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टूट चुका बुर्ज़ुआ विज्ञान
ऐतिहासिक नज़रिए से चीज़ों को देखने पर बुर्ज़ुआज़ी की आपत्ति उनके इस
विचार के प्रति नाराज़गी से संगति रखती है कि जायदाद के 'हक' विशेष जमाने
की सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं। "कॉडवेल के लिए यह बात बुर्ज़ुआ संस्कृति की
जड़ में निहित झूठ है," जैसा कि शीहान ने लिखा है,
चूँकि आज़ादी सहज-ज्ञान के सूझ-बूझ से नहीं, बल्कि सामाजिक रिश्तों से
निकलती है, सामाजिक रिश्तों को दरकिनार कर इंसान, इंसान नहीं रह
जाता। इस बात को न समझ पाने की वजह से आधुनिक समय में आम तौर
पर बेचैनी और ज़हनी बौखलाहट दिखलाई पड़ती है। बुर्ज़ुआ ने खुद को उस
नायक की तरह देखा जो अकेले आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा है, वह कुदरती
इंसान जो आज़ाद पैदा हुआ, पर किसी अजीब वजह से हर तरफ बेड़ियों में
जकड़ा हुआ है। जब उसने अपने अंदर से सामाजिक हर कुछ को त्याग
दिया, तो वह पिचक गया और खाली, बेकार और बेबस हो गया। श्रम से
सामाजिक बंधनों को अलग करते ही, एक छोर पर तो इंसानियत की बेकार
पड़ी नाज़ुकी बँध गई, तो दूसरे छोर पर वस्तुओं को पाने के लिए माली हकों
की जालिम सच्चाई भर रह गई। इसकी वजह से भारी तनाव पैदा हुआ, पर
खुले मुक्त बाज़ार के नाम पर तनाव का स्रोत छिपा रह गया; इससे निकलने
की कोशिश जितनी बढ़ी, उतना ही तनाव बढ़ता चला। बुर्ज़ुआ हमेशा
आज़ादी की बातें करता रहा, क्योंकि वह हमेशा उसके हाथों से छूटती रही।54
बुर्ज़ुआ मान्यताओं के मुताबिक कुदरत निरंतर नियमों के जाल में बँधी हुई है –
जिसमें हर जगह लागू होने वाले जायदाद के हक लिखे हुए हैं। हर तरह की
गतिकी इन नियमों की महज अभिव्यक्ति है। “इसके नतीजतन,” कॉडवेल ने
लिखा, “इन क्षेत्रों में बुर्ज़ुआ विज्ञान का पहला काम यह हो जाता है कि वह ऐसे समूहों की मदद से बदलाव को समझाए, जिन्हें यह मानकर तैयार किया गया है कि दुनिया बदलेगी नहीं।”55
इस तरह से देखा जाए तो व्यक्ति में बदलाव मान्य है, यहाँ तक कि इसे अच्छी
बात कहा जा सकता है। भ्रूण से पूरे परिपक्व शरीर तक की बढ़त को समाज के बारे में बुर्ज़ुआ धारणा को समझाने के लिए ढाला जा सकता है, ताकि “इंसान को बदलाव और तरक्की का स्रोत माना जा सके, उसकी ‘आज़ाद’ ख़्वाहिश जायदाद के उस परिवेश पर हावी हो, जो कानून का सम्मान करता है।”
प्रजाति के स्तर पर होते बदलाव को — जैसा डार्विन की किताब ‘द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़’ में है — व्यक्तियों के बीच संघर्ष से उभरता हुआ दिखलाने की धक्कामार कोशिश की गई। विज्ञान की वैचारिक समझ की इसी जद्दोजहद से चुनाव के अलग-अलग चरणों पर आधुनिक बहसों की शुरुआत हुई। जैविकी के बदलाव के सिद्धांत के खास नियमों पर गौर करना कितना भी ज़रूरी क्यों न हो, उनकी भूमिका इन बहसों में कम ही थी।56
पर सूक्ष्म और स्थूल के बीच के आकार और उभार की राह पर निर्भर सिस्टम, के किसी भी विज्ञान के लिए ऐतिहासिकता और परस्पर कारण-कारक संबंध बड़े महत्वपूर्ण हैं; “बदलती परिघटना के पहले से तय एकीकरण से ही … बदलाव … होता है। अगर कोई नया गुण पहले से एक दूसरे को तय करते पिछले गुणों से नहीं उभरता है, तो यह सही-सही कह पाना मुश्किल है कि इससे पिछले गुणों में कोई बदलाव हो सकता है।” या फिर हम इस हल्के
नतीजे पर पहुँचेंगे कि “सभी गुणों में कुछ एक जैसा है और जो उनसे पहले का
है, (यानी) सामान्य बात यह है कि ‘दुनिया भौतिक स्वरुप में बनी है।’”57
फिर कॉडवेल तेजी से आगे बढ़ता है, और खुद को ज़बरन भ्रमजाल में फँसाने
वाली बातों को उजागर करता है। जब बुर्ज़ुआ साइंसदाँ को जीव-जगत में
परिवर्तन का सामना करना पड़ता है तो वह इसका सामान्य ‘कारण’ ढूंढता है
— बदलाव के नियम, बदलाव का एक जैसा ही स्वरुप — कॉडवेल के
मुताबिक ये पूँजीवादी वैचारिक आग्रह हैं : “बदलाव में ही बदलाव की वजह
ढूँढने में बुर्ज़ुआ वैज्ञानिक यूँ उलझ जाता है कि वह बदलाव के ढाँचे की
पड़ताल नहीं करता। चीज़ें जो हैं, उनके होने की वजह ढूँढना विज्ञान का
