Monday, March 13, 2006

गोलकंडा की थकान और एक अच्छे मित्र से मिलना

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की जो हमलोग कालेज के जमाने में पढ़ते थे?

वह धूप कुछ और है - उसका जिक्र आखिर में करुँगा। यहाँ जिस धूप की बात है वह वैसे तो अच्छी लगती है पर उस दिन इस निगोड़ी धूप ने थका ही दिया। गर्मियों में गणनात्मक यानी कंप्यूटेशनल भौतिक और जैव विज्ञान पर एक कार्यशाला करनी है - उनके पोस्टर बनवाने के सिलसिले में शहर गया था। वहाँ से लौटते हुए रास्ते में मेंहदीपटनम शुभेंदु की माताजी से दो मिनटों के लिए मिलने पहुँचा कि शुभेंदु की अनुपस्थिति में सब ठीक है कि नहीं - पता चला शुभेंदु आ पहुँचा है। फिर अभिजित का फ़ोन आ गया कि कानपुर से आए मित्र को शहर घुमाने ला रहा हूँ साथ चलो। मेरी क्लास नहीं थी तो कहा चलो एक दिन घूमना सही।

पहले सलारजंग संग्रहालय गए। करीब एक घंटा लगाया। पहले दो चार बार हैदराबाद आया हूँ सलारजंग देखा नहीं था। सुना बहुत था। पर देखकर इतनी बड़ी बात लगी नहीं जितना सुना था। बहरहाल राज-रजवाड़ों में से किसी का निजी संग्रह इतना विशाल हो, बड़ी अच्छी बात है। फार ईस्ट यानी जापान से लाए उन्नीसवीं सदी के बर्त्तनों का शिल्प कार्य देख रहे थे कि पाँच बज गए। फिर वहाँ से चारमीनार का चक्कर लगाकर गोलकंडा के लिए रवाना हुए। आम बोली में कहते गोलकोंडा हैं, पर मैं फिलहाल गोलकंडा ही लिख रहा हूँ। दखनी में कैसे कहते हैं पता लगाऊँगा। रास्ते में पश्चिम से आ रही धूप झेलता रहा तो पहुँचने तक सिर दर्द शुरु हो गया था।

गोलकंडा का किला और अमिताभ बच्चन की आवाज में साज और आवाज का कार्यक्रम पहले देख सुन चुका था। फिर भी दुबारा देखना अच्छा ही लग रहा था। किले की सैर करते हुए अभिजित से कई नई बातें पता चलीं। कहाँ घुड़साल थी, कहाँ भर्त्ती होने आए सैनिकों को २४० किलो का वजन उठाने को कहा जाता था। मैंने भी कोशिश की (हास्यास्पद रुप से असफल) और अपने एक पुराने सिद्धांत को दुहराता रहा कि यह सब झूठ है कि पुराने लोग हमलोगों से ज्यादा ताकतवर होते थे - आखिर भोजन में पोषक तत्व आज के जमाने में ज्यादा हैं, पर किसी ने न सुना।

