Sunday, November 26, 2017

16 दिसंबर 2002: हमारे समय की राजनीति


(पंद्रह साल पुराना लेख)
दैनिक भास्कर, चंडीगढ़, सोमवार 16 दिसंबर 2002



यह हमारे समय की राजनीति है ! 




प्रसिद्ध अफ्रीकी-अमेरिकी कवि लैंग्सटन ह्यूज की पंक्तियां हैं - एक अपूर्ण स्वप्न का क्या हश्र होगा ? क्या वह धूप में किशमिश दाने जैसा सूख जाएगा? या एक घाव सा पकता रहेगा - और फिर दौड़ पड़ेगा ? क्या वह सड़े मांस सा गंधाएगा ? या दानेदार शहद सा मीठा हो जाएगा? शायद वह एक भारी वजन सा दबता जाएगा ? या वह विस्फोट बन फटेगा?


इस साल लैंग्सटन ह्यूज की शतवार्षिकी मनाई जा रही है। इस देश में अंग्रेजी साहित्य पढ़ने वाले लोग भी इस बात से अनजान ही हैं। जैसे पंजाब में करतार सिंह सराभा से अनजान युवाओं की पीढ़ी है। अपने समय की सीमाओं से जूझकर बेहतरी का सपना देखने वालों को हम तब याद करते हैं, जब हम में अपने सपनों को पूरा करने के लिए निरंतर संघर्ष की हिम्मत होती है। परिस्थितियों से हारते हुए हमारे सपने घाव से पकते हैं, उनमें से सड़े मांस की बदबू निकलती है। और विस्फोट जब होता है, तो उसमें जुझारू संघर्षों की जीत नहीं, अज्ञानता और पिछड़ेपन का कायर संतोष होता है। जर्मनी में सत्तर साल पहले ऐसा ही हुआ था। आर्थिक मंदी और बेरोजगारी का फायदा उठाकर नात्सी पार्टी और उसके नेता एडोल्फ हिटलर ने जनता को एक ऐसे राष्ट्रवाद का नारा दिया, जिसमें बहुसंख्यकों का अहम संतुष्ट हुआ, पर जर्मनी समेत दुनिया का बड़ा हिस्सा अंततः तबाही और ध्वंस का शिकार हुआ। 1984 के दंगों के बाद कांग्रेस की भारी बहुमत से जीत भारत के बहुसंख्यकों की ऐसी ही कायरतापूर्ण जीत थी। आज एक बार फिर गुजरात में ऐसा ही हुआ है। 
 

ऐसा नहीं कि इसकी अपेक्षा नहीं थी। दुनिया भर में करोड़ों लोग पक्ष-विपक्ष की बात करते हुए यही सोच रहे थे कि गुजरात में भाजपा जीतेगी। फिर भी जैसे एक हल्की आशा दो महीने पहले पाकिस्तान के चुनावों या अभी कुछ समय पहले हुए अमेरिका के सीनेट के चुनावों को लेकर असंख्य लोगों में थी कि शायद जनमत एक नई दिशा के लिए होगा, लोग संकीर्ण राष्ट्रवाद से परे हटकर मानवीय दृष्टिकोण के लिए आएंगे। इन सभी चुनावों में दूध का धुला कोई विपक्ष नहीं था। आखिर जिनके सपने पूरे नहीं हुए जो अमेरिका के काले लोग हैं जो सराभा के पंजाब के खेत-मजदूर हैं या जो मध्य गुजरात के आदिवासी हैं उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार वह विपक्ष भी है जो आज प्रगतिशीलता या विकास की बात करता है। सच तो यह है कि दबे-कुचले लोगों को अधिकतर राजनीतिक दल एक सा ही कुचलते हैं। अशिक्षा और बेबसी से लाचार लोगों को झूठे वादों और दावों, शराब या अन्य प्रलोभनों से खरीदा जाता है। पर गुजरात का प्रसंग अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है कि मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति उन मूलवादियों, सांप्रदायिक कट्टरपंथियों और राष्ट्रवादियों को संगठित होने का मौका देती है, जो देश और समाज को निश्चित विनाश की ओर ले जाते हैं। 
 