जितना बड़ा काम है, बदलाव की व्याख्या ढूँढना उससे बढ़कर नहीं है।”58
आजकल कई जीवविज्ञानी देश-काल में ऐसी बदलती परिस्थितियों पर जोर
देते हैं, जो खास नतीजों को बाँधे रखती हैं, पर अपनी तात्विक समझ (मेटाफिज़िक्स) को लेकर वे परेशान रहते हैं। कॉडवेल ने इस उलझन को बड़ी सहानुभूति से बखाना है: “चूँकि ऐसे सभी बदलावों को बुर्ज़ुआ दर्जों के चक्करों के अंदर समझा जाता है, वे विज्ञान की सर्वांगीण समझ नहीं पैदा करते, बल्कि उन्हें विशेष विज्ञान-विधाओं में जोड़ देते हैं, जिनमें से हरेक बुर्ज़ुआ-तत्व-मीमांसा (मेटाफिज़िक्स) और कुछ खास खोजों के समूह के बीच का एक समझौता पेश आता है।”59
कॉडवेल कहता है कि जीवविज्ञान के विविध पहलुओं से उभरते नतीजों का
समन्वय इस समस्या का हल नहीं है, ऐसी ग़लत समझ संक्रामक रोगों के लिए
एक सीमित स्वास्थ्य-बोध जैसे भौंड़े अनुमानों में देखी जाती है : “समस्या की जड़ यही है कि जीव-विज्ञान को भौतिक विज्ञान और समाज-शास्त्र से अलग एक बंद दुनिया की तरह देखा जा रहा है।”60 ऐसा करना चाहिए या नहीं और अगर करना है, तो किस हद तक — ये खुले सवाल हैं। जैसे राजनैतिक-आर्थिक आलोचना में तिरछी दृष्टि (पैरालैक्स) पर कोजिन कारातानी और ज़ीज़ेक की चर्चा से पता चलता है, ऐसे फायदे के लिए कीमत चुकानी पड़ती है — अध्ययन का लक्ष्य और लक्ष्य पर ध्यान डालने के लिए अध्ययन के हर क्षेत्र में ज़रूरी ज्ञान-मीमांसा से निकली समझ के बीच जो राफ्ता होना चाहिए, वह छूट जाता है।61
जीव-विकास-वादी भी ग़लत समझ के साथ मनोविज्ञान, समाज-शास्त्र,
सौंदर्य-शास्त्र, अर्थशास्त्र, यहाँ तक कि सेहत के विज्ञान तक को डार्विनियन
विश्व-दृष्टि में एक साथ सँजो कर एक आम नज़रिया थोपने की कोशिश करते
हैं। पर उनकी यह कोशिश सिद्धांत और व्यवहार दोनों तरह से ग़लत साबित हो चुकी है; विडंबना यह है कि इससे कॉडवेल का नज़रिया सही सिद्ध होता है।
जिस तरह से आज विकासवादी मनोविज्ञान की प्रस्तावना होती है और जैसे
इस पर काम किया जाता है, इसमें प्रागैतिहासिक युग के बाद से समूचे इंसानी
तज़ुर्बे और बदलाव को दरकिनार कर दिया गया है। जैसा कि रोडविक वालेस
और मैंने कहीं और लिखा है:
विकास और जीव में जिस्मानी बदलाव के सवाल जहाँ एक दूसरे से जुड़ते
हैं, वहीं से कई आम मनोविकारों में से कुछ की शुरुआत होती है; हममें से
सबसे बेहतर सेहत वाले भी बड़ी कठिनाई से अपने में होने वाले बदलावों में,
एक जाति के प्राणियों में विकास के नवाचार, मूल स्वभाव से अलग नए गुणों
को अपनाना, सांस्कृतिक संस्कार जैसे चेतना के ऐतिहासिक स्रोतों को
संयोजित कर पाते हैं। इस पैराडाइम का रोगी के इलाज पर सीधा असर
पड़ता है और इससे धरती पर बड़े पैमाने पर बर्फ जमने के दौर के पाए जाने
वाले जीवाश्मों में फँसी मनोवैज्ञानिक गड़बड़ियों के बारे में सही न पाए जाने
वाले सिद्धांतों का ऐसा विकल्प भी निकलता है, जिसका परीक्षण किया जा
सके … पिछले 10000 सालों में धरती पर फैलते रहे इंसानों ने जिन
घटनाओं और स्थितियों को झेला है और कई तो अभी भी झेलते जा रहे हैं,
इस सबके प्रभाव को ध्यान में रखकर ही इलाज़ किया जाना चाहिए; यह
परिप्रेक्ष्य फानोन (1967/2007) और मेमी (1965) से अलग नहीं है।62
अगर नेपोलियन शान्योन और उनके पक्ष में बोलने वाले विकासवादी
मनोविज्ञानियों से हमें कोई संकेत मिलता है, तो वह यही है कि उनका मकसद
समूचे इतिहास को खत्म कर देना है, सचमुच सभी ऐतिहासिक संभावनाओं को खत्म कर देना है, बस एकमात्र सच्चे इतिहास को बचाना है, जो कि, वल्लाह क्या बात है, औपनिवेशिक और अब नव-औपनिवेशिक पैराडाइम में जा उभरता है।63 भ्रम में न रहें, उनके विचार विशुद्ध राजनैतिक प्रोजेक्ट हैं।
मेंडेल का शुद्धीकरण
यानी कॉडवेल को डार्विनवाद में “बुर्ज़ुआ दर्जों के चक्कर” के विरोधभासों में
और-और फँसता-गहराता अधःपतन दिखता है। पर एंगेल्स के विचारों की
तरह ही कॉडवेल भी उदारता दिखलाते हुए डार्विन के अपने डार्विनवाद पर
कहता है,
बड़ी तादाद में खोजे जा रहे जैविकी-तथ्यों से यह अभी भी अछूता है। इसमें
प्राणी को रूखे तरीके से परिवेश के बरखिलाफ नहीं खड़ा किया गया है,
