Tuesday, October 25, 2011

उनका क्या करें

एक मित्र ने बतलाया कि बंगाली बिरादरी रात को बारह बजे कहीं पूजा के लिए जाने की सोच रही है। काली पूजा है रात को होती है। मैंने कहा कि मैं पूजा आदि में रूचि नहीं रखता। मुझे लगता है कि पूजा का हुल्लड़ बच्चों के लिए बढ़िया या फिर आप धार्मिक प्रवृत्ति के हों। मेरा तो मानना है कि कोलकाता में कानून बनाना चाहिए कि एक वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में एक से ज्यादा पूजा मंडप नहीं होंगे। इससे लोगों में यानी आस पास के मुहल्लों के लोगों में भाईचारा भी बढ़ेगा। पूरे शहर में फिर भी हजार मंडप तो होंगे ही और इतने कम नहीं। आखिर भगवान मानने वालों को थोड़ा सा चल फिर के भगवान तक पहुँचने कि कोशिश तो करनी चाहिए।

मुझे कोई आपत्ति नहीं कि कोई ईश्वर अल्लाह रब्ब मसीहा आदि में यकीन करता है। मैं एक हद तक साथ चलने को भी तैयार हूं, पर दूर तक चले गए तो फिर आप कर्मकांडों से अलग नहीं हो सकते। और वहां मुझे दिक्कत है।

वैसे काश मेरा भी कोई मसीहा होता, कम से कम अपना रोना सुनाने के लिए तो कोई होता। इसलिए धार्मिक लोगों से मुझे ईर्ष्या ही होती है। कोई ज्यादा तंग करे तो फिर चिढ़ भी होती है। पर ठीक है, वह हमें झेलते हैं, तो हम भी उन्हें झेल लेते हैं। पर उनका क्या करें जो बच्चे नहीं पर आधी रात को पटाखा फटायेंगे।

इधर लग रहा है कि भारत और इंगलैंड में कोई समझौता हुआ है। हम वहां हारेंगे तुम यहाँ हारो। अच्छी बात यह कि महीने भर पहले मैंने टी वी बंद कर दिया है। पर फ़िल्में देखता रहता हूं। इधर कुछ अच्छी हिंदी फ़िल्में देखीं। देल्ही बेली, दास विदानिया आदि। बढ़िया।

आज कल मन नहीं करता चिट्ठा लिखने का। कुछ लिखता हूं तो जैसे भरने के लिए । इधर अरसे बाद अंग्रेज़ी में भी लिखना शुरू किया। अंग्रेज़ी लिखते हुए तो जैसे मेरा दिमाग भी रुक जाता है। अजीब बात है कि सारा दिन अंग्रेज़ी बोलता हूं, सारा काम अंग्रेज़ी में करता हूं, यहाँ तक कि टाइपिंग भी अंग्रेज़ी से ट्रांस्लिटरेट करके करना ज्यादा आसान लगता है, फिर भी अंग्रेज़ी में लिखने में चिढ़ होती है।

Thursday, October 13, 2011

इन बर्बरों का मुकाबला करें


फासिस्ट धड़ल्ले से नंगा नाचन नाच रहे हैं। एक वो जो राम या रहीम के नाम पर हमले करते हैं, जैसा हमारे मित्र प्रशांत पर किया, दूसरे वो जो सरकारी तंत्र में हैं, जिन्होंने सोनी सोरी की हड्डियाँ तोड़ने की कोशिश की है। क्या सचमुच यह देश इतनी तेजी से अँधेरे की ओर बढ़ता जा रहा है। सामान्य नागरिक को शांति से जीने के लिए हत्यारों के साथ सहमत होना पड़ेगा?
इन बर्बरों का मुकाबला जो जहाँ जैसे भी कर सकता है, करें।

Monday, October 03, 2011

मानव मूल्य क्या हैं?


मानव मूल्य क्या हैं?
मैंने एक युवा साथी का सवाल सुना और मुझे बिल्कुल ही बेमतलब तरीके से Walt Whitman की पंक्तियाँ याद आ गईं-

A child said, What is the grass? fetching it to me with full hands;
How could I answer the child? I do not know what it is, any more than he.

वक्त गुजरने के साथ यह शक बढ़ता जा रहा है कि जो यह दावा करते हैं कि उनको मानव मूल्यों की समझ है, पेंच उन्हीं का ढीला है।

'सुना रहा है ये समाँ, सुनी सुनी सी दास्ताँ'

दोस्तों, बुनियादी बात प्यार है, बाकी सब कुछ उसी में से निकलता है। यह हमारी नियति है। हम किसी दूसरे ब्रह्मांड में नहीं जा सकते, कोई और गति के नियम हम पर लागू नहीं हो सकते।

आंद्रे मालरो के उपन्यास 'La Condition Humaine (मानव नियति)' में हेमेलरीख (नाम ग़लत हो सकता है; जहाँ तक स्मृति में है) राष्ट्रवादियों के साथ लड़ाई में कम्युनिस्टों की मदद करने से इन्कार करता है, प्यार की वजह से; और जब राष्ट्रवादी उसके बीमार बच्चे की हत्या कर देते हैं, तो वह लड़ने मरने के लिए निकल पड़ता है -प्यार की वजह से।

कुबेर दत्त की आदत थी कि आधी रात के बाद फोन करते और अपना रोना सुनाते। कोई दो हफ्ते पहले मैंने वादा किया था कि अपने पिछले कविता संग्रह और कहानी संग्रह भेजूँगा। तीसरा संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग' उन्हीं की वजह से आया था, आवरण भी उन्हीं ने बनाया था। कहानी संग्रह की अतिरिक्त प्रति ढूँढता रह गया और आज नीलाभ का पोस्ट देखा - वह आदमी चला गया। आखिरी बार जब फोन पर बात हुई तो कुछ अंतरंग बातें की थीं, क्या इसीलिए कि अब कूच करना था। मैं कुल तीन बार मिला था, पता नहीं क्यों इतना प्यार!

कविता (श्रीवास्तव) से मिले कई युग बीत गए। करीब पच्चीस साल। वह वंचितों के लिए लड़ती रही है। लगातार।
और कल उसके घर जयपुर में छत्तीसगढ़ पुलिस का हमला हुआ। किसी को शक है क्या कि नरेंद्र मोदी अगला प्रधान मंत्री बन रहा है? एक साथी संतुष्ट है कि हमें 'imagined fear' से घबराना नहीं चाहिए। क्या करूँ, डरपोक हूँ, डरता हूँ। चारों ओर संतुष्ट लोग हैं। अफ्रीका से भगाए पूँजीपतियों ने मनमोहन के एल पी जी का फायदा उठाकर ऐसी मलाई बाँटी है कि बंधु सकल गुड गवर्नेंस के नशे में हैं। हिटलर का गुणगान करते बुज़ुर्ग अभी भी दो चार मिल जाएँगे।
कहते हैं जर्मन टेक्नोलोजी का कोई जोड़ नहीं था।