विज्ञान की सामान्य समझ और मानविकी विषयों में विश्व-दृष्टि का सवाल
(पिछले महीने उदयपुर में दिया व्याख्यान। लेख के कुछ हिस्से पहले लिखे गए व्याख्यानों में से लिए गए हैं)
यह कार्यशाला मानव-विज्ञान या समाज-विज्ञान पढ़ने-लिखने पर है। सुधा जी ने स्नेह-वश बुला लिया और मुझे विज्ञान पर ही बातें करने को कहा। जमाना है कि हर दिन किसी नई टेक्नोलोजी की बात होती है और ज्यादातर लोगों को टेक्नोलोजी में ही विज्ञान दिखता है। इन दिनों कहना मुश्किल होता जा रहा है कि विज्ञान और टेक्नोलोजी के बीच लकीर है कि नहीं। जमाने की खबर रखना इंसान की फितरत है। निजी और सामाजिक दायरों में इंसान की फितरत को समझना समाज-विज्ञान है। आजकल इसकी जगह दो सदी पुराना पद ह्यूमन साइंसेस या मानव-विज्ञान आमफ़हम हो गया है। समाज-विज्ञान पर बात पूरी नहीं होती अगर साथ में विज्ञान या कुदरत के साइंस पर बात न हो। पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में साइंस-टेक्नोलोजी-स्टडीज़ एक अहम डिसिप्लीन या विषय के रूप में उभरा है। यानी मेरी घुसपैठ लावाजिब नहीं है।
हर कहीं समाज की घुसपैठ
अक्सर विज्ञान पर बात करते हुए मैं एक कविता से शुरूआत करता हूँ; 25 साल पहले कैलिफोर्निया इंस्टीटिउट ऑफ टेक्नोलोजी के जीओ-फिज़िक्स के एक प्रो० ऐंडरसन ने यह कविता लिखी थी। कायनात की शुरूआत से आज तक के लंबे सफर पर क्या समझ बनी है, कविता उस पर है। पहले कुछ भी नहीं था, देश-काल की कोई धारणा नहीं थी, फिर बड़ा धमाका हुआ, खरबों सालों तक बने कण, अणु-परमाणु, फिर तारे और ग्रह, धरती पर जीवन, जीव-जंतु, आदि आदि। आखिरी चार लाइनें हैं - Look at Earth crust oceans air Life Cool!
a trivial speck, an afterthought / But all we got. / So here we are, simple and meek,
Now how do we get through the rest of the week?1
देखो यह धरती इसकी परतें, समंदर, हवा, जीवन, है न बढ़िया!/महज धूल के कण सा, जैसे भूले से बन गया, यही है हमारे पास /हम, नादां और लाचार / अब कैसे गुज़ारें आगे के दिन चार?
सब कुछ जान लेने के बाद भी सवाल कि हम अगले कुछ दिन कैसे गुजारें। सवाल विज्ञान का भी है और विज्ञान से इतर ह्यूमन- साइंसेस या मानविकी का भी है। अगले दिनों में मौसम कैसा होगा, सतही तौर पर यह सवाल विज्ञान का है। कुदरत को लेकर ऐसे कई सवाल हो सकते हैं, मसलन क्या अगले चार दिनों में बाज़ार में आम की पहली फसल की आमद होगी, वगैरह। मौसम मुताबिक हम गर्म या हल्के कपड़े पहनें या छतरी या बरसाती साथ रखें, यह भी विज्ञान तय कर सकता है। पर वो कपड़े कैसे हों, सस्ते या महँगे, छतरी देखने में कैसी हो, आम के बाग़ीचे कितनी दूर हैं, ये कुदरत के सवाल नहीं हैं। विज्ञान और मानविकी के गूढ़ रिश्तों की शुरूआत यहीं से होती है कि दरअसल हमारे तसव्वुर में कुदरत को लेकर उठ रहे सवालों में हर कहीं इंसान की या समाज की घुसपैठ है और इन सवालों को पूरी तरह से वैज्ञानिक या विज्ञान से इतर कहकर नहीं देखा जा सकता।
सबसे अहम चेतना
विज्ञान में अनसुलझे सवालों में सबसे अहम चेतना के सवाल हैं। गैर-कुदरती समझ, ज़हनियत आदि अलग-अलग विषयों में बुनियादी अहम सवाल है - चेतना क्या है। बेजान चीज़ के गुणधर्म क्या होंगे, यह पूरी तरह से वैज्ञानिक विषय है, पर चेतन जिस्म क्या है, चेतना जिस्म से अलग है या उसी का हिस्सा है, ये ऐसे जटिल सवाल हैं, जिनका हल निकट भविष्य में होता नहीं दिख रहा। इंसान में चेतना का होना मानविकी और विज्ञान में पहला महत्वपूर्ण फ़र्क है। सामाजिक वजूद और हरकतें निजी और सामूहिक आत्म-चेतना से उभरते हैं। किसी और इंसान के बारे में जान पाना मुश्किल है कि उसके किसी फैसले के पीछे मक़सद क्या है। इंसानी रिश्तों में तमाम किस्म के दाँव-पेंच चलते रहते हैं। इस वजह से इंसान के रिश्तों और उसके निजी या सामाजिक मामलों का अध्ययन जटिल हो जाता है। जो कुदरती है, उसके ऐसे सार्वभौमिक नियम बना पाना मुमकिन है जो भौतिक जगत यानी पदार्थों या प्राणियों के बारे में समझ दे सकें। इंसान की फितरत के बारे में सार्वभौमिक नियम बना पाना नामुमकिन है। हम अलग-अलग वजहों से अलग-अलग तरह से पेश आते हैं। दार्शनिक ए जे आयर ने एक रोचक मिसाल दी है। किसी शख्स के हाथ शराब का जाम है - वह जाम उठाता है और पीता है। क्यों ऐसा करता है? इसकी कई वजहें हो सकती हैं। हो सकता है कि वह महज सामाजिक कारणों से शराब पी रहा है। या वह ईसाई हो या किसी ऐसे मजहब का हो जो धार्मिक रस्मों में शराब पीते हैं या कि वह बस अपनी खुशी के लिए पी रहा है, या वह किसी को फँसाने की कोशिश कर रहा है, या शराब पीकर उसका हौसला बढ़ जाता हो, वह जश्न मना रहा हो, या हो सकता है कि उसे प्यास लगी हो, या वह किसी के प्रति अपनी वफादारी दिखा रहा हो। हो सकता है कि उसे कोई परेशानी हो या वह बस शराब का स्वाद चख कर देख रहा हो। या उसे कोई बीमारी हो या उसके आशिक या माशूक ने उससे नाता तोड़ लिया हो। किसी के इरादों के बारे में पता हो तभी हम उसके उठाए कदम को समझ सकते हैं। या हम सामाजिक तौर-तरीकों या परंपराओं आदि की समझ के बाद इसे समझ सकते हैं। या इन दोनों को मिलाकर हमारी कोई समझ बन सकती है। दूसरी ओर सोचें कि नदी में हिरणी गर्दन झुका कर पानी पी रही है। वह ऐसा क्यों कर रही है? इसलिए कि उसे प्यास लगी है। यह महज जिस्मानी जरूरत है।
समाज विज्ञान की शुरूआत चेतन को अचेतन से अलग करते हुए होती है। आत्म-चेतना का न होना एक तरह का एकांगी या एक-आयामी वजूद है; जो सचेत है, उसे सर्वांगीण रूप में पकड़ पाना चुनौतियों से भरा है। कुछ दशकों पहले तक होश, नीम-बेहोशी और बेहोशी पर एक साथ बातें मुख्यत: फलसफे के दायरे में ही होती थीं। अदीबों-कलाकारों ने इन बातों को अकादमिक दायरों से बाहर लाने की कोशिशें की हैं। यह लिखते हुए रे ब्रैडबरी या स्टानिस्वाव्ह लेम के उपन्यास या आंद्रे तारकोव्स्की की फिल्में याद आ रही हैं, जो विज्ञान की सीमाएँ लाँघकर ऐसी कोशिशें करती हैं। आज समाज विज्ञान पर बातचीत में विज्ञान की समझ का होना लाजिम है, महज इसलिए नहीं कि समाज विज्ञान में वैज्ञानिक पद्धतियों का इस्तेमाल हो रहा है, बल्कि इसलिए कि कई बुनियादी सवालों में कुदरत के सच और इंसानी-तंज़ीमों की समझ में एक पुल सा बनता जा रहा है। जाने-अंजाने वैज्ञानिकों को सामाजिकता और सभ्यता का बोझ ढोना पड़ता है और दूसरी बात यह कि ज़हनियत के साइंस का इल्म छलाँगें मारता बढ़ रहा है। कहते हैं कि जब तारकोव्स्की ने 'सोलारिस' फिल्म बनाई तो स्तानिस्वाब्ह लेम उनसे बड़े खफा थे। वजह यह थी कि जहाँ लेम ने धरती से दूर सोलारिस ग्रह में इंसान जैसा या इंसान से भी ज्यादा आलिम या समझदार एक जीव, जो दरअसल एक गाढ़ा मुरब्बे जैसे तरल से बना समंदर है, उसके साथ इंसान की मुठभेड़ और उससे निकली जटिलताओं पर लिखा था, तारकोव्स्की ने इसी ऊँची समझ वाले जीव का इस्तेमाल इंसानों के आपसी रिश्तों की जटिलताओं को परखने के लिए किया। यानी जो अचेतन दिखता है, जो मुरब्बे का समंदर है, और जो अवचेतन इंसान में है, फिल्म में इन में चेतना स्थापित कर रिश्तों और सामाजिकता की परख की गई, जब कि लेम के सवाल जज़्बाती रिश्तों पर नहीं, बल्कि ठोस मुठभेड़ के थे। ब्रैडबरी की कहानी 'अगस्त 2026 : और आएँगी हल्की फुहारें' कहानी में कोई ज़िंदा इंसान नहीं है, पर इंसान केंद्र में है। शीर्षक सेरा टीसडेल की कविता से लिया गया है, जो पहली जंगे-अज़ीम के बाद लिखी गई थी। कविता में कहा गया है कि नाभिकीय जंग की विनाशलीला के बाद भी धरती रहेगी, वक्त पर बहार आएगी, पर वह हम सब से अंजान होगी। यानी बहार का जो मतलब इंसान के वजूद से जुड़ा है, वह नहीं रहेगा। महबूबों पर फूल बरसना या कि किसी किसान का पकी फसल की कटाई के लिए तैयार होना, यह सब कुछ नहीं होगा। बहरहाल, एक सोच है कि मानविकी को विज्ञान बनाने के लिए इंसान की हर हरकत में से सारे सामाजिक पहलुओं को निकाल बाहर करना जरूरी है, तभी हम इंसान की फितरत के नियमों को समझ सकते हैं। समाज में पलते हुए रस्मो-रिवाज़ की समझ हमें होती है, पर समाज को अलग कर हम इन्हें कैसे समझें? हमें अलग किस्म के लफ्ज़ों की ज़रूरत है या हम लफ्ज़ों के जो मायने हैं उनको अपने आप समझ जाते हैं?
