरी गया था। वहाँ देखा घने जंगल के बीच 'सूतनबी' जलप्रपात का नाम बजरंगियों ने बदलकर कुछ और रख दिया है, चूँकि 'नबी' शब्द इस्लाम के साथ जुड़ा है। बहुत पहले शायद परमेश आचार्य के किसी आलेख में पढा था कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में कोलकाता विश्वविद्यालय की सीनेट ने प्रस्ताव पारित कर बांग्ला भाषा में प्रचलित कई अरबी फारसी के शब्दों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी। यह प्रवृत्ति बंकिमचंद्र के लेखन से शुरू हुई थी - बंगाल में धर्म के आधार पर पहले बुद्धिजीवियों और बाद में व्यापक रूप से आम लोगों में हुए सांप्रदायिक विभाजन में बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' की भूमिका आधुनिक भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर कैसा पड़ा यह कहने की ज़रूरत नहीं है।

पुरातनपंथी और सांप्रदायिक विचार रखने वाले लोगों की यह खासियत है कि वे औरों को सहनशीलता की नसीहत देते हैं और खुद जबरन अपने खयाल दूसरों पर थोपते रहते हैं। हमारे संस्थान में अक्सर ऐसे कुछ लोग बिना औरों की परवाह किए पोंगापंथी एजेंडा चलाते रहते हैं। हाल में ऐसे एक वर्कशाप में बाहर से आए एक जनाब ने सबको अपनी 'कास्मिक एनर्जी' एक दृष्टिहीन छात्र पर केंद्रित करने की सलाह दी, ताकि उसकी दृष्टि लौट आए। इसके पहले कि बाकी लोगों को पता चले और लोग विरोध कर सकें, पोंगापंथी बंधु अपना काम कर गए।

Sunday, August 14, 2011

सभी अंग्रेज़


आगे आती थी हाले दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
यह अच्छा मौका है कि जब वे सब लोग जो चार महीने पहले आधी रात के बाद पटाखे फोड़ कर मेरे जैसों की नींद हराम कर रहे थे और अब हाय हाय कर अपनी नींद पूरी नहीं कर रहे, ऐसे वक्त इस बदनसीब मुल्क की कुछ खूबियों को गिना जाए। मेरे जैसे मूल्यहीन व्यक्ति को इन दिनों जबरन मानव मूल्यों नामक अमूर्त्त विषय पर सोचने और औरों से चर्चा करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसी प्रसंग में चर्चा छिड़ी कि स्वाधीनता दिवस क्यों मनाया जाए। वैसे तो ज्यादातर लोगों के लिए यह ध्रुवसत्य है कि यह दिन एक बड़ी जीत की स्मृति में ही मनाया जाता है; पर मजा किरकिरा करते हुए बंदे ने जनता को सलाह दी कि जीत नहीं हार मानकर भी यह दिन उत्सव मनाने लायक है। बार बार हार कर भी फिर से अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए उठ पड़ने का जो अनोखा उन्माद मानव मस्तिष्क में है, यह दिन उस उन्माद का उत्सव मनाने के लिए है। और चूँकि यही बात पाकिस्तान के चौदह अगस्त पर और टिंबकटू के भी ऐसे ही किसी नियत दिन पर भी लागू होती है, इसलिए उन दिनों को भी इसी खयाल से बराबर जोश के साथ मनाया जाना चाहिए। इस मुल्क की सबसे बड़ी खूबी यह कि यहाँ हम तुम कुछ लोग ही सही ऐसी बातें कर सकते हैं।
बहरहाल खेल तो खेल ही होता है पर हमारी पटाखे फोड़ू जनता के साथ यह ग़म मेरा भी कि करोड़ों का मालिक सही, सचिन को ऐसा रन आउट होना था। वेद कुरान गुरु ग्रंथों से निकला कोई वैज्ञानिक रब्ब उस आकाश में न था, जिसके लिए उसकी टीस के साथ और कई टीसें उस वक्त एकाकार हुई थीं। उस वक्त राम कृष्ण अल्लाह सभी अंग्रेज़ थे। क्या किया जाए, अंग्रेज़ी का जमाना है।
फिलहाल अंग्रेज़ी में एमा गोल्डमैन का वह भाषण फिर याद किया जाए जो उसने 1908 में दिया था, और जिसमें उसने कहा था कि - Indeed, conceit, arrogance and egotism are the essentials of patriotism. Let me illustrate. Patriotism assumes that our globe is divided into little spots, each one surrounded by an iron gate. Those who have had the fortune of being born on some particular spot consider themselves nobler, better, grander, more intelligent than those living beings inhabiting any other spot. It is, therefore, the duty of everyone living on that chosen spot to fight, kill and die in the attempt to impose his superiority upon all the others.
The inhabitants of the other spots reason in like manner, of course,....
आज़ादी की चाह मानव मन की बुनियादी प्रवृत्ति है। आज़ादी का दिन यह जानने के लिए मनाया जाए कि अभी और कितनी लड़ाइयाँ लड़नी हैं। हजारों लोग लड़ रहे हैं कि हमारे बच्चों का भविष्य बेहतर हो। इस दिन उनको सलाम किया जाए कि तमाम सलवा जुडुम और मोदियों के होते भी वे लड़ रहे हैं। स्वाधीन भारत के लिए लड़ाई स्वाधीन मानव के लिए लड़ाई है।

