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बाकी हर ओर अँधेरा

होली की पूर्व संध्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुआ। बड़ी दिक्कतें आईं। वैसी ही जैसी प्रत्यक्षा ने अपने चिट्ठे में बतलाई हैं। मैंने शुभेंदु से गुजारिश के उसे मनवा लिया था कि वह हमारे लिए एक शाम दे दे। उसका गायन आयोजित करने में मैं बड़ा परेशान रहता हूँ, क्योंकि भले ही दुनिया के सभी देशों में उसके कार्यक्रम हुए हैं, और भले ही जब शुभा मुद्गल को कोई चार लोग जानते थे, तब दोनों ने एकसाथ जनवादी गीतों का कैसेट रेकार्ड किया था, पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से बंदे ने गायन को धंधा नहीं बनाया है। और गायन जिनका धंधा है, जो हर दूसरे दिन अखबारों में छाए होते हैं, ऐसे शास्त्रीय़ संगीतकारों को भी जब युवा पीढ़ी बड़ी मुशकिल से झेलती है, तो निहायत ही अपने दोस्तों तक सीमित गायक, जो अन्यथा वैज्ञानिक है, ऐसे गायक को कौन सुनेगा। खास तौर पर जब उनके अपने छम्मा छम्मा 'क्लासिकल सोलो (!)' नृत्य के कार्यक्रमों की लड़ी उसके बाद होनी हो। इसलिए आयोजन में मेरा वक्त, ऊर्जा, पैसा सबकुछ जाया होता है। इसबार मुझे समझाया गया था कि यहाँ लोकतांत्रिक ढंग से सबकुछ होता है और छात्रों के आयोजन में मैं टाँग न अड़ाऊँ। तो भई हुआ यह कि समय से डेढ़ घंटा लेट और डेढ़ ही घंटा कुल गाकर शुभेंदु को रुकना पड़ा। माइक अच्छा नहीं था, फिर भी मजा आया। रंग-ए-बहार के मिजाज में पहले छोटा खयाल रसिया मैं जाऊँ न, फिर बहार राग में खुसरो का सकल बन फूल रही सरसो, ठुमरी ब्रिज में गोपाल होली खेलन और आखिर में कबीर का साईं रंग डारा मोरा सत्गुरु महाराज! आ हा हा! खुले मैदान में दखन के पठारों की ठंडी हवाएं, आसमान में पूरा चाँद और रंग-ए-बहार की मौशिकी! कोई सौएक लोग थे। बाकी पाँच सौ का हुजूम हमारे जाने के बाद आया जब क्लासिकल सोलो नृत्य की घोषणा के बाद छम्मा छम्मा शुरु हुआ। चलो हम भी कभी बेवकूफ हुआ करते थे। क्यों प्रत्यक्षा!

बाद में सबको विदा कर आधी रात पर मैं इंदिरानगर से लौट रहा था कि एक अद्भुत दृश्य देखा। ऐसा बचपन में देखा है कहाँ कब याद नहीं पर एकाधिक बार देखा है। संभवतः छत्तीसगढ़ से आए मजदूर थे। सड़क के किनारे झुग्गियों के पास मर्द गोल बैठे हुए और औरतें गोलाकार वृत्त में हल्के लय में झूम झूम कर नाचती हुईं। वे दो कदम आगे की ओर बढ़ कर झुकतीं और हाथों पर हाथ जोड़कर हल्की सी तालियाँ बजातीं, दूसरे दो कदमों पर कमर लचकाती हुईं पीछे की ओर उठतीं। चाँद बिल्कुल ऊपर था, बाकी हर ओर अँधेरा, और एकबार मुझे लगा कि मैं सचमुच जैसे स्वर्ग में हूँ। पर मैं चलता चला जैसे मेरे रुकने से वह सुंदर नष्ट हो जाता। उनकी गरीबी का खयाल कर अंदर से दर्द की
एक टीस उठी।

बाकी हर ओर अँधेरा।

होली मैं वैसे भी नई जगह में क्या खेलता और चूँकि अगले दिन भाषण देना था और बिल गेट्स के पावर प्वाइंट से मुझे चिढ़ है, इसलिए लेटेख और बीमर का इस्तेमाल कर पी डी एफ में विषय-वस्तु तैयार करने में सारा दिन लगा दिया।

बहुत पहले कभी होली पर कविता लिखी थी, अप्रकाशित हैः

होली है

भरी बहार सुबह धूप
धूप के सीने में छिपे ओ तारों नक्षत्रों
फागुन रस में डूबे हम
बँधे रंग तरंग
काँपते हमारे अंग।

छिपे छिपे हमें देखो
सृष्टि के ओ जीव निर्जीवों
भरपूर आज हमारा उल्लास
खिलखिलाती हमारी कामिनियाँ
कार्तिक गले मिल रहे
दिलों में पक्षी गाते सा रा सा रा रा।

रंग बिरंगे पंख पसारे
उड़ उड़ हम गोप गोपियाँ
ढूँढते किस किसन को
वह पागल
हर सूरदास रसखान से छिपा
भटका राधा की बौछार में

होली है, सा रा सा रा रा, होली है।

(१९९२)

शुभेंदु ने जो ठुमरी गाई, उसमें देर तक गोपाल होली खेलते रहे, राधा याद नहीं आई या नहीं, युवाओं की यह भी तो प्रोब्लेम है न!

Comments

Anonymous said…
Again it is "eats, shoots and leaves!" But this is not poetry. If this
is what you meant you should have put commas before and after याद
नहीं, or better still M-dashes. I asked a Bihari student (and just
now, Chintu) to read it and they too think there is a problem. Boss,
the inflexion of voice deos not exist in script!

But if you insist that no punctuation is necessary then this may be
better Pl note the semicolon):
शुभेंदु ने जो ठुमरी गाई, उसमें देर तक गोपाल होली खेलते रहे; याद नहीं
राधा आई या नहीं, युवाओं की यह भी तो प्रोब्लेम है न!
I think this way it is clear that मुझे is implied before याद नहीं. As
it is, राधा could be the subject and that is why there is confusion.

Any way, I don't think you'll agree!
Anonymous said…
Correction:

As it is, कृष्ण could be the subject (उसे राधा याद नहीं आई) and that is why there is confusion.
Pratyaksha said…
एक बार स्पिक मैके के कार्यक्रम में गये थे. डीपीएस पटना के खुले प्रांगण में राजन साजन मिश्रा, बिरजू महाराज, शास्वती सेन,छाया गांगुली, कई और भी कलाकार थे.
रात लौट्ते करीब एक बज रहा होगा, रास्ते के एक तरफ एक छोटा सा तालाब और उसमें ढेरों कमल फूल. चाँदनी रात थी,निशब्द अँधकार में संगीत में डूबा मन तब तक था. लगा देवलोक है

आपका लेख पढकर वो लम्हा फिर याद आया
Pratyaksha said…
एक हाइकू लिखा था उस पल को याद करते हुये
कमल दल
खिल गया जल में
देवता हँसे
प्रत्यक्षा,
क्या बात! धन्यवाद!

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