एक कहावत है कि गरीब की आह हमेशा न्यायसंगत हो यह जरुरी नहीं, पर अगर तुम उसे न सुनो तो जान न पाओगे कि सच्चाई क्या है। मध्य गुजरात का आदिवासी भारत के अन्य दलित वर्गों की तरह ऐसा पिछड़ा वर्ग है जो लगातार सामंती शोषण से और सूदखोरों के हाथ पिसता रहा है। पिछड़ापन इतना भयंकर है कि आधुनिक तर्क और प्रगतिशील सोच की कोई जगह नहीं है। पारंपरिक मूल्यों के टूटने से और आधुनिकता के संकटों में फंसा आदिवासी अगर शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है तो वह राजद्रोही माना जाता है। विदेशों से करोड़ों रूपए इकट्ठे कर सांप्रदायिक मनोभाव से कार्यरत कोई भी संगठन बेरोक उनके बीच काम कर सकता है। यह हमारे समय की राजनीति है। ऐसा ही सच अहमदाबाद या बड़ोदा के शहरी दलित और बेकारी से मारे गरीबों का है जिनको बड़ी तादाद में दंगों के लिए इस्तेमाल किया गया। 
 

इसलिए 27 फरवरी 1933 को जब राइश्टाख (संसद) में आग लगी तो उसे आधार बनाकर वामपंथियों, यहूदियों और कलाकारों पर जिस तरह का हमला शुरू हुआ वैसा ही 27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद हुआ। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद आक्रामक मिथ्या-वचन के रथ पर सवार होता है। इसलिए गुजरात का चुनाव पाकिस्तान में फूटने वाले पटाखों की बात करता है और किसी इमाम के इस आग्रह कि मुसलमान सौ फीसदी वोट दें को फतवा कहता है। 
 

बार-बार कहा हुआ झूठ सच बन जाता है। पढ़े-लिखे लोग भी इसे सच मानने लगते हैं। एक वामपंथी मित्र सांप्रदायिकता शब्द का अर्थ भूल गए क्योंकि उन्हें समझ में नहीं आया कि किसी ने बढ़ती हुई सांप्रदायिकता का जिक्र क्यों किया है। निजी जीवन से सामाजिक दायरे तक में पाखंड और स्वार्थ की जिंदगी जीता हुआ अंग्रेजीदां मध्य-वर्ग इस बात से खुश है कि अंग्रेजी मीडिया में बहुसंख्यक समुदाय की उदारवादी छवि स्पष्ट दिखती है। यह ऐसा समुदाय है जिसे गुजरात का थप्पड़ भी नहीं लगता।


गुजरात का सबक एक लंबे अरसे से चल रहे हताशा के दौर में एक और अध्याय है। 1930 के दशक के जर्मनी में इस दौर में बहुत सारे काबिल लोग देश छोड़ गए थे। इनमें वैज्ञानिक, कलाकार और साहित्यिक आदि शामिल थे। हमारे यहां पढ़े-लिखे लोगों में लाखों ऐसे हैं जो मौका मिलते ही यहां की गरीबी और गंदगी से दूर भागने को तैयार हैं। इन सबको भूलकर हमें एक बार फिर गुजरात और आने वाले समय के भारत के बारे में सोचना है। जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने सौ साल पहले लिखा था , हमें इसी भारत माता को अपना दुखड़ा सुनाना है। घोर तिमिर घन निविड़ निशीथे, पीड़ित मूर्छित देशे, जागृत तब अविचल मंगल नत नयन अनिमेषे। दुःस्वप्ने आतंके रक्षा की अंके स्नेहमयी तुम माता।(ঘোর তিমির-ঘন নিবিড় নিশীথে, পীড়িত মূর্ছিত দেশে জাগ্রত ছিল তব অবিচল মঙ্গল, নত নয়নে অনিমেষে দুঃস্বপ্নে আতঙ্কে, রক্ষা করিল অঙ্কে স্নেহময়ী তুমি মাতা)
हे मातृ! इस पीड़ित मूर्छित देश को एक बार फिर घोर अंधेरे भरी घनी रात से निकलने के लिए प्रेरणा दो। दुःस्वप्न और आतंक भरे इन दुर्दिनों में हमारी रक्षा करो। आह्वान करो कि युवा आगे आएं, खोखले भाषणों, अंधविश्वाস और कर्मकांडों से दूर हटकर संकीर्ण राष्ट्रवाद से देश को बचाएं। गुजरात का महासमर एक शुरुआत है - देखना यह है कि संघर्षशील लोग किस तरह इस संकट का सामना करते हैं।