Tuesday, July 26, 2011

मुंबई हो या ओस्लो


पिछले चिट्ठे में हल्के मिजाज में मैंने लिखा था कि गंभीर फ्रांसीसी फिल्म याद नहीं आ रही। इस पर मित्रों ने याद दिलाया कि भइया त्रुफो गोदार्द को मत भूलो। अरे यार! मैं मजाक कर रहा था। दोपार्दू भी मेरा प्रिय अभिनेता रहा है।
नार्वे में हुई भयानक घटना के साथ भारत की समकालीन राजनीति का जो संबंध उजागर हो रहा है, उसे जानकर एक ओर तो कोई आश्चर्य नहीं होता, साथ ही अवसाद से मन भर जाता है। अवसाद इसलिए भी कि हमारे बीच कई लोग ऐसे हैं जिन्हें उस आतंकी की बातों से सहमति होगी। उसकी एक बात जो हैरान करने वाली है, वह है कि लोगों में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मुसलमानों को मत मारो, ऐसी आतंक की घटनाओं को अंजाम दो, जिसमें आम लोग बड़ी तादाद में मारे जाएँ। सरकारें अपनी गुप्तचर संस्थाओं के जरिए एक दूसरे के मुल्कों में या कभी अपने ही मुल्क में इस तरह की जघन्य हरकतें करती रहती हैं, यह तो सुना था, पर आतंकवादी ऐसे विचारों से संचालित हो रहे हों तो आदमी कहाँ छिपे।
पर जीवन तो चलता ही रहता है। मुंबई हो या ओस्लो, जीवन का संघर्ष निरंतर है। हम उम्मीद करते रहेंगे, वह सुबह आएगी, जब ऐसी बीमारियों से हम मुक्ति पा लेंगे। जो दबे कुचले हैं, उनमें से मानवता का ह्रास समझ में आता है, पर खतरनाक वे हैं जो संपन्न हैं, और उत्पीड़ितों की पीड़ा का फायदा उठाते हैं। मुझे अक्सर लगता है कि सामान्य पारंपरिक जीवन जीते हुए जिन पूर्वाग्रहों में हम लोग फँसे रहे, उन से मुक्त होना आसान है। पर जिनका संपन्नता के साथ परंपरा से विच्छिन्न लालन पालन हुआ है, वे जब परंपरा की किताबी पहचान शुरु करते हैं, तो विकृतियाँ सामने आती हैं। ऐसे लोग हर जगह अपनी पहचान बनाने की होड़ में और अपना वर्चस्व बनाने के लिए कभी धर्मग्रंथों में विज्ञान का डंका बजाते फिरते हैं, तो कभी परंपरा, धर्म और संस्कृति का यत्र तत्र से इकट्ठा किया अधकचरा ज्ञान सब पर लादने की कोशिश करते हैं। इनके पास दबंग आवाज होती है, जो इनकी संपन्नता का परिचायक है। पर इनकी समझ महज किताबी और कुंठित होती है। इनकी कुंठाएँ ही लोगों में परस्पर नफरत का बीज बोती हैं।

Sunday, July 24, 2011

आए! आए आए आए!


