Saturday, December 29, 2018

प्रतिरोध गूँजता है - ‘म्याऊँ'


तुमने पतंग उड़ाई है?
 
धूप है, आस्मान सुनहरा,
धरती पर धान का पौधा अपनी गर्दन घुमा कर
बादल ढूँढता है
मैं सपनों में पतंग बन दो आँखें ढूँढता हूँ

पागल हवा धरती के हर मुल्क का सैर कर आती है
साँप सी टेढ़ी सड़क के किनारे पौधों के पत्ते हैं
ऊँची घास नशे में लहराती है
समंदर पर लहरों सी
उड़ती है पतंग

अनगिनत साल बीत गए
खोया नहीं हूँ पतंगों की भीड़ में
जाना कि इंसान हूँ
कि चाकू बंदूक चला सकता हूँ
उड़ती पतंग 
उतार सकता हूँ ज़मीं पर
जहाँ हर ओर घास पेड़ जल रहे हैं। 

सपने 
पतंग 
आँखें
उड़ कर पास जा पूछता हूँ - दोस्त, कैसे हो?
डरावनी शक्ल के लोग मीठी हँसी हँसते कहते हैं - 
सँभल कर भाई, खुशी उफनने न लगे। 

हवा में तब उम्म्ह गंध होती है
आकाश है कि समंदर
घबराता मैं बातें करता हूँ - यह, वह, तुम, मैं…

चाहता कि कहूँ - चलो, साथ उड़ेंगे
कह न पाता हूँ 
सुनता हूँ कि कुछ लोगों ने एक झंडा उतारा है
और एक हवा में फहराया है
कि मैं, मैं नहीं, न पतंग, न सपना,  
शहर में ब्लैक आउट, 
सीने में ठकठक फौज की परेड गूँजती है
फिर जंग छिड़ी है

गंगा के सीने में
नौका के नीचे
सूरज लाल रंग बिखेरे
धरती से कहता है - ‘बाई, बाई'

तुम जा रही हो
तुम्हारी गोद में बिल्ली है
सोचती कि तुम उस पर नाक रगड़ोगी या नहीं
तुम्हारी साँस में 
पेट की गहराई से
प्रतिरोध गूँजता है - ‘म्याऊँ'

मेरा गला सूख गया है
बहुत प्यास लगी है
सोचता हूँ
तुमने कभी पतंग उड़ाई है?
तुम्हारे वतन का नाम नहीं जानता
मंगोलिया या बेलीजे कुछ है
आस्मान से ज़मीं को देखता हूँ
तुमने पतंग उड़ाई है?                 (1993; हंस -2018)

Sunday, December 16, 2018

हम सब बच्चे बनना चाहते हैं


पिछले साल 10 दिसंबर को मैं सेवाग्राम में था। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच 

की मीटिंग थी। 9 को आधी रात होते ही युवा मित्रों ने उठाकर जन्मदिन का 

शोर मचाया। इस बार भी संयोग से मंच की ही मीटिंग में दिल्ली गया हुआ था। 

जब शाम को एयरपोर्ट के लिए निकलने लगा तो साथ के सभी बुज़ुर्ग साथी थे, 

उनसे कहा कि अब आप मुझे हैपी बड्डे कह सकते हैं। तो उन्होंने भी थोड़ी देर 

सही, शोर तो मचाया। बहरहाल फेसबुक पर शोर से बच गया और इसलिए इस 

अपराध-बोध से बचा रहूँगा कि दूसरों को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएँ 

नहीं भेजता।  ऐसा बदतमीज़ हूँ कि उन दो-चार प्यारे मित्रों के जन्मदिन भी 

भूल जाता हूँ, जो वर्षों से मुझे 'विश' करना नहीं भूलते हैं। 

बहरहाल, यह पचीस साल पुरानी कविता 'हंस' के दिसंबर अंक में आई है :
 



पागल मुझे जगाया





कब की बात


पागल मुझे जगाया


तुमने कहा कि मैं अठारह पर अटका हूँ


कोई सपना नहीं था


तुमने कहा कि हम सब बच्चे बनना चाहते हैं





आज इस सर्द रात


रजाई ओढ़े, खिड़की से पूरे चाँद की चाँदनी देख रहा हूँ


रोशनी उनका बोझ ढँक रही है


जो मेरे लिए लड़ रहे हैं





अठारह की उम्र मुझे छोड़ कहीं और खड़ी है


मैं खुद में छिपा हूँ


तुम तुम न रही


उन सीधे रास्तों की तलाश में


अठारह के करीब रहते मैं दूर फिसल गया


जिनसे घबराती तुम खो गई


कब की बात


लौट आई


पागल मुझे जगाया


कहा कि मैं अठारह पर अटका हूँ





उन लम्हों को पकड़ने की कोशिश में हूँ


जो अनगिनत हादसों में भुलाए नहीं गए
 
जिन ज़ख्मों में कहीं तुम हो





इसी टीस की चाह में


सतह से नीचे कहीं कुछ पकड़ रहा हूँ


जिसे हर कोई ग़लत कहता है





अठारह नहीं ज़ख्मों का घर हूँ


पागल मुझे जगाया


कि मैं अठारह पर अटका हूँ।

                                 - (1990; हंस - 2018)

