Tuesday, November 29, 2011

दो प्रेम कविताएँ


दो प्रेम कविताएँ।
पहली का सन्दर्भ पुराना है और दूसरी पुरानी है।
नहीं, ये नया ज्ञानोदय के प्रेम विशेषांक में नहीं छपी थीं। वह एक अजीब गड़बड़ कहानी है। मैंने ग्यारह टुकड़ों की प्रेम कविता भेजी, पता नहीं किस बेवकूफ ने बिना मुझसे पूछे दस टुकड़े फ़ेंक दिए और पहले टुकड़े को 'एक' शीर्षक से छाप दिया। यह हिन्दी में संभव है, क्योंकि कुछेक हिंदी की पत्रिकाओं के संपादक ऐसे बेवक़ूफ़ होते हैं। क्या करें, हिंदी है भाई। मैं दो साल से सोच रहा हूं कि सम्पादक से पूछूं कि उसने ऐसा किया कैसे. पर क्या करें, हिंदी है भाई, हिम्मत नहीं होती, कैसे कैसे भैंसों से टकरायें। वैसे नीचे वाली कविता नया ज्ञानोदय में ही छपी थी। ठीक ठाक छपी थी और कइओं ने फोन फान किया था कि बढ़िया कविता है।
इस मटमैले बारिश आने को है दिन

इस मटमैले बारिश आने को है दिन में सेंट्रल एविनिउ पर तुम्हारी गंध ढूँढ रहा हूँ।
मार्बल की सफेद देह पर लेटा हंस झाँक रहा है,
मैं दौड़ती गाड़ियों के बीच तुम्हारे पसीने का पीछा करता हूँ
जल्दी से पार करता हूँ चाहतों के सागर।
पहुँच कर जानता हूँ मैं पार कर रहा था तीस साल। तुम्हारा न होना कचोटता नहीं मुझे।
ढूँढता हूँ बैग में फाज़िल इस्कंदर की कहानियाँ।
तुम नहीं हो, न है वह किताब, हंस की सफेदी धूमिल हो गई है,
तुम हो कहीं आस पास।

(नया ज्ञानोदय – मार्च २००९)

वह मैं और कलकत्ता
इस बार कलकत्ता में
ठंडी बारिश और कीचड़ में
बुद्धिजीवी वह और बुद्धिजीवी मैं
समस्याओं की सच्चाई से थके
आपस में प्यार का बीज बो बैठे

बारिश और ठंड ने
इस गंदे शहर के
हर रेंगते इंसान सा
हमें भी बातों ही बातों में
दे दी चाह
स्पर्श की उष्णता की
अनैतिक संपर्क की घातक वह चाह
अंकुरण को बढ़ती रही

(मुझसे अलग मेरी दुनिया
उसने खींच ली करीब
विद्रोह का संतुलन खो बैठी

उसकी दुनिया में
पाशविक मेरी कविताओं भरी आँखों से टपकती
लालसा की अभिव्यक्ति आ बैठी)

इसी बीच कलकत्ता सड़ रहा था
मकानों और झुग्गियों के साथ
गड्ढों भरी ज़िंदगी के
कीचड़ में।
(साक्षात्कार - १९८७; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)

Tuesday, November 22, 2011

स्याही फैल जाती है


इशरत

1
 इशरत!सुबह अँधेरे सड़क की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली!लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ़ में डूबेगी तू
यह जान कर ही होगी चली!सो जा
अब सो जा पगली.

2

 इन्तज़ार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी
उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन
इन्तज़ार है
तकलीफें कागजों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएँगी
सपने देखे जायेंगे
इशरत तू भी जिएगी
गर्मी तो सरकार के साथ है.

3

एक साथ चलती हैं कई सड़कें.सड़कें ढोती हैं कहानियाँ.कहानियों में कई दुख.दुखों का स्नायुतन्त्र.दुखों की आकाशगंगा
प्रवाहमान.
इतने दुख कैसे समेटूँ
सफेद पन्ने फर-फर उडते.
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते. इशरत रे!
(दैनिक भास्कर – 2005; वर्त्तमान साहित्य -2007; 'लोग ही चुनेंगे रंग' में संकलित)
















