Monday, September 17, 2007

माई मेरे नैनन बान परी री

मज़ा गालियों का आना था, पर बहुत दिनों के बाद मैं भरपूर रोया। वैसे तो गाली गलौज़ से मुझे चिढ़ है, पर कहानी कविताओं में सही ढंग और सही प्रसंग में गालियों का इस्तेमाल हो, तो कोई दिक्कत नहीं, बिना गालियों के कई बार बात अधूरी लगती है या कहानियों में चरित्र अधूरे लगते हैं। तो गालियों के सरताज राही मासूम रज़ा का उपन्यास 'ओंस की बूँद' पढ़ रहा था। 'आधा गाँव' और 'टोपी शुक्ला' कई साल पहले पढ़े थे। 'ओंस की बूँद' खरीदे भी कई साल हो गए, पर पढ़ा नहीं था। पढ़ने लगा तो आँसू हैं कि रुकते नहीं। भेदभाव की राजनीति से आम इंसानी रिश्तों में जो दरारें आती हैं, शायद ऐसी सभी विड़ंबनाओं में सबसे ज्यादा प्रभावित मुझे सांप्रदायिक कारणों से उपजी स्थितियाँ करती हैं। 1979 में रामनवमी के दिनों में जमशेदपुर में दंगे हुए, एक जगह थी जिसका नाम था 'भालोबासा'; बांग्ला का शब्द है, अर्थ है प्यार। वहाँ ऐम्बुलेंस में छिपा कर ले जाए जा रहे बच्चों औरतों को दरिंदों ने निकाल कर मारा था। अपने एक मित्र को इस बात का जिक्र कर खत लिखते हुए मैं यूँ रो पड़ा था कि खत भीग गया था। रोने की पुरानी आदत है। विदेश में था तो टी वी पर भारत के बारे में कोई प्रोग्राम आता तो देखते देखते रो पड़ता।

सांप्रदायिक राजनीति की वजह से अनगिनत साधारण लोगों को बेहद तकलीफ उठानी पड़ी है। मेरा इससे कुछ करीब का वास्ता है, पर वह कहानी फिर कभी। फिलहाल 'ओंस की बूँद' के जो कुछेक पन्ने पढ़े हैं, उस पर बात करें। राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में जौनपुर, गाजीपुर के आसपास बोली जाने वाली बोलियों (भोजपुरी) का लाजवाब इस्तेमाल होता है। अद्भुत लय के साथ उनकी वानगी चलती है। अक्सर गीत भी होते हैं। विड़ंबनाओं को तीखेपन के साथ जतलाने के लिए भाषा का ऐेसा उपयोग बहुत कम लेखक कर पाते हैं। पाकिस्तान के लिए लड़ने वाला वज़ीर हसन ईमानदार है, इसलिए कांग्रेस में तो नहीं आ सकता, उसका बेटा अली वाकर पाकिस्तान बनने के खिलाफ था, पर वह अपने माँ-बाप, पत्नी बेटी को छोड़ के पाकिस्तान चला गया है। बेटी शहला गाती है, 'माई मेरे नैनन बान परी री।। जा दिन नैनां श्याम न देखों बिसरत नाहीं घरी री।।....

अनपढ़ दादी हाजरा मीराबाई को 'बाई' या कोठेवाली समझती है। उसका दिमाग बेटे के ग़म में संतुलन खो बैठती है और वह खुदा से लड़ती रही है कि पाकिस्तान क्यों बनने दिया। अपने हिंदू पुरखों के बनाए मंदिर की देखभाल का जिम्मा वज़ीर हसन नहीं छोड़ सकता और सूरदास गुनगुनाता हुआ पुजारी रामअवतार अपने जनसंघी भाई दीनदयाल को छोड़कर उस मंदिर में अर्चना का काम सँभालता है। हिंदू युवकों द्वारा हिंसा की आशंका से रामअवतार शंख कुँए में फेंक देता है और वज़ीर हसन सुबह के अँधेरे में कुँए से निकाल कर शंख बजाता है। मान लिया जाता है कि वह मूर्ति तोड़ने की कोशिश में था और दंगे छिड़ जाते हैं।

