(समकालीन जनमत के अक्तूबर अंक में प्रकाशित)
विज्ञान के बारे में एक आम गलतफहमी यह है कि वैज्ञानिक सिद्धांत हमेशा निश्चित निष्कर्षों का दावा करते
हैं। साइंस के खुदा का विकल्प होने की बात निश्चितता के सिद्धांत के साथ जुड़ी है। आम मान्यता है कि
प्रकृति में घटनाएँ निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं। निश्चितता क्या है? गुणात्मक रूप से कुछ निष्कर्ष
निश्चित होते हैं। जैसे उम्र बढ़ने के साथ हमारे मन और शरीर में निश्चित परिवर्तन होते हैं। या साल में
ऋतुएँ एक क्रम में बदलती हैं। पर परिमाणात्मक निष्कर्षों की निश्चितता एक सीमा तक ही सही होती है।
क्लासिकल भौतिकी में निश्चितता का अर्थ है - अगर हम जान लें कि कौन सी ताकतें किसी भी चीज़ पर
काम कर रहीं हैं तो उस वस्तु के भविष्य के बारे में हम सब कुछ बतला सकते हैं। यानी वस्तु के गुणधर्म
कैसे बदल रहे हैं, इसकी पूर्व घोषणा हम कर सकते हैं। मुसीबत यह है कि सूक्ष्मतम स्तर तक निश्चितता के
साथ हमेशा यह पता नहीं होता कि किसी चीज़ पर कौन से बल काम कर रहे हैं। इसीलिए तो भारतीय टीम
टॉस जीतेगी या हारेगी, सोचते ही हमारी धड़कनें बढ़ जाती हैं! निश्चित नियमों के आधार पर किसी भी
घटना का संपूर्ण विवरण पाने में हमें सफलता नहीं मिलती। यादृच्छता यानी randomness हर प्राकृतिक
घटना के साथ है। अनिश्चितता को हम गुणात्मक रूप से संयोग यानी Chance और परिमाणात्मक ढंग से
संभाविता यानी Probability में बयां करते हैं। अनिश्चितता का विज्ञान कैसा होगा? आधुनिक विज्ञान में
तीन तरह की अनिश्चितताएँ मानी गई हैं। टीम टॉस जीतेगी या हारेगी वाली पहली या क्लासिकी अनिश्चितता
है।
पिछली सदी के पूर्वार्द्ध में एक बड़ी घटना यह हुई कि हमें पता चला कि बहुत छोटे आकार की चीजों के
लिए क्लासिकल भौतिकी सही नहीं है। छोटी मतलब बहुत छोटी। जैसे नौ बूँद पानी में एक बूँद स्याही डालो।
उस में से एक बूँद निकालो नौ बूँद पानी में मिलाओ। फिर एक बूँद... एक समय आएगा, जब स्याही का रंग
आपको नहीं दिखेगा! यानी जब एक बूँद स्याही का 10 X 10 X 10 X 10 X 10 X 10 या एक लाखवाँ
हिस्सा ही बचा। पर रंग नहीं दिखा तो क्या हुआ, स्याही के कण तो रहेंगे ही न? आप नहीं देख सकते। तो
इतने या इस से भी छोटे टुकड़ों के लिए एक नए विज्ञान, क्वांटम मेकेनिक्स की ज़रूरत पड़ी। जो बड़ी और
छोटी हर प्रकार की वस्तु के लिए सही है। पर पुराना विज्ञान, जिस में न्यूटन के नियम थे, वो बस आप, मैं,
रेलगाड़ी, ऐसी चीजों के लिए है। क्वांटम मेकेनिक्स ने यह दिखलाया कि उस छोटी दुनिया, जिसमें हैं अणु,
परमाणु, इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन; उन के लिए प्रकृति में अनिश्चितता एक बुनियादी बात है।
आमतौर पर हम कैसे सवालों के जवाब जानना चाहते हैं? जैसे, दिल्ली से हिमालयन क्वीन में सफर करते
हुए हम सोचते हैं कि गाड़ी ठीक दस बजकर पच्चीस मिनट पर चण्डीगढ़ पहुँचेगी या नहीं! या फिर चण्डीगढ़
में आज आसमान साफ़ है या कल जैसा ही काले-सफ़ेद बादलों से भरा! क्या हम निश्चित रूप से बतला
सकते हैं कि यह गाड़ी चण्डीगढ़ ठीक दस बज कर पच्चीस मिनट और शून्य सेकेण्ड में पहुँचेगी या नहीं?