ज़बान
हर समाज का अपना परिवेश और अपनी ज़बान होती है, जिसमें इंसान की हरकतें मानीख़ेज़ बनती हैं। मसलन एक आम लफ्ज़ 'सपना' लें। शब्दकोश में इसके कई मायने दिखेंगे, जो सार्वभौमिक हैं, जैसे सोते हुए सपना देखना, दिवास्वप्न, मार्टिन लूथर किंग की तकरीर I have a dream, उम्मीदें और आकांक्षाएँ आदि। पर गोरख पांडे सोहर गीत की तर्ज़ पर लिखते हैं - 'सपन मनभावन हो सखिया ...’; तो हम सखियों के बीच संवाद से जानते हैं प्रवास में गए मजदूर अपने पीछे जिस परिवार को छोड़ गए हैं, उनका सपना वह इंकलाब है, '... जब बइरी पइसवा के रजवा मिटइलीं, मिलल मोर साजन हो सखिया'। पाश 'सभतों खतरनाक हुन्दा है साड्डे सपनेयां दा मर जाना' कहते हैं, कुमार विकल की कविता की स्त्री ऐसे 'स्वप्न-घर' की माँग रखती है, जहाँ हिंसा न हो; लैंग्स्टन ह्यूज़ 1949, यानी अमेरिका के नस्लवाद विरोधी नागरिक अधिकार आंदोलनों के डेढ़ दशक पहले, दरकिनार किए गए सपने पर सवाल करते हैं कि क्या वह 'धूप में रखे किसमिस के दाने की तरह सूख जाता है' या तरह-तरह के अलग विकल्पों में से गुजरते हुए आखिर विस्फोट बनकर फूटता है। धूप में रखे किसमिस का दाना ब्लैक अमेरिका के लिए ऐसा अहम मुहावरा बन गया कि इस पर लोरेन हैन्सबरी ने लंबा नाटक लिखा, जो अब तक हजारों बार खेला गया है। एक लफ्ज़ हमारे वजूद से जुड़ा कितना बड़ा संसार होता है, हम इस पर संजीदगी से कम ही सोचते हैं। अब वैज्ञानिक प्रयोगों में fmri मापन के जरिए मादरी ज़बान की अहमियत पर बेहतर समझ बनी है, विड़ंबना यह कि हम अंग्रेज़ी में पढ़कर इस पर अंग्रेज़ी में चर्चा करते हैं।
भाषा का संसार और बनावटी हिन्दी
बचपन में जैसी हिन्दी मैंने सीखी, वह ज़बरन गढ़ी जा रही संस्कृतनिष्ठ शब्दावली थी। यह महज वह नहीं थी, जिसका निराला जैसे कवियों ने अपनी कारीगरी में इस्तेमाल किया। मसलन कविता 'संध्या-सुंदरी' - दिवसावसान का समय / मेघमय आसमान से उतर रही है / वह संध्या-सुंदरी परी-सी / धीरे धीरे धीरे / ... / हँसता है तो केवल तारा एक / गुँथा हुआ उन घुँघराले काले बालों से / हृदय-राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।' इस के बरक्स परंपरा के ठेकेदारों ने लोकभाषाओं को खत्म कर बनावटी ज़बान लोगों पर थोपी। निराला ने कहा है - 'भाषा का संसार के साथ घनिष्ट संबंध है ... मनुष्यों की भाँति भाषा में भी प्राण होते हैं। मनुष्य बोलता है या भाषा बोलती है, इसका निर्णय करना कठिन काम है। जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है, उनमें भाषा को ही सबसे सूक्ष्म कहा जा सकता है, क्योंकि इसका आकाश-तत्व से संबंध है, और प्राण आकाशतत्व का ही आध्यात्मिक रूप है।' उन्हीं दिनों अमेरिका में एडवर्ड सापिर और उनके शागिर्द बेंजामिन ह्वोर्फ ने कहा था, कि 'भाषा के अलावा हमारे वजूद में और कुछ मायने नहीं रखता; जिसे हम दुनिया मानते हैं, उसे भाषा ही हमारे लिए बनाती है। हमारी विश्व-दृष्टि, जीवन के प्रति हमारा नज़रिया, इनके साथ भाषा का गहरा संबंध है। हम अपनी बात को औरों तक पहुँचाने, सही-ग़लत के बारे में अपनी समझ साझा करने के लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं।' भाषा जैविक विकास का सबसे अहम पहलू है। सदी के अंत में मशहूर मनोवैज्ञानिक जाक्स लाकान की सबसे ज्यादा पढ़ी गई उक्ति है - ‘द अनकांशस इज़ स्ट्क्चर्ड लाइक अ लैंग्वेज’। अगर अचेतन और अवचेतन, और भाषा के बीच ऐसा गहरा संबंध है तो निश्चित ही मादरी ज़बान का महत्व हमारी आम समझ से कहीं ज्यादा है।
निराला ने 'भाषा की गति और हिन्दी की शैली' लेख में लिखा - ‘हिन्दी के पत्रों या पुस्तकों में जो भाषा लिखी जाती है, वह हमने उनके सम्पादकों और लेखकों को भी बोलते नहीं सुना ... यह निर्विवाद है कि ऐसी संस्कृत-प्रचुर हिन्दी न तो किसी के मुँह से निकली है और न वह किसी की मादरी ज़बान है।' इसके ठीक पहले वे 'प्रचलित शब्दों द्वारा उर्दू का नवीन संस्कार कर हिन्दी का उद्धार किया गया है' कहते हैं। मुक्तिबोध के गद्य में निराला की सोच का विस्तार है। 1952 में 'नया ख़ून' पत्रिका में उनके लेख- ‘अंग्रेज़ी जूते में हिन्दी को फिट करते ये भाषाई रहनुमा' में एक नाराज़गी भरी कातर चीख है। एक 'पथरीली चुप्पी और जड़ीभूत उकताहट' का जिक्र है, जो विस्फोट बन कर फूटता रहा है। सौ साल पहले थोपी गई भाषा मनुष्य के सामान्य विकास में बाधा पहुँचाती है और कई तरह की विकृतियाँ पैदा करती है।
भाषा के बारे में बुनियादी बात संज्ञान पर होनी चाहिए
भाषा के बारे में पहली और बुनियादी बात संज्ञान यानी कॉग्निशन पर होनी चाहिए। कुदरती तौर पर इंसान की काबिलियत को पूरी तरह खिल पाने के लिए जिन प्राथमिक औजारों की ज़रूरत है, उनमें से भाषा अहम है। बात इस पर होनी चाहिए कि लोकभाषाओं की शब्दावली वापस मुख्यधारा की भाषाओं में कैसे लाई जाए। हम ऐसे सियासी खेल में फँस गए हैं कि 1952 में मुक्तिबोध की फ़िक्र के हल तो मिले नहीं, वे और गहराते चले हैं। उनके शब्द हैं - ‘सदियों से भारत में जो ... शब्दावली प्रचलित है, उसका तिरस्कार करना यह बतलाना है कि हम अपनी विरासत, अपनी परंपरा के प्रति मात्र संप्रदायवादी दृष्टि अपना रहे हैं, और 'भारतीय संस्कृति' के नाम पर संप्रदायवाद को न केवल जन्म दे रहे हैं, वरन् उसे लगातार बढ़ाते जा रहे हैं।' हिन्दी में ज्यादातर तकनीकी शब्द न केवल बनावटी हैं, बल्कि वे जटिल हैं। जटिलता धारणाओं की वजह से नहीं, शब्द के बनावटी होने से है। यूरोपी नवजागरण में पहला हमला भाषा पर हुआ था। धर्म और दर्शन की किताबों को जनता की भाषा में लिखने की माँग थी। हमारे यहाँ भी भक्ति-आंदोलन पंडितों की भाषा में नहीं हुआ - फरीद, वासवन्ना से लेकर कबीर, नानक, लालन तक यह हमेशा ही जनता की भाषा में हुआ था। मुक्तिबोध ने कहा था - ‘जो भारतीय संस्कृतिवादी, एक ओर, हिन्दी को दुरूह से दुरूह बनाने पर तुले हुए हैं, वे दुरूह से दुरूह पारिभाषिक शब्दावली भी बनाते हैं।' बहरहाल, विज्ञान और मानविकी पर बात करें। ज़बान पर बाद में वापस लौटेंगे।
विज्ञान और सामाजिक विज्ञान
स्कूली किताबों में विज्ञान को सिलसिलेवार ज्ञान पाने का तरीका कहा जाता है। कोई इसे तर्क की बुनियाद पर मिला ज्ञान कहता है। जो प्रत्यक्ष दिख रहा है, वह सच होगा, ऐसा मान लेना स्वाभाविक है। पर साथ में क्या कुछ दिखने से छूट गया, वह दिख जाए तो जो पहले दिख रहा था, उस बारे में हमारा फैसला क्या होगा? हमें क्या दिखे, इस पर कोई रोक भी हो, इसकी कल्पना सहज नहीं है, पर गहराई से सोचने पर शंकाएँ ज़रूर होती हैं। तारकोव्स्की या सत्यजित राय जैसे उम्दा फिल्मकार और ब्रैडबरी या नबारुण भट्टाचार्य जैसे अदीब इन शंकाओं से हमारा सामना करवाते हैं। क्या तर्क वाक़ई हमें सत्य तक ले जाता है? सोलारिस के समंदर पर तीखी रेडियो-सक्रिय किरणें फेंकने पर वह वहाँ मौजूद इंसान के तसव्वुर में से ऐसी तस्वीरों को ज़िंदा कर उनके रूबरू रख देता है, जो उनके लिए बेइंतहा परेशानी का सबब बन जाती हैं। कहानी का किरदार क्रिस केल्विन धरती पर खुदकुशी कर चुकी अपनी पत्नी को वहाँ ज़िंदा देखता है। धरती पर पत्नी की खुदकुशी के लिए खुद की जिम्मेदारी के एहसास से परेशान क्रिस, सोलारिस में इस पत्नी के साथ जीने को मजबूर है, और आखिरकार यहाँ भी परेशान होकर वह उसे एकदिन अंतरिक्ष में उड़ा देता है - एक तरह से उसकी हत्या ही कर बैठता है। सवा सौ साल पहले एमिल दुर्ख़ाइम ने समाज-शास्त्र को विज्ञान का जामा पहनाते हुए आँकड़ों के जरिए आधुनिक काल में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट समुदायों में खुदकुशी पर यक़ीनी पड़ताल की थी। दुर्खाइम के मुताबिक खुदकुशी एक सामाजिक घटना है। सच समाज के लोगों से आज़ाद हैं, वह लोगों के द्वारा निजी तौर पर तैयार नहीं किए गए, बल्कि पूरा समाज उनको बनाता है। किसी इंसान द्वारा अपनी जान लेने के बाद भी समाज में खुदकुशी कायम रहती है। मसलन गांव से शहर की ओर आने पर जिस तरह के बदलाव ज़िंदगी में आते हैं, उनसे इंसान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इससे एक तरह का विराग (एनोमी) पैदा होता है जिससे कि काफी ग़फ़लत और मनोवैज्ञानिक हताशा उपजती है। अक्सर इसका नतीजा खुदकुशी होता है। यह निरपेक्ष सामाजिक सच है। माक्स व्हेबर ने इसके उलट हर शख्स की तफतीश पर जोर डालते हुए कहा कि खुदकुशी की कई वजहें हो सकती हैं। इंसान के अंदर घुस कर उसके कार्यों के अर्थ और निहित मक़सद समझने की परानुभूति (इम्पेथी) का होना ज़रूरी है। इसे फेर्सटेहेन (verstehen) पोज़ीशन कहा जाता है जिसका मतलब है समझना या समझ बनाना। दुर्खाइम समूचे तथ्यों को और आंकड़ों का विश्लेषण कर अपने नतीजों पर पहुंचना चाहता था, जबकि व्हेबर का कहना था कि अगर आप आस्थाओं और लोगों की भावनाओं को न समझें, तो आप बात समझ ही नहीं सकते। एक और तरीके से कहें तो दुर्खाइम ने बाहर से देखने की पैरवी की यानी आप जिसका अध्ययन कर रहे हैं उससे दूर रहें और उसने इसी को एक निरपेक्ष तरीका माना। व्हेबर ने कहा कि आपको भीतर जाना पड़ेगा और कुछ हद तक समाज के साथ गड्डमड्ड होकर चीजों को समझना पड़ेगा। जाहिर है कि ये बातें सतही तौर पर आसान-सी और समान्य वैज्ञानिक जाँच-परख लायक लगती हैं, वे कहीं ज्यादा जटिल हैं।
