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आस्था वालों की दुनिया

इस बार इंग्लैंड आया तो पहले चार दिन लंदन में दोस्तों के साथ गुजारे। कालेज के दिनों के मित्र शुभाशीष के घर दो दिन ठहरा। पिछली मुलाकात 1983 में कुछेक मिनटों के लिए हुई थी। उसके पहले 1977 तक हम एकसाथ कालेज में पढ़ते थे। सालों बाद मिलने का एक अलग रोमांच होता है। 1983 में शुभाशीष मुझसे मिलने बर्मिंघम से लंदन आया था। उसके कहने पर मैं उसके लिए भारत से आम लेकर आया था। एक दिन के लिए लंदन ठहरना था। जिस दिन पहुँचा, एयरपोर्ट पर वह मिला नहीं। दूसरे दिन सामान चेक इन कर मैं थोड़ी देर के लिए बाहर आया (उन दिनों आज जैसी सख्ती नहीं थी), तो बंदा मिला। तब तक रसराज कूच कर चुके थे। इस बात का अफ्सोस आज तक रहा। इस बार बर्ड फ्लू की रोकथाम की वजह से आम लाना संभव न था। जब चला था तब तक बढ़िया फल बाज़ार में आया भी न था। चोरी छिपे दोस्तों के लिए मिठाई के डिब्बे निकाल लाया।

बहरहाल, लंदन में विज्ञान संग्रहालय देखा, साथ पुराने छात्र मित्र अरविंद का बेटा अनुभव था तो आई मैक्स फिल्म भी देखी। दूसरे दिन विक्टोरिया और ऐल्बर्ट कला संग्रहालय गया। इसके एक दिन पहले एक और पुराने छात्र मित्र अमित और उसकी पत्नी के साथ स्वामीनारायण मंदिर गया (तस्वीर)। हालांकि मैं विशुद्ध नास्तिक हूँ, पर दूसरों की आस्था का सम्मान करता हूँ। मेरी समझ से यह उसी संप्रदाय का मंदिर है, जिनका अक्षरधाम मंदिर दो साल पहले आतंकवादी हमलों की वजह से चर्चित हुआ था। पता था कि धनी गुजराती व्यापारियों के इस संप्रदाय का व्यापक सामाजिक प्रभाव है। मंदिर पहुँच कर इस अनुमान की पुष्टि हुई। संगमरमर का भरपूर इस्तेमाल कर करोड़ों ख़र्च कर बना यह मंदिर स्थापत्यकला या वास्तु का अद्भुत नमूना है, पर कुछ बातों से मन बहुत उदास हुआ मैं देर तक ढूँढता रहा कि कहीं इस संप्रदाय के दार्शनिक स्रोत के बारे में पता चलेगा अनुमान से वैष्णव माना। शायद किसी से पूछता तो पता चलता। अमित सपरिवार यहाँ नियमित आता है। पर उसे भी न पता था। एक पूरी दीवार टोनी ब्लेयर, मनमोहन सिंह जैसे बड़े लोगों की तस्वीरों से भरी हुई थी। पर कहीं भी कोई दार्शनिक या साहित्यिक सूत्र न दिखा, जिससे अंदाजा लग सके कि सगुण की किस शाखा की परंपरा यहाँ निभाई जा रही है।

शुभाशीष साउथहाल में जहाँ रहता है, वहाँ पास ही नया गुरुद्वारा बना है। थोड़ी ही दूर पुराना गुरुद्वारा है, इसलिए मेरी समझ में नहीं आया कि नया गुरुद्वारा क्यों। नए गुरुद्वारे पर श्री हरमंदर साहब (अम्रतसर) की तरह ऊपर गुंबद पर सोने की परत है। शुभाशीष की इच्छा थी कि इकट्ठे गुरुद्वारा चलेंगे, मुझे भी शबद कीर्तन सुनना बहुत अच्छा लगता है, पर थोड़े समय में जा नहीं पाया और चूँकि यह हिंदुस्तान नहीँ, तो कानून मानते हुए लाउडस्पीकरों से सारी दुनिया को कीर्तन सुनाया नहीं जाता।

धर्म के नाम पर पैसों का ऐसा बेहिसाब खर्च देखकर अजीब लगता है। मैं जानता हूं कि अगर धर्म सभाओं से पूछा जाए तो वे उनके द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और अस्पतालों का जिक्र करेंगे, पर सच यह भी है कि धर्मस्थानों पर इस तरह पैसा बहाने के पीछे धार्मिक भावनाएँ कम ही होती हैं। बचपन में पढ़े काका कालेलकर के निहायत ही ऊबाऊ एक लेख से दो पंक्तियाँ याद आ रही हैँ:

तू ढूँढता मुझे था जब बाग और महल में
मैं ढूँढता तुझे था तब दीन के चमन में।

बहरहाल आस्था वालों की दुनिया उनको मुबारक। मैं तो धर्म और धार्मिक परंपराओं में दीन को ही ढूँढता रहूँ, यही मेरी ख़्वाहिश रहेगी। वहीं मेरे पसंद के राग, वहीं मेरे मन पसंद गान। इसलिए दोस्तों, दक्षिण एशिया की सरकारें सैनिक खाते में पैसा डालना बंद करें और दक्षिण एशिया की जनता धर्म के नाम पर पैसे बहाना बंद करें – यही मेरा नारा है। पैसे ज्यादा हैं तो किसी गाँव के स्कूल में बच्चों के लिए एक कमरा और बनवा दो यार। बच्चों को किताबें खरीद दो।

Comments

लाल्टूजी,

बहुत ही अच्छा लिखा है। करोडो रुपयो से बने मंदिर और गुरुद्वारे आस्था के प्रतीक के
साथ साथ पर्यटक स्थल बन जाते है, अच्छा हो कि इन पर लगाये गये पैसे किसी गांव
के स्कूल में उपयोग में लाये जायें। लंदन में स्थित मंदिर से संबधित संस्था का जालघर
http://swaminarayan.org/ है।
Ashish said…
hey laltu ... liked your picture so much ... really! ... and of course the write-up was so good ... i think places like these are very important for the communities to register their presence in a foreign enviornment ... so as you say religious feelings perhaps nothing much to do with these huge bulidings ... it's more about showing your presence ... though i am not too convinced about what nitin (i hope i can call him by his first name, with due respect) says that money should have spent on some village school ... places of worship do perform a vital social function ...
Anonymous said…
अब कल ही कहीं पढा कि अमिताभ बच्चन अपने स्वस्थ होने पर, मनौती पूरी करने के लिए तिरुमला तिरुपति देवस्थानम में भगवान बालाजी को ८-९ करोड रुपये कीमत के आभूषण चढाएंगे.आस्थाओं के इस 'मैग्निट्यूड' को देखकर कोफ़्त होने लगती है.
बाकी तो सब ठीक ही है पर लाल्‍टू हमें (हॉं मैं भी इसी संप्रदाय से हूँ) अनयों की आस्‍था की आस्था के सम्‍मान को problematise करने की जरूरत है शायद

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