हम यह कह सकते हैं कि कि दस बज कर पच्चीस मिनट से दस बज कर तीस मिनट तक गाड़ी पहुँचेगी
या नहीं, इस बात की संभावना कितनी है। वर्षा ऋतु में किस दिन वर्षा होगी और किस दिन नहीं; 31
दिसंबर को ठंड होगी, पर तापमान शून्य के कितने पास होगा, ये बातें पहले से कोई सही सही नहीं बतला
सकता। कुदरत के बंदे हम और हम सब अनिश्चित।
पर यह वह संयोग वाली अनिश्चितता नहीं। किसी भी घटना या वस्तु के गुणधर्मों के बारे में सही सही
पूर्व-अनुमान लगा पाने की अक्षमता को ही हम अनिश्चितता कहते हैं। पहली अनिश्चितता थी जैसे सिक्के
का उछलना। सिक्के में अरबों, खरबों, नील, शंख, पद्म, ..., बस अनंत ही समझिए अणुओं की तादाद है।
इतनी बड़ी संख्या में अणु परस्पर क्या बल लगा रहे हैं, यह हिसाब बड़े से बड़ा कंप्यूटर भी नहीं लगा पाता।
इसलिए चित गिरेगा या पट, कोई न जाने। सही फल बतला पाने में इस अक्षमता को ही हम संयोग कहते हैं।
इलेक्ट्रॉन और परमाणु के लिए जिस दूसरे प्रकार की अनिश्चितता है, वह यह कि कुछ खास किस्म के
माप-तोल इकट्ठे नहीं हो सकते। यूँ कि जैसे आप मेरी नाक पकड़ने लगे तो कान छूट जाए और कान
पकड़ने लगे तो नाक छूट जाए। श्रोडिंगर, हाइज़ेनबर्ग, जैसे उन लोगों के नाम वैसे उन के सिद्धांत, मूल बात
यह है कि अणु, परमाणु, आप हम, हर कोई एक घोर अनिश्चितता के शिकार हैं - गति और स्थिति के
इकट्ठे मापन की अनिश्चितता। और यह न्यूटन के विज्ञान या क्लासिकल भौतिकी से बिल्कुल अलग।
न्यूटन के या अन्य निश्चित नियमों का इस्तेमाल कर के भी कुछ क्षेत्रों में अजीब बात देखी गई। यह है
तीसरे प्रकार की अनिश्चितता, जैसे मौसम। साठ के दशक में लोरेन्त्स नाम के एक जनाब ने मौसम को
समझने के लिए तीन अलग-अलग राशियों (जैसे तापमान, नमी, दबाव) में समय के साथ और स्थान के
बदलने पर क्या बदलाव आता है -निश्चित नियमों के आधार पर यह देखना शुरू किया। बड़ी मेहनत। उन
दिनों के कम्प्यूटरों में यह सवाल हल करने में बड़ी देर लगती थी। वह ज़माना था जब न ई-मेल थी न
मोबाइल।
बात यह चली कि आप राशियों (जैसे तापमान) के नियत मान ले कर शुरू करें और देखें कि वह कैसे
बदलती है। जैसे अभी तापमान है 20.45 डिग्री। दो मिनटों के बाद हुआ 20.46 डिग्री। फिर दो मिनट के
बाद 20.47 डिग्री। ऐसे चलता चला। चण्डीगढ़ पहुंचे तो तापमान 21.9 डिग्री। पर माडल में ज़रा भी
बदलाव किए बिना अगर शुरू का तापमान लिया 20.44 डिग्री, तो लोरेन्त्स ने देखा कि चण्डीगढ़ पहुंचने
पर मिला 19.38 डिग्री। यह बड़ी अजीब बात। शुरूआत में ज़रा सा बदलाव और परिणाम बिल्कुल अलग।
इस को कई बार यूँ कहा जाता है कि जैसे चेन्नई में एक तितली ने पंख फड़फड़ाए - ज़रा सा हवा का
दबाव बदला, जरा सा, बहुत ही कम। इस से हैदराबाद तक दबाव क़ाफी बदल गया और चण्डीगढ़
आते-आते एक दिन बाद त़ूफान ही आ गया।इसे तितली का जादू या बटरफ्लाई इफेक्ट कहा जाता है।
ऐसा हमेशा हो, ज़रूरी नही, पर कभी-कभार ऐसा होता है। इसलिए मौसम के बारे में कुछ भी कहना
इतना मुश्किल है। प्रारंभिक स्थिति में नगण्य अंतर से बाद में होने वाले बदलाव से जुड़ी इस अनिश्चितता
