तीस साल पहले नया साल
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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप
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आने वाले बसंत की कविताः १९९८ गुजराल जाएगा या दुबारा आएगा इस खबर के साथ मार्च की एक सुबह हल्के स्वेटर में दफ्तर जाऊँगा हवा के थपेड़ों में होगी बसंत की गंध और देश की फाल्गुनी अँगड़ाइयाँ सड़कों पर लोगबाग बात करेंगे बी जे पी कांग्रेस जनता दल इस इलाके में कम्युनिस्टों से ज्यादा बातें लड़कियों की टाँगों पर होंगी अगली या पिछली शाम बच्चे के साथ मैदान में दौड़ूँगा हाँफूँगा बाद में घर उपन्यास के दो पन्ने लिखूँगा सपनों में रेणु, शरत् या समकालीन नाम होंगे नज़रअंदाज सा करते हुए खबरों में प्रधानमंत्री देखूँगा आखिर अँधेरे में तमाम दुःख सिरहाने सहेजते सोचूँगा जैसे भी हैं दिन भले हैं। (पश्यंतीः अप्रैल-जून २००१)
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निकला था कोरियन फिल्में देखने, सड़क पर स्कूटर ठप्प बोल गया। हुआ यह कि एक दिन और एक रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा हुआ था। ठहरा स्कूटर – किसको फिकर कि सीधा कर दे। एक जमाने में अपुन भी गाड़ी वाले थे। जिसके लिए वह गाड़ी ली थी, वह लाड़ली धरती के दूसरी ओर चली गई तो मैंने गाड़ी को विदा कह दिया। मुहल्ले में ही है, सच यह कि अभी भी कागजी तौर पर मालिक मैं ही हूँ, पर वह मेरी नहीं है। खैर, स्कूटर अब भी मेरा ही है। हालांकि अब मैं पहले जैसा फटीचर टीचर होने का दावा नहीं कर सकता, पर स्कूटर और मैं एक दूसरे के हैं। तो एक पूरा दिन और एक पूरी रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा पड़ा रहा। शुकर पड़ोसन का कि उसने फोन किया (क्या जमाना कि पड़ोसी से भी फोन पर बात होती है) कि मियाँ, भाई जान, यह आप की ही औलाद लगती है, सँभालिए बेचारे को। जब मैंने सँभालने की शिरकत की तो बेचारा धूल धूसरित पड़ा हुआ था। बहरहाल आज बड़ी देर तक मन ही मन वाद विवाद करता रहा। दसेक किलोमीटर चलना है, शेयर आटो+बस+ग्यारह नंबर गाड़ी या अपना बेचारा स्कूटर। आखिर इतवार का दिन (मतलब ट्राफिक कम – भारतीय सभ्यता से सामना होने का खतरा कम) और उम्र के आतंक के खिलाफ उठती आवाज ने मिलकर निर्णय ले लिया। स्कूटर चलेगा भी कि नहीं डर था, पर ओ हो (यह 'ओ हो' प्रह्लाद टिपणिया के स्टाइल में बोलना है) वह तो चल पड़ा। मनहूस। तीन किलोमीटर जाकर रुक गया। एक पेट्रोल पंप पर स्कूटर को खड़ा किया। तीन घंटे हो गए हैं। कहीं कोई कारीगर न मिला तो आखिर अपनी संस्था के बंधुओं को फोन किया। तो अब खबर है कि बारिश का मजा लीजिए, कल स्कूटर की देखी जाएगी। कोरियन फिल्में मेरे बगैर चल ही रहीं होंगीं। इतिहास एक महत्त्वपूर्ण अध्याय से वंचित रह गया। बारिश पर यह तीन साल पुरानी रचना– गलती से ग़ज़ल कह दिया तो नंद किशोर आचार्य जी ने कहा कि आज़ाद ग़ज़ल कहोः ये बारिश की बूँदें टपकती रहीं रात भर वो बचपन की यादें टपकती रहीं रात भर कहाँ कहाँ हैं धरती पे बिखरे दोस्त मिरे गीली भीगी यादें सुलगती रहीं रात भर मिरे मन को सहलाती रहीं जो परियाँ वो मिलती रहीं, बिछुड़ती रहीं रात भर कहीं कोई बच्चा क्या रोया जागकर यूँ छाती माँ की फड़कतीं रहीं रात भर झींगुर की झीं झीं, मेढक की टर्र टर आवाजें किस्म की भटकती रहीं रात भर कोई शिकवा हो ज़िंदगी से अब क्यूँकर यूँ रात उनसे नज़रें मिलती रहीं रात भर। ---------------------------------------- मंदिरों में पैसा कहाँ से आया - राजा जी ने दिया। राजा को पैसा किसने दिया? ---------------------------------------- और मुंबई के धमाकों के बावजूद कई प्रार्थी भर्त्ती के लिए आए। अखिल गति के नियम।
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चैटिंग प्रसंग १. अनजान लोगों से बात करते हुए निकलती हूँ अपने स्नायु जाल से कड़ी दर कड़ी खुलती हैं गुत्थियाँ दूर होते असंख्य राक्षस भूत-प्रेत छोटे बच्चे सा यकीन करती हूँ यह यंत्र यह जादुई पर्दा हैं कृष्णमुख, इसके अंदर हैं व्यथाएं, अनंत गान अनंत अट्टहास समाए हैं इसमें । २. वह जो मुझसे बातें करता है पर्दे पर उभरे शब्दों में देखती हूँ उसकी आँखें सचमुच बड़ीं आश्चर्य भरीं । उसकी बातों में डींगें नहीं हैं हर दूसरे तीसरे की बातों से अलग हालांकि नहीं कोई विराम-चिह्न कहीं भी उसके शब्दों में महसूस करती हूँ उसके हाथ-पैर निरंतर गतिमान । क्या उसकी जीभ भी लगातार चलती होगी? क्या उसके दाँत उसके शब्दों जैसे तीखे हैं जो खेलते हुए बचपन का कोई खेल अचानक ही गड़ जाएं मेरी रगों पर? उसके शब्दों की माला बनाऊँ तो वह होगी सूरज के चारों ओर धरती की परिधि से भी बड़ी । इतनी बड़ी माला वह मुझे पहनाता है तो कैसे न बनूँ उसके लिए एक छोटी सी कली! (पल-प्रतिपल २००५; प्रेरणा २०११) - 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित (संग्रह में शीर्षक 'चौटिंग' छपा है :D-)
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