अभी मैं यहीं पर हूँ - एक चौथाई से भी कम - और सचमुच अभिभूत हूँ। राही जैसे लेखक को पढ़ते हुए हमें पता चलता है अपनी बोली में लिखना क्या मायना रखता है। आज के टुटपुँजिया अँग्रेज़ी में लिखकर अचानक प्रसिद्ध हो जाने वाले लेखक जितना भी सुर्खियों में छाए रहें, भारतीय भाषाओं में लिखे गए ऐसे अद्भुत लेखन के सामने उनकी कोई बिसात नहीं है। भाषा पर राही की टिप्पणीः "... वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, परंतु 'नैनन बान परी री' का अर्थ जानती थी। यह उसकी अपनी भाषा थी, वह लिखना जानती थी, परंतु यह भाषा बिलकुल उसी तरह उसकी थी, जैसे हाजरा उसका नाम था, और मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारों वाला यह घर उसका घर था। घर और नाम की तरह मातृभाषा की कोई लिपि नहीं होती। वास्तव में तो भाषा और लिपि का संबंध कोई अटूट संबंध नहीं होता। लिपि तो भाषा का वस्त्र है। उसका बदन नहीं है - आत्मा की बात तो दूर रही। मातृभाषा की तरह कोई मातृलिपि नहीं होती, क्योंकि लिपि सीखनी पड़ती है और मातृभाषा सीखनी नहीं पड़ती। वह तो हमारी आत्मा में होती है। और हवा की तरह साँस के साथ हमारे अंदर जाती रहती है। साँस लेने की तरह हम मातृभाषा भी सीखते नहीं। बच्चे को जैसे दूध पीना आता है, उसी तरह मातृभाषा भी आती है। माँ के दूध और मातृभाषा का मज़ा भी शायद एक ही होता है; परंतु लिपि एक बाहरी चीज़ है! शब्द वही रहता है, शब्द का अर्थ भी वही होता है; चाहे उसे जिस लिपि में लिख दिया जाए। कैसे मूर्ख हैं यह लोग, जो लिपि को भाषा से बड़ा मानते हैं।....'

इससे मुझे याद आया - भगत सिंह ने अपने कालेज के दिनों में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने पंजाबी भाषा को देवनागरी में लिखने का आह्वान किया था। अब तो यह बात सोची नहीं जा सकती, पंजाबी भाषा गुरमुखी और शाहलिपि में लिखी जाती है। पर युवा भगतसिंह की दूरदर्शिता का अंदाजा इससे लगता है। हमारे मित्र प्रो. हरकिशन मेहता ने हाल में एक लेख में गाँधीजी और भगत सिंह के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि गाँधीजी को भगतसिंह की फाँसी रुकवाने के लिए पहल करनी चाहिए थी - समय के साथ धर्मों के प्रति भगतसिंह का विचार बदलता और आज़ाद भारत को सही दिशा में ले जाने की काबिलियत उस क्रांतिकारी में सबसे ज्यादा होती। आज भगतसिंह की शतवार्षिकी मनाते हुए हम इस तरह के सवाल तो नहीं पूछ सकते कि भगत सिंह ज़िंदा रह गए होते तो क्या होता, पर मैं हरकिशन मेहता की इस बात से मैं सहमत हूँ कि अपने चिंतन में भगत सिंह गाँधी की तुलना में ज्यादा लचीले थे। हिंसा के बारे में भगत सिंह का कहना था '...use of force justifiable when resorted to as a matter of terrible necessity: non-violence as policy for all mass-movements’. यह मत गाँधी से भिन्न न था।

भगत सिंह को फाँसी हो गई, इस पर रोना बेमतलब है, पर गाँधीजी ने इस मसले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर देश को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया, इसमें कोई शक नहीं। भगत सिंह पर पढ़ने की अच्छी सामग्री यहाँ है।

Saturday, September 15, 2007

इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी

मेरा औपचारिक नाम मेरे पैतृक धर्म को उजागर करता है। मेरे पिता सिख थे। बचपन से ही हम लोगों ने सिख धर्म के बारे में जाना-सीखा। विरासत में जो कुछ भी मुझे सिख धर्म और आदर्शों से मिला है, मुझे उस पर गर्व है। माँ हिंदू है तो घर में मिलीजुली संस्कृति मिली। अब मैं धर्म में अधिक रुचि नहीं लेता और वैज्ञानिक चिंतन में प्रशिक्षित होने और विज्ञान-कर्मी होते हुए भी सचमुच के धार्मिक लोगों का सम्मान करता हूँ। हाल में तीन सिख छात्र मेरे पास आए और उन्होंने गुजारिश की कि मैं होस्टल में एक कमरा उन्हें दिलवाने में मदद करुँ, जहाँ सिखों के धर्मग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहब जी' से जुड़ी कुछ साँचियाँ रखी जा सकें। मुझे चिंता हुई कि यह बड़ा मुश्किल होगा, होस्टल में कमरा मिलना कठिन है, फिर एक धर्म के अनुयायिओं के लिए ऐेसा हो तो औरों के लिए भी करना होगा। सभी के लिए कमरा हो नहीं सकता, क्योंकि अगर किसी की सँभाल में जरा भी गफलत हुई तो समस्या हो सकती है। मैं जिस संस्थान में अध्यापक हूँ, वह भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के शीर्षतम शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। स्वाभाविक है, कागजी तौर पर हमारे छात्र देश के सबसे बेहतरीन छात्र कहलाते हैं। मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि उन्होंने अपनी इस माँग की वजह यह बतलाई कि अपने घरों से दूर होने की वजह से वे अपनी धार्मिक परंपराओं से कटा हुआ महसूस करते हैं। माँग यह नहीं थी कि सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाएँ जिसमें उनकी संस्कृति भी झलकती हो। बहरहाल, हमारे संस्थान में तकरीबन सभी लोग उदारवादी हैं, मैंने कुछ साथी अध्यापकों से इस पर चर्चा भी की, किसी ने भी यह नहीं कहा कि माँग नाजायज है, सबका रवैया यह था कि यह कैसे संभव हो सोचा जाए - कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था।

