Saturday, August 30, 2008

कामयाब ग़ज़ल

मैं आम तौर पर ग़ज़ल लिखता नहीं। भला हो उम मित्रों का जिन्होंने सही चेतावनी दी है समय समय पर कि यह तुम्हारा काम नहीं। पर कभी कभी सनक सवार हो ही जाती है।
तो गोपाल जोशी के सवाल का जवाब लिखने के बाद से मन में कुछ बातें चल रही थीं, उनपर ग़ज़ल लिख ही डाली। कमाल यह कि यह ग़ज़ल दोस्तों को पसंद भी आई। साथ में जो दूसरी ग़ज़लें लिखीं, उन को पढ़कर लोग मुँह छिपाते हैं, भई अब दाढ़ी सफेद हो गई है, दिखना नहीं चाहिए न कि कोई मुझ पर हँस रहा है।

तो यह है वह कामयाब ग़ज़लः


बात इतनी कि हाइवे के किनारे फुटपाथ चाहिए
कुछ और नहीं तो मुझे सुकूं की रात चाहिए

मामूली इस जद्दोजहद में कल शामिल हुआ
यह कि शहर में शहर से हालात चाहिए

आदमी भी चल सके जहाँ मशीनें हैं दौड़तीं
रुक कर दो घड़ी करने को बात चाहिए

गाड़ीवालों के आगे हैसियत कुछ हो औरों की
ज्यादा नहीं बेधड़क चलने की औकात चाहिए

कहीं मिलें हम तुम और मैं गाऊँ गीत कोई
सड़क किनारे ऐसी इक बात बेबात चाहिए

ज़रुरी नहीं कि हर जगह हो चीनी इंकलाब
छोटी लड़ाइयाँ भी हैं लड़नी यह जज़्बात चाहिए।
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तो यह तो ठहरी ग़ज़ल। अब ताज़ा हालात परः
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जाओ टिंबक्टू में शुरु कर दो एक दंगा।
फिर किसी मुसलमान ने ढूँढ लिया कि कुदरत ने बनाया है बर्फीला शिवलिंग।
करो तीर्थ, जुटाओ तामझाम कि आदमी को फिर आदमी रहने से रोका जा सके।

इतिहास लिखो राजाओं का और आदमी से कहो कि भूल जाए वह खुद को।
फिर किसी काफिर ने दी चुनौती तुम्हारे कारकुनों को।
हो जाए, बहा दो खून। मरें साले, मरने वाले, हमें क्या।
ढम ढम ढढाम ढढाम
ढम ढम ढढाम ढढाम
टिंबक्टू है देश महान
टिंबक्टू है देश महान।

Sunday, August 24, 2008

एक क्षण होता है ऐसा

देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने ह्त्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।
मार्च २००४ (पश्यंती २००४)

Saturday, August 23, 2008

अंत में लोग ही चुनेंगे रंग

गोपाल जोशी ने सवाल उठाया है कि सिर्फ समस्याओं को कहना क्यों, समाधान भी बतलाएँ। अव्वल तो समाधान की कोशिश ब्लॉग पर करना या ढूँढना मेरा मकसद नहीं है, मैं तो सिर्फ अपनी फक्कड़मिजाज़ी के चलते चिट्ठे लिखता हूँ। फिर भी अब बात चली है तो आगे बढ़ाएँ। समस्याओं के साथ जूझने का हम सबका अपना अपना तरीका है। एक ज़माना था जब लोग लाइन या एक निश्चित वैचारिक समझ की बात करते थे। हमलोगों ने कभी दौड़ते भागते पिटते पिटाते जाना कि हम मूलतः स्वच्छंदमना प्राणी हैं और लाइन वाला मामला हमलोगों पर फिट नहीं बैठता। ऐंड वाइसे वर्सा। दूसरे हमने यह भी जाना कि कुछ बुनियादी बातें हैं, जैसे बराबरी पर आधारित समाज, सबको न्यूनतम पोषकतत्वयुक्त भोजन, शिक्षा और आश्रय, आदि बातें, जिनके लिए कोई खास समझ की ज़रुरत नहीं होती, बस यह जानना ज़रुरी होता है कि आदमी आदमी है। जानवरों के साथ भी अच्छा सलूक करना है, यह भी बुनियादी बात है, पर मैं मांसाहारी हूँ, इसलिए .....।

