Thursday, June 29, 2017

चुपचाप अट्टहास - 35: हर सुंदर के असुंदर को अपनाया


मूँछ होती थी

काली कच्ची उम्र की

सिर पर उन दिनों के बालों के साथ जमती भली थी

आईना देखता उससे बातें करता था

कहता था कि वह कभी न गिरेगी

वह गिरी भी कटी भी

जब यह वारदात हुई

मैं दिनों तक दाँतों से नाखून काट चबाता रहा

लू में बदन तपाया

बारिश के दिन सड़कों में भीगा

हर सुंदर के असुंदर को अपनाया

इस तरह बना जघन्य

मूँछ फिर कभी खड़ी नहीं हुई

हर सुबह एक नए उस्तरे से उसे मुँड़वाता हूँ

फिर बाँट देता उस्तरा

गोरक्षकों को।



I had a moustache

dark one like a young adult

It used to match well with the hair on my head

I talked with it when looking at the mirror

I told it that it will never droop

And then it drooped and and I lost my dignity



For days I bit my nails

After it happened

I tanned my skin in blazing sun

Got drenched in pouring rain

I went for the ugly in all that is beautiful

This is how I turned ugly

The moustache never twisted upwards

Every morning I use a new razor to shave it off

And then I hand over the razor

to the cow-vigilantes.

Tuesday, June 27, 2017

चुपचाप अट्टहास - 34: तुम्हारे अंदर मेरा एक हिस्सा कैसे


तुमने क्या सोचा था

सुंदर सा चेहरा

जिस पर औरतें फिदा होती हैं

किसी ख़ून पीते आदमी का नहीं हो सकता



खुद को देखो

तुम्हारी आँखें हैं जैसे हर किसी की

बाल तुम्हारे काले सफेद

औसत हिंदुस्तानी का भार है तुम्हारा

औसत ही ऊँचाई है

वैसी जीभ, नाक कान

नहीं तुम पागल नहीं हो



तुम्हारे अंदर मेरा एक हिस्सा कैसे आ गया?



And you thought that

A handsome face

That attracts women

Cannot belong to a bloodthirsty man



Look at yourself

Your eyes are just like anyone else’s

Your hair salt and pepper

You weigh about an average Indian’s weight

And your height is average

Your tongue, nose and ears are the same

No, you are not crazy


How is it that a part of me is there within you?

Wednesday, June 21, 2017

एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं


'अनहद' के ताज़ा अंक में प्रकाशित आलेख


मुक्तिबोध के लेखन में वैज्ञानिक सोच

हमें बचपन से बतलाया जाता है कि हमारा युग विज्ञान का युग है। विज्ञान, वैज्ञानिक सोच या चेतना या दृष्टि, तकनोलोजी, ये सारी बातें अलग-अलग अर्थ रखती हैं, पर यह माना जाता है कि इनमें गहरा संबंध है। युग विज्ञान का है तो हर इंसानी हरकत में विज्ञान या वैज्ञानिक सोच को ढूँढना लाजिम हो जाता है। सच यह है कि साहित्य पर चर्चा करते हुए विज्ञान ढूँढना कोई मायने नहीं रखता है। ज्ञान प्राप्त करने के कई तरीकों में से विज्ञान एक है, जिसकी कुछ खास विशेषताएँ हैं। वैज्ञानिक पद्धति की कुछ खासियत हैं जो हमें सत्य के आस-पास तक पहुँचने में मदद करती हैं। पर अंतिम सत्य क्या है. यह सवाल खुला रह जाता है। किसी कृति में वैज्ञानिकता या वैज्ञानिक सोच है या नहीं, इस बात का मतलब अक्सर यह होता है कि रचना में तर्कशीलता पर जोर दिया गया है या कि इसके विपरीत रचना की संरचना और इसके कथ्य में भावनात्मकता या आस्था का असर अधिक है। यह बात शुरु में ही समझ लेनी चाहिए कि वैज्ञानिक तर्कशीलता एक खास किस्म की तर्कशीलता है। इससे अलग भी तर्क की संरचनाएँ होती हैं। धर्म, परंपरा आदि के अपने तर्क होते हैं, जिनका विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए यह पूछना कि किसी साहित्यिक कृति में वैज्ञानिक तर्कशीलता है या नहीं दरअसल साहित्य के रूप का नहीं बल्कि सरोकारों का सवाल है। रूप के नियम होते हैं, जैसे रसशास्त्र के नियम हैं, इन नियमों का विज्ञान से कोई संबंध नहीं है। सरोकारों में भी महज तार्किकता का होना ही विज्ञान की पहचान नहीं है। जहाँ विज्ञान पहली शर्त हो वह कथा, कविता, नाटक आदि विधाओं का साहित्य नहीं होता। यहाँ तक कि विज्ञान-कथा भी विज्ञान नहीं होती, हालाँकि उसमें वैज्ञानिक जानकारियाँ - सच या काल्पनिक – हो सकती हैं। इसलिए बुनियादी या तात्विक अर्थ में साहित्य में विज्ञान ढूँढना निरर्थक है।