शाम को दूरदर्शन पर रामसेतु पर विवाद और विश्व हिंदू परिषद की गुंडागर्दी आदि देखा। अचानक मुझे लगा कि बस बहुत हो गया मैं उन लड़कों से यही कहूँगा कि धर्म निजी बात है, संस्थान के साथ इसका कोई संबंध नहीं। आज कुछ छात्र हमारे गेस्ट हाउस में विनायक चतुर्थी मना रहे हैं। कायदे से मुझे वहाँ कुछ समय जाकर उनका साथ देना चाहिए, पर मैं इतनी चिढ़ लिए बैठा हूँ कि पैर उस तरफ जाने से नाराज़ हैं। साथ में यह सोचकर तकलीफ भी हो रही है कि ये छात्र तो कोई दंगा-फसाद तो नहीं कर रहे, इनके ऊपर गुस्सा क्या? आखिर जो सिख छात्र मेरे पास आए थे वे तो सचमुच की धार्मिक भावनाओं के साथ ही आए थे।

मुझे पता है बीमार लोगों की एक जमात है जो अपने हीरो प्रकाश जावड़ेकर या क्या तो नाम है के साथ यह कह रहे होंगे कि हिम्मत है हजरतबाल के बारे में वैज्ञानिक सोच दिखाने की - ये लोग बस यही करते रहते हैं - देखो देखो मुसलमान के बारे में तुम कुछ नहीं कहते, हाय हाय.......! जबकि हमारे लिए फालतू की गुंडागर्दी करनेवाले लोग महज बेहूदे गुंडे हैं, वे हिंदू, मुसलमान, सिख नहीं। वे तस्लीमा पर हमला करें या किसी और पर।

बहरहाल, हर कोई यह कहने पर लगा हुआ है कि पुरातत्व विभाग को पौराणिक चरित्रों की अस्लियत के बारे में कुछ कहने की क्या ज़रुरत थी - पर मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि उन्होंने गलत क्या कहा। किसी ने भगवान श्री राम के बारे असभ्य बात तो नहीं की। हो सकता है, हलफनामे में ऐसा कुछ लिखा है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं है। चूँकि बहुत पुराने धर्मग्रंथों में वर्णित चरित्रों के बारे में वैज्ञानिक तरीकों से अनुसंधान कर अभी तक कुछ मिला नहीं और ग्रंथों के विविध रुप में पाए जाने की वजह से आगे भी कुछ मिलने की संभावना कम है, इसलिए जो कहा गया है, उससे किसी की आस्था को क्यों चोट पहुँचती है, मैं नहीं समझ सकता। आखिर जो आस्था पर आधारित है, उसका अपना सौंदर्य है, उसमें विज्ञान को लाने की क्या ज़रुरत। संभवतः यह कहा जा सकता है कि पुरातत्व विभाग को कम शब्दों में काम चला लेना चाहिए था।

पता नहीं कब यह देश इस पिछड़ेपन से निकलेगा जब धर्मों के नाम पर सार्वजनिक गुंडागर्दी को कोई जगह नहीं नहीं दी जाएगी और धर्मों और परंपराओं को मानव-चिंतन और सभ्यता के महत्वपूर्ण पड़ावों की तरह देखा जाएगा, जब हम सबको अपने सभी धर्मों के लिए गर्व होगा; उनको बेमतलब तर्क का जामा पहनाने के लिए विज्ञान को न घसीटा जाएगा। यह देखते हुए आज भी धर्मों के बारे में सबसे सटीक बात मार्क्स की पौने दो सौ साल पुरानी टिप्पणी ही लगती हैः

“Religion is the general theory of that world, its encyclopaedic compendium, its logic in a popular form, its spiritualistic point d’honneur, its enthusiasm, its moral sanction, solemn complement, its universal source of consolation and justification … Religious distress is at the same time the expression of real distress and also the protest against the real distress. Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, just as it is the spirit of the spiritless conditions. It is the opium of the people. To abolish religion as the illusory happiness of the people is to demand real happiness.”