बहरहाल बात हो रही है समाधान की। भाई, जहाँ अंतरिक्ष और नाभिकीय विज्ञान जैसी चुनौतियों पर लोग भिड़े हुए हैं, वहाँ अगर गरीबी कैसे कम करें या गाँव गाँव में बेहतर स्कूल क्यों नहीं हैं, या हर कोई पुलिस को दुश्मन क्यों मानता है जैसे सवाल हमारे सामने हैं तो कहीं कुछ गड़बड़ है। सवाल यह है कि समस्या ही सबको दिखती है क्या! सचमुच हमें गरीबी दिखती है क्या? हम जिस वर्ग के लोग हैं, वहाँ लोगों को गरीबी नहीं दिखती, उनको हर जगह दिखते हैं कामचोर, ज्यादा बच्चा पैदा करने वाले (अब ऐसे लोग बढ़ने लगे है, जिनको लोग गरीब नहीं खुश दिखने लगे हैं)। इसलिए मैं बीच बीच में रो लेता हूँ, कभी घर बैठ कर सिरहाने पर रो लेता हूँ, कभी ब्लॉग पर रो लेता हूँ। तो गोपाल कुमार विकल की लाइन याद दिलाते हैं : ' मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे।'

आम तौर पर इस तरह का लिखा बड़ा सरलीकृत सा दृष्टिकोण माना जाएगा। पर सच यह है कि अगर मैं दस किताबें भी लिखूँ और बहुत सारे आँकड़े पेश करूँ फिर भी मूल बात यही होगी। क्या गरीबी कहने से ही दूर हो जाएगी? सही है, कहने मात्र से समस्याएँ खत्म नहीं होतीं। ऐसा नहीं होता कि देश के सारे पैसे लोगों में बाँट दें तो समस्याएँ मिट जाएँगी। कई लोग कहेंगे कि अरे पाकिस्तान के साथ दोस्ती कैसे करें, क्या वो लोग करेंगे। इनके भाईजान सरहद की दूसरी ओर लोगों को इसी तरह बरगलाने में लगे हैं। अब सोचो, दो लोगों की आपस में दोस्ती कराना ज्यादा आसान है या उनको लड़ाना ज्यादा आसान है। इन पंडितों की मानें तो समस्याएँ हमेशा ही विकट रहेंगी, कोई समाधान नहीं है। कुछ लोग हैं जो पूछेंगे दुनिया में कहाँ लोग सुखी हैं। चलो यह भी सही, पर यह तो बतलाओ कि दुनिया में कहाँ लोग सुखी होने के लिए जद्दोजहद नहीं कर रहे? तो चीज़ों को ऐसे देखना है तो देखो कि लड़ाई है बंधु, हम सब इस लड़ाई में शामिल हैं, वो लकीरें खींचते रहेंगे, हम उनको मिटाने के लिए लड़ते रहें, वो हिंदू मुसलमान बनाते रहें, हम इंसान के साथ खड़े रहेंगे। हमसे बंदूक उठती नहीं, जिसने अन्याय के खिलाफ बंदूक उठाई है, हम डरते हैं, पर उसे हम देशद्रोही तो नहीं कहेंगे। उन्हें ज़रुर देशद्रोही कहते रहेंगे जो लोगों का पैसा मौत की सौदागरी में लगा रहे हैं। जो इंसान को धर्म और जाति से परे नहीं देखते, जो मर्द और औरत को बराबरी का दर्जा नहीं देंगे, हम उनके साथ भिड़ते रहेंगे। यह सबकुछ यह जानते हुए कि हम भी अदने से हैं और हमारी गल्तियाँ, हमारे पाखंड कम नहीं यानी कि काफी सारी लड़ाई खुद से भी है।