इसलिए मुक्तिबोध की रचनाओं में विज्ञान कहाँ है, इस बात का कोई खास अर्थ नहीं है। एक सचेत रचनाकार होने के नाते अपने समय की वैज्ञानिक जानकारियों का ज्ञान उन्हें निश्चित ही रहा होगा। पर हम अधिक से अधिक यही पूछ सकते हैं कि उन्होंने लिखते हुए वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल किया या नहीं। आज विज्ञान से हमारा मतलब आधुनिक विज्ञान से है, जिसका हाल की सदियों में यूरोप और अमेरिका में तेजी से विकास हुआ है। दार्शनिकों ने इस बात पर खूब बहस की है कि विज्ञान क्या है, इसकी विशेषताएँ क्या हैं; काफी हद तक इस पर समझ बन चुकी है, पर कोई आखिरी समझ तक हम आ पहुँचे हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। विज्ञान से अलग वैज्ञानिक सोच के बारे में समझ में स्पष्टता और भी कम है। विज्ञान क्या नहीं है, यह हम जानते हैं, यहाँ तक कि जो विज्ञान नहीं है और जिसे ज़बरन विज्ञान कहने की कोशिश की जाती है, उस सूडो या छद्म विज्ञान के स्वरूप पर भी अच्छी समझ है। पर इस अर्थ में विज्ञान का संबंध वैज्ञानिक पद्धति से है। सोच पद्धति नहीं होता।

तो फिर साहित्य में वैज्ञानिक सोच से हम क्या अर्थ निकाल सकते हैं? साहित्य को विज्ञान के बरक्स खड़ा करने के लिए हमें इसे ज्ञान प्राप्त करने के तरीके या साधन या एपिस्टीम के रूप में देखना पड़ेगा। ज्ञान का मकसद सत्य की खोज है। निश्चित सत्य की खोज हो सकती है, होती है, पर निश्चित सत्य क्या होता है, कुछ होता भी या नहीं, यह बुनियादी सवाल है। दो और दो मिलकर चार होते हैं, कुछ अर्थों में यह एक निश्चित सत्य है, पर हमेशा नहीं। प्रत्यक्ष ज्ञान में किस पैमाने की अनिश्चितता होती है, इस बारे में एक निश्चित समझ हमें विज्ञान से मिलती है। साहित्य और कला इस अनिश्चितता को मापे बगैर हमें जीवन, प्रकृति के रहस्यों और समाज की सच्चाइयों के रुबरु करते हैं। हर तरह की ज्ञान-मीमांसा अंतत: किसी जीवन-दृष्टि से जुड़ी होती है। इस अर्थ में विज्ञान भी हमें एक जीवन-दृष्टि देता है। इसलिए हम साहित्य पढ़ते हुए यह पूछ सकते हैं कि हमें स्थूल जानकारियों से लेकर सूक्ष्म एहसास तक जो कुछ भी मिल रहा है, क्या वह वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि से संगति रखता है। इसका कोई मतलब है भी या नहीं, यह सवाल फिर भी रह जाता है, पर इस पर सोचने-परखने में कोई हर्ज़ नहीं है। साथ ही यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी साहित्यिक कृति का कद उसमें वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि होने या न होने से नहीं मापा जाता।