विज्ञान हर संकट को संजीदा और विनम्र होकर देखने को कहता है
विज्ञान कायनात की विशालता और हमारे अपने अंदर की जिस्मानी और रूहानी ख़ला के प्रति सचेत करता है, ताकि हम हर संकट को संजीदा और विनम्र होकर देखें। अचेतन का विज्ञान एक नतीजे पर ले जाता है। जबकि बाहोश इंसान क्यों क्या कर रहा है, कौन कह सकता है? ज़हन में सच्चाई का महज एक नक्शा भर होता है। कोई ज़रूरी नहीं कि यह हमेशा बिल्कुल वही हो, जो सच्चाई है। इतिहास पर तो यह बात गंभीर विवादों तक चली जाती है। जाहिर है कि इतिहास पर हर अलग नज़रिया सही नहीं हो सकता। हावर्ड ज़िन ने अपनी किताब, 'पीपल्स हिस्ट्री ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स' के पहले अध्याय में इस पर विस्तार से लिखा है - “यह सच है कि हर इतिहास लेखक को कुछ तथ्यों को नज़रअंदाज़ करना पड़ता है, जैसे एक नक्शाकार को पृथ्वी की आकृति को कागज़ पर चपटा दिखलाना पड़ता है और फिर उस चपटे चित्र से आवश्यक भौगोलिक सूचनाएँ चुननी पड़ती हैं ... चयन या सरलीकरण ... पर वज़न डालना गलत नहीं है। पर नक्शाकार को एक तकनीकी सीमा की वजह से नक्शे को विकृत करना पड़ता है और इसे सभी नक्शा देखने वाले समझते हैं। इतिहास लेखकों द्वारा किया गया तोड़-मरोड़ तकनीकी कारणों से नहीं, सैद्धांतिक कारणों से होता है। ऐसी दुनिया में, जहाँ अलग-अलग ताकतें काम कर रही हों, यह तोड़-मरोड़ चाहे-अनचाहे किसी एक स्वार्थ का, आर्थिक या राजनैतिक या खास जाति या लिंग, का समर्थन करता है। ... ये सैद्धांतिक स्वार्थ, इतने खुले रूप में सामने नहीं आते, जैसे कि नक्शाकार का नक्शे को अलग ढंग से दिखलाने का तकनीकी कारण स्वतः स्पष्ट हो जाता है...।" बीसवीं सदी की शुरुआत में बेल्जियम के सर्रीयल चित्रकार रेने मार्गरीट ने एक तस्वीर बनाई, जिसमें वह पाइप दिखता है, जिसे बुद्धिजीवी दिखने की कोशिश में लगे लोग हमेशा सुलगाते रहते हैं, और उसके नीचे लिख दिया - यह पाइप नहीं है। तो वह क्या है? सही जवाब यह है कि वह पाइप नहीं, बल्कि पाइप की तस्वीर है। तस्वीर का शीर्षक था - 'तस्वीरों का धोखा'। रिचर्ड फाइनमैन (नोबेल विजेता 1965) का कहना है – 'एक्सपर्ट लोगों की अज्ञानता को देख पाना ही विज्ञान है।' एक्सपर्ट अज्ञानी कैसे हो सकता है? फाइनमैन सवाल करते रहने की ताकत की ओर संकेत कर रहे थे।
'जो देखा उसे माना' की जगह 'जो माना वही देखा' का संकट
दरअसल हम जिसे सत्य ज्ञान मानते हैं, वह अक्सर हमारी आस्था मात्र होता है। 'जो देखा उसे माना', यह प्रत्यक्ष ज्ञान का आधार है, पर अक्सर इसकी जगह 'जो माना वही देखा' हम पर हावी हो जाता है। हमारा 'अवचेतन' और हमारी 'अपेक्षाएँ' ग़लत जानकारी की ओर ले जाती हैं। दोनों ही हमारी पृष्ठभूमि और पूर्वग्रहों पर निर्भर हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब यंत्रों ने भी धोखा दिया है। मसलन 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों ने सूरज और बुध के बीच एक और ग्रह 'वल्कन' ढूँढ लिया। तीस साल तक इसे मानते रहने के बाद यह साबित हुआ कि यह भ्रम था। विज्ञान के इतिहास में ऐसी मिसालें भरी हुई हैं। आइन्स्टाइन के बारे में एक रोचक वाकया है। आइन्स्टाइन ने अपने सिद्धांतों में क्वांटम यानी ऊर्जा के एकमुश्त लेन-देन के सिद्धांत का इस्तेमाल किया, पर वे क्वांटम गतिकी को नहीं मानते थे। क्वांटम गतिकी में एक बुनियादी बात यह है कि हम कणों की स्थिति के बारे में संभाविता तो बतला सकते हैं, पर मापन के पहले उनकी सही स्थिति नहीं बतला सकते हैं। आइन्स्टाइन का कहना था कि खुदा जुआरी नहीं हो सकता है, वह जुआ नहीं खेलता है, इसलिए भौतिक जगत संभाविता पर आधारित नहीं हो सकता है। बीसवीं सदी के बीच के दशकों तक आइन्स्टाइन क्वांटम गतिकी के पक्ष में खड़े नील्स बोर और दूसरे वैज्ञानिकों के साथ झगड़ते रहे। वे नए-नए सवाल बनाकर उनको भेजते थे। बोर और उनके सहयोगी इन सवालों का हल उन्हें भेजते रहे। कभी-कभार ख़तूत में आपसी नोंकझोंक दिखती थी। नील्स बोर ने आइन्स्टाइन को एक ख़त में लिखा - 'आप सोच नहीं रहे, आप महज तर्क गढ़ रहे हैं।' यह बड़ी अजीब टिप्पणी है। क्या हम तर्क गढ़ते हुए सोचते नहीं हैं? जाहिर है, बोर आइन्स्टाइन को कहना चाह रहे थे कि तर्कशीलता की सीमाएँ होती हैं। अंग्रेज़ लेखक जी. के. चेस्टरटन का बयान है - 'युक्ति खो बैठने पर कोई पागल नहीं हो जाता। पागल वह होता है जिसके पास युक्ति के अलावा कुछ बचा ही नहीं होता।'लब्बोलुबाब यह कि सच क्या है यह जानना आसान नहीं है। जो सच दिखता है वह अक्सर इस पर निर्भर करता है कि देखने वाला कौन है, वह किस समाज, वर्ग, जाति, धर्म, जेंडर का है। हर वह बात जो हम सच मानते हैं, सचमुच सत्य हो, कोई ज़रूरी नहीं। ज्ञान पाने के दीगर और तरीकों के बनिस्बत विज्ञान के जरिए हम सत्य के और ज्यादा करीब जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं। ज्ञान की निश्चितता पर सवाल उठते हैं और अगर विज्ञान को कुदरत के रंग-ढंग पर इंसान की पकड़ मान लें, और तो जाहिर है कि विज्ञान पर भी सवाल उठेंगे।
वैज्ञानिक सोच और विज्ञान
एक अनपढ़ आदमी में वैज्ञानिक सोच हो सकती है, पर वह वैज्ञानिक नहीं होता। विज्ञान से हमारा मतलब ऐसे बौद्धिक औजार, तरीके और जानकारियों से है, जिनका इस्तेमाल वैज्ञानिक करते हैं। ज्योतिर्विज्ञान जैसे विषय में ज्यादातर प्रयोग उन सितारों या ग्रहों पर नहीं होते, जिनकी जानकारी हमें लेनी होती है। समाज-विज्ञान में देशकाल के पैमाने सीमित हैं; इंसानी फितरत को समझने के लिए, 1 मिली मीटर से लेकर धरती से चाँद या सूरज की दूरी तक काफी हैं, और वक्त का पैमाना भी एक पल से लेकर कुछ करोड़ सालों से ज्यादा नहीं चाहिए। इंसानी फितरत की जटिलताएँ इतनी हैं कि ज्ञान की विधाओं में समाज विज्ञान या मानविकी किसी मायने में प्रकृति-विज्ञान से कम नहीं आँके जा सकते। फिर भी सूक्ष्म से विशाल तक विज्ञान की पहुँच किसी पर भी गहरा असर डालती है। विज्ञान से हमें ऐसी कई बातें पता चली हैं जो पहले सोची नहीं जा सकती थीं। सौ साल पहले कोई नहीं सोच सकता था कि धरती के दो छोरों पर मौजूद लोगों में आपस में बातचीत मुमकिन है। आज चाँद पर बैठा आदमी भी धरती में बैठे लोगों से दो-चार पल भर में बातें कर सकता है। दो सौ साल पहले किसने सोचा था कि हमारी प्रजाति बानर प्रजाति से निकली है? आज छोटे बच्चे यह बात स्कूलों में पढ़ते हैं।
अनुमान से सिद्धांत तक
अतीत में अनुमान यह था कि धरती कायनात के केंद्र में है और बाक़ी सभी ग्रह और तारे इसके चारों ओर घूमते हैं। धर्म के आधार पर सत्ता पर धाक जमाने वालों के लिए यह अच्छा औजार था क्योंकि इससे यह धारणा बनी कि इंसान खुदा का सबसे चहेता प्राणी है और इसलिए धरती एक खास जगह है, जिसके चारों ओर बाक़ी कायनात घूमती है। पर आकाश को देखने वालों में धीरे-धीरे यह समझ बनी कि अगर बाक़ी ग्रह धरती के चारों ओर घूमें तो हिसाब सही बैठता नहीं है। जैसे शुक्र ग्रह, जिसे हम साल भर देख सकते हैं, वह आकार में घटता-बढ़ता दिखता है। यानी धरती को केंद्र में रखकर घूमने का मॉडल काम नहीं कर सकता। ऐसी कई बातों को दर्ज़ किया गया और नया अनुमान सामने आया कि धरती और शुक्र जैसे ग्रह सूरज के चारों ओर घूमते हैं। दक्षिण एशिया, चीन, ईराक वगैरह मुल्कों में से होते हुए ये बातें यूरोप पहुँचीं और अंतत: पंद्रहवीं सदी में कोपरनिकस ने नया मॉडल पेश किया। गैलीलियो ने अपनी दूरबीन से और कई अवलोकन दर्ज़ किए, केप्लर ने ग्रहों के घूमने के नियम लिखे और सतरहवीं सदी में न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का इस्तेमाल कर इसे वैज्ञानिक सिद्धांत का जामा पहनाया। अनुमान से सिद्धांत तक के इस सफर में एक हजार साल से ज्यादा वक्त लगा; कमज़ोर सही, दूरबीन की टेक्नोलोजी काम आई; टाइको ब्राहे जैसे कुछ की जानें गईं (गैलीलियो खुद बमुश्किल बचे)। विज्ञान का हर इंकलाब कमोबेश ऐसा ही होता है, यानी अनुमान से सिद्धांत तक का सफर तय होता है, जिसमें बीच में दुहराए गए प्रयोगों जैसे पड़ाव आते हैं। जाँच से मिले आँकड़ों के मुताबिक किसी अनुमान को स्वीकार या खारिज किया जाता है। अवलोकन, अनुमान, प्रयोग, प्रयोगों में पाई जानकारी के आधार पर बनाए नियम और आखिर में सिद्धांत तक पहुँचने की एक शृंखला है। मसलन कोई भी चीज़ अणुओं-परमाणुओं की बनी है, और ये कण एक दूसरे से अलग विचरते हैं, इस धारणा को सिद्धांत बनने में, तक़रीबन दो हजार साल लंबा सफर है। सफर के अंत में आए डाल्टन के सिद्धांत को हम वैज्ञानिक सिद्धांत कहते हैं। इसके सौ साल बाद पदार्थ की संरचना के नए सिद्धांत सामने आ गए। पुराने सिद्धांत की सीमाओं को समझ कर निरंतर नए सिद्धांत का आना विज्ञान में लाजिम है।
विज्ञान की व्यावहारिक और दार्शनिक खासियतें
