Thursday, August 26, 2021

गेल ओंवेट का जाना और एक कविता

 गेल ओंवेट से पहला परिचय ख़त के जरिए हुआ था। न्यूयॉर्क से गार्डियन नाम की साप्ताहिक अखबारनुमा पत्रिका छपती थी, जिसमें हिंदुस्तान के जनांदोलनों पर गेल लिखा करती थीं। उनसे गेल का पता लेकर उन्हें ख़त लिखा था कि मुल्क लौट कर कहाँ काम किया जाए, इस पर सलाह दें। गेल ने स्नेह के साथ जवाब लिखा, पर ज़मीनी काम की चुनौतियों से सचेत किया। ऐसी ही प्रतिक्रिया नारायण देसाई से भी मिली थी। वैचारिक रूप से हम गेल के ज्यादा करीब थे। बाद में कोलकाता में उनके संगठन के साथ जुड़े श्रीहर्ष कन्हेेरे से मिला था, जो शायद स्टेट बैंक में काम कर रहे थे। कन्हेरे के जरिए ऐक्टिविस्ट डॉक्टर सरोजित (स्मरजित) जाना से मिला था, जिसके साथ लंबी दोस्ती रही। सरोजित का दो महीने हुए, देहांत हो गया। श्रीहर्ष पचीस साल पहले ही गुजर गए थे। गेल से शायद 1993 में मुलाकात हुई। तब तक उनकी किताब We Shall Smash This Prison: Indian Women in Struggle पढ़ चुका था और दो प्रतियाँ (पेपरबैक और हार्ड कवर) भी साथ में थीं। आई डी सी नामक एन जी ओ के प्रमोद कुमार के आमंत्रण पर गेल चंडीगढ़ आई थीं। प्रमोद के घर पर उनसे मिला था। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी थीं कि ढंग से बात नहीं हुई। उन दिनों जाति की समस्या पर गेल वाम की सोच से अलग होती जा रही थीं। हो सकता है कि इस वजह से या यात्रा की थकान या उस एन जी ओ को जान कर उनमें बेरुखी सी थी। फिर कभी मुलाकात नहीं हुई। उनका जाना अपने अतीत से कुछ का चले जाना है।


*



सात साल पहले फेस बुक पर पोस्ट की एक कविता में कुछ बदलाव के साथ 


आज फिर पोस्ट कर रहा हूँ -



हर मीरा के लिए


तुम्हारे पहले भी छंद रचे होंगे युवतियों ने


अधेड़ महिलाएँ सफाई करतीं खाना बनातीं


गाती होंगी गीत तुमसे पहले भी








किसने दी यह हिम्मत


कैसी थी व्यथा प्रेम की


कौन थीं तुम्हारी सखियाँ


जिन्होंने दिया तुम्हें यह ज़हर






कैसा था वह स्वाद जिसने


छीन ली तुमसे हड्डियों की कंपन


और गाने लगी तुम प्रेम के गीत









हर उस मीरा के लिए जो तुमसे पहले आई


मैं दर्ज़ करता हूँ व्यथाओं के खाते में अपना नाम


प्रतिवाद कि मैं हूँ अधूरा अपूर्ण 


मुझसे छीन लिए गए हैं मेरी माँओं के आँसू


आँसू जिनसे सीखने थे मैंने अपने प्रेम के बोल


अपनी राधाओं को सुनाने थे जो छंद।






(हंस 2008)


Monday, August 16, 2021

'बदशक्ल चुड़ैलों'

 हर बार की तरह इस बार भी 15 अगस्त पर 'कौन आज़ाद हुआ' गीत और वेदी सिन्हा का अद्भुत गायन पर भी पोस्ट काफी शेयर हुए। मेरा बहुत प्रिय गीत है, कई बार दोस्तों के साथ गाया है।


पिछले साल धीरेश सैनी के कहने पर मैंने हिन्दी में 'अश्वेत' शब्द के इस्तेमाल पर


 आपत्ति करते हुए एक लेख लिखा था। हाल में फिर किसी बहस में शामिल होते


 हुए इसका लिंक मैंने शेयर किया था। लेख अंग्रेज़ी में लिखा जाए तो कई लोग


 पढ़ते हैं और बातचीत होती है। हिन्दी में आप कितना पढ़े जाएँगे, यह इससे तय


 होता है कि आप कितने प्रतिष्ठित हैं। और प्रतिष्ठा कौन तय करता है? ...