तो गोपाल जी, किसी को हम क्या सलाह दें कि समाधान क्या है। अक्सर बच्चों से हम कहते हैं कि अपने आस पास देखो कि क्या दिखता है। कुछ पढ़कर दिखता है तो पढ़ो, कुछ कर के दिखता है तो करो। जुड़ो, कहीं जुड़ो। लड़ो तो और चीज़ों के साथ गुटबाजी के खिलाफ भी लड़ो। यह नहीं कि हमारे तुम्हारे जुड़ने से दुनिया रातोंरात बदल जाएगी, पर जो भी होगा वह बेहतरी के लिए होगा या जितनी बदहाली अन्यथा हो सकती है उससे कम ही होगी। और जुड़ने के लिए हजारों हाथ हैं। कोई संपूर्ण क्रांति के सपने देखता है तो कोई महज शहर की सड़क के किनारे फुटपाथ होने चाहिए यही कह रहा है। बड़े छोटे हर किस्म के इंकलाब हैं। अपने दुःखों और अपनी औकात के मुताबिक अपनी बात। अपने अपने इंकलाब। यह ज़रुरी नहीं कि हर जगह चीन जैसी सांस्कृतिक क्रांति ही हो, सड़क पर पड़ा हुआ केले का छिलका उठा कर परे करना भी एक छोटा सही पर ज़रुरी कदम है। बहुत सारी बातें हो रही हैं, लोकतांत्रिक ढाँचे में रहकर हजारों साथी बहुत महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं।

आइए हाथ उठाएँ हम भी।

यह कविता आपके लिएः

अंत में लोग ही चुनेंगे रंग

चुप्पी के खिलाफ
किसी विशेष रंग का झंडा नहीं चाहिए

खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है
लाल या सफेद
आँखें ढूँढती हैं रंगों के अर्थ

लगातार खुलना चाहते बंद दरवाजे
कि थरथराने लगे चुप्पी
फिर रंगों के धक्कमपेल में
अचानक ही खुले दरवाजे
वापस बंद होने लगते हैं

बंद दरवाजों के पीछे साधारण नजरें हैं
बहुत करीब जाएँ तो आँखें सीधी बातें कहती हैं

एक समाज ऐसा भी बने
जहाँ विरोध में खड़े लोगों का
रंग घिनौना न दिखे
विरोध का स्वर सुनने की इतनी आदत हो
कि न गोर्वाचेव न बाल ठाकरे
बोलने का मौका ले ले

साथी, लाल रंग बिखरता है
इसलिए बिखराव से डरना क्यों
हो हर रंग का झंडा लहराता

लोगों के सपने में यकीन रखो
लोग पहचानते हैं आस का रंग
जैसे वे जानते हैं दुःखों का रंग
अंत में लोग ही चुनेंगे रंग।

(प्रतिबद्धः मई १९९८)

Friday, August 22, 2008

नहीं समझ सकते

बीस साल पहलेः
उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी अपार्थीड वाली सरकार थी।


नहीं समझ सकते

कितने अच्छे हो सकते हैं हम
उठ सकते कच्ची नींद सुबह
पहुँच सकते दूर गाँव
भीड़ भरी बस चढ़
भूल सकते दोपहर-भूख
एक सुस्त अध्यापक के साथ बतियाते
पी सकते एक कप चाय

समझ सकते हैं
पाँच-कक्षाएँ-एक-शिक्षक पैमाना समस्याएँ
लौटते शाम ढली थकान
ब्रेड आमलेट का डिनर
पढ़ते नई किताब

पर नहीं समझ सकते हम
कि है अध्यापक
नाखुश अपनी ज़िंदगी से

कितने अच्छे हो सकते हैं हम
बेसुरी घोषित कर सकते
सोलह-वर्ष-अंग्रेज़ी शिक्षा
फटी-चड्ढी-मैले-बदन-बच्चों से
सीख सकते नए उसूल
भर सकते आँकड़े रचे दर परचे