दोस्तों! इस बार स्कूटर चल गया। ओए बजाज, बजाज ओए! तो शुक्रवार को हमने फ्रांसीसी फिल्लम देखी।

Ensemble cest trop – टिपिकल फ्रांसीसी फिल्म। संबंधों पर चुटकी, यौनिकता यानी सेक्सुआलिटी पर चुटकी, यह फ्रांसीसी फिल्मों की खासियत है। मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने कभी कोई गंभीर फ्रांसीसी फिल्म कभी देखी हो। कोई तो ज़रूर देखी होगी। जेरार्द देपार्दू की शक्ल देखते ही लगता है बंदा शरारती है। यह अलग बात कि वह ' दाँतों' का अभिनय भी कर सकता है।
इस दौरान बड़ी बात यह हुई कि प्रत्यक्षा ने लोर्का के ''Pequeño vals vienés' के आना बेलेन द्वारा गायन की लिंक भेजी। मैंने शब्दों के बारे पूछा, तो जो लिंक उसने भेजी, उससे पता चला कि अंग्रेज़ी के प्रख्यात कवि लेनर्ड कोहेन ने भी इसे अंग्रेज़ी में गाया है। फिर वह भी ढूँढा। आए! आए आए आए!
ओ हो हो (वही टिपणिया स्टाइल) –
आए! आए आए आए!
क्या बात है!

Sunday, July 17, 2011

अखिल गति


निकला था कोरियन फिल्में देखने, सड़क पर स्कूटर ठप्प बोल गया। हुआ यह कि एक दिन और
एक रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा हुआ था। ठहरा स्कूटर – किसको फिकर कि सीधा कर दे।
एक जमाने में अपुन भी गाड़ी वाले थे। जिसके लिए वह गाड़ी ली थी, वह लाड़ली धरती के दूसरी
ओर चली गई तो मैंने गाड़ी को विदा कह दिया। मुहल्ले में ही है, सच यह कि अभी भी कागजी तौर
पर मालिक मैं ही हूँ, पर वह मेरी नहीं है। खैर, स्कूटर अब भी मेरा ही है। हालांकि अब मैं पहले
जैसा  फटीचर टीचर होने का दावा नहीं कर सकता, पर स्कूटर और मैं एक दूसरे के हैं। तो एक
पूरा दिन और एक पूरी रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा पड़ा रहा। शुकर पड़ोसन का कि उसने
फोन किया (क्या जमाना कि पड़ोसी से भी फोन पर बात होती है) कि मियाँ, भाई जान, यह
आप की ही औलाद लगती है, सँभालिए बेचारे को। जब मैंने सँभालने की शिरकत की तो बेचारा
धूल धूसरित पड़ा हुआ था।

बहरहाल आज बड़ी देर तक मन ही मन वाद विवाद करता रहा। दसेक किलोमीटर चलना है, 
शेयर आटो+बस+ग्यारह नंबर  गाड़ी या अपना बेचारा स्कूटर। आखिर इतवार का दिन 
(मतलब ट्राफिक कम – भारतीय सभ्यता से सामना होने का खतरा  कम) और उम्र के
आतंक के खिलाफ उठती आवाज ने मिलकर निर्णय ले लिया।  स्कूटर चलेगा भी कि नहीं डर
 था, पर ओ हो (यह 'ओ हो'  प्रह्लाद टिपणिया के स्टाइल में बोलना है) वह तो चल पड़ा। 

मनहूस।  

तीन किलोमीटर जाकर रुक गया। एक पेट्रोल पंप पर स्कूटर को खड़ा किया।   तीन घंटे हो गए हैं।
कहीं कोई कारीगर न मिला तो आखिर अपनी संस्था के बंधुओं को फोन किया। तो अब खबर है कि
बारिश का मजा लीजिए, कल स्कूटर की देखी जाएगी। कोरियन फिल्में मेरे बगैर चल ही रहीं होंगीं।
इतिहास एक महत्त्वपूर्ण अध्याय से वंचित रह गया।
बारिश पर यह तीन साल पुरानी रचना– गलती से ग़ज़ल कह दिया तो नंद किशोर आचार्य जी ने कहा
कि आज़ाद  ग़ज़ल कहोः  

ये बारिश की बूँदें टपकती रहीं रात भर 
वो बचपन की यादें टपकती रहीं रात भर  

कहाँ कहाँ हैं धरती पे बिखरे दोस्त मिरे
गीली भीगी यादें सुलगती रहीं रात भर  

मिरे मन को सहलाती रहीं जो परियाँ 
वो मिलती रहीं, बिछुड़ती रहीं रात भर  

कहीं कोई बच्चा क्या रोया जागकर 
यूँ छाती माँ की फड़कतीं रहीं रात भर  

झींगुर की झीं झीं, मेढक की टर्र टर 
आवाजें किस्म की  भटकती रहीं रात भर 

कोई शिकवा हो ज़िंदगी से अब क्यूँकर
यूँ रात उनसे नज़रें मिलती रहीं रात भर।

----------------------------------------
 मंदिरों में पैसा कहाँ से आया - राजा जी ने दिया। राजा को पैसा किसने दिया?