विज्ञान में सिर्फ गुणात्मक नहीं, परिमाणात्मक आँकड़े होने चाहिए। मानविकी में हम हमेशा परिमाण या मात्रा की बात नहीं करते। सत्यजित राय की 'पथेर पांचाली' या विभूतिभूषण के मूल लेखन की कला का कोई पैमाना नहीं हो सकता। समाज-विज्ञान या अर्थशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल हो, तो परिमाणात्मक मापन लाजिम होता है। इसलिए दुर्ख़ाइम की यक़ीनी पड़ताल को वैज्ञानिक तरीका कह सकते हैं। एक दार्शनिक पेंच वैज्ञानिक यथार्थ (scientific realism) और इसके उलट यथार्थ-विरोध (anti-realism) या यांत्रिकता (instrumentalism) के बीच बहस का है। यथार्थवादी मानते हैं कि विज्ञान का मक़सद दुनिया के बारे में सही जानकारी पाना है। यथार्थ-विरोधी मानते हैं कि विज्ञान 'दृश्य-जगत' पर सही जानकारी देता है, यानी दुनिया का सिर्फ वह हिस्सा, जिसे सीधे देखा जा सकता है। बाक़ी जो 'अदृश्य' है, उस बारे में विज्ञान क्या कहता है, यह बेमानी है। सौ साल पहले वियना शहर में मोरित्ज़् श्लिक की अगुवाई में इकट्ठे हुए कुछ दार्शनिक लॉजिकल पॉज़िटिविस्ट कहलाते थे। इनकी कोशिशों से तर्क आधारित प्रत्यक्ष ज्ञान ही श्रेष्ठ या सच है, यह धारणा बढ़ी। पॉज़िटिविस्ट्स ने विज्ञान के इतिहास को नज़रअंदाज़ किया। उनका मानना था कि ऐतिहासिक घटनाएँ महज प्रासंगिक हैं और उनका विज्ञान की निरपेक्ष (objective) प्रक्रिया से कोई रिश्ता न था। खोज के पूर्वाभास में वैज्ञानिक जाने-अंजाने ऐसी कल्पनाएँ करते हैं, जिनका वैज्ञानिक पद्धति से कोई लेना-देना नहीं होता। पॉज़िटिविस्ट्स के मुताबिक हमें justification या तर्क-संगति के बारे में ही बात करनी चाहिए। केकुले ने 1865 में सपने में एक साँप को अपनी पूँछ काटते देखा। इससे उसे प्रेरणा मिली कि बेंज़ीन के अणु षड्कोण के चक्राकार आकार के होते हैं। यह उसकी खोज का ऐतिहासिक प्रसंग है। बेंज़ीन अणु के विज्ञान की कहानी उन प्रयोगों में है जिनसे षड्कोण आकार की पुष्टि हुई। पर कुछ सवालों का जवाब विज्ञान के इतिहास को जाने बिना दे पाना मुमकिन नहीं है। हर आधी सदी के बाद कई पुराने सिद्धांत बदल चुके होते हैं या उनमें बहुत कुछ नया जुड़ जाता है। क्या नए सिद्धांत पहले वालों के बनिस्बत ज्यादा 'वैज्ञानिक' होते हैं? या निरपेक्षता या वस्तु-परक होने का कोई मतलब ही नहीं है? 1963 में थॉमस कुन ने The Structure of Scientific Revolutions (विज्ञान के इंकलाबों का ढाँचा) नामक किताब लिखी, जिसे वैज्ञानिकों से कहीं ज्यादा human science या मानव-विज्ञान के अध्येताओं ने पढ़ी। कुन की किताब आने के बाद दो बातों पर सोचना लाजिम हो गया। एक तो इतिहास की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दूसरी बात कि प्रयोगों में इकट्ठी की गई जानकारी और उनको समझने के लिए जिन सिद्धांतों को अपनाया गया, इनको अलग-अलग मानना सही नहीं है। मुमकिन है कि इकट्ठी की गई जानकारी पहले से तय सिद्धांतों से प्रभावित हो। कुन ने अपने काम के लिए खास तौर पर ऐसे दौर चुने, जब विज्ञान में बड़े बदलाव आए हैं यानी विज्ञान की किसी विधा के ढाँचा में बड़ी तबदीली आई है, जैसे धरती के चारों ओर ग्रहों-नक्षत्रों के घूमने के सिद्धांत को खारिज कर सूरज के चारों ओर ग्रहों के चकराने के सिद्धांत का आना (कोपरनिकन इंकलाब), आइंस्टाइन का सापेक्षता का सिद्धांत, डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत आदि। ऐसे हर बड़े बदलाव के बाद कायनात के बारे में वैज्ञानिक समझ बदल जाती है। पहले वाले सिद्धांतों को खारिज कर नए सिद्धांत उनकी जगह ले लेते हैं। ज्यादातर वैज्ञानिक अपने वक्त के मान्य सिद्धांतों के दायरे में ही काम करते हैं। इसे कुन ने 'नॉर्मल साइंस’ यानी आमफ़हम विज्ञान कहा और ऐसे दौर को समझाने के लिए 'पैराडाइम' लफ्ज़ इस्तेमाल किया। किसी एक पैराडाइम के दौर में वैज्ञानिक इस आस्था के साथ काम करते हैं कि आने वाले वक्त में भी हर सवाल उस दौर के मान्य सिद्धांतों के जरिए ही हल किया जाएगा। इसी आस्था के आधार पर सवाल चुने जाते हैं, जिन पर शोध किया जाना उचित माना जाता है। साथ ही शोध के तरीकों पर भी सामूहिक सहमति रहती है। थीओरी से जो समझ बनती है, वह हमेशा प्रयोग में मिली जानकारियों से मेल खाए, यह ज़रूरी नहीं है। अक्सर ऐसे बेमेल तथ्यों को विज्ञान की मुख्य-धारा से अलग रख दिया जाता है, ताकि पैराडाइम में कम से कम बदलाव हो। मौजूदा पैराडाइम पर सवाल उठाना, जो कि विज्ञान का अहम मक़सद होना चाहिए, निचले पायदान पर रह जाता है। कभी-कभार कोई खोज ऐसी हो जाती है जो मान्य सिद्धांतों के मुताबिक समझी नहीं जा सकती। यह ऐनोमली या गड़बड़ (विसंगति) है। कोशिश यह रहती है कि अपने काम में खामियाँ ढूँढ कर उन्हें सुधारें न कि पैराडाइम में खामियों के बारे में सोचे। जब ऐसी कई सारी विसंगतियाँ इकट्ठी हो जाती हैं तो इसे क्राइसिस यानी संकट कहा जाता है और नए सिद्धांतों की तलाश शुरू होती है। जब किसी नए सिद्धांत को वैज्ञानिक समुदाय मान लेता है, तो यह पैराडाइम-शिफ्ट कहलाता है। नए पैराडाइम के साथ फिर से नॉर्मल साइंस का नया दौर शुरू हो जाता है। नए पैराडाइम के एक से ज्यादा विकल्पों में से कौन सा चुना जाए, यह हमेशा तर्क या निरपेक्ष प्रमाणों के आधार पर तय नहीं होता। इससे चौतरफा हमला शुरू हुआ कि विज्ञान सामाजिक-राजनैतिक प्रभावों से मुक्त नहीं है। किसी एक वक्त कुदरत या दुनिया के बारे के समझ मौजूदा पैराडाइम से तय होते हैं, यानी पैराडाइम से अलग कोई तथ्य या सच नहीं होता है। पैराडाइम बदलता है तो सच भी बदलता है। अगर यह सही है, तो तथ्यों के साथ संगति रखती थीओरी की तलाश या मौजूदा थीओरी और तथ्यों के बीच संगति की जाँच बेमानी है। सच पैराडाइम-सापेक्ष है। यह बात बीसवीं सदी में मानविकी की बुनियादी सोच बन गई। कुन का दूसरा दार्शनिक तर्क आँकड़ों के 'theory-ladenness' यानी थीओरी-मय होने का है। दो परस्पर-विरोधी थीओरी में से एक को चुनने का पारंपरिक तरीका यह है कि ऐसे एक जैसे आँकड़े देखे जाएँ जो दोनों में फ़र्क कर पाए। कुन ने थीओरी-निरपेक्ष आँकड़ों को भ्रम माना। उसका मानना था कि आँकड़े थीओरी के चयन पर निर्भर होते हैं। इसलिए निरपेक्ष तरीके से किसी एक पैराडाइम को नहीं चुना जा सकता है। सच क्या है, इस पर सवाल उठ खड़ा होता है। बाद में कुन ने यह स्पष्ट किया कि उसका मक़सद विज्ञान की तर्कशीलता को सिरे से नकारना नहीं है। उसकी कोशिश इतनी है कि हम विज्ञान की बढ़त को सही ऐतिहासिक नज़रिए से देखें।
विज्ञान की और सीमाएँ
विज्ञान की और भी कई सीमाएँ हैं। पिछली सदी से बहुत सारा काम सैद्धांतिक या गणना का हो रहा है और इनसे मिले नतीजों का प्रयोगों में या प्रयोग तय करने के लिए इस्तेमाल हो रहा है। संख्याएँ तक़रीबन अनंत तक चली जाती हैं, इसलिए गुणधर्मों पर औसत नतीजे पाए जाते हैं, पर मानविकी में गिनती लाख-करोड़ से ज्यादा नहीं होती। इसलिए नतीजे नियत नहीं होते हैं। जब कुछ ही अणुओं-परमाणुओं पर अध्ययन होते हैं (जैसे नैनो-साइंस में), तो गुणधर्मों में बड़े बदलाव पाए जाते हैं। मानविकी में, खास तौर पर साहित्य और कला में, अमूर्तन अनेकार्थी होता है, पर विज्ञान में गणित का इस्तेमाल स्पष्ट मायनों के लिए किया जाता है। इसके लिए गणित में महारत ज़रूरी हो जाती है, इस वजह से विज्ञान का एक एलीट स्वरूप दिखता है। मानव-विज्ञान में कुछेक लोगों पर अध्ययन कर पूरे समाज के लिए लागू हो सकने वाले नियम बनाना ग़लत है। जानकारी का इस्तेमाल कैसे हो - नैतिक या अनैतिक उद्देश्यों के लिए - यह विज्ञान या वैज्ञानिकों के हाथ नहीं है। पर पेशेवर वैज्ञानिक इतना कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। कुन ने कहा था कि हम जो देखते हैं, वह थीओरी-लदा होता है, उसी तरह वैज्ञानिक जाँच मूल्य-बोध से लदी होती है। वैज्ञानिक अपने शोध के विषय तय करते हैं। कुदरत के बारे में किसी भी सवाल के कई पहलू होते हैं, इनमें से क्या जाँच का विषय होगा, यह तय करना वैज्ञानिक के हाथ होता है। अवलोकन की अलग-अलग व्याख्याएँ हो सकती हैं। थीओरी चुनते हुए अपने पूर्वाग्रहों से बच पाना नामुमकिन है। जो जानकारी मिली उसका इस्तेमाल कैसे होगा, किस तरह की टेक्नोलोजी इससे बनेगी, इस पर मुँह पर ताला लगा लेना एक तरह की पक्षधरता है। जो मानव-विरोधी है, कुदरत विरोधी है, उसके खिलाफ खड़ा होना हर इंसान की जिम्मेदारी है। मानविकी के माहिर भी अपने फायदे के लिए दूसरों के स्वभाव को समझना और उसका इस्तेमाल करना चाहते हैं। ऐल्डस हक्सले के उपन्यास 'ब्रेव्ह न्यू वर्ल्ड' और जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास'1984’ में यह दिखलाया गया था कि जो कुछ भी हम हैं, मानव-विज्ञानी उसे बदलने की, और अपने बस में रखने की कोशिश करते हैं। कई समाज-विज्ञानी हुकूमत के इस तरह गुलाम हो चुके हैं, जिससे लगता है कि यह बात काफी हद तक सच है। आज पत्रकारिता का जो हश्र है, उसे ही देखें। ज्यादातर वैज्ञानिक खोज कॉरपोरेट घरानों के पैसों से हो रही है और इसका फायदा भी वो ही उठातेे हैं। अक्सर ऐसा होता है कि कंपनियों से पैसा लेकर किया गया शोध शक के दायरे में होता है, और इसके विरोध में उठी आवाज़ें धीमी रह जाती हैं। मुनाफाखोरों में अव्वल ईलॉन मस्क की कंपनी न्यूरोलिंक ने इंसान के ज़हन में ऐसे चिप प्लांट करने का प्रस्ताव रखा, जिससे उसकी चुनिंदा यादों को हटाया जा सकता है। फिलहाल अमेरिका के सरकारी नियंत्रकों ने इस पर रोक लगा दी है, पर हम देख सकते हैं कि 1984 आज चालीस सालों बाद सच होने को है। नफ़रत की जैसी सियासत आज हावी है, क्या मानव-विज्ञानी ऐसी चुनौतियों का सामना करने को तैयार हैं?