Saturday, November 17, 2018

मानव-केंद्रिक सभ्यता के लिए

उत्थिष्ठ, उत्थिष्ठ, मूढ़मति : एक पिता एकस के हम वारिस
('अनहद' पत्रिका के ताज़ा अंक में प्रकाशित :‍अक्तूबर 2017 में गोवा में ‘संगमन-22’ में, नवंबर 2017 में हैदराबाद विश्वविद्यालय में छात्र संगठन के लिए और दिसंबर 2017 में भोपाल में पीपुल्स रिसर्च सोसायटी की सभा में दि व्याख्यानों का सार)1

वाल्ट ह्विटमैन की एक छोटी कविता 'ओ कैप्टेन माई कैप्टेन' स्कूल की पाठ्य-पुस्तक में थी, पर तब उन्हें जानते नहीं थे। कॉलेज में उनकी लंबी कविता 'सॉंग ऑफ माईसेल्फ' पढ़ी। ह्विटमैन आधुनिकता के उस अच्छे पक्ष के चारण स्वर थे, जो हमारे यहाँ जनपदों के चारवाकों से लेकर, कबीर और गाँधी तक की हारी हुई लड़ाइयों वाला पक्ष है। अहं ब्रह्मास्मि, तत् त्वमसि की ध्वनि को तर्क और मानवता-केंद्रिक दिशा देते हुए ह्विटमैन ने अपना गीत लिखा था – वह लंबी कविता 'सॉंग ऑफ माईसेल्फ'

I celebrate myself, and sing myself,

And what I assume you shall assume,

For every atom belonging to me as good belongs to you.

खुदी को celebrate करना महज घमंड नहीं था, वह तो सिर्फ खुदी है ही नहीं, क्योंकि मेरा हर परमाणु तुममें भी है। इसे उलट कर यह भी कह सकते हैं कि तुम्हारा हर परमाणु मुझमें भी है। यह सपना हजारों सालों से अलग-अलग लोगों ने देखा है।आज वक्त आ गया है कि हम समूचे ग्रह की पैरवी करें, समूची मानवता की पैरवी करें। तो क्या हर इंसान दूसरे का क्लोन है? - ऐसा नहीं है। स्थानीय सभ्यताओं का जो मिथक गढ़ा गया है, जैसे भारतीय, ची या यूरोपी सभ्यताएं, या हिन्दू या इस्लामी सभ्यताएं, जिनमें बहुत बड़े समूह के लोगों को उनकी मरजी के बगैर घसीट लिया जाता है और जिसका इस्तेमाल हुकूमतें और फिरकापरस्त ताकतें खुलेआम करती हैं, मैं उनसे अलग समूचे ग्रह में एक मानव-केंद्रिक सभ्यता की बात कर रहा हूँ। यह एक सभ्यता अनंत सभ्यताओं की बनी हुई है, कम से कम पौने आठ अरब सभ्यताएँ उसमें शामिल हैं। हर इंसान एक सभ्यता है। इस साल अक्तूबर क्रांति के सौ साल हो चुकने का उत्सव मनाया जा रहा है। इस क्रांति क प्रेरणा-स्रोत मार्क्स और एंगेल्स ने यही कहा था कि दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ। उन्होंने यह नहीं कहा था कि जर्मन या इंग्लैंड के मजदूरो एक होवो। अक्तूबर क्रांति महज रूस की क्रांति नहीं थी। सफलता के बाद क्रांतिकारी सरकार का पहला कदम यूरोप में चल रही जंग से अपने लोगों को वापस बुलाने का था। सरमाएदार और सामंती ताकतों की छेड़ी जंग के खिलाफ खड़ा होना मानवता के लिए खड़ा होना था।



ह्विटमैन ने स्वेज नहर के खुल जाने पर उत्तेजना में 'Passage to India!' कविता लिखी थी, जिसमें वे पुकारते हैं -


The daring plots of the poets, the elder religions;            

O you temples fairer than lilies, pour’d over by the rising sun!            

O you fables, spurning the known, eluding the hold of the known, mounting to heaven!            

You lofty and dazzling towers, pinnacled, red as roses, burnish’d with gold!            

Towers of fables immortal, fashion’d from mortal dreams!            

You too I welcome, and fully, the same as the rest!      

You too with joy I sing.            


यहाँ महत्वपूर्ण बात आखिरी पंक्तियों में है। मैं औरों के साथ तुम्हारा भी स्वागत करता हूँ। तुम्हारे साथ भी उल्लास के साथ मैं गाता हूँ।