बदकिस्मती से अधिकतर लोग वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि को सतही तार्किकता और आधुनिक तकनोेलोजी से संपन्न जीवन-शैली मान लेते हैं। यह विज्ञान का सरलीकरण और न्यूनीकरण (reduction) है। अगर यह सही है कि हाल की सदियों में विज्ञान में अभूतपूर्व तरक्की हुई है तो उसका असर हमारी जीवन-दृष्टि में आए बदलावों में दिखना चाहिए। कौन सी बड़ी वैज्ञानिक बातें हाल की सदियों में सामने आई हैं? आम समझ में अक्सर लोग वैज्ञानिक खोज का श्रेय किसी एक व्यक्ति के साथ जोड़ देते हैं। दरअसल किसी भी वैज्ञानिक खोज के पीछे कई सालों तक काम कर रहे कई सारे लोगों का श्रम होता है। सौ साल पहले जो तीन नाम वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि के संदर्भ में लिए जाते थे, वे मार्क्स, डार्विन और फ्रॉएड के हैं । इनमें से फ्रॉएड का संदर्भ काफी हद तक भुलाया जा चुका है, पर जिस खास तरह के मनोवैज्ञानिक विशलेषण को फ्रॉएड ने लोकप्रिय बनाया, उसका व्यापक प्रभाव साहित्य और कलाओं पर पड़ा। धीरे-धीरे फ्रॉएड की जगह फूको, लाकान आदि समाज वैज्ञानिकों ने ले ली और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के नए आयाम सामने आए, जो व्यक्ति और समाज के रिश्तों की पड़ताल करते हैं। फ्रॉएड के काम की वैज्ञानिकता पर शंकाएँ सामने आईं और अब दिमाग के साइंस की समझ बढ़ने के साथ उनकी कुछ खोजों पर दुबारा चर्चा हो रही है। पिछली सदी के अंत तक इन तीन नामों के अलावा जिन दूसरे नामों को वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि बनाने या बढ़ाने में लिया जाने लगा, उनमें आइन्स्टाइन, श्रोडिंगर, हाइजेनबर्ग, फाइनमैन और हॉकिंग प्रमुख हैं।

मार्क्स और डार्विन के नाम जल्दी मिटने वाले नहीं हैं। डार्विन ने गालापागोस द्वीप में देखे जंतुओं के आकार और स्वभाव के अभूतपूर्व विश्लेषण के साथ जैविक विकास के सिद्धांत को प्रतिष्ठित करते हुए कायनात में इंसान के अस्तित्व पर पहले से मौजूद समझ को झकझोर डाला। यह सचमुच की वैज्ञानिक क्रांति थी और इसका जो असर हमारी जीवन-दृष्टि पर पड़ा है, उस झटके को शांत होने में कई सदियाँ लगेंगी। मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और इसकी ऐतिहासिक भूमिका को प्रतिष्ठित करते हुए मानव-मूल्यों और सामाजिक-आर्थिक ढाँचों के बीच संबंधों को उजागर किया। डार्विन के सिद्धांतों को वैज्ञानिक क्रांति मानने पर कोई सवाल नहीं उठता, पर फ्रॉएड के निष्कर्षों को आज वैज्ञानिक नहीं माना जाता और मार्क्स का विश्लेषण वैज्ञानिक है या नहीं, इस पर विवाद है। इससे इनका दर्जा कम नहीं हो जाता, और साथ ही यह बात भी मिट नहीं जाती कि इन दोनों धाराओं ने वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वैज्ञानिक पद्धति की कुछ खासियत है जो हमें सत्य के आस-पास तक पहुँचने में मदद करती हैं। पर अंतिम सत्य क्या है, यह सवाल खुला रह जाता है। या यूँ कहें कि सीढ़ियाँ चढ़ते हुए हम मंज़िल के और करीब पहुँचते रहते हैं, पर मंज़िल ही जैसे स्थिर नहीं रहती। मुक्तिबोध को अक्सर उस अर्थ में वैज्ञानिक सोच से लैस माना जाता है जैसे मार्क्सवाद को वैज्ञानिक विचारधारा कहा जाता है। मार्क्सवाद से अपेक्षा यह है कि एक आखिरी सामाजिक संरचना तक जाने की राह हम जान सकें। हालाँकि मार्क्स ने सामाजिक बराबरी पर व्यापक तौर पर जो बातें कही हैं, उससे अलग किसी स्पष्ट संरचना को या आखिरी मंज़िल तक पहुँचने के किसी एक रास्ते को परिभाषित किया हो, यह कहना मुश्किल है। जिन संरचनाओं को उन्होंने नकारा है, उनको समझना आसान है।

वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि के लिहाज से मुक्तिबोध की 'जन-जन का चेहरा एक' कविता का ध्यान सबसे पहले आता है। इस कविता पर चर्चा कम ही हुई है। इसकी पहली पंक्तियों से ही बार-बार हुए तज़ुर्बों पर आधारित (inductive) निष्कर्ष झलकता है - 'चाहे जिस प्रांत पुर का हो, जन-जन का चेहरा एक।' आज जब राष्ट्रवाद और आतंकवाद के नाम पर भिन्न धर्मों या संस्कृतियों के लोगों को अपने से अलग देखने की प्रवृत्ति को बढ़ाया जा रहा है, यह सरल कविता प्रासंगिक है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टि कहाँ है? जाहिर है कि 'जन-जन का चेहरा एक' से मतलब यह नहीं है कि धरती पर हर इंसान दूसरे का 'क्लोन' है। हम जानते हैं कि हर इंसान विशिष्ट होता है। उसकी बाक़ी और सब प्राणियों से अलग अपनी खास पहचान होती है। न केवल अपने जीवन-काल में, बल्कि अतीत में जन्मे और भविष्य में जन्म लेने वाले हर इंसान से वह अलग है। फिर 'चेहरा एक' का मतलब क्या है? 'चेहरा' से मतलब शक्ल से नहीं है, जिसका स्वरुप हमारे जीन (genes) में तय है, जो हमारे माता-पिता से हमें मिले हैं। इसका मतलब कविता में आगे समझाया गया है - दुनिया के हर देश में जो धूप इंसान के शरीर पर पड़ती है, वह एक है। दु:खों कष्टों का बोझ एक है, जिनसे जूझने में इंसान की शिद्दत एक है। हर जगह इंसान का एक 'पक्ष' है। यहाँ कइयों को यह शिकायत होगी कि यहाँ विज्ञान की वह सरलीकरण की पद्धति ( reductionist) दिखती है, जो विज्ञान की सीमा है। दरअसल विज्ञान को संपूर्ण मीमांसा की तरह न जानकर उसे महज न्यूनीकरण के यांत्रिक औजारों तक सीमित करना (reduction) कई समाज-वैज्ञानिकों की अधकचरी समझ रही है। जटिल को समझने के लिए reduction एक औजार ज़रूर है, पर यह मीमांसा का एक पक्ष मात्र है, कहानी यहाँ खत्म नहीं होती है। मुक्तिबोध के इंसान की जीवन-धारा धरती पर बहती नदियों की धारा सी एक-सी है। जाहिर है कि गंगा-यमुना और मेकॉंग का बहाव एक जैसा हो, ज़रूरी नहीं है, पर जो बात एक है, वह यह कि वे बहती हैं। कवि ने अपने जीवन के सीमित दायरे में जिन इंसानों को देखा, अपने उन बार-बार किये (inductive‌) अवलोकनों की शृंखला के जरिए वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि 'जन-जन का चेहरा एक'। इसके बाद यह और निष्कर्षों की निष्पत्ति (deduction) की बुनियाद बन जाता है। अगर कोई चाहे तो यहाँ कह सकता है कि वर्ग-जाति-लिंग आदि प्रताड़नाएँ एक ही हैं? क्या यह वाम की बड़ी ग़लती नहीं रही है कि इनको एक ही मान लिया गया है? कवि ने सिर्फ यह कहने की कोशिश की है कि हर ओर संपन्न-ताकतवरों और विपन्न-उत्पीड़ितों के बीच जंग चल रही है। बराबरी के लिए इंसान हर कहीं लड़ रहा है। जब हम सूक्ष्मतर द्वंद्वों की ओर बढ़ते हैं तो हमारे मॉडल में हमें और बातें जोड़नी पड़ती हैं - यह वैज्ञानिक पद्धति का हिस्सा है। इंसान की सामान्य सोच भी कुदरती तौर पर ऐसी ही होती है। इसलिए जिन्हें लगता है कि जटिल को सहज संरचना में देखना ही विज्ञान है, वे वैज्ञानिक पद्धति को बिना जाने ही अनुमान लगा रहे होते हैं। सवाल उठता है कि क्या वैज्ञानिक सोच या दृष्टि हमें अनुमान, अवलोकन, कुदरत के नियम से सिद्धांतों तक की यात्रा पर नहीं ले चलती? सही है कि वैज्ञानिक पद्धति में इन बातों का होना ज़रूरी है, इनमें शामिल होते हुए हम वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल कर रहे होते हैं। या यूँ कहें कि वैज्ञानिक सोच के बिना हम इस यात्रा में आगे नहीं बढ़ सकते, पर सोच ही पद्धति नहीं है। वैज्ञानिक खोज की प्रवृत्ति बुनियादी इंसानी फितरत है, पर कोई सिद्धांत तभी वैज्ञानिक कहलाता है, जब वह उन विशेषताओं पर खरा उतरे, जो वैज्ञानिक पद्धति के साथ जुड़ी हैं। साहित्य का काम वैज्ञानिक सिद्धांत गढ़ना नहीं है, इसलिए साहित्य में वैज्ञानिक पद्धति के सभी पहलू नहीं ढूँढना चाहिए।

वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि में एक खास बात है कि हर सोच आगे नई सोच को जन्म देता है। मुक्तिबोध की कविता में हम पढ़ते हैं - 'मुझे क़दम-क़दम पर/ चौराहे मिलते हैं/ बाहें फैलाए!!' डी एन ए के युग्म-हीलिक्स संरचना की खोज से जो नई राहें निकलीं, वे आज भी आगे और नई राहों में बढ़ती जा रही हैं। बुनियादी इंसानी फितरत – नए रास्तों को ढूँढने और उन पर चलने की बेचैनी - 'एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, / व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;/ बहुत अच्छे लगते हैं/ उनके तज़ुर्बे और अपने सपने .../ सब सच्चे लगते हैं;/ अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है / मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ ;/ जाने क्या मिल जाए?' - यह बेचैन उत्सुकता या कौतूहल वैज्ञानिक सोच का अंग है।

'अँधेरे में' पर चर्चा न हो तो पाठकों को लगेगा कि मुक्तिबोध पर बात ही कहाँ हुई। इस कविता पर कई दिग्गज आलोचकों द्वारा विषद चर्चा की गई है। पिछली आधी सदी के हिन्दी साहित्य में यह कविता एक मील का पत्थर है। इसकी संरचना या कथ्य में अनोखापन है। समकालीन राजनैतिक समस्याओं के साथ मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की तड़प का सामंजस्य है। जो दिखता है, उसके परे जा कर प्रत्यक्ष अवलोकन में निहित अंत:कारणों की पड़ताल वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि का हिस्सा है। अगर यह पड़ताल आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य तक सीमित रह जाती, तो वह एक अलग दृष्टि होती, वह सही होती या ग़लत, सवाल यह नहीं है - वह अलग है। इस बात को समझना ज़रूरी है, वैज्ञानिक दृष्टि के पीछे गहन अध्यात्म काम कर रहा हो सकता है, पर वह हमें भौतिक जगत में हो रही घटनाओं में भौतिक कारणों को ढूँढने को कहती है। यही नहीं, जहाँ तक हो सके, वह हमें प्रत्यक्ष अवलोकनों में कारण-कारक संबंध ढूँढने को और इस तरह मिले निष्कर्षों को सैद्धांतिक समझ तक ले चलने को विवश करती है। मूर्त से अमूर्त की यह यात्रा यहीं खत्म नहीं होती है। वैज्ञानिक दृष्टि में अमूर्त सिद्धांतों का औचित्य तभी है, जब वह हमें मूर्त सच में होने वाली परिघटनाओं की कल्पना करने और उनके सचमुच घटित होने की संभावनाओं का ऐसा विवरण सामने रखती हैं, जिन्हें हम न केवल गुणात्मक रूप से समझ सकें, बल्कि जिनमें जो कुछ भी माप-तौल लायक हो, उसे माप सकें, यानी परिमाणात्मक रूप से समझ सकें। साहित्य में इतनी लंबी भौतिक यात्रा नहीं होती, होना ज़रूरी भी नहीं है। कोई भी रचनाकार सचेत रूप से ऐसी कोशिश नहीं करता है, पर हम चाहें तो इसके होने या न होने को ढूँढ सकते हैं।