बल्कि जीवन के तंत्र को बाक़ी सच्चाइयों के साथ गड्डमड्ड होते हुए बहते देखा
गया है … डार्विन ने बदलाव के जिस लाजवाब नुमाइश को, जीवन में
इतिहास और द्वंद्व को, जिस तरह उजागर किया है, वह उसके अपने और
उसके तुरंत बाद में आए हक्सली जैसे अनुयायिओं के लेखन में खौलती
इंकलाबी ताकत भर देता है। जैविकी अब भी एकीकृत रह गई है, पर
डार्विनवाद में पहले से ही वे विरोधाभास थे, जिससे उसका ढहना शुरू हो
गया।64
विकासवादी जीवविज्ञानी अर्न्स्ट मायर के अनुसार डार्विन की प्रतिभा प्राणियों की
जनसंख्या को समझने में दिखती है। उसकी खोज से हम जानते हैं कि सच्चाई
प्राणी-संख्या की विविधता में दिखती है, न कि औसत संख्या या ठेठ
जिस्मानी शक्ल और रूप जैसे रचनावादी निर्मितियों में।65 फोस्टर ने लिखा है
कि कॉडवेल का खयाल है कि डार्विन के काम का महत्व इसके साथ ही "सह-
विकास के परिपेक्ष्य की ओर इशारा करने में है। डार्विनवाद ने पहली बार लोगों
को इतिहास के नज़रिये से देखना सिखलाया।”66
कॉडवेल ने ग्रेगर मेंडेल को इसी डार्विन के बरक्स तत्व-मीमांसात्मक विलोम
की तरह रखा। उसे मेंडेल की धार्मिक रूढ़ियों में जर्मन पूँजीवाद के खिलाफ
बेचैन प्रतिक्रांतिमुखी प्रतिक्रिया दिखती है। “इसलिए", मेंडेल ने "विविधताओं
पर अध्ययन को ऐसे मिजाज़ से देखा, जो बदलाव के खिलाफ था, और युक्ति
और जानकारियों की शाश्वत सचाइयों पर निर्भर था, पर वह एक वैज्ञानिक भी
था …। और जिस तरह अपनी इंकलाबी पूँजीवादी विचारधारा की वजह से,
डार्विन की बुर्ज़ुआ मेधा ने बदलाव और इसके कारणों को ढूँढा, उसी तरह
मेंडेल की मजहबी मेधा ने यह देखा कि बदलाव में क्या होना ज़रूरी है – न
बदलने वाला, वह जो बदलता है।”67
मेंडेल को शारीरिक लक्षणों में निहित जीनेटिक कारकों में यह दिखता है। यानी
विविधता अपने आप नहीं उभरती, बल्कि पहले से तय होती है। हालाँकि हूगो
द फ्रीस ने अपने विषय के अंदरुनी द्वंद्वों को सुलझाने के लिए जीन में संयोग से
"बेतरतीब बदलाव" होने की प्रस्तावना रखी थी, पर इससे मेंडेल का शुद्धीकरण
करते हुए आज़ाद सोच में डार्विनवाद को जड़ दिया गया; यह एक ऐसे भूत की
तरह है जिस पर कॉडवेल ने कटाक्ष करते हुए कहा है, "जैविकी में रहस्यवाद
का आविर्भाव ... किसी भी हाल में बुर्ज़ुआ की स्वत:स्फूर्तता को बचाना है।"
यानी कि अपने पहले पाठ में कॉडवेल से जो नव-डार्विनवाद छूट गया लगता
है, उससे सचमुच उसके द्वारा उजागर की गई निहित संरचनात्मक समस्या
खत्म नहीं होती है।
कॉडवेल के विचारों को हाल के नए खयालों में ढालने वाली अपनी
डेवलपमेंटल सिस्टम्स थीओरी वाली किताब लिखते हुए सूज़न ओमाया और
साथी संपादकों ने दावा किया है कि ऐसी कोशिशें
कुदरत/परिवेश [या जीन/पर्यावरण या जैविकी/तहजीब] बहसों को
सुलझाती नहीं हैं; इन कोशिशों से ये बहसें बढ़ती रहती हैं। इसकी आम
मिसाल यह है कि किस तरह चुनौती मिलने पर वक्त के साथ बदलाव पर
पारंपरिक विचार नई शक्लें अख्तियार कर लेते हैं और समकालीन अकादमिक
और सामाजिक बहसों को और उलझा देते हैं। अगर अब हम यह नहीं पूछ
सकते कि कोई बात सहज सूझ-बूझ से उभरी है या नहीं, तो हम पूछेंगे कि
इसमें कोई मुख्य जीनेटिक उपादान है या नहीं। अगर यह बात भी न मानी जाए तो हम पूछेंगे कि इस बात के पीछे कोई जीन-जनित प्रवृत्ति है या नहीं।68
पर कुदरत बार-बार साथ न देने का रुख अख्तियार करती है। जीवविज्ञानी जो
आँकड़े सामने लाते हैं, उससे घबराकर बुर्ज़ुआज़ी थोड़ी-थोड़ी देर में तत्व-
मीमांसा में छिपने को दौड़ते हैं। थॉमस हंट मॉर्गन द्वारा फलों पर मँडराती
मक्खीड्रोसोफिला पर किए गए प्रयोगों से प्राणी और परिवेश के भेद को काटा
जा सकता है। कॉडवेल के लिए अब शक्ल में बदलाव जीन्स के इधर-उधर होने
के अलावा दूसरे कारणों से होना स्पष्ट है:
- जिस्मानी लक्षण वक्त के साथ बदलने में एक से ज्यादा जगहों पर आधारित होते हैं और किसी लकीर पर तय नियम पर नहीं चलते हैं।
- जीन्स अमूर्त धारणा है। असल में जो कुछ होता है, वह संदर्भों पर निर्भर करता है, इसमें दूसरी जगहों और परिवेश के थोड़े वक्त वाले असर भी शामिल हैं।