Friday, November 17, 2017

पत्राचार से तालीम पर सवाल


पत्राचार से तालीम पर सवाल कुछ और भी हैं

('राष्ट्रीय सहारा' में 9 नवंबर 2017 को 'संजीदा होना होगा' शीर्षक से प्रकाशित)



सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक अहम फैसला दिया है कि तकनीकी शिक्षा पत्राचार के माध्यम से नहीं की जा सकेगी। सतही रूप से यह बात ठीक लगती है कि तकनीकी तालीम घर बैठे कैसे हो सकती है। खास तौर पर जब ऊँची तालीम के मानकीकरण करने वाले आधिकारिक इदारे यूजीसी और एआईसीटीई ने जिन सैंकड़ों डीम्ड यूनिवर्सिटीज़ को इस तरह के पत्राचार के कार्यक्रम चलाने की इजाज़त नहीं दी है, तो उनकी डिग्री को सचमुच मान्यता नहीं मिलनी चाहिए।



अधिकतर लोगों के मन में वाजिब सवाल यह भी है कि ऐसे मुल्क में जहाँ आधी से अधिक जनता मिडिल स्कूल तक नहीं पहुच पाती है और जहाँ सरकार 'स्किल इंडिया' जैसे छलावों से अधिकतर युवाओं को मुख्यधारा की तालीम से अलग कर रही है, तो ये लोग कहाँ जाएँगे? ऐसा अनुमान है कि इस फैसले का असर उन हजारों युवाओं पर पड़ेगा, जिन्हें 2005 के बाद पत्राचार से तकनीकी कोर्स की डिग्री मिली है। उनके सर्टीफिकेट अमान्य हो जाएँगे और इसके आधार पर मिली नौकरियों से उन्हें निकाल दिया जा सकता है या आगे पदोन्नति से उन्हें रोका जा सकता है। 2005 से पहले भी पाँच साल तक ऐसी डिग्री पाने वालों को दुबारा एआईसीटीई अनुमोदित इम्तिहान पास करने होंगे।

पत्राचार से जुड़े कई सवाल और हैं, जैसे किसी संस्थान को अपना क्षेत्र अपने मुख्य कैंपस से कितनी दूर तक रखने की अनुमति है, इत्यादि। इन पर भी अदालतें समय-समय पर राय देती रही हैं। यह सब इसलिए मुद्दे बन जाते हैं कि बहुत सारी डीम्ड यूनिवर्सिटी फर्जी सर्टीफिकेट जारी करती रही हैं। पंजाब में गाँव में डॉक्टर के पास मदुराई के विश्वविद्यालय की डिग्री हो तो शक होता है कि क्या माजरा है। इसलिए सतही तौर पर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह कदम सराहनीय है।



पर पत्राचार पर इन सवालों से अलग कई बुनियादी सवाल हैं। आखिर पत्राचार से पढ़ने की ज़रूरत क्यों होती है? जो लोग ग़रीबी या और कारणों से नियमित पढ़ाई रोक कर नौकरी-धंधों में जाने को विवश होते हैं, उनके लिए पत्राचार एक उत्तम माध्यम है। नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई-लिखाई कर वे अपनी योग्यता बढ़ा सकते हैं और अपनी तरक्की के रास्ते पर बढ़ सकते हैं। पत्राचार का मतलब यह नहीं होता कि पूरी तरह घर बैठकर ही पढ़ाई हो; बीच-बीच में अध्यापकों के साथ मिलना, उनके व्याख्यान सुनना, यह सब पत्राचार अध्ययन में लाजिम है। जाहिर है इस तरह से पाई योग्यता को मुख्य-धारा की पढ़ाई के बराबर नहीं माना जा सकता है। साथ ही, ऐसे विषय जिनमें व्यावहारिक या प्रायोगिक ज्ञान ज़रूरी हो, उनमें पत्राचार से योग्यता पाना मुश्किल लगता है। इसलिए ज्यादातर पत्राचार से पढ़ाई मानविकी के विषयों में होती है। वैसे ये बातें तालीम से जुड़ी बातें हैं। कोई कह सकता है कि ऐसी समस्याओं का निदान ढूँढा जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी जैसे कुछ तकनीकी विषय ऐसे हैं, जिन पर कुछ हद तक पत्राचार से पढ़ाई हो सकती है। जिस तरह की कुशलता की ज़रूरत बाज़ार में है, कॉल सेंटर में काम जैसी कुशलता इससे मिल सकती है। पर गहरा सवाल यह है कि क्या हम मुल्क के नौजवानों को बाज़ार के पुर्जों में तब्दील कर रहे हैं? क्या पत्राचार से पढ़ने वाले युवा अपनी मर्जी से ऐसा कर रहे हैं या कि वे मुख्यधारा से अलग पढ़ने को मजबूर हैं?



