रेशे
किसने मुझसे कहा, "हवा, मेरे साथ चलो।"
मैं सदियों तक बहता रहा, साथ नहीं चल पाया।
अचानक दस्तक हुई और वह मेरे पास है।
वह, मैं, मेरी चेतना!
विस्थापित जन हमें चक्रवातों में से उबार लाते हैं। हम एक दूसरे को देखते हैं।
जानते हैं कि कहीं कोई जड़ नहीं है।
जड़ों को उखाड़ कर जो चले गए हैं, वे चक्रवातों में फँस गए हैं,
उनसे छुटकारा नहीं।
रेले में बहते हुए हम साथ सफर करते हैं। मैं कहानी लिखने चला हूँ।
बातें दिमाग में हैं और लिखते हुए शब्दों की अपनी सत्ता हावी हो जाती है
और कहानी खो जाती है। यह बात भी सदियों पुरानी है।
बहुतों ने मुझे उम्दा किस्सागो माना। मैं कभी मुस्कराता, कभी गंभीर सुनता रहा।
झूठ सच बन कर बहता रहा। जड़ें बनीं तो झूठ की बनीं।
बीच दीवार में एक रेशा लटका हुआ है। धागा नहीं।
जैसे फूलझाड़ू से निकला कोई रेशा सा है। सिर पर के बालों की तरह लगता है।
फिर नज़र आता है कि यह एक रेशा नहीं, कम से कम छः सात रेशों का गुत्था है।
वही
एकबार बाईपास हो चुका है। दिन में गिनकर चार सिगरेट पीता हूँ।
वह आई तो मन में कोई खुशी नहीं थी। यहाँ नाटक की समझ किसी को नहीं।
इसलिए नया चेहरा देखकर चिढ़ हुई थी। अभ्यास और छात्रों की बातें सुनते हुए
बीच बीच में उसकी ओर देखता, वह एकटक मुझे देख रही थी।
वह मन ही मन आमोदित थी कि मुझे पता ही नहीं
कि वह मेरे कई जन्मों की साथिन है।
बाद में उसने कहा, "मैं .... ", और तब मुझे याद आया कि वह तो वही है,
कौन कह नहीं सकता, पर वही..........
हादसा
ताक में किताबें खड़ी हैं। सड़क पर धूल उड़ाती गाड़ियाँ हैं।
इन पंक्तियों को दुबारा पढ़ता हूँ। अक्षर, शब्द, ध्वनियाँ...........इन्हीं में मैं, वह।
उम्र के साथ खयालों की तीव्रता बढ़ती चली है। शरीर और मन का मिसमैच!
यह हादसा था। मेरे साथ हादसा हुआ मेरे दोस्त! मैं। यह मेरी उम्र!
प्रकृति मेरे साथ नहीं और वह खिलखिलाती अपनी जवानी के शिखर पर।
यह सब मैं सुरभि को नहीं बतला सकता। उसे सब पता रहता है।
वह तो मेरे हाथ की उँगलियों को देखकर बतला सकती है
कि मेरे लिखने की गति में जो बदलाव आया है
वह किस अंदरुनी तूफान की वजह से है।
मैं सिगरेट पी लूँ। तुम तो नहीं पीओगे, पीओगे क्या?
यहाँ बीअर ही सेफ लग रही है।
अरे भई, लाइट आफ ही रहने देते। यही आज के इन बिजनेसमेन की प्राब्लम है।
हमलोग जब कनॉट प्लेस में काफी हाउस में होते थे, सारी सारी रात वहीं बाहर लेट जाते थे।
टेंट वाला काफी हाउस होता था। नाटक और साहित्य के लोग आया करते थे।
राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल, हर कोई आता था। और वे लोग कुछ नहीं कहते थे, मतलब रेस्तराँ वाले।
आप सारे सारे दिन बैठे रहो, बीच में जिसका मन हुआ, भूख लगी, दोसा मँगा लिया।
सवाल
डिनर बढ़िया था।
आइसक्रीम खाते हुए तुमने मुझे समझाया कि कायनात कितनी बड़ी है।
मैं ज़ुबान की पहुँच को माप रहा था
कि बर्फ और मलाई के बीच सवाल कैसे रखा जाए।
सवाल यह नहीं था कि तुम ठीक हो या नहीं।
सवाल कि कायनात की सरहद तक जाती तुम्हारी निगाह में
मैं कहीं दिखता हूँ या नहीं।
-(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक, 2016)