यानी कि हम स्थानीय, सामुदायिक, संस्कृतियों, इतिहासों के बंधन से आज़ाद हों और सारी धरती के आख्यान बुनें। ऐसा नहीं कि स्थानीय अमान्य है, पर हम जानें कि जो बुनियादी सच हैं, वो हर किसी के लिए एक जैसे हैं। सर्जनात्मक लेखन में इस बात को बार-बार कहा गया है, जैसे मुक्तिबोध ने कहा है - 'जन-जन का चेहरा एक।...चाहे जिस प्रांत पुर का हो, जन-जन का चेहरा एक'- एक होते हुए भी वह एक नहीं, वह जन-जन है। यानी हम अनंत सभ्यताओं को पहचानें, कम से कम पौने आठ अरब तो ज़रूर। जाहिर है कि 'जन-जन का चेहरा एक' से मतलब यह नहीं है कि धरती पर हर इंसान दूसरे का 'क्लोन' है। हम जानते हैं कि हर इंसान विशिष्ट होता है। उसकी बाक़ी और सब प्राणियों से अलग अपनी खास पहचान होती है। न केवल अपने जीवन-काल में, बल्कि अतीत में जन्मे और भविष्य में जन्म लेने वाले हर इंसान से वह अलग है। फिर 'चेहरा एक' का मतलब क्या है? 'चेहरा' से मतलब शक्ल से नहीं है, जिसका स्वरुप हमारे जीन्स में तय है, जो हमारे माता-पिता से हमें मिले हैं। इसका मतलब कविता में आगे समझाया गया है - दुनिया के हर देश में जो धूप इंसान के शरीर पर पड़ती है, वह एक है। दु:खों कष्टों का बोझ एक है, जिनसे जूझने में इंसान की शिद्दत एक है। हर जगह इंसान का एक 'पक्ष' है। मुक्तिबोध के इंसान की जीवन-धारा धरती पर बहती नदियों की धारा सी एक-सी है। जाहिर है कि गंगा-यमुना और मेकॉंग का बहाव एक जैसा हो, ज़रूरी नहीं है, पर जो बात एक है, वह यह कि वे बहती हैं। कवि ने अपने जीवन के सीमित दायरे में जिन इंसानों को देखा, अपने उन बार-बार किये अवलोकनों की शृंखला के जरिए वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि 'जन-जन का चेहरा एक'। इसके बाद यह और निष्कर्षों की निष्पत्ति की बुनियाद बन जाता है। जब हम सूक्ष्मतर द्वंद्वों की ओर बढ़ते हैं तो हमारे मॉडल में और बातें जोड़नी पड़ती हैं - यह वैज्ञानिक पद्धति का हिस्सा है। इंसान की सामान्य सोच भी कुदरती तौर पर ऐसी ही होती है। इसलिए जिन्हें लगता है कि जटिल को सहज संरचना में देखना ही विज्ञान है, वे वैज्ञानिक पद्धति को बिना जाने ही अनुमान लगा रहे होते हैं।



मुक्तिबोध की एक और कविता की पंक्तियाँ हैं - 'एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, / व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ;/ बहुत अच्छे लगते हैं/ उनके तज़ुर्बे और अपने सपने .../ सब सच्चे लगते हैं;/ अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है / मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ ;/ जाने क्या मिल जाए?' - यह जो नैसर्गिक है, कि हम सौ राहों से गुजरें, अनंत संभावनाएँ हमारा भविष्य हों, इसे मानव-केंद्रिक सोच से अलग राष्ट्रवाद जैसी संकीर्ण सोच ने कुचल डाला है।



वाजिब सवाल है कि मानव-केंद्रिक सोच तो हमेशा से रही है, तो आज इस पर खास तवुज्जो क्यों? वह इसलिए कि पहले यह सिर्फ यूटोपिया मात्र थी, पर आज यह ठोस संभावना है। अगर हमारे दुश्मन तक्नोलोजी का इस्तेमाल दुनिया भर में नफ़रत फैलाने के लिए करते हैं, तो हम प्यार फैलाने की मुहिम छेड़ सकते हैं। दरअसल यह मुहिम जारी है, हमें इसमें शामिल होना है।



ऐसी प्रस्तावना आज खतरनाक हो सकती है। इस प्रस्तावना में यह निहित है कि हम यह जानें कि हर कोई प्यार पाने लायक है। क्योंक वह एक धरती पर एक मानव-समुद्र में बिखरा जन-जन है।



इस तरह की सोच रखने वाले हम सब के खिलाफ जंग छिड़ चुकी है। वैसे तो जंग का मतलब तोप-गोलों वाली लड़ाई होता है, और यह भी कभी भी छिड़ उठने के आसार हैं। 2019 में मोदी और संघ के फिरकापरस्त पोंगापंथियों को इतनी आसानी से जीत नहीं मिलने वाली जैसे 2014 में हुई थी, इसलिए लोगों को भरमाने और भड़काने के लिए अपना ब्रह्मास्त्र, चीन या पाक के साथ जंग, छेड़ने में ये लोग झिझकेंगे नहीं। यही तरीका बचेगा कि लोगों को अपनी ओर किया जा सके, क्योंकि इस वक्त सरकार उनकी है और जंग छिड़े तो हर कोई सरकार के पक्ष में होने को मजबूर है। पर हम एक और जंग की बात कर रहे हैं।



बुद्धिजीवियों पर हमले कोई नई बात नहीं है। हुक्मरानों के अलावा दूसरी ताकतें भी ऐसा करती रही हैं। कभी हत्याएँ होती हैं, कभी अदीब और कलाकार खुदकुशी कर लेते हैं। 1987-88 का दौर था, जब पाश की हत्या हुई, फिर गोरख पांडे की खुदकुशी और सफदर हाशमी की हत्या। हमले और हत्याएँ, यह कला और अदब में विवेक बनाए रखने की कीमत है।



