दो प्रेम कविताएँ।
पहली का सन्दर्भ पुराना है और दूसरी पुरानी है।
नहीं, ये नया ज्ञानोदय के प्रेम विशेषांक में नहीं छपी थीं। वह एक अजीब गड़बड़ कहानी है। मैंने ग्यारह टुकड़ों की प्रेम कविता भेजी, पता नहीं किस बेवकूफ ने बिना मुझसे पूछे दस टुकड़े फ़ेंक दिए और पहले टुकड़े को 'एक' शीर्षक से छाप दिया। यह हिन्दी में संभव है, क्योंकि कुछेक हिंदी की पत्रिकाओं के संपादक ऐसे बेवक़ूफ़ होते हैं। क्या करें, हिंदी है भाई। मैं दो साल से सोच रहा हूं कि सम्पादक से पूछूं कि उसने ऐसा किया कैसे. पर क्या करें, हिंदी है भाई, हिम्मत नहीं होती, कैसे कैसे भैंसों से टकरायें। वैसे नीचे वाली कविता नया ज्ञानोदय में ही छपी थी। ठीक ठाक छपी थी और कइओं ने फोन फान किया था कि बढ़िया कविता है।
इस मटमैले बारिश आने को है दिन
इस मटमैले बारिश आने को है दिन में सेंट्रल एविनिउ पर तुम्हारी गंध ढूँढ रहा हूँ।
मार्बल की सफेद देह पर लेटा हंस झाँक रहा है,
मैं दौड़ती गाड़ियों के बीच तुम्हारे पसीने का पीछा करता हूँ
जल्दी से पार करता हूँ चाहतों के सागर।
पहुँच कर जानता हूँ मैं पार कर रहा था तीस साल। तुम्हारा न होना कचोटता नहीं मुझे।
ढूँढता हूँ बैग में फाज़िल इस्कंदर की कहानियाँ।
तुम नहीं हो, न है वह किताब, हंस की सफेदी धूमिल हो गई है,
तुम हो कहीं आस पास।
(नया ज्ञानोदय – मार्च २००९)
वह मैं और कलकत्ता
इस बार कलकत्ता में
ठंडी बारिश और कीचड़ में
बुद्धिजीवी वह और बुद्धिजीवी मैं
समस्याओं की सच्चाई से थके
आपस में प्यार का बीज बो बैठे
बारिश और ठंड ने
इस गंदे शहर के
हर रेंगते इंसान सा
हमें भी बातों ही बातों में
दे दी चाह
स्पर्श की उष्णता की
अनैतिक संपर्क की घातक वह चाह
अंकुरण को बढ़ती रही
(मुझसे अलग मेरी दुनिया
उसने खींच ली करीब
विद्रोह का संतुलन खो बैठी
उसकी दुनिया में
पाशविक मेरी कविताओं भरी आँखों से टपकती
लालसा की अभिव्यक्ति आ बैठी)
इसी बीच कलकत्ता सड़ रहा था
मकानों और झुग्गियों के साथ
गड्ढों भरी ज़िंदगी के
कीचड़ में।
(साक्षात्कार - १९८७; 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित)