Sunday, August 27, 2006

हर बादल

लंबे समय से ब्लाग नहीं लिखा।

बस वक्त ही नहीं मिल रहा था। तकलीफें भी हैं, पर तकलीफें कहाँ नहीं हैं? इसलिए तो कविगुरु कहते हैं —
आछे दुःखो, आछे मृत्यु, विरह दहन लागे। तबू ओ शांति, तबू आनंदो, तबू अनंतो जागे।
इस गीत को मैंने दफ्तर में बोर्ड पर लगा लिया है।

इसी बीच कुछ अच्छी किताबें पढ़ीं — जिनमें आखिरी खालेद हुसैनी की 'द काइट रनर' है। ज़ाहिर शाह से लेकर तालिबान युग तक के अफगानिस्तान में सामंती और प्रगतिशील मूल्यों के बीच फँसे निरीह लोगों की कथा। हिंदी फिल्मों की आलोचना करते हुए भी कथानक हिंदी फिल्मों जैसा ही है। हुसैनी की राजनीति से सहमत न होते हुए भी उपन्यास की श्रेष्ठता के बारे में कोई शक नहीं। हुसैनी की विश्व दृष्टि में अमरीका स्वर्ग है। तालिबान नर्क है। उस इतिहास का क्या करें जो बतलाता है कि तालिबान को अमरीका ने ही पाला पोसा! और अब यह कहाँ आ गए हम...।

शब्दों के साथ हुसैनी का खेल मन छूता है। देश काल में हुसैनी की खुली दौड़ कुर्रतुलऐन हैदर की याद दिलाती है।

शायद थोड़ा लिखा जाए तो नियमित लिखना संभव हो। अभी तक नई जगह में पूरी तरह से बसा नहीं हूँ। बड़ी दौड़भाग में लगा रहता हूँ। रोचक बातें तो हर क्षण होती रहती हैं। यहाँ बादलों को देखता हूँ तो हर बादल में एक कहानी दिखती है।

4 comments:

रवि रतलामी said...

अगर स्वर्ग कहीं है, तो नर्क भी होगा. इसीलिए अमरीका ने एक नर्क - तालिबान बनाया!

बहरहाल, बड़े दिनों बाद आपको फिर से पढ़ना सुखद है.

Pratyaksha said...

कुर्रतुलऐन हैदर मुझे बेहद पसंद हैं । एक बीता हुआ समय जो हमारा न होते हुये भी नॉसटैलजिया दिला दे , यही मज़ा है उनकी लेखनी का

मसिजीवी said...

आपका आपकी दुनिया में स्‍वागत है, रूठिए नहीं। आसपास रहिए

Monica said...

if every cloud we see could give us an extra five minutes to write about it...