Wednesday, December 23, 2020

बड़ा दिन

 बड़ा दिन आ रहा है

किसानों का बड़ा दिन


धरती और सूरज के अनोखे खेल में


उम्मीद कुलांचे भरती है




दिन बड़ा हो जाएगा


जाड़ा कम नहीं होगा


लहर दर लहर ठंड हमारे ऊपर से गुजरेगी


और तानाशाह दूरबीन से हमें लाशें उठाते देखेगा




वक्त गुजरता है


दरख्तों पर पत्तों के बीच में से छन कर आती सुबह की किरण


हमें जगाती है


एक और दिन


हत्यारे से भिड़ने को हम तैयार हैं




दोपहर हमारे साए लंबे होते जाते हैं


फिलहाल इतना काफी है कि


तानाशाह सपनों में काँप उठे


कि हम आ रहे हैं


उसके ख्वाब आखिर अधूरे रह जाएँगे


जिन पंछियों को अब तक वह कत्लगाह तक नहीं ला पाया है


हम उनको खुले आकाश में उड़ा देंगे


और इस तरह वाकई एक नया साल आएगा




रात-रात हम साथ हैं


सूरज को भी पता है


जाने से पहले थोड़ी सी तपिश वह छोड़ जाता है


कि हमारे नौजवान गीत गाते रहें


हम हर सुबह उठ


समवेत गुंजन करते रहें कि जो बोले सो निहाल


कि कुदरत है


सत्


श्री


और अकाल!

Monday, December 21, 2020

थोड़ा सा और इंसान


हाल में Facebook पर एक फोटो साझा की थी। एक बच्ची किसानों के लंगर में रोटी परोस रही है।


 (टोकरी लिए खड़ी बच्ची

पंगत में बैठे लोगों को रोटी परोस रही है)


करीब से देखो तो उसकी आँखों में दिखती है


हर किसी को अपनी तस्वीर




एक निष्ठुर दुनिया में मुस्कराने की कोशिश में


कल्पना-लोक में विचरता है हर कोई


बच्ची और उसका लंगर है


किसान इतना निश्छल हर वक्त हो न हो


अपना दुख बयां करते हुए ज़रूर होता है





खुद को फकीर कहने वाले हत्यारे को यह बात समझ नहीं आती


अचरज होना नहीं चाहिए इसमें कि सब कुछ झूठ जानकर भी


पढ़े-लिखे लोग हत्यारे के साथ हैं


पर होता ही है 


और अंजाने में हमारे दाँत होंठों के अंदर मांस काट बैठते हैं


कहते हैं कि कोई हमारे बारे में बुरा सोच रहा हो तो ऐसा होता है




इस बच्ची की मुस्कान को देखते हुए


हम किसी के भी बारे में बुरा सोचने से परहेज करते हैं


मुमकिन है कि हम इसी तरह मुस्करा सकें


जब हमें पता है कि इस मुस्कान को भी हत्यारे के दलाल


विदेशी साजिश कह कर लगातार चीख रहे हैं




यह अनोखा खेल है


इस मुल्क की मुस्कान को उस मुल्क की साजिश


और वहाँ की मुस्कान को यहाँ की साजिश कह कर


तानाशाह किसी भी मुल्क में जन्म लेना अभिशाप बना देते हैं


और फिर ऐसी हँसी हँसते हैं कि उनकी साँसों से महामारी फैलती है


आस्मां में रात में तारे नहीं दिखते और धरती पर पानी में ज़हर घुल जाता है




यह मुस्कान हमें थोड़ा सा और इंसान बना रही है


हमारे मुरझाते चले चेहरों पर रौनक आ रही है


अब क्या दुख और क्या पीर


धरती के हम और धरती हमारी


हममें राम और हमीं में मुहम्मद-ईसा


सीता हम और राधा हम


माई भागो हम नानक-गोविंद भी हम


यह ऐसी मुस्कान है कि सारे प्रवासी पक्षी


इसे देखने यहाँ आ बैठे हैं




तानाशाह,


इस बच्ची को देख कर हमें तुम पर भी प्यार आ जाता है


हम यह सोच कर रोते हैं कि तुम्हारी फितरत में नफ़रत जड़ बना चुकी है


और फिर कहीं मुँह में दाँतों तले मांस आ जाता है


जा, आज इस बच्ची की टोकरी से रोटी खाते हुए


तुझे हम एकबारगी माफ करते हैं।

Saturday, December 12, 2020

डिंकिंस

 24 नवंबर को यह फेसबुक पर पोस्ट किया था - 


David N. Dinkins, a barber’s son who became 

New York City’s first Black mayor, ... has died.


1989 में डिंकिंस जब मेयर बना, तब मैं हरदा में एकलव्य 


संस्था के साथ बतौर यू जी सी टीचर फेलो काम कर रहा था। 


इसके कुछ समय बाद नेपाल में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी 


ने चुनाव जीता था। इन प्रसंगों का उल्लेख एक कविता में 


किया था, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में आई थी। 


कविता एक ख़त के पोस्ट-स्क्रिप्ट की तरह है, इसलिए

 

शीर्षक 'पुनश्च' है - कोष्ठक में चारों ओर बदल रहे माहौल की 


हताशा में लिखी गई बातें - उन दिनों ईला अरुण का एक 


गीत लोकप्रिय हुआ था, उसका भी जिक्र है; एक और नाम 


हैजो प्रतिबद्ध साथियों में अचानक आए बदलाव का प्रतीक 


है।


**


 पुनश्च 

.

हाँ, नेपाल में जीते हैं कम्युनिस्ट।


जब डिकिंस न्यूयॉर्क का पहला काला मेयर बना था, हमने 


हरदा में बैठकर गीत गाए थे। आज तुम तक जब यह ख़त 


पहुँचेगा,


काठमांडो में आसमान लाल होगा। ऐसे झूम रही होगी हवा 


जैसे अड़सठ में कलकत्ता।




(डिकिंस भी गया। अड़सठ की हवा में पुराने तालाब के 


दलदल-सी गंध


आ गई। हम हो गए दूर, चढ़ गए बसों पर जाने कितने लोग। 


कहते हैं कि



इतिहास बदल गया। सुखराज जाली पासपोर्ट लेकर 


आईसक्रीम बेचता है


अमेरिका में, वहीं-कहीं


चोली के पीछे है माइकल जैक्सन।



बहरहाल तुम आओगी तो बैठेंगे, हालाँकि अब बढ़ चुका है 


बेसुरापन। बस


पर चढ़ने से बची कविता होगी। हो सकता है नेपाल के पहाड़ 


लाल 



सूरज जैसे तमतमाते रहें, सच तो यह कि अड़सठ ज़िंदा है 


हमारे बेसुरे गीतों में)


1994; समय चेतना - 1996

**


1992 में न्यूयॉर्क में पार्क एवेन्यू के एक बहुमंज़िला मकान 


की 21वें मंज़िल के एक फ्लैट में रह रहा था। इमारत के 


बेसमेंट में एक दूकान थी, जिसमें एक रात आग लग गई। हम 


सब को रात शहर की बसों में गुजारनी पड़ी। शहर के दीगर 


और अधिकारियों के साथ डिकिंस भी लोगों से मिलने आया। 


हमने हाथ मिलाया। एकबार मन हुआ कि बंदे को बतलाऊँ 


कि जब मेयर बना तो हम हरदा में बैठे जश्न मना रहे थे। पर 


कह न पाया।