----------------------------------------
और मुंबई के धमाकों के बावजूद कई प्रार्थी भर्त्ती के लिए आए। अखिल गति के नियम।

Sunday, July 03, 2011

झमाझम मेघा और मेधा की मार


अभी पाँच मिनट पहले से झमाझम बारिश हो रही है। यहाँ मानसून आए एक महीना हो गया। इन दिनों लगातार संस्थान में भर्ती लेने आए प्रार्थियों के लिए अलग अलग स्तर की कई साक्षात्कार समितियों में बैठना पड़ रहा है। चूँकि विज्ञान और मानविकी दोनों में मेरा हस्तक्षेप रहा है, इसलिए मेरी दुर्दशा औरों की तुलना में अधिक है। रविवार को भी छुट्टी नहीं। कल से जिन पैनेल्स में बैठा हूँ, उनका संबंध मानविकी और भाषा विज्ञान से है। हमारे यहाँ कुछ अनोखे प्रोग्राम हैं। पाँच साल में कंप्यूटर साइंस में बी टेक और मानविकी या भाषा विज्ञान या प्राकृतिक विज्ञान जैसे किसी डोमेन (विशेष क्षेत्र) में एम एस, की दो डिग्रियाँ - शुरू से ही डोमेन विषयों में शोधकार्य पर जोर है। खैर, कल उज्जैन से आए एक छात्र से कुछ कोशिश कर कालिदास का नाम निकलवाया, पर कालिदास की किसी कृति का नाम नहीं निकला। रोचक बात यह थी कि महाकाल मंदिर में जाने पर कैसे एक अलौकिक शक्ति की उपस्थिति का आभास होता है, यह जानकारी उसने हमें दी। आज इलाहाबाद से आयी एक बालिका ने बड़ी कोशिश कर याद किया कि उसने स्कूल के पाठ्यक्रम में किसी स्त्री लेखिका की कुत्ते पर लिखी कहानी 'नीलू' पढ़ी थी। वर्मा कहने पर महादेवी उसने जोड़ लिया, पर यह पूछने पर कि वह मुख्यतः कहानी या कविता लिखती थी, उसने कहानी बतलाया। ये बच्चे देश के मेधावी गिने जाने वाले बच्चे हैं। विशाखापत्तनम से आयी एक बच्ची का मानना था कि हुसैन को सरकार ने उसके अपराध की वजह से देश से निकाला था। हैदराबाद में रहने वाले एक मूलतः हिंदी भाषी बड़े ही फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले एक जनाब का कहना था कि हालाँकि उसने ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षाओं में अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषा के बतौर संस्कृत पढ़ी है, उसे संस्कृत का एक अक्षर भी नहीं आता, क्योंकि सब कुछ रट्टा मार कर पढ़ा था। बहरहाल मेधा की मार अभी चलती रहेगी, आगे और कई साक्षात्कार होने हैं।
आज अखबार में सर विदिया (वही विद्या नायपाल) की स्त्री लेखिकाओं पर विवादास्पद टिप्पणी पर कुछ आलेख पढ़े। स्त्री लेखिकाओं और कलाकारों को दरकिनार कर हम एक अधूरे संसार में ही जी सकते हैं। इसी प्रसंग में यह कविताः-

उन सभी मीराओं के लिए
तुम्हारे पहले भी छंद रचे होंगे युवतिओं ने
अधेड़ महिलाएँ सफाई करतीं खाना बनातीं
गाती होंगी गीत तुमसे पहले भी
किसने दी तुम्हें यह हिम्मत
कैसी थी वह व्यथा प्रेम की मीरा
कौन थीं तुम्हारी सखियाँ
जिन्होंने दिया तुम्हें यह जहर
कैसा था वह स्वाद जिसने
छीन ली तुमसे हड्डियों की कंपन
और गाने लगी तुम अमूर्त्त प्रेम के गीत
उन सभी मीराओं के लिए जो तुमसे पहले आईं
मैं दर्ज़ करता हूँ व्यथाओं के खाते में अपना नाम
मेरा प्रतिवाद कि मैं हूँ अधूरा अपूर्ण
मुझसे छीन लिए गए हैं मेरी माँओं के आँसू
आँसू जिनसे सीखने थे मैंने अपने प्रेम के बोल
अपनी राधाओं को जो सुनाने थे छंद.
('हंस' और 'प्रेरणा' पत्रिकाओं और 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' संग्रह में प्रकाशित)