साज और आवाज कार्यक्रम के लिए गए तो वहाँ मराठी किशोर किशोरियों का एक विशाल झुंड दो तिहाई सीटें घेर कर बैठा हुआ था। उनका शोरगुल हँसी मजाक रुका नहीं और हमलोग सफेद बालों वाले कुछ आह्लादित और कुछ दुःखी मन से उन्हें झेलते रहे। लगातार कीट निरोधक धुँआ फैलाकर मच्छरों को भगाने की कोशिश की गई, जिससे हर कोई परेशान था, पर मच्छर सचमुच इससे कम हुए। इन किशोरों के व्यवहार से मुझे अपने कालेज के दिनों की एक बात याद आ गई, जिसे सोचकर मैं आज भी शर्मिंदा होता हूँ। १९७५ में प्रेसीडेंसी कालेज की ओर से शैक्षणिक यात्रा में हमलोग दक्षिण भारत गए थे। हम इक्कीस छात्र छात्राएँ द्वितीय श्रेणी के कोच में और हमारे अध्यापक पहली श्रेणी के कोच में थे। रास्ते में बेसुरा गा गाकर हम लोगों को परेशान करते जा रहे थे, हालाँकि उनदिनों हमलोग रवींद्र संगीत ही ज्यादा गाते थे, जो बेसुरा गाए जाने पर कम से कम ध्वनि प्रदूषण की दृष्टि से रॉक म्युज़िक या फूहड़ हँसी मजाक से अपेक्षाकृत ज्यादा झेला जा सकता है। बहरहाल साढ़े नौ बजे थे तो एक बुजुर्ग ने कह दिया अब सो जाओ। हममें से कुछ ने ध्यान दिया कुछ ने नहीं।
मैंने उस व्यक्ति को सुबह अजीबोगरीब ढंग से दोनों पैर पीछे की ओर उछालते हुए कसरत करते हुए मंजन करते देखा था। पता नहीं इसी वजह से या किस तरह मेरे मुँह से निकल गया - पागल है यार!
मैंने तो कह दिया, सामने बैठा एक युवक अचानक आँखें लाल करते हुए बोला - गाना गा रहे हो गाओ, गाली मत दो। मैं भी अड़ गया - आपके कोई लगते हैं क्या? (सचमुच मैंने यह सवाल किया था - प्रमाणित हुआ कि मैं एक बेवकूफ था - QED)। बात बढ़े इसके पहले हमारे साथ आईं एम एस सी पढ़ रही दो दीदियों ने मुझे बैठा दिया (ओ, अनसूया दी, इतना अच्छा गाती थी - वह कहानी फिर कभी)।
बहरहाल उस दिन गोलकंडा में मुझे अपने किशोरावस्था की वह बात याद आती रही। मुझे मराठी आती नहीं, पर थोड़ा बहुत समझ ही लेते हैं, उससे यह तो लगा कि हमारे समय जैसा संकोच अब किशोरों में नहीं है, लड़के लड़कियाँ आपस में काफी कुछ बतिया लेते हैं चाहे हमारे जैसे के में एच पास बैठे हों।

वहाँ से बढ़ी हुई थकान और सिरदर्द सहित लौटकर कहीं खा पीकर मित्र को स्टेशन पर छोड़कर मैं और अभिजित ग्रैंड काकातिया होटल में रवि से मिलने गए। रवि मेरे पहले चिट्ठों में चर्चित मीरा नंदा का पति है। पहली बार उससे मिला। इसके पहले ई-मेल पर ही संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। काफी देर बातचीत हुई। रवि एक ज़माने में पी पी एस टी (पीपुल फार पेट्रियाटिक साइंस ऐंड टेक्नोलोजी) के साथ जुड़ा रहा है। पुराने कई दोस्तों का लेखा जोखा लेते रहे। रवि कहता रहा कि दुनिया कितनी छोटी है। वहाँ होटल में चारों ओर फैले प्राचुर्य को देखकर वह बार बार परेशान हो रहा था कि किस भारत में बैठे हैं। थोड़ी देर पहले वह स्थानीय बिज़नेस स्कूल में डिनर कर लौटा था। वहाँ भी खूब शानो शौकत थी। उसका कहना था कि ऐसा तो अमरीका में भी नहीं दिखता।

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की!

वैसे अबतक मेरा सिरदर्द ठीक हो चुका था। धूप को बीते पाँच छः घंटे हो चुके थे। रवि इन दिनों कने(क्)टीकट में इंजीनियर है। कंपनी के काम से बंगलौर हैदराबाद आया था। अभिजित को घर से बुलावा आ गया और वह चला गया। मैं काफी देर तक कुछ निजी समस्याओं पर बातें करता रहा।

दिल्ली से चलने से पहले रवि ने एकबार फ़ोन किया। मुझे लगा मैंने ही नहीं उसने भी सोचा कि एक अच्छा मित्र बनाया।

2 comments:

Pratyaksha said...

पिछले साल ऑफिस के काम से हैदराबाद मैसूर और बंगलौर गई थी. हैदराबाद बहुत नहीं घूम पाये. मैसूर थोडा देखा. वोडेयार पैलेस देखा.
कितना साया, कितनी धूप ? और किस किस के लिये ? नहीं ?

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर चित्रण...बधाई.
समीर लाल