पर जैसे हालात आज हैं, जो मौजूदा हुकूमत की सरपरस्ती में बढ़े हैं, यह खुलेआम जंग का ऐलान है। भले लोग इस तरह सोचते नहीं हैं, सोच नहीं पाते हैं। आखिर घर-परिवार की चिंता से अलग फासीवादी सरकार और गुंडों की दबंगई की बात हम कहाँ सोच पाते हैं। इसलिए घटनाएँ होती रहती हैं और हम अचंभित होते हैं। किसी दोस्त का फ़ोन आता है, गौरी लंकेश की हत्या हुई, क्या उनसे वाकिफियत थी? फिर हम ढूँढते हैं, अरे यह तस्वीर तो पहचानी हुई लगती है। कहाँ तो मिले थे, शायद चार साल पहले बेंगलुरु में शिक्षा अधिकार मंच के जुलूस में या कि भोपाल में शिक्षा संघर्ष यात्रा में, हम सोचते रह जाते हैं कि एक भला इंसान धरती से गायब हो गया कि उसे कुछ लोग इस ग्रह में रहने नहीं देना चाहते। दिमाग कुंद सा हो जाता है। सोचते रह जाते हैं कि आगे क्या करना है। रोज़ाना ज़िंदगी चलती रहती है, खबर आती है कि लोग सड़कों पर उतर आए हैं कि जंग है जंगे-आज़ादी, हम चाहते आज़ादी, फासीवाद से आज़ादी।



बुरी खबरें आम बात हो गई हैं। अवसाद की शुरुआत कब से हुई, याद नहीं आता। हम संवेदनशील और कमज़ोर हैं और कत्ल और ख़ून के खेल के मूक दर्शक हैं। फिर भी बुरी खबरों और अवसाद के बीच हम प्रतिरोध का जश्न मनाते हैं। इसी में याद आता है कि हम अरसे से लिखते-पढ़ते आ रहे हैं कि हालात बिगड़ेंगे। पर पता नहीं कब जैसा सोचा था उससे कहीं ज्यादा हम घिर गए हैं; धीरे-धीरे समझ में आता है कि फासीवादियों ने हम सब के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है।



अदब का विवेक स्थानीय संकीर्णताओं के खिलाफ हमेशा ही चीखता रहा है। वह कवि नबारुण भट्टाचार्य की कविता में चीखता है कि 'यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं है, .. जो भाई बेशर्म हस्बमामूल बैठा है, मुझे उससे नफ़रत है, जो अध्यापक, कवि, क्लर्क इस हत्या का बदला नहीं माँगता, मुझे उससे नफ़रत है ... मैं पागल हो जाऊँगा, खुदकुशी कर लूँगा, जो मर्ज़ी हो करूँगा। कविता लिखने का वक्त यही है, इश्तहारों में, दीवारों, स्टेन्सिल पर अपने ख़ून, आँसू, हड्डियों से कोलाज रचते हुए अभी कविता लिखी जाएगी, बेहद तकलीफ से तितर-बितर हो चुकी शक्ल लिए आतंक का सामना करते हुए ... कविता उछाली जाएगी....हमारे कवि भी लोर्का की तरह कि दम घुट कर या कि स्टेनगन की गोली से, सिली हुई लाश गायब होने के लिए तैयार रहें ...यह मौत की घाटी मेरा मुल्क नहीं है, जल्लाद के जश्न का यह मंच मेरा मुल्क नहीं है, यह फैला हुआ श्मशान मेरा मुल्क नहीं है, यह ख़ून से नहाया कसाईघर मेरा मुल्क नहीं है, मैं अपने मुल्क को खींच कर अपने सीने में समेट लूँगा....।’ हिंदुस्तानी कवि का लोर्का से जुड़ना अपनी मानव-अस्मिता की घोषणा है।



सिर्फ कवि नहीं, यह पहचान कि हम इंसान हैं और इंसान की बुनियादी ज़रूरत खिलना और खुलना है, आस्मान तक पहुँचना है, इसे युवाओं से बेहतर कौन जानेगा। इसलिए सड़कों पर युवा गाते हैं - हम कैसे लेंगे आज़ादी, लड़ के लेंगे आज़ादी, छीन के लेंगे आज़ादी। यह जंग है जंगे-आज़ादी। यह गान अदब की बुलंदी नहीं है, पर इसको जाने बिना बेहतरीन साहित्य नहीं लिखा जा सकता है।



समूची धरती तक फैली इस एकजुटता में जो प्यार है वह बढ़ता ही चलता है। हर हमले के बाद हम और ज्यादा प्यार के उल्लास में डूबे चले जाते हैं।