को आप एक उत्तरआधुनिक (Post-Modern) धारणा मान सकते हैं। पर यह कोई षड़यंत्र नहीं, इसे
deterministic chaos (निश्चितता से उपजी विश्रृंखला या केऑस) कहते हैं, क्योंकि माडल में
शामिल हर राशि का निश्चित मान है। इस केऑस के लिए एक बुनियादी ज़रूरत है कि माडल में
समीकरणों में अरैखिकता (Non-linearity) हो (अरैखिकता - यानी जो एक रेखा में नहीं चलता।
एक राशि में दुगुना बदलाव हुआ तो दूसरे में दुगुने से अधिक या कम बदलाव होगा)। इस केऑस और पहले
प्रकार की अनिश्चितता में फर्क है।
तालिका: तीन तरह की अनिश्चितताएँ
प्रकृति में हो रही क्रिया-प्रक्रियाओं में पहले प्रकार की अनिश्चितता से जुड़े संयोग और संभाविता को
समझने के लिए हम यादृच्छ घटती बढ़ती राशियों (random variables) का उपयोग करते हैं। इन
राशियों का निश्चित मान नहीं होता। किसी एक निश्चित मान की संभाविता कितनी है, यह निश्चित होता
है। गणित की एक शाखा, जिसे स्टोकास्टिक प्रोसेस थीअरी कहते हैं, इसी पर आधारित है। पिछली आधी
सदी में जीव-विज्ञान में स्टोकास्टिक माडलों का इस्तेमाल कर न केवल जैविक तंत्रों के बारे में बुनियादी
समझ बढ़ी है, बल्कि इससे अरैखिक गतिकी (nonlinear dynamics) के अनोखे निष्कर्ष सामने
आए, जो अन्य विधाओं में भी काम आए हैं। तकनीकी अंग्रेज़ी में ऐसी प्रक्रियाएँ जिनमें संयोग की भूमिका
होती है, नॉएज़ी (noisy) प्रक्रियाएँ कहलाती हैं। सामान्यतः किसी राशि का मान एक निश्चित नियम के
अनुसार बदलता रहता है, साथ में नॉएज़ (शाब्दिक अर्थः- शोर) भी राशि को निश्चित मान से दूर
भटकाता रहता है। पारंपरिक समझ यह है कि नॉएज़ की उपस्थिति से किसी प्रक्रिया के बारे में सही समझ
बना पाना कठिन हो जाता है।
गुणधर्म के मापित मान को सिगनल कहें तो किसी भी मापन में सिगनल और नॉएज़ का अनुपात (SNR
ratio) महत्त्वपूर्ण है। कई प्राकृतिक प्रक्रियाओं में देखा गया है कि अल्प मात्रा में नॉएज़ की उपस्थिति से
SNR अनुपात बढ़ गया है। एक रोचक उदाहरण धरती पर शीत युग का है। ग्रहों और सूरज में आकर्षण
और खगोलीय बलों के निश्चित नियमों के अनुसार शीत युग औसतन एक लाख सालों में एक बार आना
चाहिए। पर खोजों में पाया गया है कि दरअसल यह तकरीबन प्रति दस हजार साल में एक बार होता है।
इस घटना की पहली सफल व्याख्या 1981 में इतालवी वैज्ञानिक बेंज़ी और सहयोगियों ने दी। उनके
मुताबिक खगोलीय नॉएज़ की उपस्थिति से धरती का सामान्य तापमान से शीत युग में चले जाना द्रुततर
हो जाता है। इसे स्टोकास्टिक अनुनाद (stochastic resonance) कहा जाता है। इसी तरह 1995
में मॉस और वेज़ेनफील्ड ने दिखलाया कि समुद्र में एक छोटी मछली के पिछले भाग में मौजूद रेशों में
शिकारी मछली को पहचानने के सिगनल समुद्र की लहरों में मौजूद नॉएज़ की वजह से बढ़ जाते हैं। अब
ऐसे कई उदाहरण मालूम हैं जहाँ सामान्यतः न हो पाने वाली घटनाएँ स्टोकास्टिक अनुनाद की वजह से
संभव हो जाती हैं।
स्टोकास्टिक अनुनाद के विचित्र उदाहरणों को छोड़ दें तो सामान्य स्थितियों में नॉएज़ की उपस्थिति से