Sunday, June 19, 2011

वह जो मुझसे बातें करता है


बातें दिमाग में ही रहने लगी हैं। कम से कम कुछ तो पते की बात लिखनी है, एक दो लाइन नहीं, बात स्पष्ट होने लायक न्यूनतम सामग्री तो होनी ही है, सोचते हुए कुछ भी लिखा नहीं जाता। इसी बीच घटनाएँ होती रहती हैं, दोस्त बाग इतना लिख चुके होते हैं और जो कुछ मैं सोचता हूँ उससे बेहतर लिख चुके होते हैं कि फिर और लिखने का तुक नहीं बनता।
मैं जिस संस्थान में काम करता हूँ, यहाँ साल में एक दिन आस-पास पर पर्याप्त दूरी पर कहीं एकांत में जाकर चुनींदा मुद्दों पर चर्चा होती है। इस बार यह दो साल के बाद हुआ। बड़ा विषय था ethos यानी हमारे संस्थान की प्रकृति क्या होनी चाहिए। अधिकतर बहस इस बात पर हुई कि मानव मूल्यों पर पढ़ाया जाने वाला कोर्स अनिवार्य होना चाहिए या नहीं। यह कहना ज़रूरी है कि यह कोर्स अलग अलग समूहों में अध्यापकों द्वारा छात्रों के साथ बातचीत के जरिए पढ़ाया जाता है। समय के साथ स्रोत-सामग्री में सुधार हुआ है, पर मूलतः कोर्स की प्रकृति बातचीत की ही है। हमारे यहाँ यह बहस चलती रहती है। पर इस बार पक्ष विपक्ष में जम कर बातें हुईं। एक ऐसे संस्थान में जहाँ अधिकतर छात्र डिग्री के बाद अच्छी तनख़ाह की नौकरी का सपना लेकर आते हैँ, मानव मूल्यों का पढ़ाया जाना और बेहतर मानव के निर्माण के सपने सँजोना विरोधाभास सा लगता है, पर यह हमारे संस्थान की विशेषता है।
इधर भोपाल की 'प्रेरणा' पत्रिका के स्त्री-अस्मिता विषय पर आए एक अंक में मेरी बहुत सारी कविताएँ एक साथ आईं। उनमें से एक यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ।

चैटिंग प्रसंग 
. 
अनजान लोगों से बात करते हुए 
निकलती हूँ अपने स्नायु जाल से 
कड़ी दर कड़ी खुलती हैं गुत्थियाँ  

दूर होते असंख्य राक्षस भूत-प्रेत 
छोटे बच्चे सा यकीन करती हूँ 
यह यंत्र यह जादुई पर्दा हैं कृष्णमुख,  

इसके अंदर हैं  व्यथाएं, 
अनंत गान अनंत अट्टहास समाए हैं इसमें ।    

२.
 वह जो मुझसे बातें करता है 
पर्दे पर उभरे शब्दों में देखती हूँ
उसकी आँखें सचमुच बड़ीं आश्चर्य भरीं ।  

उसकी बातों में डींगें नहीं हैं 
हर दूसरे तीसरे की बातों से अलग 
हालांकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी 
उसके शब्दों में 
महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर निरंतर गतिमान ।   

क्या उसकी जीभ भी  लगातार चलती होगी? 
क्या उसके दाँत उसके शब्दों जैसे तीखे हैं 
जो खेलते हुए बचपन का कोई खेल  
अचानक ही गड़ जाएं मेरी रगों पर? 

उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो
वह होगी सूरज के चारों ओर
धरती की परिधि से भी बड़ी ।  

इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है 
तो कैसे न बनूँ उसके लिए
एक छोटी सी कली!                                  (पल-प्रतिपल २००५; प्रेरणा २०११) 
- 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित (संग्रह में शीर्षक 'चौटिंग' छपा है :D-)