- अपने प्रसार में जीन्स गिने जा सकते हैं, पर अपने असर में वे बिखरे हुए हैं और उनमें निरंतरता है (ऐनालोग)। इसलिए हमारी दुनिया में उनका असर दूसरे जीन्स और इसके अलावा “परिवेश” में आनुवंशिकता के दीगर स्रोतों में उनके गड्डमड्ड होने में ही दिखता है।
जीन्स का विज्ञान, जो प्राणी में मौजूद है, ऐसी ऐतिहासिक परिघटना बन जाती है,
जिसे फीनोटाइप की पृष्ठभूमि और परिवेश के बरक्स खेलती उन
अनिश्चितताओं में ढूँढना होगा, जो वक्त के मुताबिक अर्धसूत्री कोशिका-
विभाजन, फिर से जुड़ने, फिर से दर्जों में बँटने, डी एन ए से आर एन ए में
आनुवांशिक जानकारी की लिपि की प्रति बनने, भिन्न प्रभावों से जीन के बनने,
परिवेश के असर से कुछ ही पीढ़ियों में जीन्स में सतही बदलाव और जीवन की
शुरुआत और वक्त के साथ बदलाव का साइंस, इन सब के एकसाथ आ मिलने
से बनती हैं। नतीजतन,“प्राणी गुणधर्मों के ऐसे चीनी बक्सों जैसा बन जाता है,
जो एक दूसरे में सिमट जाते हैं और अब बदलाव को बदलाव की तरह समझाने
की ज़रूरत नहीं रह जाती है ... और अब जैविकी गुणधर्मों की भौतिक शृंखला
को खोजने और तय करने के अपने असल मकसद की ओर बढ़ सकती है,
जिसके हर कदम पर प्राणी और परिवेश ताना-बाना की तरह जुड़े हैं। 69
प्रयोगशाला हो या मैदान हो, द्वंद्वात्मकता को — जो पश्चिम में बकौल कार्ल
पॉपर, पीछे सुकरात, स्पिनोज़ा, रुसो और बाइबिल तक जाती है —
व्यावहारिक रूप में जटिल राशियों के आयामों में समझा जा सकता है, जहाँ
एक जगह बदलती राशियाँ दरअसल समांतर हो सकती हैं और कहीं और
अचानक एक दूसरे के खिलाफ जा सकती हैं। पहले स्तर के बाद दूसरे स्तर के
लक्षण भी दिखते हैं। यहाँ तक कि जीन, प्राणी और परिवेश के बीच जिस स्पेस
में हम इन रिश्तों को परखते हैं, उसमें भी बीच-बीच में बड़ा बदलाव हो सकता
है।
देखने का जो ढाँचा हम तय करते हैं, उस मुताबिक एक ही गुण-राशि की दो
खासियत हो सकती हैं। जैसे कोई ऑब्जेक्ट (या प्राणी या ईको सिस्टम) जब
भौतिक या विकास की गति में होता है, तो वह किसी खास जगह में दिखता है
और चूँकि वह गति में है, वहाँ ठहरता नहीं है। एंगेल्स के अनुसार, यह जो
विरोधाभास साफ जाहिर है — होने और होते रहने की यह समग्र प्रक्रिया —
इसी को हम जीवन कहते हैं।70 लगातार ग्रहण (और उससे खूबसूरती से
निकलने) में ही हमारा होना है। कॉडवेल पर हम वापस लौटें — ऐसे रिश्तों
का हिसाब रखने की बिल्कुल ईमानदार कोशिशों में भी एक रोड़ा परेशान करता
है, क्योंकि
ऐसा है कि समकालीन जेनेटिक्स आज भी बुर्ज़ुआ तत्व-मीमांसा के धुँए में
डूबा हुआ है (तब भी जब मूल बुर्ज़ुआ प्रोग्राम को मजबूरन यह छोड़ना पड़ा
है)। एक मान्यता हमेशा पीछे से हावी रहती है, कि जीन में कोई बदलाव नहीं
हो सकता है, कि परिवेश और प्राणी में फ़र्क है, और आनुवंशिकता और
विविधता जीवन की सचाई की ऐसी खास चौंकाने वाली दुर्घटनाएँ हैं, जिनकी
व्याख्या ज़रूरी है।71
इसकी ज्ञान–मीमांसात्मक लागत परेशान करती है: "व्यवहार में सभी मान्यताओं
में लगातार विरोधाभास दिखते हैं; और इसलिए अपनी खोजों की व्याख्या
करते हुए हर जेनेटिक्स-साइंसदाँ को शुरुआत मेें उस अवास्तविक
मेटाफिज़िक्स से जूझने में कोशिशें जाया करनी पड़ती हैं, जो उसे उत्तराधिकार
में मिली है।"
कॉडवेल को भ्रूण-संबंधी विज्ञान में भी ग़लत समझ दिखती है, जिसमें कुछ
पीढ़ियों में जीन्स में सतही बदलाव और भ्रूण में प्राणी का सूक्ष्म स्वरूप मानते
मतों के बीच के बुनियादी झगड़े शामिल हैं। बिल्कुल अलग-अलग वक्तों में ये
मत सामने आए हैं और उनमें टकराव हुआ है, इससे यह जाहिर होता है कि
ऐसा विरोधाभास मौजूद है, जिस पर बात हुई नहीं है। कॉडवेल इसे एक ही
बुर्ज़ुआ चेहरे के दोमुँही शक्ल की तरह पेश करता है। एक तो जो यांत्रिक मॉडल
पहले से तयशुदा बातों को "खारिज" करते हैं, वे खुद ही मान्यताओं को
दरकिनार कर मकसद से होती तय व्याख्या में उलझ जाते हैं कि : “जब एक
पूरा नाभि पूरा आदमी नहीं बना सकता, तो कोई भी खास जीन या जीन्स का
समूह, उपलब्ध सामग्री में से एक हाथ या हाथ का आकार या आँख कैसे बना
सकता है?”