Monday, November 07, 2011

निशीथ रात्रिर प्रतिध्वनि सुनी

भूपेन हाज़ारिका का चले जाना एक युग का अंत हैएक तरह से हबीब तनवीर के गुजरने के बाद से जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह गुरशरण सिंह और भूपेन हाज़ारिका के साथ युगांत पर गया हैयह हमारी पीढी, खासकर कोलकाता जैसे शहरों में साठ के दशक के आखिरी और सत्तर के दशक के शुरुआती सालों में कैशोर्य बिताने वाली पीढी के लोगों के लिए भी जैसे सूचना है कि हम अब बूढ़े हो चले हैंभूपेन हाज़ारिका हमारे उन प्रारंभिक युवा दिनों की दूसरी सभी बातों के साथ हमारी ज़िन्दगियों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े थे हमलोग रुना गुहठाकुरता का गाया ओ गंगा तुमी सुनते और कहते अरे भूपेन हाज़ारिका जैसी बात कहाँ यह हमलोगों का आग्रह था जैसे कोई और उनकी तरह गा ही नहीं सकता हमलोग सीना चौड़ा कर कहते कि पाल रोब्सन के 'ओल्ड मैन मिसिसीपी' को 'ओ गंगा तुमी' गाया है जैसे वह हमारे परिवार के कोई थे जिनको ऐसी ख़ास बातों के लिए सम्मान मिला हो रवींद्र, सलिल चौधरी आदि के बाद बांग्ला संगीत में (हालांकि मूलतः वे अहोमिया थे) वे आखिरी इंकलाबी थे उनके बाद सुमन हैं, पर बिलकुल अलग तरह के - सुमन हमसे उम्र में बड़े हैं, पर संगीत में जैसे वह हमारे बाद की पीढ़ी के हैं

नेल्सन मंडेला को जो स्वागत कोलकाता में मिला था, वह शायद ही कहीं और मिला हो, और उस दिन ईडेन स्टेडियम में मुख्य गायक
भूपेन हाज़ारिका थे मैं चंडीगढ़ में टी वी पर देख रहा था और गर्व से फूला जा रहा था जैसे मैं ही उस स्वागत का मुख्य मेजबान हूं उसी भूपेन हाज़ारिका ने बी जे पी की ओर से चुनाव लड़ा तो मैंने भू भू हा हा शीर्षक कविता लिखी तब से मैं उनसे नाराज़ रहता था उनके गानों को सुनता तो जैसे मन मसोस कर चुनाव हारने पर बहुत खुशी हुई थी


आज दो दिनों से इस बात को मानने की कोशिश में हूं कि
भूपेन हाज़ारिका अब नहीं है उनका गाया कुछ भी मुझे अच्छा लगता था, पर शायद सबसे खूबसूरत मुझे यह गाना लगता है (एक हिन्दी रूपांतर यहाँ है) :

মোর গাঁয়ের সীমানার পাহাড়ের ওপারে मोर गाँयेर सीमानार पाहाड़ेर ओपारे
নিশীথ রাত্রির প্রতিধ্বনি শুনি निशीथ रात्रिर प्रतिध्वनि सुनी
কান পেতে শুনি আমি বুঝিতে না পারি कान पेते सुनी आमी बुझिते ना पारी
চোখ মেলে দেখি আমি দেখিতে না পারি चोख मेले देखि आमी सुनीते ना पारी
চোখ বুজে ভাবি আমি ধরিতে না পারি चोख बुझे भाबी आमी धरीते ना पारी
হাজার পাহাড় আমি ডিঙুতে না পারি हाजार पाहाड़ आमी डिंगोते न पारी

হতে পারে কোন যুবতীর শোক ভরা কথা होते पारे कोनो युवतीर शोक भरा कथा
হতে পারে কোন ঠাকুমার রাতের রূপকথা होते पारे कोनो ठाकुमार रातेर रूपकथा
হতে পারে কোন কৃষকের বুক ভরা ব্যাথা होते पारे कोनो कृषकेर बुक भरा व्यथा
চেনা চেনা সুরটিকে কিছুতে না চিনি चेना चेना सुर टि के किछुते ना चीनी
নিশীথ রাত্রির প্রতিধ্বনি শুনি
শেষ হল কোন যুবতীর শোক ভরা কথা
শেষ হল কোন ঠাকুমার রাতের রূপকথা
শেষ হল কোন কৃষকের বুক ভরা ব্যাথা
চেনা চেনা সুরটিকে কিছুতে না চিনি
নিশীথ রাত্রির প্রতিধ্বনি শুনি
মোর কাল চুলে সকালের সোনালী রোদ পড়ে
চোখের পাতায় লেগে থাকা কুয়াশা যায় সরে
জেগে ওঠা মানুষের হাজার চিৎকারে
আকাশ ছোঁয়া অনেক বাঁধার পাহাড় ভেঙে পড়ে
মানব সাগরের কোলা‌হল শুনি
নতুন দিনের যেন পদধ্বনি শুনি
आखिरी लाइनें हैं - मानव सागारेर कोलाहल सुनी, नोतून दिनेर जेनो पदध्वनि सुनी.
मानव सागर का कोलाहल सुनता हूं, नए दिनों कि पदध्वनि सुनता हूं। यह हमारी पीढी की आवाज़ है जो हमें पिछली पीढियों से विरासत में मिली हैग़जब यह कि सारे संकेत विपरीत से लगते हुए भी हमारी यह आवाज़ मंद नहीं पड़ी है. ...इसलिए भूपेन हाज़ारिका को सलाम