'अँधेरे में' चालीस के दशक के आखिरी सालों के बाद के डेढ़ दशक की उन सच्चाइयों का दस्तावेज है, जो आगामी काल में लगातार बढ़ते राज्य के आतंक का संकेत थीं। एक ओर आज़ाद मुल्क के नए संविधान के मुताबिक व्यापक लोकतंत्रीकरण के संघर्ष थे, दूसरी ओर इनको कुचलने के लिए राज्य की मशीनरी का खुलेआम दुरुपयोग होने लगा था (जो बाद के सालों में औसत रफ्तार से बढ़ता ही चला और आज हम तक़रीबन फासीवादी तानाशाही तक पहुँच चुके हैं)। अपनी सोच को ठोस द्वंद्वात्मकता तक ले जाने के लिए कवि ऐसे औजारों का इस्तेमाल करता है, जैसे अक्सर वैज्ञानिक भी खोज के पूर्वाभास में जाने-अंजाने करते हैं। इसे 'context of discovery (खोज का प्रसंग)' मान कर, 'context of justification (औचित्य का प्रसंग)' की तार्किकता से अलग किया जा सकता है। 'अँधेरे में' की इन पंक्तियों में हम यह ढूँढ सकते हैं - 'वह कौन, सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई!/ इतने में अकस्मात गिरते हैं भीत से/ फूले हुए पलस्तर/ खिरती है चूनेभरी रेत / खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह - / खुद--खुद कोई बड़ा चेहरा बन जाता है / स्वयमपि मुख बन जाता है दिवाल पर' या 'सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत-आकृति / कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है .../'

मुक्तिबोध मुख्यतः राजनैतिक कवि के रूप में जाने जाते हैं और बेशक उनकी रचनाओं में सियासी खयाल खूब आते हैं। मसलन 'पूँजीवादी समाज के प्रति' कविता में पूँजीवाद के ध्वंस की घोषणा पढ़कर ('तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ/ तेरा ध्वंस केवल, एक तेरा अर्थ') कट्टर मार्क्सवादियों को लग सकता है कि यही है - विशुद्ध मार्क्सवादी वैज्ञानिक सच। पर न तो मार्क्स ने ही पूँजीवाद की ऐसी सरलीकृत व्याख्या की है और न ही ऐसी सोच वैज्ञानिक है। कवि जब कविता में बयान देना चाहता है तो उसके पास सीमित विकल्प होते हैं। यही सीमा हमें ऐसी कविताओं में दिखती है। मुक्तिबोध की प्रारंभिक कविताओं में ऐसा उच्छवास प्रचुर है। जब आग्रह से मुक्त होकर उन्होंने लिखा तो प्रारंभिक काल में भी गहरे एहसासों वाली कविताएँ लिखीं - जैसे 'प्रथम छंद' कविता में देखिए – 'युगारम्भ के प्रथम छंद ये / पीले राह-दग्ध मैदानों से युग-जीवन के मटमैले / तप्त क्षितिज पर/ धुँधले, छितरे, गहरे, कोले मेघ अन्ध ये/ तूफानी उच्छवास गन्ध ले / भावी के विकराल दूत हैं, काल-चिह्न ये / दुनिया के आराम नींद के मधु-स्वप्नों में / क्षुब्ध, निपीड़ित, दमित भावनाओं के गहरे श्याम विघ्न ये ।' यहाँ उनकी द्वंद्वात्मक सोच साफ दिखती है, जब वे 'आराम-नींद' या 'राह-दग्ध' जैसे युग्मों को 'प्रथम छंद' के साथ रखते हैं। ऐसे ही 'जीवन की लौ' कविता में 'घूरने लगते हैं बरगद पथराई आँखों से, फैले रीतेपन की विराट लहरों को/ त्यों मन के अंदर प्राण खो चले' जैसी पंक्तियों में वह महाकवि मुक्तिबोध दिखता है, जो बदलते हुए समकालीन भारतीय समाज में युवामन की गहरी पीड़ाओं को अप्रतिम रूप से अभिव्यक्त कर पाता है। स्वयं मुक्तिबोध का कहना है - 'मनुष्य का मन जगत के संवेदना-विम्बों को संगृहीत और संपादित करता रहता है। यदि वह ग़लत ढंग से सम्पादित करता रहा, तो रचनाकार की दृष्टि में विक्षेप होगा और उसकी कला घटिया किस्म की होगी।' यानी सपाट राजनैतिक बयानों को वे अच्छा लेखन नहीं मानते थे।
समकालीन विश्व-साहित्य और बौद्धिक उथल-पुथल पर उनकी अद्भुत पकड़ थी। अपने समय में उपलब्ध विज्ञान की जानकारियों को और सचेत रचनाकारों की तरह मुहावरों की तरह मुक्तिबोध ने भी इस्तेमाल किया है। जैसे 'दिमाग़ी गुहाअँधकार का ओरांगउटांग' या और दीगर उदाहरण हैं। उनकी एक अधूरी कहानी में पति और पत्नी के बीच संवाद में शनि ग्रह के चारों ओर मौजूद वलयों का जिक्र आता है।