सभा बुला सकते हैं
सबको साथी मान
साझा कर सकते हैं
देश विदेश अपनी उनकी बातें
मौका दे सकते हैं
सबको बोलने का
लिख सकते डायरी में
मनन कर सकते
फिर भी नहीं समझ सकते कि
हैं कम पैसे वाले लोग
नाखुश अपनी ज़िंदगी से

कितने अच्छे हो सकते हैं हम
दारु, फिल्में, कॉफी-महक-परिचर्चाएँ
एक-एक कर छोड़ सकते हैं
बन सकते आदर्श
कई भावुक दिलों में
हो सकते इतने प्रभावी
कि लोग भीड़-धूल-सड़क में भी
दूर से पहचान लें
आकार लें हमारे शब्दों से
गोष्ठियाँ, सुधार-मंच, मैत्री संघ
पर नहीं समझ सकते
क्यों बढ़ते रहें झगड़े, कुचले जाएँ गरीब

हम हो सकते हैं बहुत अच्छे
गा सकते कभी नागार्जुन, कभी पाश...
सुना सकते फ़ैज ऐसे कि
लोग झूम उठें
नहीं समझ सकते फिर भी
कैसे घुस आता दक्षिण अफ्रीका
हर रोज घर में रोटियाँ पकाने
झाड़ू लगाने

हम यह सब नहीं समझ सकते
हम ऐसा नहीं बन सकते
कि ज़िंदगी में हम हों नाखुश इस कदर
कि उठाने लगें पत्थर
सोच समझ निशाने लगाएँ
तोड़ डालें काँच की दीवारें
जिनके आरपार नहीं दिखता हमें
जो हम नहीं सोच सकते।

(मूल रचनाः १९८७; मुंबई की एक पत्रिका में प्रकाशित (नाम याद नहीं) १९८९)

Thursday, August 14, 2008

गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान

पूछो कि क्या तुम्हारी साँस तुम्हारी है
क्या तुम्हारी चाहतें तुम्हारी हैं
क्या तुम प्यार कर सकते हो
जीवन से, जीवन के हर रंग से
क्या तुम खुद से प्यार कर सकते हो

धूल, पानी, हवा, आस्मान
शब्द नहीं जीवन हैं
जैसे स्वाधीनता शब्द नहीं, पहेली भी नहीं

युवाओं, मत लो शपथ
गरजो कि जीवन तुम्हारा है
ज़मीं तुम्हारी है
यह ज़मीं हर इंसान की है
इस ज़मीं पर जो लकीरें हैं
गुलामी है वह

दिलों को बाँटतीं ये लकीरें
युवाओं मत पहनो कपड़े जो तुम्हें दूसरों से अलग नहीं
विच्छिन्न करते हैं
मत गाओ युद्ध गीत
चढ़ो, पेड़ों पर चढ़ो
पहाड़ों पर चढ़ो
खुली आँखें समेटो दुनिया को
यह संसार है हमारे पास
इसी में हमारी आज़ादी, यही हमारी साँस
कोई स्वर्ग नहीं जो यहाँ नहीं
जुट जाओ कि कोई नर्क न हो

देखो बच्चे छूना चाहते तुम्हें
चल पड़ो उनकी उँगलियाँ पकड़
गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान
हम ही हैं नई भोर के दूत
हम इंसां से प्यार करते हैं
हम जीवन से प्यार करते हैं
स्वाधीन हैं हम।

Tuesday, August 12, 2008

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ?

क्या मैं विक्षोभवादी हूँ?

मैं माँग करता हूँ हवा से पानी से कि
उनमें घुलते मिलते रंग गंध हों
और कोई कह रहा है कि मैं विक्षोभवादी हूँ

मुल्क में किसी भी समझदार व्यक्ति को पुकारा जाता है मार्क्सवादी कहकर
दाल रोटी ज्यादा ज़रुरी है जीवन के लिए
जानना मुश्किल कि मार्क्स कितना समझदार था

क्या मैं समझदार हूँ?