इसके पीछे जो तर्क हैं, वे एक दूसरे को बढ़ाते हैं, पर इससे इनका नुकसान ही
होता है। मसलन, चोट लगकर नीली पड़ गई आँख पहले तय होना सोचने वाले
के लिए प्राणी पर परिवेश के हावी होने से मिला गुण हो सकता है, जैसे कि
जाहिरा तौर पर "स्वाभाविक” परिवेश से कोई नॉर्मल आँख नहीं मिल सकती
हो। दूसरी ओर, सतही बदलाव के बरक्स, मानो चोट लगने की निहित
प्रवृत्तियों का भी आँखों के नीली पड़ जाने के साथ कोई संबंध ही नहीं हो
सकता है, भले ही विकासवाद के नियमों के मुताबिक चोट दिखनी ज़रूरी हो।
कारण-कारक नियम अब स्रोतों को अलग करने में से हट जाते हैं और जैसे
एंगेल्स ने कहा है, होने और होते रहने की समग्र प्रक्रिया की व्याख्याएँ ढूँढने
लगते हैं। "किसी भी पल के लिए प्राणी एक ही जैसा नहीं रहता है,” कॉडवेल
ने लिखा; वह हमेशा बदलता रहता है, या तो वह वजूद में आता है, या मिटता
रहता है — अपने आप में नहीं, बल्कि होते रहने की प्रक्रिया के बाक़ी हिस्से
के साथ अपने भरपूर रिश्ते में।" इसके उलट दुनिया के नियमों को समझने के
लिए टुकड़े–टुकड़े कर देखने वाला साइंसदाँ — टुकड़ों में कत्ल करता हुआ
— अपने तरीकों के चक्कर में फँसा रहता है:
यह जो होते रहने की बात हर जगह दिखती है, इससे हम [ग़लती से] चरम
देश-काल की धारणा निकाल बैठते हैं और इसे परिवेश से अलग प्राणी में
स्थापित कर देते हैं। इस तरह प्राणी में हो रहे बदलाव उसके अपने अजीब
मामले हो जाते हैं, जिनका परिवेश से कोई रिश्ता नहीं रहता और इसलिए वे
पहले से तय नहीं रह जाते हैं। फिर इस बदलाव की व्याख्या की ज़रूरत
होती है। जाहिर है कि पहले से सभी धागों को तोड़कर हमने अपने लिए हल
न किया जा सकने वाला एक सवाल ढूँढ लिया है। यह समझ पूरी तरह
हमारी पद्धति से निकला है, बुर्ज़ुआ साइंस की पद्धति से।72
जब हम अभ्यास से मिली सहज समझ की जगह जैविकी में सामान्य नियम ढूँढते
हैं, तो भ्रामक नियमित दुहराव दिखने लगते हैं, जो सरल ढंग से दिखती
नियमितताओं में कुछ उजागर करने से ज्यादा छिपाते हैं: “भौतिक निर्धारक
बिल्कुल एक जैसे प्राणियों की एक के बाद एक आने वाली कुछ पीढ़ियों के लिए
पेंडुलम (दोलक) की ताल की तरह दुहराव दिखला सकते हैं। पर यह दुहराव
अमूर्तन है। दोलक की हर ताल में फ़र्क होता है, और दोलक पहले तेज चलता
है, फिर धीरे चलता है; वजह यही है कि उसे उसके परिवेश से अलग नहीं
किया जा सकता।"73
रिश्ते ही सचाई हैं
जैसा कि लेवोन्तीन का सुझाव है, यह ज़रूरी नहीं है कि समस्या इस बात में
हो कि जीवविज्ञानियों ने प्राणियों के लिए मशीन की उपमा का इस्तेमाल किया
है, जिससे वाउकान्सों के कार्टीशियन बतख या फोर्डिस्ट कंपनी की असेंबली
लाइन से, पंख जैसी हल्की, सफाई करने की वैक्यूम क्लीनर मशीनें बन कर
निकलती हों [जाक्स द वाउकान्सों ने 1739 में ऐसा नकली बतख बनाया था, जो नुमाइशी तौर पर अनाज के दाने खाता और बीट करता था।फोर्डिज़्म : बड़े पैमाने में एक जैसा सामान बनाने वाली औद्योगिक व्यवस्था पर आधारित आधुनिक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था - अनु0] । कॉडवेल ने उड़ान पर पाँच किताबें छापी थीं और एक पेटेंट भी लिया था। उड़ान के विज्ञान पर उसकी गहरी
समझ से हम यह देखते हैं कि वैज्ञानिकों ने इस उपमा का कबाड़ा कर दिया
है, क्योंकि मशीनें ऐसी होती नहीं हैं, जैसा अमूमन उनके बारे में हम सोचते हैं: “कोई भी मशीन किसी इंसान की योजनाओं या मकसद को सही-सही कभी
भी पूरा नहीं करती है। हर मशीन चाहत और ज़रूरत के बीच एक समझौता है।
यही नहीं, समझौता करने के बाद जिस मकसद को मशीन पूरा कर पाती
है, उससे उसे बनाने वाले के दिमाग पर असर पड़ता है, और उसके भविष्य के लक्ष्य और नई मशीनें इस बात से तय होते हैं कि उसने मशीन के साथ काम करने के बारे में क्या कुछ सीखा है। इसलिए मशीन महज उसके ज़हन की गुलाम नहीं है, वह उसे सिखाती है, हालाँकि वही उसे चलाता है।"74