कहने को मौजूदा हुकूमत का जुम्ला है - मेक इन इंडिया। जुम्लेबाजी से चीन जैसे विकसित मुल्क के खिलाफ हौव्वा खड़ा किया जा सकता है, देश के संसाधनों को जंगों में झोंका जा सकता है, पर असल तरक्की के लिए मैनुफैक्चरिंग या उत्पादन के सेक्टर में आगे बढ़ना होगा। पर मुख्यधारा की तालीम से वंचित रख युवाओं को 'स्किल' के नाम पर उत्पादन के सेक्टर से हटाकर कामचलाऊ अंग्रेज़ी और हाँ-जी हाँ-जी सुनाने वाली सेवाओं में धकेला जाएगा तो 'मेक' कौन करेगा? आज तकनीकी तालीम का अधिकतर, तक़रीबन 95%, निजी संस्थानों के हाथ में है। सरकारी मदद से चलने वाले संस्थानों में सिर्फ तेईस आई आई टी, बीसेक आई आई आई टी, इकतीस एन आई टी के अलावा यूनिवर्सिटीज़ में इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। इसी तरह मेडिकल कॉलेज भी सरकारी बहुत कम ही हैं। यानी कि तकनीकी तालीम में पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का फायदा नाममात्र का है। निजी संस्थानों में आरक्षण उन पैसे वालों के लिए है, जो कैपिटेशन फीस देते हैं। सरकारी एलीट संस्थानों से पढ़कर बड़ी संख्या में छात्र विदेशों में चले जाते हैं। संपन्न वर्गों से आए इन छात्रों में देश और समाज के प्रति वैसे ही कोई प्रतिबद्धता कम होती है। आम युवाओं को इन संस्थानों तक पहुँचने का मौका ही नहीं मिलता है। कहने को भारत दुनिया में सबसे अधिक इंजीनियर पैदा करता है, पर इनमें से ज्यादातर दोयम दर्जे की तालीम पाए होते हैं। यही हाल डॉक्टरों का भी है। ऐसा इसलिए है कि पूँजीपतियों के हाथ बिके हाकिमों को फर्क नहीं पड़ता है कि मुल्क की रीढ़ कमजोर हो रही है, उन्हें सिर्फ कामचलाऊ सेवक चाहिए जो मौजूदा व्यापार की शर्तों में फिट हो सकें।



इसलिए ज़रूरी यह है कि मुख्यधारा के निजी संस्थानों में पिछड़े तबकों के लिए दरवाजे खोले जाएँ। तालीम सस्ती और सुगम हो कि हर कोई योग्यता मुताबिक इसका फायदा उठा सके। यह ज़रूरी नहीं है कि व्यावहारिक तालीम हमेशा अंग्रेज़ी में ही हो। चीन-जापान और दीगर मुल्कों की तर्ज़ पर हिंदुस्तानी ज़ुबानों में तकनीकी साहित्य लिखने को बढ़ावा दिया जाए, ताकि पिछड़े तबके से आए युवाओं को तालीम हासिल करने में दिक्कत न हो।



अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार पर दबाव बढ़ता है कि वह सब के लिए समान तालीम का निजाम बनाने की ओर बढ़े तो यह अच्छी बात होगी। आज युवाओं में गैरबराबरी के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा है और हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ग़लत राजनीति शुरू हो जाए। सही लड़ाई ज़मीन पर चल रही है और वह स्कूल से लेकर कॉलेज तक समान तालीम की लड़ाई है।