सौ साल पहले दीगर और इंसानी हरकतों की तरह कला और साहित्य में भी उम्मीद थी कि तर्कशीलता और विज्ञान हमें बेहतरी की ओर ले जाएंगे। धरती पर जनृजन का एक होना एक तर्कशील सोच थी। फिर सदी के बीच तक यह समझ बनी कि विज्ञान का उस तक्नोलोजी से घना रिश्ता है जो न केवल इंसान बल्कि पूरे जीव-जगत और यहाँ तक कि पूरी धरती तक के लिए खतरनाक हो सकती है। कई पारखियों ने विज्ञान में संरचनात्मक दोष ढूँढने की कोशिशें कीं। आस्था का इस्तेमाल नफ़रत की सौदागरी के लिए हमेशा ही होता था, तर्कशीलता पर हमलों से फिर से आस्था का बाज़ार बढ़ने लगा। हमें समझ में आया कि दरअसल मजहब, विज्ञान और दीगर संस्थाओं की जगह, या उनमें भी, प्यार एक ऐसा लफ्ज़ है जो हरकत में आता है तो कला और अदब की ऊँचाइयाँ दिखती हैं। प्यार हमें विवेकवान बनाता है, प्यार करते हुए हम समझते हैं कि हर कला का आखिरी पड़ाव प्यार में ही होता है। इसलिए नफ़रत के सौदागरों ने प्यार पर हमला बोलना शुरू कर दिया। और हमने देखा कि प्यार और जिहाद, ये दो लफ्ज़ अपने विस्तार में बढ़ते चले, रंगों की बरसात में भीगते चले।



नबारुण कहते हैं, ‘लड़खड़ाती धूप-छाया में मछली की आँख जैसी गहरी प्रीत – जिससे जन्म लेने से आज तक प्रकाशवर्ष की दूरी में अछूता रह गया हूँ - इंकलाब का जशन मनाने के दिन उसे भी पास बुलाऊँगा।' इसी उल्लास का डर हुक्मरानों और उनके पोंगापंथी संघियों को सबसे ज्यादा है। और उतने ही आवेग के साथ कवि प्रतिरोध की परंपरा की याद दिलाता कहता है, ‘देखो, मायकोव्सकी, हिकमत, नेरुदा, आरागाँ, एलुआर, देखो कि तुम्हारी शायरी को हमने हारने नहीं दिया, उल्टे सारा मुल्क एक महाकाव्य लिखने की कोशिश में जुट गया है, गेरिला छंदों में रचे जाएँगे सभी अलंकार।... मेरा कत्ल करोगे तो मिट्टी के सभी दीयों में फैल जाऊँगा, मेरा नाश नहीं है - साल दर साल हरा भरोसा लिए लौटता रहूँगा...' अपने उल्लास में समूची धरती के सभी कवियों को शामिल करते हुए हम फिर अपनी खोई हुई इंसानियत की ओर वापस लौटते हैं।



पिछली सदी में विद्वानों ने यह सिद्ध करने में दम लगा दिया कि हम यूरोपी सभ्यता से कमतर नहीं थे। औपनिवेशिक शासन ने हमें पिछड़ेपन में धकेल दिया। बेशक आज़ादी की लड़ाई में और आज़ादी के तुरंत बाद यूरोपकेंद्रिक सोच के खिलाफ और यूरोपी नस्लवाद से जूझने के लिए अपनी राष्ट्रीय अस्मिता ढूँढना जनांदोलनों की प्राथमिकता थी। इसका एक मायना यह था कि आलमी पैमाने पर हावी यूरोपी विश्व-दृष्टि के बरक्स मूल सभ्यताओं संस्कृतियों को बेहतर बतलाने की कोशिश हो। इसकी वजह से जो उप-संस्कृतियाँ थीं, उनको बराबरी का दर्ज़ा नहीं दिया गया और साथ ही हाकिमों के लिए राष्ट्रवाद के नाम पर आम लोगों को धोखे में रखना मुमकिन हुआ। इससे गैरबराबरी और ज़ुल्म बढ़ते चले और दुनिया भर में अस्मिता की लड़ाइयाँ होती रहीं। बेशुमार जंग-लड़ाई-मार में बड़ी तादाद में लोग मारे जाते रहे हैं और धरती पर इंसान के रहने लायक परिवेश नहीं रह गया है।आज़ादी के सत्तर साल बाद राष्ट्रवाद के आख्यान के बरक्स एक मानव-केंद्रिक या धरती-केंद्रिक सोच के लिए आग्रह का वक्तआ चुका है। जिस बृहत्तर आख्यान की प्रस्तावना हम कर रहे हैं, उसमें विविधता और बहुलता का होना लाजिम है, यहाँ तक कि उसमें इंसान से इतर और जानवरों के लिए सोचना भी शामिल है। इसके लिए विज्ञान और तक्नोलोजी की मदद हमेंलेनी है और साथ ही किस तरह तक्नोलोजी का ग़लत इस्तेमाल करते हुए हुकूमतों ने पूरी धरती को संकट में डाल दिया है, इसे भी हमें समझना है।