प्रकृति विज्ञान में सोच जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं का समूह है। इस समझ से कई दार्शनिक समस्याएँ पैदा होती हैं। अगर सब कुछ कुदरती नियमों से ही हो रहा हो तो सही-ग़लत का हिसाब कैसे रखें। मानविकी में यह मान कर चलते हैं कि नैतिकता और मूल्य-बोध के मुताबिक हम अपनी सोच बदलते हैं। 'पथेर पाँचाली' में गाँव छोड़ते हुए अपु को अपनी गुजर चुकी बहन दुर्गा का चुराया हार मिल जाता है, वह इसे साथ रखे, अपने माँ-बाप को दे दे या हार के मालिक को लौटा दे - क्या करे? जवाब के लिए आप फिल्म दुबारा देखें।
कौन सी कलाकृति या साहित्यिक कृति ज्यादा खूबसूरत है, यह वैज्ञानिक सवाल नहीं है। किस कृति में तकनीकी बेहतरी है, यह वैज्ञानिक सवाल हो सकता है। नोबेल या बूकर न मिलने से हिंदुस्तानी ज़बान में लिखी किताबें दोयम दर्ज़े की नहीं रह जातीं और न ही ऐसे सम्मान मिली कृतियाँ श्रेष्ठतम हैं।
साइंटिफिक टेंपर
शायद भारतीय संविधान एकमात्र ऐसा संविधान है, जिसमें नागरिकों को साइंटिफिक टेंपर के विकास के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। नागरिकों की बात तो दूर है, यहाँ हुक्काम ऐसी बातों को फैलाते हैं, जो जाहिर तौर पर झूठ और कपट है। इसलिए मौजूदा वक्त को विज्ञान का युग नहीं कहा जा सकता। विज्ञान हमें यह साहस देता है कि हम हर मान्यता पर सवाल खड़ा कर सकें। इस मायने में ज्ञान पाने की पद्धति और संचित ज्ञान (एपिस्टीम) के रूप में विज्ञान धर्म जैसी संस्थाओं से बेहतर दिखता है। वैज्ञानिक सोच ही पद्धति नहीं है। अक्सर ऐसा होता है कि कोई अपने काम में सटीक वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल कर रहा है, पर वह वैज्ञानिक सोच को नहीं अपना पाया है। भारतीय वैज्ञानिकों में यह आम बात है। इसलिए ऊँची तालीम और भरपूर सुविधाओं के बावजूद भारतीय वैज्ञानिकों का काम अक्सर पश्चिम में हो रहे शोध की नकल मात्र रह गया है। सामाजिक-राजनैतिक विचारों में पिछड़ापन भी इसी वजह से है। अक्सरीयत पर जिस तरह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति की संकीर्ण समझ हावी है, उससे यही पता चलता है कि उनमें वैज्ञानिक सोच तो नहीं है। विज्ञान के लिहाज से निहायत ही कम पढ़े पंजाबी कवि लाल सिंह दिल की कविताओं में मुझे भरपूर वैज्ञानिक सोच दिखती है - 'ਮਾਂ ਭੂਮੀ (मातृभूमि)' याद आती है - ਪਿਆਰ ਦਾ ਵੀ ਕੋਈ ਕਾਰਨ ਹੁੰਦੈ ? / ਮਹਿਕ ਦੀ ਵੀ ਕੋਈ ਜੜ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ? / ਸੱਚ ਦਾ ਹੋਵੇ ਨਾ ਹੋਵੇ ਕੋਈ/ਝੂਠ ਕਦੇ ਬੇਮਕਸਦ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ! / ਤੇਰੇ ਨੀਲੇ ਪਰਬਤਾਂ ਕਰਕੇ ਨਹੀਂ / ਨਾ ਨੀਲੇ ਪਾਣੀਆਂ ਲਈ /ਜੇ ਇਹ ਬੁੱਢੀ ਮਾਂ ਦੇ ਵਾਲਾਂ ਜਿਹੇ / ਗੋਹੜੇ-ਰੰਗੇ ਵੀ ਹੁੰਦੇ / ਤਦ ਵੀ ਮੈਂ ਤੈਨੂੰ ਪਿਆਰ ਕਰਦਾ / ਇਹ ਦੌਲਤਾਂ ਦੇ ਖਜ਼ਾਨੇ /ਮੇਰੇ ਲਈ ਤਾਂ ਨਹੀਂ /ਭਾਵੇਂ ਨਹੀਂ/ਪਿਆਰ ਦਾ ਕੋਈ ਕਾਰਨ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ / ਝੂਠ ਕਦੇ ਬੇਮਕਸਦ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ/ ਖਜ਼ਾਨਿਆਂ ਦੇ ਸੱਪ ਤੇਰੇ ਗੀਤ ਗਾਉਂਦੇ ਨੇ / ਸੋਨੇ ਦੀ ਚਿੜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ
देशभक्ति झूठी महानताओं से जुड़ी हो, यह ज़रूरी नहीं है। हम जहाँ जन्मे-पले, उस ज़मीं से हमें प्यार है - वह जैसी भी है। किसी साहित्यिक या कलाकृति में वैज्ञानिक सोच है या नहीं, इस बात का मतलब है कि रचना में तर्कशीलता है या कि इसके विपरीत रचना की संरचना और इसके कथ्य में भावनात्मकता या आस्था का असर अधिक है। यह साहित्य के रूप का नहीं बल्कि सरोकारों का सवाल है। रूप के नियम होते हैं, जैसे रस-शास्त्र के नियम हैं, इन नियमों का विज्ञान से कोई संबंध नहीं है। सरोकारों में भी तार्किकता का होना ही विज्ञान की पहचान नहीं है। जहाँ विज्ञान पहली शर्त हो वह कथा, कविता, नाटक आदि विधाओं का साहित्य नहीं होता। पर साहित्यकारों को अपने समय की वैज्ञानिक जानकारियों का ज्ञान होना लाजिम है। हर तरह की ज्ञान-मीमांसा किसी जीवन-दृष्टि से जुड़ी होती है। विज्ञान हमें एक जीवन-दृष्टि देता है। प्रत्यक्ष ज्ञान में कितनी अनिश्चितता होती है, इस बारे में एक निश्चित समझ हमें विज्ञान से मिलती है। साहित्य और कला इस अनिश्चितता को मापे बगैर हमें जीवन, प्रकृति के रहस्यों और समाज की सच्चाइयों के रुबरु करते हैं। वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि में एक खास बात है कि हर सोच आगे नई सोच को जन्म देता है। अच्छे साहित्य में भी यह खासियत है। जो दिखता है, उसके परे जा कर प्रत्यक्ष अवलोकन में निहित कारणों की पड़ताल इस जीवन-दृष्टि का हिस्सा है। अगर यह पड़ताल आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य तक सीमित रहे, तो वह एक अलग दृष्टि होगी; सही या ग़लत, सवाल यह नहीं है - वह अलग है। इस बात को समझना ज़रूरी है, वैज्ञानिक दृष्टि हमें भौतिक जगत में हो रही घटनाओं में भौतिक कारणों को ढूँढने को कहती है। यही नहीं, जहाँ तक हो सके, वह हमें प्रत्यक्ष अवलोकनों में कारण-कारक संबंध ढूँढने को और इस तरह मिले नतीजों को सैद्धांतिक समझ तक ले चलने को विवश करती है। मूर्त से अमूर्त की यह यात्रा यहीं खत्म नहीं होती है। वैज्ञानिक दृष्टि में अमूर्त सिद्धांतों का औचित्य तभी है, जब वह हमें परिघटनाओं की कल्पना करने और उनके सचमुच घटित होने की संभावनाओं का ऐसा विवरण सामने रखती हैं, जिन्हें हम न केवल गुणात्मक रूप से समझ सकें, बल्कि जिनमें जो कुछ भी माप-तौल लायक हो, उसे माप सकें। साहित्य में इतनी लंबी भौतिक यात्रा नहीं होती, होना ज़रूरी भी नहीं है। कोई भी रचनाकार सचेत रूप से ऐसी कोशिश नहीं करता है, पर हम चाहें तो इसके होने या न होने को ढूँढ सकते हैं।
वैज्ञानिक सोच हमें अपने और दूसरों की, समाज और परिवेश की बेहतरी के लिए उकसाती है (इसके बावजूद कि विज्ञान या तकनोलोजी से पर्यावरण का विनाश हुआ है, यह बात सच है)। इसी बेचैनी को हम उम्दा अदब में देखते हैं, जैसे मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ हैं : 'ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया?जीवन क्या जिया?' एक और पहलू ऐसे वर्गीकरण का है, जिसमें पहले से उपलब्ध वर्गीकरणों से अधिक स्पष्टता हो। मुक्तिबोध के 'संवेदनात्मक ज्ञान' और 'ज्ञानात्मक संवेदना' जैसे मुहावरों के इस्तेमाल में यही पद्धति दिखती है।
वैज्ञानिक सोच में सबसे बड़ी बात यह है कि वह प्रतिष्ठित मान्यताओं (paradigm) को तोड़कर नई मान्यताओं को निर्मित करता है। इसलिए जब मुक्तिबोध कहते हैं - 'अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे।/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब', हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि की सशक्त पहचान सामने आती है। यही पहचान है जो हमें ब्रह्मांड की देश-काल की विशालता के सामने निडर होकर खड़े होने की ताकत देती है। यही पहचान हममें यह एहसास लाती है कि मानव होना, प्राणी होना, ब्रह्मांड में होना और इस होने को जान पाना कितना सुंदर है। जहाँ साहित्य में फंतासी का प्रयोग है, वहाँ ऐसी बेमेल बातें दिखेंगी, जो वैज्ञानिक नहीं हैं, पर वे ज़रूरी हैं। फंतासी तर्कशीलता से परे हो, ऐसा नहीं है, पर किसी निश्चित और नियमों में बँधी संरचना में सिमटी हो, ऐसा नहीं हो सकता।
विज्ञान और टेक्नोलोजी
आम तौर पर विज्ञान समझाने के लिए टेक्नोलोजी में तरक्की के मिसाल सामने रखे जाते हैं, जैसे इंटरनेट, आधुनिक दवाएँ, नाभिकीय बम, आदि। तो क्या विज्ञान और टेक्नोलोजी एक ही बात है? क़तई नहीं। हालाँकि दोनों में गहरा रिश्ता है - एकतरफा नहीं, दो-तरफा। यह समझना ज़रूरी है कि टेक्नोलोजी में हो रही तरक्की और आम ज़िंदगी में तरक्की का आपस में कोई रिश्ता नहीं है। नात्सी जर्मनी अपने वक्त टेक्नोलोजी में दुनिया का सबसे अग्रणी मुल्क था, पर उनकी विचारधारा बर्बर और हिंसक थी। दूसरी ओर, टेक्नोलोजी में कमज़ोर होने के बावजूद कई आदिवासी समुदायों में कला, प्रकृति के साथ संबंध और सामाजिक रिश्तों में अनोखी ज़हानत पाई जाती है। किसी खास नई टेक्नोलोजी का उभरना, मौजूदा अलग-अलग टेक्नोलोजी के बीच स्पर्धा, और उनका कैसा इस्तेमाल होता है, यह समाज में जड़ बना चुकी ताकतों - जैसे राजनीतिक सत्ता, सामाजिक वर्ग, जेंडर आदि पर निर्भर करता है। इंसान सामाजिक प्राणी है। टेक्नोलॉजी में आया बदलाव एक सामाजिक प्रक्रिया ही हो सकता है। नई टेक्नोलोजी के आने पर पहले कभी ना सोचे गए परिणाम सामने आते हैं। इसकी सबसे अच्छी मिसाल इंटरनेट के प्रसार के साथ फेक न्यूज़ और उसकी वजह से दंगे-फसाद, तानाशाही का बढ़ना है। 1940 के दशक में जब डिजिटल कंप्यूटर बना, उस जमाने में इनके इस्तेमाल के बारे में बहुत कम ही जानकारी थी। किसी ने नहीं सोचा था कि कंप्यूटर जल्दी ही सारी दुनिया में छा जाएंगे और समकालीन जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाएंगे। नई टेक्नोलोजी के आने से समाज के कई पहलू बदल जाते हैं और साथ ही सामाजिक ताकतें नई टेक्नोलोजी और उनके स्वरूप पर प्रभाव डालती हैं। ये दोनों गतिशील प्रक्रियाएं हैं, जिसमें एक दूसरे पर कई कारणों के प्रभाव पर सोचना जरूरी है। समाज से आज़ाद होकर टेक्नोलोजी ने कभी खुले एजेंट की तरह काम नहीं किया है। बदलाव तय करने की काबिलियत समूची जनसंख्या में एक जैसी नहीं होती। आधुनिक समाज की एक बुनियादी पहेली है कि टेक्नोलोजी के जरिए मानव समाज को बड़ी ताकत मिली है, पर निजी तौर पर हम इस ताकत का बहुत ही कम इस्तेमाल कर सकते हैं। इंसानी समस्याओं के हल के लिए जो समझ काम कर सकती है, उसके लिए लगातार बदलाव को स्वीकार कर सकना और उम्मीद बनाए रखना जरूरी है। जहां ज्यादातर इंसान भागीदारी न कर सकें और अपने आप को सत्ता से अलग समझते हों, ऐसे समाज में इस तरह की बातें मुमकिन नहीं हैं।
