Tuesday, November 17, 2009

वहीं रख आया मन

उन्हीं इलाकों से वापस मुड़ना है
वहीं से गुजरते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ

* *

आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन

* *

चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी

* *

उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।

Saturday, November 14, 2009

मेमेंटो बाँटो, फोटू खिंचवाओ

परसों एक स्थानीय राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में सईद आलम लिखित, निर्देशित और टाम आल्टर अभिनीत मौलाना आज़ाद पर मोनोलाग देखने गया था। टाम आल्टर पद्मश्री से सम्मानित कलाकार है। आम तौर से सरकारी किस्म के कार्यक्रमों में ऐसे सम्मानित व्यक्तियों का औपचारिक आदर औरों की तुलना में अधिक होता है। पर मैंने इतने बदतमीज़ दर्शक बहुत कम देखे हैं। टाम ने खुद अभिनय के दौरान गुस्सा दिखलाया और बाद में सईद आलम ने भी नाराज़गी व्यक्त की। बार बार सेल फ़ोन बजना, लगातार लोगों का स्टेज के साथ लगे दरवाजों से आना जाना। स्वयं वायस चांसलर या ऐसे ही किसी अधिकारी का पहले रो में बैठकर दफ्तरी कागज़ात देखना और कर्मचारी से बात करना, पता नहीं इन लोगों ने कार्यक्रम रखा क्यों था। हिंदुस्तान में कलाकारों का ऐसा अनुभव आम बात है। लोग नाटक देखने या संगीत का कार्यक्रम देखने नहीं जाते, मेला समझ कर जाते हैं। वक्त पर नहीं आएँगे, सेलफ़ोन पर फूहड़ बाजे वाली रिंग सुनेंगे, साथ दूध पीते या उससे थोड़े बड़े बच्चों को लाएँगे कि चल बच्चू देख नौटंकी देख।

कलाओं के प्रति पढ़े लिखे लोगों में ऐसा संकीर्ण और असभ्य रवैया क्यों है? पुराने मित्र हँस कर कहेंगे कि यह एशियटिक मोड आफ प्रोडक्सन से उपजे मूल्य हैं। उस दिन भी बाद में यह बहाना दिया गया कि बच्चे नासमझ हैं, जब कि जैसा सईद आलम ने कहा कि बच्चों पर इल्ज़ाम लगा के बड़े बरी नहीं हो सकते। पहले रो में बैठकर बंदा सेल फ़ोन बजा रहा है, इसके लिए कौन सा बच्चा दोषी है। सच यह है कि देश भर में निहायत असभ्य किस्म के कई लोग ऊँचे पदों पर आसीन हैं। इन्हें कला और शिक्षा के स्तर से कुछ लेना देना नहीं। कार्यक्रम हो गया, मेमेंटो बाँटो, फोटू खिंचवाओ, गाड़ी में बैठकर सौ गज दूर जाकर घर पर उतरो।

Wednesday, November 04, 2009

अधूरे चिट्ठे

अक्सर मैं चिट्ठा लिखने की सोचते ही रहता हूँ। पूरा नहीं कर पाता। यह कोई महीने भर पहले लिखा था। अधूरा ही रह गया:


द हिंदू में तनवीर अहमद का अपनी नानी के भाई बहन के साथ मिलन पर मार्मिक आलेख पढ़ा। ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ पढ़ते सुनते रहे हैं, कितनी कितनी बार मन दहाड़ें मार कर रोने को होता है, पर दुनिया जैसी है, वैसी है और हम अवसाद के बवंडर में अगले दिनों की ओर चलते रहते हैं। तनवीर ने कहा है कि हालांकि काश्मीर के लोग अब एक साथ होने को तैयार हैं, पर पंजाब के लोग अभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। इससे मुझे एक तो जरा असहमति है, साथ ही कई पुरानी बातें याद आ गईं।

पोखरन-कहूटा परमाणु विस्फोट और कारगिल युद्ध के बाद हम लोगों ने चंडीगढ़ में साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप के नाम से हिरोशिमा नागासाकी पर तैयार किया एक स्लाइड शो दिखाना शुरु किया था। इसका प्रत्यक्ष उद्देश्य नाभिकीय युद्ध से होने वाले ध्वंस के बारे में लोगों को जागरुक करना था। पर इस मुहिम में शामिल हर कोई जानता था कि बी जे पी सरकार के शुरुआती दिनों में के पाकिस्तान के प्रति नफरत फैलाना सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडे में था और हम इसके खिलाफ काम कर रहे थे। अब याद नहीं कितने स्कूलों में, कितने सामुदायिक केंद्रों में हमने वह स्लाइड शो दिखाया। प्रसिद्ध लोक नाटककार भ्रा गुरशरण सिंह जी ने शो के स्क्रिप्ट के आधार पर एक नाटक तैयार किया और वह भी चंडीगढ के सेक्टर १७ पलाजा से लेकर पंजाब के कई गाँवों में दर्जनों बार खेला गया। मैं दर्जनों अतिशयोक्ति में नहीं लिख रहा हूँ। मुझे कई बार यह सोचकर तकलीफ होती है कि हमारे मुल्क में जनांदोलनों की गतिविधियों के दस्तावेज तैयार नहीं किए जाते और कितने लोगों की अकथ्य मेहनत इतिहास के पन्नों में गुम हो जाती है। बहरहाल हम तो एक बहुत बड़े सांप्रदायिकता और युद्ध विरोधी आंदोलन का एक छोटा हिस्सा मात्र थे, जो सन् २००० तक शिखर पर पहुँचने लगा था। धीरे धीरे मुख्यधारा के राजनैतिक दलों को यह समझ में आने लगा था कि आम पंजाबी यह नहीं चाहते कि सरहद के दोनों ओर लोगों में कोई वैमनस्य रहे। विश्व स्तर पर इधर के और उधर के पंजाबियों में सांस्कृतिक स्तर पर मेलजोल के प्रयास होने लगे थे। पर यह एक उफान की तरह उमड़ कर आएगा, ऐसी कल्पना शायद किसी ने तब भी न की थी। १९९९ में मैं पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का सचिव बना। चंडीगढ़ का पंजाब विश्वविद्यालय डेढ़ सौ साल पुराने लाहौर के पुराने पंजाब विश्वविद्यालय का ही हिस्सा माना जाता है, हालांकि लाहौर वाले ऐसा नहीं मानते हैं। दोनों के अंग्रेज़ी नामों में जरा सा फर्क है। चंडीगढ़ की यूनिवर्सिटी के नाम में पंजाब को Panjab लिखा जाता है, जबकि लाहौर में Punjab। बहरहाल मैंने इस खयाल का फायदा उठाते हुए प्रयास शुरु किए कि लाहौर के पंजाब विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के साथ संगठन के स्तर पर संपर्क किया जाए। मैंने लाहौर कैंपस के कुलाधिपति, जो कोई सैन्य अधिकारी था, से संपर्क करने की कोशिश की। और मैं पूरी तरह असफल रहा। अध्यापक संघ के दूसरे पदाधिकारी मेरे कैंपस से बाहर की गतिविधियों से बहुत ज्यादा वास्ता तो न रखते थे, पर उनका कोई विरोध भी न था। साथ ही अध्यक्ष प्रोफेसर पी पी आर्य ने पूरी छूट दी हुई थी कि मैं तरक्कीपसंद खयालों के मुताबिक कुछ भी करुँ तो वह मेरे साथ थे। खैर वह साल बीत गया और मैं संगठन के पद का अपने इस उद्देश्य के लिए फायदा न उठा पाया। पर इसी बीच मैं और दोस्तों से बातचीत करता रहा और किसी तरह परवेज हुदभाई से संपर्क हुआ। परवेज पाकिस्तान का विश्व स्तर पर प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक शास्त्री है और साथ ही शांति आंदोलन में बहुत बड़ा नाम भी है। भारत के जन विज्ञान आंदोलन की ओर से परवेज को कलिंग पुरस्कार दिया जाना था, पर भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारें इस में अड़चन बनी हुईं थीं। अब याद नहीं कि किस स्टेज पर परवेज ने लिखा कि वह तो आ नहीं सकता (बाद में २००५ में परवेज आया था और उसे तीन साल बाद वह पुरस्कार दिया गया), पर लाहौर यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट साइंसेस (LUMS) के सरमद अब्बासी को कहा जाए तो शायद सरकारों को उसके हिंदुस्तान आने पर आपत्ति न होगी। इसी बीच चंडीगढ तो नहीं पर दिल्ली से कई सक्रिय साथी शांति यात्राओं में सक्रिय हो रहे थे और दिल्ली विश्वविद्यालय से एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ पाकिस्तान घूम आया था। तो मैंने सरमद से संपर्क किया। २००३ में शिक्षक संगठन का अध्यक्ष चुना गया और तुरंत मैंने सरमद अब्बासी को चंडीगढ़ लाने की तैयारी शुरु की। आखिर सरमद और लम्स के छः विद्यार्थी चंडीगढ़ पहुँचे।
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इसके बाद लिख नहीं पाया, जबकि इसके बाद की बहुत सारी बातें हैं जिन्हें लिखा जाना चाहिए। हो सकता है कोई और दोस्त जो इस प्रकिया में शामिल थे, इस पर लिखें।
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पिछले हफ्ते एक और चिट्ठा लिखना शुरु किया था - वह तो दो लाइनों से आगे भी नहीं पहुँचा। वह भी द हिंदू की ही एक खबर पर था जिसमें लिखा था कि छत्तीसगढ़ में पुलिस वालों या सलवा जुडुम वालों ने एक आदिवासी बच्चे की उँगलियाँ काट दी हैं ताकि उसके माँ बाप माओवादियों के बारे में सूचना दें। बेचारे माँ बाप डर के मारे कुछ बतलाना नहीं चाहते और मारे मारे भाग रहे हैं कि कहीं फिर कोई उन पर हमला न कर बैठे। ऐसी खबरों को पढ़ कर आश्चर्य होना चाहिए, पर होता नहीं है। सम्पन्न वर्गों की क्रूर उदासीनता में जी रहे हम लोग इस बात से बेखबर से हैं कि सरकार ने जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। गृह मंत्री इसे युद्ध कहना नहीं चाहता, क्योंकि यह ऐसा युद्ध है, जिसमें सभी मानव अधिकारों को तिलांजलि दे दी गई है। अब नागरिक अधिकार संस्थाओं की रीपोर्ट आई है, जिसमें खनिज खुदाई और व्यापार से जुड़े पूँजी मालिकों के हित में सरकार द्वारा छेड़े इस युद्ध की सच्चाई का पूरा ब्यौरा है। मध्यवर्ग के लोगों को नागरिक अधिकार या मानव अधिकार जैसे शब्दों से एलर्जी होती है, क्योंकि अपनी सच्चाइयों से रुबरु होने में हमें तकलीफ होती है। इसलिए भाइयो, इंडिया टूडे में आकाश बनर्जी का यह पोस्ट पढ़ लो। इसकी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ -

First Question- Will 'Operation Green Hunt' be successful?
Honestly the answer is a big NO. Call me a Naxal sympathizer, but like me, if you ever face the brutal wrath of the local police in heartland India - your world view will witness a paradigm shift within seconds. I was in West Bengal last July - covering the offensive launched by the state administration to counter the Naxals in Lalgarh. It was here, during one of the shoots that my cameraperson and I were chased down a road in Midnapore district by the West Bengal police and hit with sticks.

Our crime??? We had dared to shoot the police breaking down doors and hauling up village youngsters for 'questioning'. (What happens in these 'questionings' I don't need to tell you) When journalists could be treated like dogs by the police - I began to grasp the plight of the local villagers who don't have a voice - or redressal system of any sort. The moral of the story is very simple - between the two evils of Naxalism and Police, the tribals choose the former. At least Naxals don't rape, maim and kill without reason.

वैसे यह तो बहुत बड़ा आश्चर्य है ही कि सूचना-क्रांति के इस युग में निरंतर अन्यायों व अत्याचारों से भरपूर हमारे जैसे समाज आज भी टिके हुए हैं। पर इतिहास यही बतलाता है कि बड़ी सी बड़ी भी दमनकारी ताकतें भी विरोध को हमेशा के लिए खत्म नहीं कर पातीं और इंसान है ही ऐसा जंतु कि बार बार विद्रोह के लिए उठ खड़ा होता है।
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एक मित्र ने जेम्स ब्राइडल के A New THEORY of
AWESOMENESS and MIRACLES शीर्षक एक रोचक व्याख्यान पर यह लिंक पोस्ट किया है।