समझ से हम यह देखते हैं कि वैज्ञानिकों ने इस उपमा का कबाड़ा कर दिया
है, क्योंकि मशीनें ऐसी होती नहीं हैं, जैसा अमूमन उनके बारे में हम सोचते हैं: “कोई भी मशीन किसी इंसान की योजनाओं या मकसद को सही-सही कभी
भी पूरा नहीं करती है। हर मशीन चाहत और ज़रूरत के बीच एक समझौता है।
यही नहीं, समझौता करने के बाद जिस मकसद को मशीन पूरा कर पाती
है, उससे उसे बनाने वाले के दिमाग पर असर पड़ता है, और उसके भविष्य के लक्ष्य और नई मशीनें इस बात से तय होते हैं कि उसने मशीन के साथ काम करने के बारे में क्या कुछ सीखा है। इसलिए मशीन महज उसके ज़हन की गुलाम नहीं है, वह उसे सिखाती है, हालाँकि वही उसे चलाता है।"74
मशीनें डिज़ाइनों के मुताबिक लगातार बनती-बिगड़ती रहती हैं और हरेक का
अपना एक इतिहास होता है: “कोई मशीन ऐसी नहीं होती कि उसमें कोई
बदलाव न होता हो — वह थक जाती है, पुरानी पड़ जाती है और खराब हो
जाती है। ये 'दोष' या बदलाव उसे बनाने वाले के मकसद या 'प्लान' का हिस्सा
नहीं हैं, ... फिर भी ये 'जादुई' घटनाएँ नहीं हैं। इन सभी खामियों की वजहें
होती हैं, और जब ऐक्सल टूटता है या प्लग में तेल आ जाता है, हम इनकी
वजह ढूँढते हैं, ... हम प्लान के बाहर कहीं इन समस्याओं के निर्धारक ढूँढते
हैं। "मशीनों की तरह प्राणी भी "बुर्ज़ुआ वर्ग की इकट्ठा हो चुकी चाहतें" नहीं हैं।
हाकिम जमात की विचारधारा में ऐसे भ्रम हमेशा पाए जाते हैं। उनका खयाल
यही होता है कि सचाई का स्वरूप जैसा भी हो, अपनी इच्छा को ज़बरन दूसरों
पर थोपकर ही आज़ादी मिलती है। इस खास भ्रम की वजह वर्ग-आधारित
समाज की वह खास फितरत है, जिसमें वस्तु पर मालिकाना-हकों की मदद से
प्रभुत्व बनता है और इसमें मशीन का बनना भी जुड़ा हुआ है।"75
अगरचे कोई बुर्ज़ुआ साइंसदाँ इन उपमाओं की वर्ग-जनित सीमाओं को समझ
पाता (पाती) तो वह "समझ जाता (जाती) कि वह महज अमूर्त वैज्ञानिक ही
नहीं है, बल्कि ठोस बुर्ज़ुआ वैज्ञानिक है।"76
इस तरह की वैज्ञानिक चेतना से, अकादमिक बाज़ार को चलाने वाली आसानी
से मिले अनुदानों से हो रही छोटी-मोटी खोजों से अलग हटकर, नई बड़ी
खोजें करने का उत्साह बढ़ता है। यहाँ तक कि जटिल सवालों को टुकड़ों में
बाँटकर देखने का सरलीकरण भी तब ऐसे लक्ष्यों की ओर जाने की राह बन
सकता है। कई तरीकों से देख पाने से एक बड़े मकसद तक जा पहुँचने में मदद
मिलती है, जो कि सूक्ष्म टुकड़ों में देखना, और पूरे स्वरूप में ही देखना, दोनों
ही तरीकों से बचकर ईमानदार वैज्ञानिक खोज करने का आधार है : “कोई भी
चीज़ अपने टुकड़ों के जोड़ से कुछ ज्यादा ही होती है, क्योंकि एक चीज़ की
तरह हमारा उसे देखना इस – नए गुण - पर निर्भर करता है कि बाक़ी सचाई
के साथ उसके नए रिश्ते कैसे हैं। गुणों के ऐसे "पड़ाव" अपने नएपन और
जटिलताओं में विविधता लिए होते हैं। बाक़ी कायनात का सामना करते हुए
उनके 'साथ' और 'अलग' खड़े होने के रिश्ते में फ़र्क में कुछ पड़ाव औरों से
ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।"77
आबोहवा में बदलाव, नए किस्म की बीमारियों का प्रकट होना और खाद्य
उत्पादन — इन समस्याओं के हल ढूँढने में क्या कोई और समझ इससे
ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? यह ज़रूरी नहीं है कि द्वंद्वात्मक सोच केवल
एक पार्टी का मंच या राजनैतिक प्रोग्राम हो — काश कि ऐसा होता — बल्कि
यह इंसानियत के सामने खड़ी गंभीर समस्याओं से जूझने का आलोचनात्मक
तरीका है। और इसके लिए हमें नमूने के आँकड़े इकट्ठे करना और सांख्यिकी
के आधार पर नतीजों पर पहुँचना छोड़ देना ज़रूरी नहीं है।"