अगर ज़रूरतें पूरी करने के लिए ही टेक्नोलोजी है, तो सवाल उठता है कि किसके मक़सद पूरे करने की बात है?
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास 'घरे-बाइरे’ पर सत्यजित राय की बनाई फिल्म का एक दृश्य है, जिसमें मैन्चेस्टर की मिलों में बने सस्ते कपड़े बेचते ग़रीब छोटे व्यापारी स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा नहीं लेना चाहते, क्योंकि उनके खरीदार महँगा खादी का कपड़ा नहीं खरीद सकते। इस वजह से आखिर में दंगे छिड़ जाते हैं, क्योंकि उन दिनों पूर्वी बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के नेता हिन्दू और ग़रीब छोटे व्यापारी ज्यादातर मुसलमान थे। टेक्नोलोजी की वजह से समाज में पहले से मौजूद सांप्रदायिक तनाव बढ़ गए। और क़रीब के दशकों में नर्मदा नदी पर बने बाँधों की मिसाल है। गुजरात और महाराष्ट्र के धनी किसानों तक पानी पहुँचाने वाला सरदार सरोवर बाँध आदिवासियों के लिए अपने कुदरती रिहाइश के इलाकों से विस्थापन की वजह बन जाता है। यह सोचना कि टेक्नोलोजी का सामाजिक रिश्तों के साथ कोई लेना-देना नहीं है, ग़लत है। 2016 में अमेरिकी प्रेसिडेंट के चुनाव में यह मुद्दा काफी चर्चा में था कि ऑटोमेशन की वजह से नौकरियाँ जा रही हैं। कामगारों को हमेशा ही यह डर रहता है कि टेक्नोलोजी से आए बदलाव की वजह से वे बेरोजगार हो सकते हैं। यह डर बेबुनियाद नहीं है। भारत में कई बड़े संकट कामगारों पर आए हैं, जिसकी एक बड़ी मिसाल मानेसर में मारुति-सुज़ुकी फैक्ट्री का है। इतिहास में देखें तो हाथ के करघों की जगह पावर-लूम बने, तो कई बुनकरों को अपना काम छोड़ना पड़ा। जो काम करते रहे उनको बहुत ही कम पैसे मिलते थे। बनारस के बुनकरों पर अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास 'झीनी झीनी बीनी चदरिया' इसी संकट पर है।
कुछ हद तक यह सही है कि वैज्ञानिक पर यह दबाव नहीं होता कि उसे तय अवधि तक कोई निश्चित जवाब ढूँढने ही हैं, पर टेक्नोलोजी पर काम कर रहे इंजीनियरों को इतनी आज़ादी नहीं मिलती है। अगर एक पुल बनाना है तो वह बनना है, आप इसे बीच में रोक कर कुछ और नहीं कर सकते। विज्ञान और टेक्नोलोजी दोनों के लिए गणित में महारत होनी ज़रूरी है, पर सैद्धांतिक प्रशिक्षण में दोनों में फ़र्क है। टेक्नोलोजी में मक़सद साफ होते हैं, पर विज्ञान में अनिश्चितता के साथ ही काम करना पड़ता है। टेक्नोलोजी में आखिरी सवाल सत्य की तलाश नहीं, बल्कि यह होता है कि प्रोजेक्ट काम करेगा या नहीं।
क्या मानविकी इस वजह से अलग है कि इसमें प्रकृति विज्ञान जैसे निश्चित जवाब नहीं होते हैं? ऐसा नहीं है कि विज्ञान में अनिश्चितताएँ नहीं होती हैं, पर किसी मापन में कितनी अनिश्चितता है, यह पता होता है। मानव-विज्ञान में ऐसी गतिविधियों को, जहां इंसान का हस्तक्षेप हुआ है, समझने की कोशिश होती है। अर्थशास्त्र में ऐसा लगता है जैसे वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल हो रहा है, पर कहीं ना कहीं उम्मीद और आस्था जैसी भावनाओं का हस्तक्षेप भारी पड़ता है। दर्शन और कला कल्पना के जरिए अनदिखे को सामने ला देते हैं। आधुनिक दर्शन में आस्था की कोई जगह नहीं है, आस्था की चीर फाड़ जरूर है। इस मायने में काफी हद तक दर्शन सामान्य विज्ञान-कर्म से भी ज्यादा तर्क-आधारित है। पर अपने आप में दार्शनिक अध्ययन वह नहीं है जो विज्ञान या वैज्ञानिक पद्धति है। व्हिटगेनश्टाइन ने कहा है कि दर्शन में बुनियादी समस्या भाषा की है। हमारे ज़हन में बहुत सारी अन-सुलझी बातें ज़बान की जद्दोजहद की वजह से हैं। मानव-शास्त्र या एंथ्रोपॉलोजी एक वैज्ञानिक विषय है। पर सूफी या बाउल गीतों को हम विज्ञान के उदासीन तरीकों से नहीं समझ सकते, इसके लिए भावनात्मक गहराई चाहिए। समाज-शास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे विषयों में तर्क के ढाँचों का भरपूर इस्तेमाल होता है, वहीं साहित्य और कलाओं में अनौपचारिक युक्ति हमेशा काम करती रहती है, जिससे सिद्धांतों के इस्तेमाल की काबिलियत बढ़ती है, ताकि हम तयशुदा नतीजों से बचें।
साहित्य और कला
साहित्य और कलाओं की कुछ आम खासियतें हैं। मसलन बेठोफेन का कहना था कि संगीत से मिला ज्ञान किसी और तरह की समझदारी या फलसफे से ज्यादा ऊँचे स्तर का होता है। ग़ालिब की शायरी देखें तो हम पाएंगे कि अस्तित्व के संकटों पर सबसे पहली गहरी सोच आधुनिक साहित्य में यहीं मिलती है। 'वो ख़लिश कहाँ से होती' - मनोविज्ञानी किताबें लिख कर समझते रह जाएँगे, जबकि ग़ालिब को पढ़ते हुए हम इसे समझ लेते हैं। सौ साल पहले जाने माने चितेरे पॉल गॉगुवाँ ने कहा कि कला को दर्शन की जरूरत है, इसके ठीक उलट दर्शन को कलाओं की जरूरत है। ऐसा न हो तो सौंदर्य का क्या होगा? संस्कृति की जड़ें बचाए रखने के लिए समाज को चाहिए कि वह कलाकार को अपनी ख़्वाहिशों के मुताबिक आगे बढ़ने के सारे मौके दे। जॉन लेनन ने कहा कि "समाज में किसी गायक, कलाकार या कवि की भूमिका इतनी ही है कि हम अपने एहसासों का बयान करें। हम लोगों से यह नहीं कह सकते कि उनके एहसास कैसे हों। हम प्रचारक या नेता नहीं हैं। हम अपने आप को लोगों के सामने खुला रख सकते हैं।" कोई भी अदब या कला की कृति दरअसल एक फलसफे को शब्द-चित्रों या तस्वीरों के जरिए पेश करती है। कवि ऑडेन ने कहा था कि इतिहास सवालों का अध्ययन है, जबकि जवाब के लिए हमें मानव-शास्त्र और समाजशास्त्र की तरफ जाना पड़ता है। मैनेजर पांडे ने अपनी किताब 'साहित्य का समाजशास्त्र' में इसी बुनियाद को पुख्ता किया है। मनोविज्ञान इंसानी फितरत को समझने की कोशिश करता है और इतिहास का ग़लत पाठ इस कोशिश के उलट काम करता है। इंसान की निजी ज़िंदगी और समाज के इतिहास को अलग कर के नहीं समझा जा सकता है।
विज्ञान और मानविकी की भाषा
विज्ञान की भाषा में कम से कम अस्पष्टता होनी चाहिए, जबकि मानविकी की भाषा में ज़रूरी अनेकार्थी बातें होती हैं। कविता और कला के संदर्भ में इसे अक्सर लोकतांत्रिक संभावनाएँ कहा जाता है (हर पाठक या नाज़िर अपने ढंग से कृति से जुड़ सके)। मानविकी में प्रस्तावनाओं के मतलब और मक़सद मुख्य होते हैं, जबकि प्रकृति विज्ञान में अवलोकन और कार्य-कारण अनुमानों के बिना सिद्धांत तक पहुँचने की यात्रा शुरु ही नहीं होती। स्टीफन हॉकिंग के मुताबिक हम यहां क्यों हैं, कहां से आए हैं, ये दर्शन के सवाल हैं, पर अब दार्शनिक अध्ययन या दर्शनशास्त्र खत्म हो गया है। दार्शनिक इसे दूसरे ढंग से कहते हैं कि आज दर्शनशास्त्र जिस तरह तर्क के आधार पर काम करता है वह विज्ञान से भी अधिक वैज्ञानिक हो चुका है। सर्वांगीण ज्ञान पाने के लिए हमें मानविकी और प्रकृति-विज्ञान को अलग या परस्पर विरोध में रखते हुए नहीं, बल्कि साथ रख कर देखने की ज़रूरत है। सरमाएदारी के निजाम ने तालीम का जो हश्र किया है, उस वजह से विज्ञान और इंजीनियरिंग-मेडिकल पढ़ने-पढ़ाने वाले अक्सर इस बात को समझते नहीं हैं। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी तकनीकी ज्ञान में माहिर ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है, जिनमें सामाजिक स्तर पर मानवीय संवेदनाएँ खत्म हो चुकी हैं और इस वजह से फासीवादी विचारधारा पनपती जा रही है। बीसेक साल पहले से पश्चिमी मुल्कों में 'स्टेम' (STEM – साइंस, टेकनोलोजी, इंजीनियरिंग और मैथ) का जुम्ला चला है, पर दानिशमंदों ने इस पर गहरी चिंता जताई है कि कला, साहित्य और आम तौर पर मानविकी की पढ़ाई को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। इनका मानना है कि कल्पनाशीलता और सृजन के लिए ऐसी सर्वांगीण तालीम ज़रूरी है, जिसमें मानविकी का काफी हिस्सा हो। अभी भी ज्यादातर विज्ञान और इंजीनियरिंग के अध्यापक इस बात को अच्छी तरह नहीं समझते हैं।
धर्म और परंपरा बनाम विज्ञान
धर्म और परंपरा मानव की निर्मिति है और हर इंसानी हरकत की तरह इनको जानना, समझना मानविकी का कार्यक्षेत्र है। अक्सर आस्थाओं पर सवाल उठाने से बचने की कोशिश दिखती है। इसकी एक मिसाल धार्मिक या राष्ट्रवादी आस्थाओं से जुड़े साहित्य पर आलोचना का अभाव है। इन सीमाओं से मानविकी के विकास में अवरोध आते हैं और कुल मिलाकर सारी इंसानियत को नुकसान पहुँचता है। यह बात भी सही है कि व्यावहारिक स्तर पर विज्ञान में जिन सवालों पर शोध होते हैं, वे भी अक्सर सियासी प्रभावों से तय होते हैं।
वापस ज़बान