उत्पीड़ितों की आह - जो धर्म है - इस आह की सौदेबाजी करने वालों को कभी तो यह आह खा जाएगी। आज वे मदमत्त हो लें, लोगों की भावनाएँ भड़का लें, आज लोग गरीब हैं, पिछड़े हैं, पर ये हमेशा तो ऐसे न रहेंगे।

Thursday, September 06, 2007

सात कविताएँ: 1999

यह भी।



सात कविताएँ


वह जो बार बार पास आता है
क्या उसे पता है वह क्या चाहता है

वह जाता है
लौटकर नाराज़गी के मुहावरों
के किले गढ़
भेजता है शब्दों की पतंगें

मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ
क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ

जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है
वैसे ही लिखनी है उस पर भी
मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की
चाँदनी में लौटते हुए
एक चाँद उसके लिए देखता हूँ

चाँदनी हम दोनों को छूती
पार करती असंख्य वन-पर्वत
बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों
को पार करती चाँदनी

उस पर कविता लिखते हुए
लिखता हूँ तांडव गीत
तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो।


कराची में भी कोई चाँद देखता है
युद्ध सरदार परेशान
ऐेसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं

चाँद के बारे में सबसे अच्छी खबर कि
वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है
चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदानी में फेंक दिया है।

आलोक धन्वा, तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है
चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे
बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा जा
अनधोए अंगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे।


चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ
चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं
फिर भी कहता हूँ
और चाँद का हाथ
अपने बालों में अनुभव करता हूँ

चाँद ने कागज कलम बढ़ाते हुए
कविताएँ लिखने को कहा है

सायरेन बज रहा है।


मेरे लिए भी कोई सोचता है
अँधेरे में तारों की रोशनी में उसे देखता हूँ
दूर खिड़की पर उदास खड़ी है। दबी हुई मुस्कान
जो दिन भर उसे दिगंत तक फैलाए हुए थी
उस वक्त बहुत दब गई है।

अनगिनत सीमाओं पार खिड़की पर वह उदास है।
उसके खयालों में मेरी कविताएँ हैं। सीमाएँ पार
करते हुए गोलीबारी में कविताएँ हैं लहूलुहान।

वह मेरी हर कविता की शुरुआत।
वह काश्मीर के बच्चों की उदासी।
वह मेरा बसंत, मेरा नवगीत,
वह मुर्झाए पौधों के फिर से खिलने सी।


वह जो मेरा है
मेरे पास होकर भी मुझ से बहुत दूर है।
पास आने के मेरे उसके खयाल
आश्चर्य का छायाचित्र बन दीवार पर टँगे हैं,
द्विआयामी अस्तित्व में हम अवाक देखते हैं
हमारे बीच की ऊँची दीवार।

ईश्वर अल्लाह तेरे नाम
अनजान लकीर के इस पार उस पार
उँगलियाँ छूती हैं
स्पर्श पौधा बन पुकारता है
स्पर्श ही अल्लाह, स्पर्श ही ईश्वर।


मैं कौन हूँ? तुम कौन हो?
मैं एक पिता देखता हूँ पितृहीन प्राण।
ग्रहों को पार कर मैं आया हूँ
एक भरपूर जीवन जीता बयालीस की बालिग उम्र
देख रहा हूँ एक बच्चे को मेरा सीना चाहिए

उसकी निश्छलता की लहरों में मैं काँपता हूँ
मेरे एकाकी क्षणों में उसका प्रवेश सृष्टि का आरंभ है
मेरी दुनिया बनाते हुए वह मुस्कराता है
सुनता हूँ बसंत के पूर्वाभास में पत्तियों की खड़खड़ाहट
दूर दूर से आवाज़ें आती हैं उसके होने के उल्लास में
आश्चर्य मानव संतान
अपनी संपूर्णता के अहसास से बलात् दूर
उँगलियाँ उठाता है, माँगता है भोजन के लिए कुछ पैसे।


मुड़ मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
सन् २००० में मेरी दाढ़ी खींचने पर धू धू लपटें उसे घेर लेंगीं।
मेरी नियति पहाड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं।
उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ।
उड़नखटोले पर बैठते वक्त वह मेरे पास होगा।

युद्ध सरदारों सुनो! मैं उसे बूँद बूँद अपने सीने में सींचूँगा।
उसे बादल बन ढक लूँगा। उसकी आँखों में आँसू बन छल छल छलकूँगा।
उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा।
तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा।

(साक्षात्कार - मार्च २०००)