वैसे विक्षोभवादी होने में क्या बुरा है?
सोचो तो रंग अच्छा है
मार्क्सवादी भी कहलाना अच्छी बात है
बशर्ते यह बात समझ में आ जाए कि
इसका मतलब गाँधीजी का अपमान नहीं है
हालांकि इसका मतलब यह ज़रुर है
हम गाँधी के साथ खड़े हो
जनता जनार्दन की जय कहते हैं

चलो तय हुआ कि मैं विक्षोभवादी हूँ
प्रबुद्ध जन तालियाँ बजाएँ वक्ता की बातें सुन
इसी बीच एक वक्ता को यह चिंता है कि दूसरा
उसका पर्चा छापेगा या नहीं

मैं विक्षोभवादी हूँ
मैं बाबा को याद करता गाता हूँ
'जली ठूँठ पर बैठ कर गई कोकिला कूक
बाल ना बाँका कर सकी शासन की बंदूक'।

Saturday, August 09, 2008

What have we done

हिरोशिमा पर एक पुराना स्लाइड शो छात्रों ने देखा और चर्चा की। १९९८ के हिंद-पाक नाभिकीय विस्फोटों के बाद मुख्यतः चेन्नई के इंस्टीच्यूट आफ मैथेमेटिकल साइंसेस आदि और बैंगलोर के विभिन्न विज्ञान शोध संस्थानों से वैज्ञानिकों ने मिलकर 'साइंटिस्ट्स अगेंस्ट न्यूक्लीयर वेपन्स' के लिए ये स्लाइड्स तैयार की थीं। शीर्षक था 'हिरोशिमा कैन हैपेन हीयर'। हमलोग चंडीगढ़ में युद्ध विरोधी और हिंद-पाक शांति के आंदोलनों में जुड़ कर प्रयास कर रहे थे। हमलोगों ने इन स्लाइड्स को अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार बदल कर कई स्कूलों में, सामुदायिक केंद्रों में, गाँवों में दिखलाया। प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक हस्ती गुरशरण सिंह ने भी हमें काफी मदद की और हमलोगों ने जगह जगह नुक्कड़ नाटक किए। यहाँ हैदराबाद में इतने साल बाद उन स्लाइड्स का प्रभाव वैसा ही रहा जैसा उनदिनों देखा था। हिबाकुशा (नाभिकीय विस्फोटों से प्रभावित बच गए लोग) के बयानों और उनके खींचे फोटोग्राफ्स और उनके अंकित तस्वीरों को देखकर भला कौन नहीं प्रभावित होगा। चर्चा के दौरान ऐसी बातें भी सामने आईं कि अगर ईराक के पास नाभिकीय बम होते तो क्या अमरीका की उसपर आक्रमण करने की हिम्मत होती।

यह आम धारणा है कि युद्ध सरदार किसी एक मुल्क के साथ जुड़े होते हैं। सच यह है कि लोगों की स्वाभाविक देशभक्ति को राजनेता अपने हितों के लिए इस्तेमाल करते हैं और राजनेताओं का इस्तेमाल वे लोग करते हैं जिन्के लिए पैसा और ताकत सबकुछ है। कल्पना करो कि ईराक ने अमरीका के हमले के जवाब में नाभिकीय मिसाइल दाग दिया। युद्ध सरदारों की प्रतिक्रिया क्या होगी? लोग मानते हैं कि आक्रोश होगा, बदले की भावना होगी। मेरा मानना है कि सचमुच व्यापक आक्रोश होगा, पर युद्ध सरदारों को नहीं, उन्हें सिर्फ मजा आएगा। लाखों लोगों का मारा जाना उनके लिए कोई बात नहीं है। उनका कोई देश नहीं है, कोई भी उनका अपना नहीं है। उन्हें बड़ी खुशी होगी कि रास्ता खुल गया है और अब आतिशबाजी शुरू।
नाइन इलेवेन का संदर्भ आया और बात स्पष्ट हुई कि न तो अल कायदा अफगानी संगठन है न ही तालिबान की पैदाइश अमरीका के अलावा कहीं और से हुई है। सब जानते हैं, फिर भी अफगानिस्तान को सपाट करने में कोई कमी न हुई। अमरीका की अर्थ-व्यवस्था शस्त्र बनाने और उनका सौदा करने पर बुरी तरह निर्भर है। ऐसा ही कई दूसरे मुल्कों के साथ भी है। भारत में भी ऐसे निहित स्वार्थों की कमी नहीं जो शस्त्र व्यापार को फायदा का सौदा मानते हैं। नाभिकीय शस्त्र इसी कड़ी में एक और भयंकर कदम है।