मैंने शुरूआत में ज़िक्र किया था कि समाज अपने साथ एक परिवेश और ज़बान को लिए चलता है। मेरी समझ में कोई बड़ी खोज तब तक नहीं होती जब तक विज्ञान की बुनियादी तालीम मादरी ज़बान में नहीं होती। विज्ञान महज नई खोजों के बारे में सूचना नहीं है। यह इंसानी फितरत है जो हमें लगातार कुदरत और कुदरत से हमारे संबंधों के बारे में सोचने को मजबूर करती है। हम जो लिखें, उसमें विज्ञान के इस पहलू को उजागर करने की कोशिश होनी चाहिए। रिचर्ड फाइनमैन ने छोटे बच्चों को विज्ञान सिखाने की भाषा के मुद्दे पर कहा है कि शब्द सीखना ज़रूरी है, पर पहले हमें विज्ञान सीखना है। चाभी घुमाने पर खिलौना क्यों चलता है, इसके जवाब में 'एनर्जी' शब्द पर प्रतिक्रिया देते हुए वे कहते हैं कि आप तो यह कह दो कि खुदा खिलौना चला रहा है। हिंदुस्तानी ज़बानों में विज्ञान की शब्दावली को आप मजाक कह सकते हैं या एक ख़ौफ़नाक सपना। 'एनर्जी' अंग्रेज़ी ज़बान का आमफ़हम लफ्ज़ है। फिर भी उन्हें आपत्ति थी। किसी ज़बान को क़त्ल करने का इससे बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता है कि वैज्ञानिक शब्दावली को आम लोगों की पहुँच लायक न रखा जाए। मेरी सीमित समझ यह है कि विज्ञान पढ़ाते हुए हमें अपनी तमाम ज़िंदा ज़बानों में मौजूद तकनीकी शब्दावली को वापस ढूँढ लाना साथ-साथ करना होगा।
हिंदीभाषियों में से विज्ञान में महारत रखने वाले अधिकतर लोग हिंदी में आदतन नहीं लिखते हैं। चूँकि पेशेवर वैज्ञानिक दिनभर अंग्रेज़ी में काम कर रहे हैं, अपने शोध-परचे आदि अंग्रेज़ी में लिखकर छापते हैं, उनके पास हिंदी में लिखने का वक्त कम होता है। धीरे-धीरे वे हिंदी में लिखने की क्षमता खो बैठते हैं। हिंदी में ज्यादातर विज्ञान लेखन उनके द्वारा हो रहा है, जो खुद पेशेवर वैज्ञानिक नहीं हैं। वैज्ञानिकों का लिखा अक्सर अंग्रेज़ी से अनूदित मिलता है। आगे आने वाली पीढ़ियों में पढ़े-लिखे लोगों में भारतीय भाषाओं में विज्ञान पढ़ने-लिखने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। अक्सर इन बातों को बदलते वक्त का खेल कह दिया जाता है, पर दरअसल ये राजनैतिक सच्चाइयाँ हैं। विज्ञान की भाषा कैसी हो, इसे अक्सर राष्ट्रवाद, विकास आदि मुहावरों में ढाल कर देखा जाता है। किसका विकास? यह सवाल उठाया जाए तो हमें बुनियादी तौर पर अलग ढंग से इस मुद्दे पर सोचना पड़ेगा। विज्ञान क्या है, किताबों में क्या लिखा होना चाहिए, कैसी भाषा होनी चाहिए, इन सवालों के जवाब हमें पढ़ने या सीखने वाले को ध्यान में रखकर सोचना चाहिए। चूँकि अब तक ऐसा कम ही किया गया है, इसलिए अपनी भाषाओं में विज्ञान पढ़ने-लिखने की रुचि लगातार कम होती रही है। जैसे-जैसे विमर्श की धुरी अंग्रेज़ी की तरफ होती चली है, भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दों का संकट भी बढ़ता चला है। आम आदमी ही नहीं बुद्धिजीवियों के लिए भी ये भाषाएँ कठिन होती जा रही हैं और उनके विमर्श में भागीदारी करने वालों का दायरा भी सिमटता जा रहा है।
यह समझना ज़रूरी है कि दूरदराज इलाकों में भी बिजली, पानी से लेकर शिक्षा और मनोरंजन तक हर पहलू में नई टेक्नोलोजी हमारे चारों ओर है, हालाँकि विज्ञान या वैज्ञानिक सोच के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। नई टेक्नोलोजी में आधुनिक विज्ञान की भाषा है। इसलिए अगर हमारी भाषाओं में विज्ञान लेखन नहीं होगा तो ये भाषाएँ ज़िंदा नहीं रह पाएँगीं। चूँकि विदेशी शब्द अपने इतिहास और संस्कृति में हमसे सीधे तुरंत नहीं जुड़ते हैं, इसलिए लंबे समय तक हमारा मानसिक विकास पिछड़ा रहेगा। इसलिए हमारी भाषाओं में विज्ञान लेखन का अनुपात बढ़ना चाहिए। इस वक्त हिंदी का कोई अखबार विज्ञान पर कोई विशेष पन्ना नहीं निकालता है। संपादकों की सोच की यह सीमा बड़ी समस्या है।
हमने अपनी भाषा और शब्दावली को सचेत रूप से खोया है। आम कामगार लोगों की ज़बान में कारीगरी से जुड़े जो शब्द होते थे, उनका इस्तेमाल न कर कृत्रिम तत्सम शब्द थोपे गए। इससे भयंकर नुकसान हुआ है।हम अपने ही खिलाफ षड़यंत्र में शामिल होते रहे हैं। आज तकनीकी शब्दों के लिए अंग्रेज़ी शब्दों के इस्तेमाल का कोई विकल्प नहीं बचा है। इस स्थिति को हमें मानना होगा। साथ-साथ हिंदी के बहुभाषी समाज में जहाँ कारीगरी के जैसे शब्द चल रहे हैं, उनको वापस विज्ञान की शब्दावली में लाने की कोशिश करनी होगी। कई लोगों में यह ग़लत समझ है कि संस्कृत का हर शब्द हिंदी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है। ऐसी सोच हमारे कई वैज्ञानिकों भी दिखती है। इसका कारण यह हो सकता है कि उनमें से अधिकतर सामाजिक-राजनैतिक चिंतन से विमुख हैं और वे ऐसी जातियों से आए हैं, जिनमें संस्कृत का थोड़ा बहुत प्रचलन रहा है। वे एक तरह की सांप्रदायिक और कुछ सामान्य पुनरुत्थानवादी सोच से जन्मी मानसिक जड़ता के शिकार हैं। सामान्य छात्रों और अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है और यह बात जगजाहिर होते हुए भी विद्वानों को नहीं दिखती है। भारतीय भाषाओं का जितना नुकसान उन पोंगापंथियों ने किया है जो संस्कृत के कृत्रिम शब्दों को विज्ञान आदि विषयों में डालते रहे हैं, इतना शायद ही किसी ने किया हो। आज हिन्दी प्रदेश में विरला ही कोई वैज्ञानिक होगा जो अपने काम को हिंदी में समझा सकता है।
जब शब्द अपने संसार के साथ हम तक नहीं पहुँचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, वे हमारे लिए तनाव का कारण बन जाते हैं। यह सही है कि अंग्रेज़ी में शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई, इसे समझकर उसका पर्याय हिंदी में ढूँढा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुँच कर उसे संस्कृत से जोड़कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है - यह सोचने की बात है। किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए। यह सही है कि वैज्ञानिक शब्दावली के लिए सटीक शब्द ढूंढने पड़ेंगे, पर ये शब्द पहले लोक-जीवन से लिए जाएँ और धीरे-धीरे उनमें सफाई की जाए तो समस्या नहीं आती। आज जनसंख्या के उस विशाल वर्ग पर, जो आधुनिक समय की सुविधाओं से वंचित हैं, बौद्धिक विमर्श ऐसी भाषा में होता है जिसका इस्तेमाल उन्हें वंचित स्थिति में रखने के लिए औजार की तरह किया गया है। भारतीय भाषाओं में विमर्श सीमित होते जा रहा है। जैसे-जैसे संपन्न वर्ग भारतीय भाषाओं से विमुख हो रहा है, आर्थिक कारणों से इन भाषाओं की रीढ़ टूटती जा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तानी ज़बानें मजलूमों की आवाज़ को भरपूर जगह देने में नाकाम रही हैं। पर इसका हल अपनी ज़बानों में जगह ढूँढने की लड़ाई होनी चाहिए न कि अंग्रेज़ी में। हमें अमेरिका के काले लोगों या मूल निवासियों से सीख लेनी चाहिए कि जालिमों की भाषा सीख कर हम आज़ाद नहीं हो जाते। जो भी थोड़ी बहुत नस्ली बराबरी उन मुल्कों में आई है, वह संघर्षों से आई है। यूरोपी साहित्य और दर्शन नस्लवादी सोच और भेदभाव से भरा हुआ है। इसलिए यह मान लेना कि अंग्रेज़ी सीख कर भारत के शोषित मनुवाद से आज़ाद हो पाएँगे, सही नहीं लगता है। बेशक आज अंग्रेज़ी ज़बान में मुक्तिकामी साहित्य की भी भरमार है। सदियों की मार से निकलना चाह रहे लोगों को यह लगता है कि अंग्रेज़ी ज़बान में महारत सत्ता और संपन्नता की ओर ले जाती है। आज प्राथमिक स्तर पर स्कूल में भर्ती हुए 100 दलित बच्चों में से सिर्फ 18 ही हाई स्कूल तक पहुँचते हैं। असफलता के कई कारणों में भाषा मुख्य है। ज्यादातर बच्चे अंग्रेज़ी और गणित में ही फेल होते हैं। इसलिए इस बात पर और गहराई से सोचना होगा।
बांग्लादेश जैसे छोटे मुल्कों को यह फायदा है कि वहाँ ज्यादातर लोग एक स्थानीय भाषा में काम चला लेते हैं। तमाम आर्थिक संकटों के बावजूद बांग्लादेश कई मानव विकास आँकड़ों में भारत से आगे बढ़ गया है और कुल मिलाकर उसकी स्थिति भारत के बराबर ही है। पर वहाँ भी अंग्रेज़ी का वर्चस्व कम नहीं हुआ है और अंग्रेज़ी को हटाकर बांग्ला या दीगर और भाषाओं को लाने की कोशिश कमजोर ही है। पाकिस्तान में मुख्य ज़बानें अंग्रेज़ी और उर्दू हैं, जो खल्क की अक्सरीयत की ज़बान नहीं हैं। ज्यादातर मानव विकास आँकड़ों में पाकिस्तान भारत से काफी पीछे है। यह देखने की बात है कि इस पिछड़ेपन में भाषा की भूमिका कितनी है।
एक तर्क जो सतही तौर पर ज्यादा वजनदार दिखता है, वह स्थानीय स्तर पर ताकतवर लोगों की भाषाओं का कम ताकत वाले लोगों पर अपनी भाषा लादने के खिलाफ अंग्रेज़ी को खड़ा करने का है। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हिन्दी और गैर-हिन्दी ज़बानों के बीच के संकट के संदर्भ में होता है। गहराई से सोचने पर इस तर्क का बेमानी होना साफ़ हो जाता है। हिन्दी थोपने के खिलाफ गैर-हिन्दी-भाषियों की लड़ाई वाजिब है पर क्या इसलिए कि उन्हें अंग्रेज़ी चाहिए? जब हम अपनी ज़बान में तालीम की बात करते हैं, इसका मतलब सही अर्थ में अपनी ज़बान होना चाहिए। भोजपुर क्षेत्र के बच्चे को भोजपुरी में, बुंदेलखंड के बच्चे को बुंदेली में और कबीलाई इलाके के बच्चे को उसकी अपनी ज़बान में तालीम मिलनी चाहिए। यानी लड़ाई अपनी ज़बान के पक्ष में होनी चाहिए, न कि संस्कृत या अंग्रेज़ी के लिए। एक स्थानीय ज़ालिम से बचने के लिए बाहरी और भी बड़े ज़ालिम को लाने का तर्क क्या मायने रखता है!