इसलिए कॉडवेल ने सब कुछ दाँव पर लगा दिया। जैसी भी ग़लतियाँ रही हों,
जीवविज्ञानी और मार्क्सवादी दोनों एक ही तरह कॉडवेल के परिवर्तनकामी
परिप्रेक्ष्य को नहीं समझ पाएँगे, जिसमें (अपने वक्त में मिलते स्रोतों से लिए)
वैज्ञानिक आँकड़े और ज्ञान का स्वरूप तक शामिल किए गए हैं। जैसा
थॉम्पसन ने आखिर में लिखा है:
एक अमूर्त नियम की तरह यह कहना एक बात है कि सभी पदार्थ, समाज
और संस्कृति आपस में जुड़े हैं और वे एक दूसरे की नियति तय करते हैं;
और यह कोई और बात है कि हम इसे परखें या इस पर बहस करें कि ये सब
किस तरह की घटनाओं को आगे लाते हैं या क्या कुछ तय कर जाते हैं; और
कुछ और बात है कि उस समझ को अपने सैद्धांतिक ज़हन की निजी दुनिया
तक ले जाएँ और यह कह सकें कि हो सकता है कि सिद्धांत खुद "ज़हन के
बाहरी हिस्सों की चमड़ी पर असर डालती "गर्माइश" से बन सकते हैं।" ऐसा
कहा जा सकता है कि यह "पराई ज़मीनों" पर "उछलते घुसपैठ" की मिसाल
है, (हालाँकि) अजीब बात है कि कॉडवेल खुद यांत्रिक भौतिकतावाद और
निश्चयात्मकता के खिलाफ मुस्तैदी से, और बार–बार बहस करता है।78
भविष्य की राह दिखलाने वाला यह रचनावादी प्रत्यक्षतावाद डरावना तो है,
खास तौर पर अपने छोटे–से आलेख में जहाँ कॉडवेल तीखे तेवर के साथ
इक्कीसवीं सदी की जैविकी की समस्याओं की पहचान करता है।
मारक कल्पना
तो ख़ारामा की जंग के उस पहले दिन बेकेट और कॉडवेल, इन दो दोस्तों ने
पीछे हटते ब्रिटिश सिपाहियों को आड़ दी (मशीन–गन से कवर किया)। "क्लेम
बेकेट और क्रिस्टोफर सेंट जॉन स्प्रिग ने अपने साथियों को थोड़ी और देर की
मुहलत मुहैया करवाई,” बेन ह्यूज़ ने लिखा है,
पीछे हटने के हुक्म को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्होंने अपनी चौचाट मशीन–
गन को जमाया ... सारी दोपहर वे उसका पुरअसर ढंग से इस्तेमाल करते
रहे। जल्दी ही दुश्मन के पहले सिपाही सामने आ गए। फ्रैंक ग्रेहम ने यह
सोचते हुए कि उन पर क्या गुजरने वाली है, रुककर देखा कि बेकेट और
स्प्रिग ने गोलियाँ चलाईं। कई मूर (मोरक्को से आए भाड़े के सिपाही) गिर
पड़े, पर मशीन–गन जाम हो गई। ग्रेहम की आँखों के सामने वे बेधड़क
मशीन की मरम्मत में जुट गए। पर दुश्मन ने हमला बोला। ग्रेनेड उछालते हुए
वे करीब आ गए और फिर उन्हें संगीनों और छुरों से मार डाला।79
कॉडवेल के न रहने से जैविकी को और बेकेट की मौत से खेल की दुनिया को
बेहद नुकसान पहुँचा। बेहिसाब हुनर वाले इन दो नौजवानों की मौतें, एक की
उनतीस (कॉडवेल) और दूसरे की तीस (बेकेट) की उम्र में (और उसी दिन
बाईस की उम्र में कवि चार्ल्स डॉनेली की मौत), त्रासदी और बर्बादी के अलावा
और क्या कहला सकती हैं। उस पठार पर रह गई अधूरी किताबों के
फड़फड़ाते पन्ने कई बेचैन चौंधियाते ज़हनों की पहचान थे।
स्पेन के हक में लड़ने वाले — कोई बात है कि जो बच गए उन्हें 'फासीवाद
विरोधी नासमझ' मान कर दूसरी आलमी जंग में जाने से रोका गया — वे हमें
बड़ी, और खौफनाक, सीख देते हैं: "जब भले लोगों पर दानवों का हमला हो,
हुनरमंदों में से सबसे काबिल ज़हन भी बलि चढ़ते है, भारी नुकसान होता है।
हम सशस्त्र फासीवादियों से बहस नहीं करते। हम उनकी ओर उँगलियाँ नहीं
उठाएँगे। या समीकरण लिखकर उन्हें कहीं और नहीं धकेलते। हम लड़ेंगे।"
Notes
- ↩Ben Hughes,They Shall Not Pass! The British Battalion at Jarama—The Spanish Civil War (Oxford: Osprey, 2011).
- ↩Jason Gurney,Crusade in Spain (London: Faber and Faber, 1974), 112–13.
- ↩Franc Myles, “Jarama: Remembering a Battlefield,”IPMAG Newsletter 7 (2009): 11–15, http://ipmag.ie.
- ↩Gurney,Crusade in Spain, 113–14.
- ↩Tom Wintringham,English Captain (London: Faber and Faber, 1939).