विज्ञान और तक्नोलोजी का इस्तेमाल भले लोगों ने कितना किया कह पाना मुश्किल है, पर बुरे लोगों ने भरपूर किया। फिर अदब ने ही हमें वह अंधकार दिखलाया जहाँ हम जा सकते हैं, जहाँ हमें संघी ले जाना चाहते हैं, जहाँ 'ओर्वेलियन बिग ब्रदर' बैठा हर किसी को नाक खुजलते तक देख रहा है, जहाँ हक्स्ले की 'बहादुर नई दुनिया' में हर कोई हर किसी का क्लोन है। वह आतंक भरा भविष्य उनका ध्येय है। हम उम्मीद भरे विकल्प ढूँढते रहे। हमने तर्कशीलता को छोड़ा नहीं, पर हमने इसकी सीमाओं को समझा। हमने जाना कि फासीवादी भी तर्कशील होते हैं, उनके कुतर्क की अश्लीलता से टकराते हमारे दाभोल्कर, पान्सारे, कुलबर्गी और गौरी लंकेश धरती पर लहूलुहान लेट गए। तासीर, निलय नील, वाशिकुर रहमान और अभिजित रॉय की हत्याएँ हुईं। रोहित वेमुला और अनीता व्यवस्था की खाइयों में खो गए। विज्ञान से जो उम्मीद सौ साल पहले थी कि हम बेहतर समाज की ओर बढ़ेंगे, बराबरी हमारा सपना था, उस उम्मीद को हम प्यार में ढूँढते हैं। हमें एक दूसरे से प्यार है, न केवल इंसानों से, बल्कि सभी प्राणियों से प्यार है, यहाँ तक कि जो निर्जीव है, उससे भी प्यार है। तुम मारते रहो, बकौल फ़ैज़, 'निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले/ जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले, नज़र चुरा के चले, जिस्म--जाँ बचा के चले' - हमने यह कितनी बार पढ़ा है, सुना है। वह पाकिस्तान की फौजी हुकूमत के खिलाफ कह रहे थे, पर हम जानते हैं कि हमारी मौजूदा हुकूमत भी यह बता रही है कि हम डर कर रहें। हम डर सकते हैं, पर डर कर भी उनके साथ नहीं होंगे, क्योंकि शायर ही हमें बतलाता है कि 'यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़, न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई/ यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल, न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।’ हमारा भविष्य प्यार से लबालब है, इसलिए हम कहते हैं - पत्ता पत्ते से, फूल फूल से, क्या कह रहा है/ मैं तुम्हारी और तुम मेरी आँखों में क्या देख रहे हैं/ जो मारे गए, क्या वे चुप हो गए हैं?/ नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं - पत्तों फूलों में गा रहे हैं/देखो, हर ओर उल्लास है।2



हम जानते हैं कि उन्होंने क्यों हमारे खिलाफ जंग का ऐलान किया है। हम उनकी नफ़रत के खिलाफ हैं, इसलिए उनको हमसे नफ़रत है। स्टीफेन पिंकर के साथ हम भी यह मानते हैं कि भले ही एक ही साथ लाखों लोगों को मार डालने के औजार हमारे पास हैं, इंसानी तहजीब में वक्त के साथ अम्नपसंदी बढ़ी है। वे चाहते हैं कि वे हममें से हर किसी के अंदर से शैतान की प्रतिमूर्ति निकाल लाएँ, हम सब शैतान के पीछे चलें, ख़ून के छींटों से नहाएँ। हमारी इंसानियत को छीनकर हमें शैतान का अनुचर बनाना उनका प्रोजेक्ट है। हम इस आतंक को अपनी मानव-केंद्रिक सोच से खत्म करेंगे।



बहुत देर लगी जानने में कि एक मुल्क कैदखाने में तब्दील हो गया है/ धरती पर बहुत सारे लोग इस तकलीफ में हैं / कि कैसे वे उन यादों की कैद से छूट सकें /जिनमें उनके पुरखों ने हँसते खेलते एक मुल्क को कैदखाना बना दिया था।



आज कलाकार और अदीब के लिए चुनौती है कि जो हमें कुदरती तौर पर मिला है, उस तर्कशीलता को वापस लाएँ; वह सुंदर, वह विवेक, हमारे ध्वनियों में, रंगों में, हमारे लफ्ज़ों में वापस आए। हम विज्ञान के सुंदर को फिर से प्रतिष्ठित करें। हम पीछे नहीं रहेंगे। यह चुनौती हमारे सरमाथे पर।



हमारी हथेलियाँ उठ रहीं हैं साथ-साथ/ मनों में उमंग है/अब हर कोई अखलाक है/हर कोई कलबुर्गी/हर कोई अंकारा में है/हर कोई दादरी में है/हर प्राण फिलस्तीन है/ हमारी मुट्ठियाँ तन रही हैं साथ-साथ/देखो, हर ओर उल्लास है।



शैतान के लंबरदारों, सावधान।

किसको यह गुमान कि वह हवा पर सवार/ वह नहीं जानता कि हवा में है प्यार/ उसे पछाड़ती बह जाएगी/

यह हवा की फितरत है/सदियों से हवा ने हमारा प्यार ढोया है।



जो मारे गए /क्या वे चुप हो गए हैं? /नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं/ पत्तों फूलों में गा रहे हैं /

देखो, हर ओर उल्लास है।



यह रोचक बात है की राष्ट्रवाद और इस तरह की संकीर्ण सोच कैसी ग़लतफहमियों को जन्म देता है। बिल्कुल ही बेकार बहसें जो होनी नहीं चाहिए, इसलिए होती हैं कि हम मानव-केंद्रिक सोच से हटकर एक संकीर्ण राष्ट्रवादी सोच में फंसे होते हैं और बहुत सारी ऊर्जा, संसाधन और वक्त इन चीजों में जाया होते हैं। राष्ट्रवादी सोच हमें प्रतिक्रिया में फंसा देती है। हम इसी में लगे रहते हैं कि अगर यूरोपियन नस्लवादियों ने खुद को हमसे श्रेष्ठ कहने की कोशिश की थी तो आज हम सिद्ध कर देंगे कि हम उनसे बेहतर हैं। कई लोग बड़ी उम्र में संस्कृत सीखने लगते हैं क्योंकि हम सब लोगों को यह बताया जाता है कि बहुत सारा ज्ञान हमारे यहाँ संस्कृत में मौजूद था। जैसे दूसरी भाषाएं हैं, संस्कृत एक बहुत ही उम्दा भाषा है और जैसा नाम से जाहिर है, पाणिनी और उसके शिष्यों ने 300 सालों तक अलग-अलग भाषाओं से शब्दों को इकट्ठा किया। जो कुछ उनके समुदाय में पहले से बोला जाता था, उस शब्दावली को साथ में जोड़ा और एक पर्फेक्ट भाषा बनाने की कोशिश की। संस्कृत की जो निरंतरता है जिसमें नागार्जुन या बल्लभ प्रसाद प्रसाद त्रिपाठी ने कविताएं लिखी हैं। यह तमाम साहित्य जो समकालीन लोग लिख रहे हैं - निरंतरता में उस भाषा में जो जरूरी बदलाव आए हैं, राष्ट्रवाद की सोच से प्रेरित लोग जब संस्कृत सीखते हैं वह उन बदलावों को नहीं जानते। वह जानना ही नहीं चाहते। वह एक पुरानी संस्कृत में नए शब्द गढ़ते रहते हैं और जब दिक्कत होती है तो कहीं से वह आम लफ्ज़ के किसी पुराने अर्थ को ढूंढ लाते हैं।



राष्ट्रवाद हमें जंगखोरी की ओर बढ़ाता है। आखिर मानव विकास आँकड़े में 133 वें स्थान पर रहकर हम दूसरों से बेहतर कैसे हों, तो इसके लिए हम फौज और असलाह पर खर्च करते हैं। मुल्क के ज्यादातर तरक्कीपसंद लोग भी इस बात पर चुप हो जाते हैं कि राष्ट्रीय बजट का घोषित पाँचवाँ हिस्सा और छिपाए खर्चों को शामिल करने पर कम से कम चौथा हिस्सा सुरक्षा के खाते पर जाता है, जबकि तालीम और सेहत के लिए महज दसवाँ हिस्सा ही मिलता है। होना यह चाहिए कि वर्ल्ड कोर्ट ऑफ जस्टिस और संयुक्त राष्ट्र जैसी आलमी संस्थाओं का इस्तेमाल कर हम पड़ोसी मुल्कों के साथ अपने झगड़े निपटाएँ, पर जनता को उल्लू बनाते हुए हुकूमतें अंदर-बाहर दमन-तंत्र बढ़ाती रहती हैं। जंग में मर रहे लोगों को एक ओर शहीद तो दूसरी ओर दुश्मन कहा जाता है, जबकि दोनों ओर कोई लाचार मर रहा होता है, जिसे परिवार चलाने के लिए फौज की नौकरी करने को मजबूर होना पड़ा था।



आज जो स्थिति सारी दुनिया की है, पूरी धरती संकट में है। इस संकट के कई कारण है। राजनीतिक संकट और जिस संकट की मैं बात कर रहा हूं उनमें गहरा संबंध है। यह भी है कि आधुनिक मानव सभ्यता की जो दशा या दिशा रही है उसकी वजह से भी यह संकट है। पर इस संकट के मद्देनजर जो सोचने वाले लोग हैं उन्हें अपनी दिशा कैसी तय करनी चाहिए यह सोचना लाजिमी है। इसलिए आज जो बौद्धिक चिंतन होगा, क्या वह महज इस बात की प्रतिक्रिया होगा कि आज़ादी के पहले 200 साल तक क्या कुछ हम लोगों के साथ हुआ? सच यह है कि इस अवधि को लेकर भी बहस होनी चाहिए। आजादी के 90 साल पहले ही हम औपचारिक रूप से एक उपनिवेश बने और उपनिवेश बनने के बाद भी केवल शहरी इलाकों में ही अंग्रेजों का सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। छोटे शहरों में, दूरदराज के गांवों में या सामान्य लोगों में अंग्रेजों का सांस्कृतिक प्रभाव कितना था, यह बहस की बात है। पर हम अक्सर मान लेते हैं जैसे कि अंग्रेजों ने हमारे ऊपर शासन किया तो हमारा तो सब कुछ लुट गया। सही है कि कंपनी राज और उपनिवेश काल में लूट मची। पर शुरुआती वक्त में महज सैंकड़ों या हजारों की तादाद में अंग्रेज़ों के हाथ जो कुछ लुटा उसके लिए कौन जिम्मेदार है इस पर पूरी बात नहीं होती है।

राष्ट्रवादी सोच हमें मजबूर कर देती है कि हम केवल बोलते रहे, हम सोचें ना। वह हमें मनुष्य से अलग करती है, इंसान और इंसान में फर्क पैदा करने को सिखलाती है। हम विज्ञान, मानविकी और तमाम इंसानी काबिलियत को संकीर्ण नज़रिए से देखने के लिए मजबूर हो जाते हैं।