वैज्ञानिक सोच का एक पहलू यह है कि वह हमें अपने और दूसरों की, समाज और परिवेश की बेहतरी के लिए उकसाता है (इसके बावजूद कि विज्ञान या तकनोलोजी से पर्यावरण का विनाश हुआ है, यह बात सच है)। इसी बेचैनी को हम मुक्तिबोध में देखते हैं, 'ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया?जीवन क्या जिया?' एक और पहलू ऐसे वर्गीकरण का है, जिसमें पहले से उपलब्ध वर्गीकरणों से अधिक स्पष्टता हो। 'संवेदनात्मक ज्ञान' और 'ज्ञानात्मक संवेदना' जैसे मुहावरों के इस्तेमाल में यही पद्धति दिखती है। पर वैज्ञानिक पद्धति में भावनात्मकता की जगह नहीं होती, यह विज्ञान की ताकत है और यही उसकी सीमा भी है। यह सही है कि संवेदना हमेशा सही निष्कर्ष तक ले जाए, ऐसा कहना मुश्किल है। पर संवेदना के न होने पर सही निष्कर्ष के पास तक पहुँचना भी असंभव ही है। इन मुहावरों के कहते ही मुक्तिबोध उस मार्क्सवाद से अलग हो जाते हैं, जो महज आर्थिक- राजनैतिक है। इन मुहावरों के जरिए वे मार्क्स के अराजक पक्ष से जुड़ जाते हैं। अराजक विश्व-दृष्टि के बिना कोई रचनाकार क्रीएटिव नहीं हो सकता। फेयराबेंड के अनुसार वैज्ञानिक भी अपनी सोच में मूलत: अराजक होते हैं। एक मार्क्सवादी व्यक्ति भी जब साहित्यिक होता है तो अपने लेखन में वह अराजक होता है। मार्क्सवादी सोच राजनैतिक धरातल पर एक खास तर्क को खड़ा करती है, पर वह मार्क्स का अराजक मानवतावादी पक्ष है जो मुक्तिबोध और उनकी परंपरा के बाद के रचनाकारों में तीखी संवेदना की अभिव्यक्ति पैदा करती है।

वैज्ञानिक सोच में सबसे बड़ी बात यह है कि वह प्रतिष्ठित मान्यताओं (paradigm) को तोड़कर नई मान्यताओं को निर्मित करता है। मान्यताओं के टूटने-बनने की इस प्रक्रिया की बुनियाद सवाल उठाने का साहस (अक्सर दुःसाहस) है। इसलिए जब मुक्तिबोध कहते हैं - 'अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे।/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब', हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि की सबसे सशक्त पहचान सामने आती है। यही पहचान है जो हमें ब्रह्मांड की देश-काल विशालता के सामने निडर होकर खड़े होने की ताकत देती है। यही पहचान हममें यह एहसास लाती है कि मानव होना, प्राणी होना, ब्रह्मांड में होना और इस होने को जान पाना कितना सुंदर है। इसीलिए तो मुक्तिबोध कहते हैं - 'जिस व्यक्ति से मेरी जितनी अधिक घनिष्टता है, मैं उस व्यक्ति का उतना ही बड़ा आलोचक हूँ।' ऊपर उद्धृत पंक्तियाँ 'अब तक क्या किया, ...!' और 'अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे ...' किसी भी पाठक के लिए ललकार बन कर आती हैं। यह ललकार सिर्फ समाज से नहीं खुद से लड़ने की ललकार भी है। इसे हम अँधेरे से उजाले तक जाने का संघर्ष कह सकते हैं। यह संघर्ष वैज्ञानिक नहीं, नैतिक है।