यह दुनिया तरह-तरह के संकटों और विरोधाभासों से भरी है। ऐसे में सोचने वाले लोगों के लिए यह ज़रूरी है कि हम ताकतवरों और कमजोर को पहचानें और कमज़ोर लोगों के पक्ष में बात रखें। सौ साल बाद समाज-शास्त्री और संचार विज्ञान के शोधार्थी इस पर काम करेंगे कि आज का भारतीय बुद्धिजीवी किस तरह की बनावटी दुनिया में जी रहा है और इसके कारणों में भाषा का सवाल कितना महत्वपूर्ण है। अंग्रेज़ी लचीली भाषा है, अंग्रेज़ी की शब्दावली बड़ी है; स्वाभाविक है कि अंग्रेज़ी के शब्द भारतीय भाषाओं में आ रहे हैं - यह सब तो ठीक है, पर जो खलिश है, वह यह है कि बकौल गाँधी 'अंतिम जन' को उसकी अपनी भाषा में बात करता कौन दिखता है। कुल मिलाकर एक अजीब स्थिति है, जिसे कई लोग भारत और इंडिया के दो समांतर दुनिया का नाम देते हैं। धीरे-धीरे भारत कमजोर पड़ता जा रहा है, चुनांचे वह फासीवादियों के चंगुल में फँसता जा रहा है। कई लोग कहेंगे कि यह बाइनरी में फँसी हुई सोच है, पर सचमुच मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह जटिल और साथ ही सामाजिक घटना के रूप में बड़ी सरल सी बात है। भारतीय सामाजिक-सियासी मंज़र में कई अंग्रेज़ी वाले एक अलग सत्ता अपना लेते हैं। यह इंग्लिशवाला होना अपने साथ देशी भाषा के प्रति उदासीनता ही नहीं, उपेक्षा का स्वभाव लिए होता है। इंग्लिशवाला होना शासक वर्गों के साथ होना है, आम लोगों से अलग होना है। जब तक ज़मीनी ज़बान में सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ प्रतिबद्ध सोच रखने वाला कोई है तो ठीक है, जब शासन की मार या अन्य कारणों से ऐसे लोग नहीं हैं तो मैदान संकीर्ण राष्ट्रवाद के लिए खुला है। भाषाओं का कमज़ोर होना सिर्फ मुहावरों का विलुप्त होना नहीं है, यह सामूहिक और निजी पहचान का घोर संकट पैदा करता है। इस संकट से निपटने के कई तरीके हो सकते हैं - एक तो यह कि हर स्तर पर स्थानीय भाषाओं में काम हो, हर स्तर पर शिक्षा मातृभाषा में हो। इसके विपरीत फासीवाद वह मरीचिका है जो सामयिक रूप से उत्पीड़ित इंसान को इस ताकत का आभास देती है कि मेरी बोली में ताकत न हो न सही, पर अपनी भी कोई हस्ती है। जब भाषा में बिखराव होता है, जैसा कि आम लोगों पर बोलते हुए अँग्रेज़ीदाँ विशेषज्ञों में दिखता है, तो वह सतही रह जाती है और सवालों का हल नहीं दे पाती। फासीवादी संगठनों में समकालीन विमर्श एकतरफा होता है और उनके अधिकतर कार्यकर्त्ता देशी भाषाओं में पारंगत होते हैं। इस तरह फासीवाद अपनी जड़ें जमाने में सफल होता है।
अँधेरे दौर में रहते हुए रोशनी की तलाश
जिस अँधेरे दौर से हम गुजर रहे हैं, इसमें रहते हुए हम रोशनी की तलाश कैसे करें। मानव दूसरे जानवरों से इसी बात में अलग है कि उसे कुदरती तौर पर ज्ञान-मीमांसा की काबिलियत मिली है। वह सवाल कर सकता है। वह तर्क और भावनात्मकता के साथ भाषा और एहसासों के अर्थ ढूँढ सकता है। इसे बचाए रखना इस वक्त की सबसे बड़ी लड़ाई है। फासीवाद हर स्तर पर ज्ञान पर हमला बोलता है। किताबें जलाई जाती हैं, इंसान और इंसान में भावनात्मक दरार पैदा की जाती है। हमारे एहसासों को कुंद और युक्ति का कत्ल किया जाता है। इसलिए ज्ञान और सच पर बुनियादी तरीके से सोचना और इस बारे में हर किसी को सचेत करना सबसे बड़ा धर्म है। जो अँधेरा ज्ञान से ही उपजता है, वह अहंकार जो हर ज्ञानी में दिखलाई पड़ता है, उससे हम कैसे बचें। वैचारिक मतभेद की वजह से हम अलग रास्तों पर चल रहे होते हैं, पर गौर करें तो पाएँगे कि अक्सर वैचारिक मतभेद सचमुच इतने गहरे होते नहीं हैं या वे हमें साथ काम करते रहने से विमुख करें। जिन कारणों से हम साथ काम नहीं कर पाते, वे अक्सर वैचारिक मतभेदों से ज्यादा निजी अहं या रिश्तों की जटिलताओं से उपजे होते हैं। जो ज्ञान हमें बेहतर इंसान न बनाए, जो अपने और दूसरों के जीवन में बेहतरी न लाए, उसका फायदा क्या! इसलिए लड़ाई सिर्फ औरों से नहीं, खुद से भी लड़नी है। इसीलिए कबीर कह गए हैं कि 'ढाई आखर प्रेम का...'। इस ढाई आखर को पाने का कोई स्रोत नहीं है, इसे हमें खुद ही अपने अंदर से ही प्राप्त करना होता है। जैसा अँधेरा निराला और मुक्तिबोध के जमाने में था, कुछ अर्थों में उससे कहीं ज्यादा गहरा अँधेरा आज है। आज जहाँ हम खड़े हैं, खुद से पलायन करते हुए अपनी मानवता को भूलते हुए महज यंत्र बन कर ही जीना संभव है। यह अचानक उछल कर आता अँधेरा नहीं है, यह सदियों से जमा अँधेरे का और घनीभूत होना है। मानो अँधेरे ने इतिहास से सबक लेकर धीरे-धीरे हमारी कोशिकाओं को एक-एक कर ज़ब्त करते हुए हमें पस्त करने की सोची है। इसके बरक्स उजाले की ताकतें छिन्न-विच्छिन्न हैं, बिखराव की पराकाष्ठा है। ऐसे में हर सचेत इंसान के अंदर बैठा कोई अज्ञात हृदय की धक्-धक् सुन कर परेशान होता है - मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' उसी धक्-धक् को पहचानने को हमें मजबूर करती है। निराला ने 'इलाहाबाद के पथ पर .... वह तोड़ती पत्थर' देखा और दिखाया, ‘जागो फिर एक बार' में गोविंद सिंह के सत्, श्री और अकाल का नारा उठाया। आज हम उसे अपने ही घर पत्थर तोड़ते देखते हैं, करोड़ों की तादाद में सुबह कुहासे में स्त्रियाँ निकल पड़ती हैं, दूर से धब्बों जैसी दिखती हैं। किसान डेढ़ साल तक राजधानी के दरवाजों पर डेरा डाले सत्, श्री और अकाल चीखते रहते हैं।
सत् और श्री! वाक़ई! कहाँ है सत्य? दो सही बटन दबाने पर टेक्नोलोजी जितना भी सच दिखाती है, हमें उन से दूर ले जा कर ऐसे बटन दबाने को कहा जा रहा है कि हम झूठ की कलाओं को रप्त कर लें। इन बातों को जानना, जो कुछ हो रहा है उसमें अपनी भूमिका को पहचानना, ये बातें तकलीफदेह हैं।
अंत में मैं उनकी 'देवी' कहानी की ये पंक्तियाँ पढ़ कर बात खत्म करता हूँ - “एक दिन पगली के पास एक रामायणी समाज में कथा हो रही थी। मैंने देखा, बहुत से भक्त एकत्र थे। एतवार का दिन था। दो बजे से साहित्य-सम्राट गो. तुलसीदासजी की रामायण का पाठ शुरू हुआ, पाँच बजे समाप्त। ... पाठ सुनकर, मँजकर भक्त मण्डली चली। दुबली-पतली ऐश्वर्य-श्री से रहित पगली बच्चे के साथ बैठी हुई मिली। एक ने कहा, इसी संसार में स्वर्ग और नरक देख लो। दूसरे ने कहा, कर्म के दण्ड हैं। तीसरा बोला, सकल पदारथ है जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। सब लोग पगली को देखते, शास्त्रार्थ करते चले गये।”
सवाल यह है कि हम कब तक 'पाठ सुनकर, मँजकर' चले जाते रहेंगे।
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