राष्ट्रवादी टिप्पणियों की यह दुखद सच्चाई है कि ये यूरोकेंद्रिता को और संकीर्णताओं से काटना चाहती हैं। आज भारत, चीन, जर्मनी अलग मुल्क भले हैं, पर हमारे संकट एक जैसे हैं। न केवल आज की समस्याएँ भौगोलिक रूप से वैश्विक हैं, वे इस अर्थ में भी वैश्विक हैं कि सारी मानवता आज विनाश के कगार पर है। जब से धरती के परिवेश पर इंसानी हरकत हावी हो गई है, हम एक खतरनाक युग में आ चुके हैं, जिसे पर्यावरण पर काम करने वाले लोग ऐंथ्रोपोसीन कहते हैं, जो इसके पहले के युग होलोसीन से अलग है। विज्ञान की मदद से हम उन सीमाओं को जान सकते हैं, जो हमें होलोसीन के युग में सुरक्षित रखे हुए थीं। पर अब परिवेश में ऐसे बदलाव आ रहे हैं कि जो सीमाओं को तोड़ आग तक बढ़ते चलें तो हम वापस होलोसीन में नहीं पहुँच सकते। वैज्ञानिकों ने पाया है कि इन बदलावों को अलग-थलग कर नहीं समझा जा सकता है। धरती पर हम सब, जिनमें केवल इंसान ही नहीं, बाक़ी जीव भी आते हैं, एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। तीन बड़े बदलाव हमारे युग को पिछले से अलग करते हैं - ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन की परत में छेद का बढ़ना, पिछले पचीस सालों में आबोहवा में बदलाव और समंदर के पानी में अम्लीय गुण का बढ़ना। इनके अलावा और भी कई छोटे बदलाव धीमी गति से होते जा रहे हैं, जिनमें ज़मीन से नाइट्रोजेन, फॉस्फोरस का संतुलन पचास के दशक से बिगड़ता चला है, ज़मीन का इस्तेमाल पुराने ढंग की खेतीबाड़ी से हटकर बड़ी मशीनी खेती या औद्योगिक फायदे के लिए हो रहा है। जैविक विविधता में तेजी से कमी आ रही है। पीने क पानी का संकट हमारे सामने है। हवा में कार्बन यौगिकों की मात्रा बढ़ रही है। नाइट्रेट और सल्फेट की बढ़ी मात्राओं का सही अंदाज़ा हमें नहीं है। हर तरह का रासायनिक प्रदूषण बढ़ रहा है। धरती की अपनी नियंत्रण की व्यवस्थाएँ तबाह हो रही हैं।



हम धरती पर स्थाई जीवन के लिए ज़रूरी कई सीमाओं को पार कर चुके हैं या पार करने वाले हैं। वक्त आ गया है कि हम इस बात को समझें कि इंसान का दिमाग हर जगह एक सा काबिल है कि वह बराबरी पर आधारिक संतुलित जीवन के नए खयालात पैदा करे और उतना ही काबिल है कि वह गैरबराबरी और विनाश की ओर ले जाए। हमारे चारों ओर अत्याचार है परंपराओं की खामियों के हल इतिहास को तोड़ मरोड़ कर नहीं मिलने वाले हैं। यह बात किसी भी इंसानी फितरत जैसी ही शिक्षा पर भी एक सी लागू होती है। वक्त आ गया है कि हम छात्रों में रुचि पैदी करती प्रभावी विज्ञान शिक्षा को आगे बढ़ाने वाले बदलाव की ताकतों को मजबूत करें। परंपरा ने हमें रटना सिखाया है - यह विज्ञान सीखने या करने का तरीका नहीं है। हालाँकि कम से कम सुविधासंपन्न बच्चों के लिए पढ़ाने के तरीके में बदलाव आ रहे हैं, पर साथ ही विज्ञान शिक्षा को ज्ञान की और विधाओं से अलग करने की कोशिशें भी बढ़ी हैं। स्कूल में विज्ञान पढ़ना इंजीनियरिंग (अधिकतर आई टी) की नौकरी या डाक्टरी पढ़ने का माध्यम बन गया है। इससे इंसान महज मशीनी पुर्जा बनते जा रहा है। ये प्रक्रियाएँ वैश्विक नवसाम्राज्यवादी पूँजीवाद के साथ राष्ट्रीय बिचौलियों की जमात के समझौतों के साथ जुड़ी हैं। ये बातें गौरतलब हैं और ये हमें समाज की उन खामियों की ओर देखने को मजबूर करती हैं जो उपनिवेश काल के सदियों पहले से मौजूद हैं।



आइए, मुक्तिबोध के साथ ही हम भी सोचें - 'ओ मेरे आदर्शवादी मन/ ओ मेरे सिद्धांतवादी मन/ अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया?'’ और संकीर्ण आख्यानों से अलग होकर मानव-केंद्रिक या धरती-केंद्रि आख्यान गढ़ें।

1 यह व्याख्यान दुहराया गया था।

2इस लेख में कुछ पंक्तियाँ अन्यत्र प्रकाशित मेरे लेखों में से ली गई हैं।