मुक्तिबोध परंपरा से कटे नहीं थे। अक्सर यह कहा जाता है कि जो वैज्ञानिक है, वह निजी जीवन में भी धार्मिक और कर्मकांडी नहीं हो सकता। जाहिर है कि ऐसी दुनिया में जहाँ धर्मों का बोलबाला हो, यह संभव नहीं है। मुक्तिबोध की रचनाओं में धर्म-चर्चा नहीं है, उनकी कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे आधुनिक नास्तिक विचारों से प्रभावित थे, पर ऐसे मुहावरों का भरपूर प्रयोग हमें उनकी रचनाओं में दिखता है जो धर्म और धर्म-परंपरा से आए हैं। खासतौर से उन परंपराओं को जिन्हें सामूहिक रूप से हिंदू धर्म कहा जाता है, उनका संबंध गहरा था। यह बात उनकी संस्कृतनिष्ठ भाषा से लेकर 'ब्रह्मराक्षस' जैसे मुहावरों तक के प्रयोग में दिखती है। इसकी वजह यह है कि जहाँ साहित्य नैतिक सवालों को उठाता है या हमें फंतासी की दुनिया में लो जाता है, वहाँ हम विज्ञान से परे चले जाते हैं। नैतिक सवाल दार्शनिक सवाल हैं, वैज्ञानिक सोच पर दर्शन हावी हो सकता है, पर ये दोनों एक बात नहीं हैं। नैतिक निर्णयों को वैज्ञानिक सोच की कसौटी पर परखा जा सकता है, पर दोनों को गड्ड-मड्ड नहीं किया जाना चाहिए। इसी तरह जहाँ साहित्य में फंतासी का प्रयोग है, वहाँ ऐसी बेमेल बातें दिखेंगी, जो वैज्ञानिक नहीं हैं, पर वे ज़रूरी हैं। फंतासी तर्कशीलता से परे हो, ऐसा नहीं है, पर किसी निश्चित और नियमों में बँधी संरचना में सिमटी हो, ऐसा नहीं हो सकता। मुक्तिबोध की कहानियाँ पढ़कर लगता है कि वे अपने समकालीन अस्तित्ववादी विचारों से प्रभावित थे। इसका मतलब यह है कि उनके जीवन में निजी संघर्षों की उलझनें रही होंगीं। उनकी कहानियों में 'सतह से उठता आदमी' में यह संघर्ष सबसे तीखा बन कर सामने आता है। 'अँधेरे में' और 'ब्रह्मराक्षस' जैसी कविताओं में भी यह दिखता है, पर कविता की अपनी शर्तें हैं और इसलिए वहाँ सीधे-सीधे कुछ भी कहना मुश्किल हो जाता है।

अंत में यह कहना ज़रूरी है कि वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता पर भले ही शंकाएँ कम हों, वैज्ञानिक सोच को सांस्कृतिक ज़मीन से पूरी तरह अलग करना मुश्किल है। इसलिए अक्सर उत्पीड़ित तबकों से यह माँग आती है कि वे स्थानीय मुख्यधारा की संस्कृति का सब कुछ छोड़ना चाहते हैं। इस सब कुछ में भाषा और साहित्य भी है। इसलिए वैज्ञानिक सोच हो या साहित्य को परखने का कोई और दीगर तरीका हो, हमें यह मानकर चलना चाहिए कि कोई अदीब अपनी ज़मीन से कटा नहीं होता और परिवेश में मौजूद पूर्वग्रहों से वह कभी पूरी तरह मुक्त नहीं होता है। अधिक से अधिक वह इस बारे में सचेत हो सकता है और इसे ध्यान में रख कर अदब में घुसपैठ कर सकता है।
-(अनहद – मार्च 2017; आलेख में कुछ पंक्तियाँ 'सापेक्ष' के मुक्तिबोध विशेषांक में प्रकाशित मेेरे नोट्स में से ली गई हैं)