खैर, उस लेख में ये पंक्तियाँ भी थीं -


"यह ज़रूरी है कि शब्दों का इस्तेमाल करते हुए हम गंभीरता से सोचें। हमें लग


 सकता है कि हम तरक्की-पसंद हैं, बराबरी में यकीन रखते हैं और एक छोटी सी


 बात को बेमतलब तूल देने की ज़रूरत नहीं  है। ऐसा सोचते हुए कभी हम


 व्यवस्था के पक्ष में खड़े हो जाते हैं और भूल जाते हैं कि गैरबराबरी कैसी भी हो,


 वह नाइंसाफी है और इंसानियत के खिलाफ है। पिछली पीढ़ियों में यह समझ 


 कम थी और अक्सर शक्ल से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल बुराई को चिह्नित करने के


 लिए किया जाता था। एक मिसाल अली सरदार जाफरी के लिखे प्रसिद्ध गीत


 'कौन आज़ाद हुआ' का है,  जिसमें  'काले बाज़ार में बदशक्ल चुड़ैलों की

  

तरह कीमतें काली दुकानों पर खड़ी रहती हैं' का इस्तेमाल है। हमें सचेत होकर


ऐसे लफ्ज़ों से बचना होगा। 'काला धन' जैसी कुछ बातें तुरंत नहीं हटेंगी, पर हो


 सकता है भविष्य में बेहतर विकल्प निकल आएँ। अंग्रेज़ी में यह कोशिश बेहतर


 है, क्योंकि सारी दुनिया के तरक्की पसंद लोग इस पर सोचते हैं। हमारे समाज


 और यहाँ के बुद्धिजीवी अभी तक सामंती मूल्यों की जकड़ में हैं, इसलिए यहाँ 


 लोगों में यह एहसास कम है कि हमारी ज़बानों में ऐसे बदलाव होने चाहिए।" 




मुझे पता है कि इन पंक्तियों में आक्षेप है। कोई कह सकता है कि इसमें दर्प है,


हालाँकि मेरा मक़सद महज सवाल उठाना है।

 


मैंने पिछले सालों में कई दोस्तों को यह बात कही है कि अली सरदार जाफरी की

 

'बदशक्ल चुड़ैलों' वाली लाइन हमें नहीं पढ़नी चाहिए। क्या हम तुलसी की 'ढोल


 गँवार शूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी' बिना आलोचना के पढ़ते हैं


साहित्यिक और ऐतिहासिक नैतिकता का तकाजा है कि हम लिखे हुए को मिटा

 

नहीं सकते, पर सीता या शंबूक की महिमा पर कहते हुए एक ही साँस में ताड़ना के


 अधिकारी तो नहीं कह सकते! तो क्या किया जाए। या तो 'बदशक्ल चुड़ैलों'


पढ़ते हुए आलोचनात्मक टिप्पणी साथ में हो, या इसे अपने मक़सद मुताबिक इस


 लाइन को छोड़कर बाक़ी गीत पढ़ा जाए, या अली सरदार जाफरी से माफी माँगते


 हुए इसकी जगह कोई और लफ्ज़ रखे जाएँ।


 

सचमुच मैं नहीं जानता कि क्या बिल्कुल सही कदम होगा, पर यह समझता हूँ कि


'बदशक्ल चुड़ैलों' लिखते हुए अली सरदार जाफरी अपनी पीढ़ी की सीमाओं में 


बँधे थे। कोई भी महान रचनाकार अपने वक्त की सभी सीमाओं को तोड़ पाए –

 

ऐसी माँग ग़लत है। पर क्या हम जो उस वक्त में नहीं हैं, हमें इस पर सोचना नहीं


 चाहिए कि क्या सही और क्या ग़लत है? दो साल पहले पाकिस्तान की कुछ स्त्री-


अभिनेताओं ने ‘चुड़ैल’ सीरीज़ की फिल्म बनाई थी, जहाँ चुड़ैल लफ्ज़ को


 प्रतिरोधकी तरह इस्तेमाल किया गया है, ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका के काले


 लोगों ने साठ के दशक में 'ब्लैक इज़ ब्यूटीफुल' आंदोलन खड़ा किया था।






वेदी का गाया बार-बार सुनने को मन करता है। पर मैं हताश हूँ कि मेरी आपत्ति को

  

गंभीरता से नहीं लिया गया है। खास तौर पर तरक्कीपसंद दोस्तों में इस सवाल पर


 उदासीनता है।