- ↩John Simkin, “Clem Beckett,” Spanish Civil War Encyclopaedia, 2012, http://spartacus–educational.com.
- ↩Graham Stevenson, “Clem Beckett,” Compendium of Communist Biography, http://grahamstevenson.me.uk.
- ↩Stevenson, “Clem Beckett.”
- ↩Simkin, “Clem Beckett.”
- ↩Jean Duparc and David Margolies, “Introduction,” in Christopher Caudwell,Scenes and Actions: Unpublished Manuscripts, ed. Duparc and Margolies (London: Routledge and Kegan Paul, 1986), 3.
- ↩Christopher Caudwell,Studies and Further Studies in a Dying Culture (New York: Monthly Review Press, 1971), 72.
- ↩Duparc and Margolies, “Introduction,” 1–28; E. P. Thompson, “Caudwell,”Socialist Register 1977 (New York: Monthly Review Press, 1976), 228–76.
- ↩Duparc and Margolies, “Introduction,” 12.
- ↩Duparc and Margolies, “Introduction,” 15.
- ↩John Bellamy Foster,Marx’s Ecology (New York: Monthly Review Press, 2000), 11.
- ↩Thompson, “Caudwell,” 234.
- ↩Christopher Caudwell, “Heredity and Development,” in Duparc and Margolies, eds.,Scenes and Actions.
- ↩Raymond Williams,Culture and Society: 1780–1950 (New York: Columbia University Press, 1958), 272; Terry Eagleton, “Raymond Williams—An Appraisal,”New Left Review 95 (1976): 3–23; J. D. Bernal, “The ‘Caudwell Discussion,'”Modern Quarterly 6, no. 4 (1951): 346–50; Thompson, “Caudwell”; Helena Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science (Amherst, NY: Prometheus, 1993), 350–83.
- ↩Duparc and Margolies, “Introduction,” 27–28.
- ↩Richard Levins and Richard Lewontin,The Dialectical Biologist (Cambridge, MA: Harvard University Press, 1985).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 163.
- ↩W. B. Provine,The Origins of Theoretical Population Genetics (Chicago: University of Chicago Press, 2001).
- ↩W. J. Ewens,Mathematical Population Genetics, second ed. (New York: Springer, 2004), 3.
- ↩Lee Smolin,The Life of the Cosmos (Oxford: Oxford University Press, 1999).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 164–65.
- ↩Frederick Engels,Anti–Dühring (New York: International Publishers, 1970); Rob Wallace, “Darwin’s Simulacrum,” Farming Pathogens blog, August 10, 2009, http://farmingpathogens.wordpress.com.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 165, 170.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 165.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 166.
- ↩Adrian Desmond and James Moore,Darwin: The Life of a Tormented Evolutionist (New York: Norton, 1994).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 166.
- ↩Antonio Negri,Political Descartes (London: Verso, 2007); Bertolt Brecht,Life of Galileo (London: Penguin, 2008).
- ↩Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science, 357–60.
- ↩Stephen Jay Gould,The Structure of Evolutionary Theory (Cambridge, MA: Belknap/Harvard University Press, 2002).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 171.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 171.
- ↩Karl Marx,The Eighteenth Brumaire of Louis Bonaparte (New York: International Publishers, 1994), 15.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 171.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 172.
- ↩Mark E. Borello,Evolutionary Restraints (Chicago: University of Chicago Press, 2010).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 172.
- ↩Richard Lewontin,The Triple Helix (Cambridge, MA: Harvard University Press, 2002), 47.
- ↩Slavoj Žižek,The Parallax View (Cambridge, MA: MIT Press), 157.
- ↩Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science, 366; Foster,Marx’s Ecology, 249.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 180.
- ↩Nassim Nicholas Taleb,The Black Swan (New Yok: Random House, 2007).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 182.
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- ↩Maurice Godelier,The Mental and the Material (London: Verso, 1986).
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 174–75.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 177–78.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 178.
- ↩Slavoj Žižek,Less Than Nothing (London: Verso, 2012).
- ↩Sheehan,Marxism and the Philosophy of Science, 355–56.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 184.
- ↩Rob Wallace, “Eat Prey Love,” Farming Pathogens blog, May 7, 2012, http://farmingpathogens.wordpress.com.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 185–86.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 186.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 187.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 187; Robert G. Wallace et al., “The Dawn of Structural One Health: A New Science Tracking Disease Emergence along Circuits of Capital,”Social Science and Medicine 129 (2015): 68–77.
- ↩Žižek,The Parallax View; Kojin Karatani,Transcritique(Cambridge, MA: MIT Press, 2005).
- ↩Robert G. Wallace and Rodrick Wallace, “Evolutionary Radiation and the Spectrum of Consciousness,”Consciousness and Cognition 18 (2009):160–67.
- ↩Elizabeth Povinelli, “Tribal Warfare,”New York Times, February 15, 2013.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 187–88.
- ↩Ernst Mayr,The Growth of Biological Thought: Diversity, Evolution, and Inheritance (Cambridge, MA: Belknap/Harvard University Press, 1982), 45–47.
- ↩Foster,Marx’s Ecology, 248.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 188.
- ↩Susan Oyama, Russell D. Gray, and Paul E. Griffiths, eds.,Cycles of Contingency(Cambridge, MA: MIT Press, 2001), 1.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 191.
- ↩Engels,Anti–Dühring, 91, 132.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 191.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 196.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 196.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 197.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 198.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 199.
- ↩Caudwell, “Heredity and Development,” 201.
- ↩Thompson, “Caudwell,” 239–40.
- ↩Hughes,They Shall Not Pass!, 106.