बहरहाल मुझे अपनी पुरानी डायरी में १९७७ के पन्नों पर एक कविता दिखी। यह १९४६ में प्रकाशित हरमान हागरडॉन की पुस्तक 'द बॉम्ब दैट फेल आन अमेरिका' से लिया उद्धरण है। नेट सर्च कर मैंने पाया कि यह पुस्तक वाकई काफी प्रसिद्ध है।

"The bomb that fell on Hiroshima fell on America too.


It fell on no city, no munition plants, no docks. It erased no church, vaporized no public buildings, reduced no man to his atomic elements. But it fell, it fell."

"When the bomb fell on America it fell on people.
It didn't dissolve them as it dissolved people in Hiroshima.
It did not dissolve their bodies
But it dissolved something vitally important to the greatest of them and the least.
What it dissolved were their links with the past and with future.
There was something new in the world that set it off forever from what had been.
Something terrifying and big, beyond any conceivable earthly dimensions.......
It made the Earth, that seemed so solid, Main street, that seemed so well paved, a kind of vast jelly, quivering and dividing underfoot.....
What have we done, my country, what have we done?

ढूँढते हुए मुझे एक युद्ध विरोधी उक्तियों की अच्छी साइट यहाँ मिली।

Wednesday, August 06, 2008

खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स

'भारत' की खोज


पता चला कि भजन गायन के लिए साप्ताहिक सभा होती है, अब उसमें विचार विमर्श भी होगा। विमर्श का उद्देश्य 'भारत' की खोज है। बड़ी आशा और उत्सुकता के साथ मैं गया। मुझे भजन अच्छे लगते हैं। पिछले तीस सालों में प्रचलित हुए भौंडी आवाज में सुबह सुबह कुदरती शांति को नष्ट करने वाले, उत्तर भारत के फिल्मी पैरोडियों वाले भजन नहीं, पारंपरिक भक्ति गीत, खास कर अगर राग में बँधे हों, सुन कर अच्छा लगता है। जिस दिन मैं गया, भजन गाए गए। एक भजन में प्रभु को गोप्य कहा गया था, मैंने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों तो थोड़ी चर्चा हुई। इसके बाद विचार के लिए चाणक्य श्लोक पढ़े गए। मुसीबत यह थी कि जिस पुस्तक से श्लोक पढ़े जा रहे थे, उसमें श्लोक और उनके हिंदी में अर्थ के अलावा टीका भी थी। यह टीका जिस स्वामी ने लिखी थी, स्पष्ट था कि वह पूर्वाग्रह-ग्रस्त और पुरातनपंथी है। टीका में भिन्न स्रोतों से उद्धरण थे। कुछ पंचतंत्र जैसे स्रोत थे तो कुछ महज लोकोक्ति। तीसरे ही श्लोक में मेरा धैर्य टूटने लगा। मैंने साथियों से कहा कि हमें श्लोक और उनके अर्थ पढ़कर अपने आप चर्चा करनी चाहिए, न कि टीकाकार पर निर्भर करना चाकिए। दुःख यह कि पुनरुत्थानवादी मानसिकता इतनी हावी थी कि दूसरों ने उस टीकाकार के पक्ष में तर्क रखे। मैंने कहा कि परंपरा के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि न रखैं तो हम अपने पूर्वजों का अपमान कर रहे हैं, क्योंकि हम उन्हें उनकी मनुष्यता देने से इन्कार कर रहे हैं। एक टीका के अंश पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा कि मुझे क्यों इतनी हताशा है। चाणक्य ने कहा कि जिस पुरुष के जीवन में 'दुष्टा नारी' की मौजूदगी हो, उसे वन में चले जाना चाहिए। अव्वल तो सोचने की बात यह है कि समझदार लोगों को भारत की खोज के लिए ऐसा हर कुछ पढ़ना क्यों जरुरी लगता है, जो भी सैंकड़ों साल पहले लिखा गया है। चाणक्य के कई उम्दा नीति श्लोक हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए, कुछ छोड़े भी जा सकते हैं। बहरहाल टीकाकार हमें यह समझाता है कि 'दुष्टा नारी' क्या चीज है। पति दिन भर काम कर घर लौटा है और देखता है कि पत्नी ने खाना नहीं बनाया है। वह कहता है 'रे पापिन! तूने खाना क्यों नहीं बनाया है?' पत्नी कहती है, 'मैं क्यों पापिन होऊँ, पापी होगा तेरा बाप?' पति - 'री राँड़, क्या बकवास करती है....' बाकी का हिस्सा लिखकर मैं वक्त जाया नहीं करना चाहता। मेरा खयाल है कि इस तरह की सामग्री प्रकाशित करने वालों को और सामजिक रुप से इसे पढ़ने वालों के लिए ऐसी सजा का प्रावधान होना चाहिए जिससे उनकी वैचारिक समझ सुधरे, यह बेहतर सभ्यता की एक पहचान है। यह जरुरी नहीं कि हम 'हर बाला देवी की प्रतिमा' गाते रहें, पर यह जरुरी है कि हममें औरतों के प्रति स्वस्थ दृष्टि पनपे। देवी और दुष्टा दोनों ही विशेषण आपत्तिजनक हैं। अरे इंसान को इंसान कहो, भारत खोजो पाकिस्तान खोजो, खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स ने ऐसे कारनामे किए हैं, जो खोजने लायक हैं।