सिगनल कम ही होता है। शोर हो तो क्या सुनाई पड़ेगा? इसलिए आम तौर पर कोशिश यही होती है कि
नॉएज़ को किसी तरह कम किया जाए। प्रकृति में हर स्तर पर यह खेल जारी है। जैव-कोशिकाओं में जीवन
भी यादृच्छ और संतुलन की प्रवृत्तियों के बीच संघर्ष के खेल है। जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं, वहाँ भी नॉएज़ को
कम करने के शरीर के अपने तरीके हैं। कोशिका में स्वतः जनमते और मरते विभिन्न प्रकार के अणुओं की
संख्या में घट-बढ़ (fluctuations) एक तरह की नॉएज़ है। मसलन कोशिकाओं में कई ऐसे डी एन ए
अणु हैं जो औसतन अपनी एक प्रति बनाते हैं। इन्हें प्लाज़मिड कहते हैं। प्लाज़मिड और संवादवाहक आर
एन ए (messenger RNA) अणुओं की संख्या एक के बजाय दो हो जाए, तो यह 100% की वृद्धि है।
स्पष्ट है कि इससे कोशिका में भारी असंतुलन पैदा होता है।
पर्याप्त मात्रा से अधिक अणुओं के होने पर कोशिकाएँ घट-बढ़ का हिसाब लगाती हैं और जैवरासायनिक
प्रक्रियाओं के तंत्रजाल के जरिए सही संतुलन को वापस लौटाने की कोशिश करती हैं। पर जब अणुओं की
संख्या ही एक या दो हो तो इस तरह का सुधार कठिन है। इसलिए यह घट-बढ़ अक्सर बनी रहती है और
औसत संख्या से कम या अधिक यादृच्छ दोलन चलता रहता है। कुदरत ने ऐसे कई नियंत्रक परिपथ ईजाद
किए हैं, जो या तो नॉएज़ को खत्म करते हैं, या नॉएज़ के साथ सह-अस्तित्व बनाए रखते हैं, या
स्टोकास्टिक अनुनाद जैसे तरीकों से नॉएज़ का इस्तेमाल उपयोगी प्रक्रियाओं में बढ़त के लिए करते हैं।
हाल में इओआनिस लेस्तास और सहयोगियों ने इस दिशा में कोशिकीय तंत्रजाल पर हुए शोध पर लिखा है।
उन्होंने अणुओं को तीन हिस्सों में बाँटा:- टार्गेट (लक्षित) अणु, बिचौलिए अणु और एक फीडबैक सर्किट
(पुनर्निवेशन परिपथ) में शामिल अणुओं की जमात। यहाँ 'फीडबैक सर्किट' शब्द बिजली के विज्ञान से लिए
गए हैं। एक परिपथ में आउटपुट का एक हिस्सा वापस इनपुट सिगनल में जोड़ा जाए तो फीडबैक सर्किट
तैयार होता है। इससे आउटपुट सिगनल लगातार नियंत्रित होता रहता है। जैवरासायनिक प्रक्रियाओं में भी
इसी तरह मात्राओं का नियंत्रण होता है। टार्गेट अणु बिचौलिए अणुओं का उत्पादन बढ़ाते हैं, जो फीडबैक
की प्रक्रियाओं में जुड़कर वापस टार्गेट अणुओं की संख्या नियंत्रित करते रहते हैं।
फीडबैक की प्रक्रियाओं को समझने के लिए सूचना सैद्धांतिकी (इनफार्मेशन थीअरी) का व्यापक उपयोग
हुआ है। इसके जरिए हम यह हिसाब लगा सकते हैं कि नॉएज़ पर नियंत्रण की सीमाएँ क्या हैं। स्वतः होने
वाली प्रक्रियाओं में नॉएज़ बढ़ता रहता है, यानी उपलब्ध सूचना कम होती रहती है। यह प्राकृतिक नियम है।
जब फीडबैक सर्किट टार्गेट अणुओं की संख्या में घट-बढ़ को नियंत्रित करने लगता है तो टार्गेट के बारे में
उपलब्ध सूचना में कमी होने लगती है, क्योंकि इसी घट-बढ़ से ही वह फीडबैक सिगनल मिलता है जिसे
नियंत्रण चक्र को चलाए रखना है। इस सिद्धांत से ऐसे सरल निष्कर्ष पाए गए हैं जिनको प्रायोगिक रूप से
प्रमाणित कर पाना संभव है। देखा गया है कि नॉएज़ कम करने में बिचौलिए अणुओं और टार्गेट अणुओं