देश के एक सक्रिय समाजसेवी के यहाँ आने पर सभा हुई। चूंकि एक समय मैं उसे जानता था तो खुशी मुझे भी थी कि पंद्रह साल बाद मिल रहा हूँ। जिन मुद्दों को लेकर हम परेशान हैं और कठिन परिस्थितियों में जिन पर हमने भी काम किया है, वह और उसके साथी लगातार उन मुद्दों पर संघर्ष कर रहे हैं। उसने छात्रों के साथ चर्चा की तो कुछ बातें तंग करती रहीं। मैंने देखा है कि सुविधाओं के साथ पले मध्य-वर्गीय परिवारों में पले लोग जब सामाजिक राजनैतिक क्षेत्र में काम करने आते हैं, तो सच्चाइयों को लेकर उनमें एक तरह की रुमानी प्रवृत्ति होती है। उसके कुछ वक्तव्य थे - गरीब अनपढ़ व्यक्ति पढ़े लिखों से ज्यादा समझदार है। हर व्यक्ति को जितने मर्जी बच्चे पैदा करने की छूट होनी चाहिए। गरीब बच्चे पैदा करते हैं, उन्हें कोई समस्या नहीं है।

यह सब पुरानी बहस है और आश्चर्य होता है कि लोग अभी भी एक या दूसरे छोर पर खड़े होकर बातें करते हैं। ऐसी बेमतलब की बातों से दूसरी जरुरी बातों का वजन कम हो जाता है। जिस तरह ऊपर से थोपी गई विकास की धारणा जन विरोधी है, ऊपर से थोपी गई गरीबी पूजा की सतही समझ भी जन विरोधी है। असली सवाल यह है कि जो भी ऐसा निर्णय लिया जाता है जिससे समूह प्रभावित होता हो, उसमें हर व्यक्ति की भागीदारी कितनी है। कोई सहज उत्तर तो नहीं मिल सकते, जैसा कि बॉब डिलन का पुराना गीत कहता है - द आन्सर इज़ ब्लोइंग इन द विंड।