की संख्या का अनुपात महत्त्वपूर्ण है। नॉएज़ में 10 गुना कमी लाने के लिए प्रति टार्गेट अणु 10000
बिचौलिए अणुओं की ज़रूरत पाई गई।
जैविक प्रक्रियाओं में विभिन्न गुणधर्मों को नियत मान पर बनाए रखना (या घट-बढ़ को नियंत्रित करना)
महँगा पड़ता है। स्तनपायी पशुओं में शरीर का तापमान स्थिर रखने के लिए सरीसृप प्रजाति के पशुओं की
अपेक्षा कहीं अधिक ऊर्जा की खपत होती है। परिवेश में बदलाव आने पर भी स्तनपायी शारीरिक रूप से
सक्षम रहते हैं, जबकि सरीसृप के लिए ऐसा संभव नहीं । इसी वजह से स्तनपायी पशु सारी धरती पर फैल
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चित्रः कोशिकीय प्रक्रियाओं में नियंत्रक तंत्रजाल के उदाहरण की काल्पनिक तस्वीर। यहाँ राक्षस नियंत्रक का
प्रतीक है जो नॉएज़ को खत्म करते हैं, या नॉएज़ के साथ सह-अस्तित्व बनाए रखते हैं, या स्टोकास्टिक अनुनाद
जैसे तरीकों से नॉएज़ का इस्तेमाल उपयोगी प्रक्रियाओं में बढ़त के लिए करते हैं। नॉएज़ की धारणा और फीडबैक
परिपथ के ऐसे माडल सामाजिक राजनैतिक संदर्भों में भी लागू होते हैं।(Nature पत्रिका के 9 सितंबर 2010
अंक में प्रकाशित लेस्तास और सहयोगियों के आलेख से साभार)
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पाए हैं।
आनुवंशिक जीन इकाइयों के ऐसे कई तंत्रजाल कोशिकाओं में मौजूद हैं। पर यह स्पष्ट नहीं है कि
बिचौलिए अणुओं की संख्या में घट-बढ़ को नियंत्रित करने वाले फीडबैक परिपथ हर नियंत्रक
तंत्रजाल के लिए हैं या नहीं। ऐसे कई प्लाज़मिड अणुओं की खोज हुई है, जो बड़ी द्रुतता के साथ
बिचौलिए अणु बनाते हैं। हर तंत्रजाल की जटिलता का अपना पैमाना होता है, जिसका फीडबैक
परिपथ में शामिल प्रक्रियाओं की संख्या से अनुमान लगाया जा सकता है। लेस्तास और
सहयोगियों ने यह भी दिखलाया है कि तंत्रजाल की जटिलता की एक सीमा तक कोशिका फीडबैक
नियंत्र का अधिकतम फायदा उठा सकती है। सीमा से अधिक जटिलता होने पर नॉएज़ का प्रभाव
बढ़ने लगता है। इसकी वजह से प्लाज़मिड संख्या में नियंत्रण के कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ
फीडबैक परिपथ नहीं के बराबर हैं। यह कुछ ऐसा है जैसे कुछ व्यापारी सामान लेन-देन के लिए
कर्मचारियों की एक पूरी शृंखला बनाए रखते हैं, जबकि कुछ और सीधे ग्राहक के साथ संबंध बनाते
हैं।
सामाजिक राजनैतिक संदर्भों में भी नॉएज़ की धारणा और फीडबैक परिपथ के माडल लागू होते हैं। पर
पदार्थ विज्ञान के माडलों का सामाजिक संदर्भ में जस का तस उपयोग न केवल निरर्थक, बल्कि
हानिकारक भी हो सकता है। जीव-कोशिका में डी एन ए या अन्य अणुओं की संख्या कम होने से जिस
तरह नॉएज़ काफी प्रभावी होता है और संयोग का महत्त्व बढ़ जाता है, उसी तरह समाज में भी लोगों की
संख्या सीमित (और सामान्य वस्तुओं में अणुओं की संख्या से कई कई गुना कम) होने से सामाजिक
प्रक्रियाओं में संयोग की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। कई बार इस सरल बात को न जानकर विज्ञान के माडलों
का इस्तेमाल करने वाले गलत निष्कर्षों पर पहुँच जाते हैं और फिर विज्ञान के औचित्य पर सवाल उठाने
लगते हैं।