Tuesday, October 29, 2013

उनसे मिलना अच्छा लगता था


'हंस' में मेरी पाँच कहानियाँ और करीब पच्चीस कविताएँ प्रकाशित हुई हैं, अधिकतर नब्बे के दशक में। उस ज़माने में जब बहुत कम लोगों को जानता था, चंडीगढ़ से कहीं आते-जाते हुए दिल्ली से गुजरते हुए एक दो बार स्टेशन से ही पैदल चल कर राजेंद्र यादव से मिला था। कविताओं में उनकी रुचि कम थी, यह तो जग-जाहिर है, मेरी कहानियाँ पसंद करते थे। उनका बहुत आग्रह था कि मैं लगातार लिखूँ। स्नेह से बात करते थे। वैचारिक बात-चीत करते थे। इसलिए उनसे मिलना अच्छा लगता था। आखिरी बार मिले तीन साल से ऊपर हो गए। शायद 2010 में इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में कविता पाठ था, तब मुलाकात हुई थी। या कि उसके भी दो साल पहले आई आई सी में रज़ा अवार्ड के कार्यक्रम में मिले थे।

आखिरी सालों में उनके वक्तव्यों में वैचारिक संगति का अभाव दिखता था और तरह तरह के विवादों में ही उनका नाम सामने आता रहा। पर खास तौर पर नब्बे के दशक में 'हंस' को हिंदी की प्रमुख पत्रिका बनाने में उनका विशाल योगदान था। कॉलेज के दिनों में 'सारा आकाश' और बाद में कहानियाँ पढ़कर ही उन्हें जाना था। मेरे प्रिय रचनाकारों में से थे। हरि नारायण जो बाद में 'कथादेश' का संपादन करने लगे और बीना उनियाल जैसे वे लोग जिन्होंने लंबे अरसे तक उनके साथ काम किया, उन्हें कैसा लग रहा होगा यही सोच रहा हूँ। संजीव भी कई वर्षों तक उनके साथ थे, उनके संस्मरण सुनने का मन करता है। शायद ये सभी साथी लिखेंगे और हमलोग राजेंद्र जी के बारे में और जानेंगे, और बहसें करेंगे।

Monday, October 28, 2013

हादसा और उदारवादी उलझनें


जीवन में बड़े हादसे हुए हैं। औरों के हादसों की सूची देखें तो मुझसे लंबी ही होगी। फिर भी हर नया हादसा कुछ देर के लिए तो झकझोर ही जाता है। आमतौर पर अपनी मनस्थिति के साथ समझौता करने यानी अपनी थीरेपी के लिए ही मैं चिट्ठे लिखता हूँ। यह चिट्ठा खासतौर पर एक अपेक्षाकृत छोटे हादसे में घायल मनस्थिति से उबरने के खयाल सा लिख रहा हूँ।


शनिवार को महज एक स्टॉप यानी पाँच मिनट से भी कम की इलेक्ट्रॉनिक सिटी से होसा रोड की बस यात्रा में मैं पॉकेटमारी का शिकार हुआ। आमतौर पर वॉलेट में अधिक पैसे होते नहीं। कार्ड भी एक दो ही होते हैं। संयोग से उस दिन तकरीबन साढ़े बारह हजार रुपए, एक क्रेडिट कार्ड, दो ए टी एम कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और कुछ पासपोर्ट साइज़ फोटोग्राफ साथ थे। सब गए।

मन के घायल होने की वजह सिर्फ पैसों का नुकसान नहीं है। बेंगलूरु में नया हूँ, कब तक ठहरना है, पता नहीं, इसलिए सारे कार्ड हैदराबाद के पते के थे। उनको दुबारा बनवाने की परेशानी है। पर जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह है कि मैं खुद को मुआफ नहीं कर पा रहा।

मैंने भाँप लिया था कि जो दो लोग मुझे गेट पर धकेल कर खड़े हैं (बस में भीड़ नहीं थी), वे कुछ खुराफात करने वाले हैं। मैंने पैंट की एक जेब में अपने मोबाइल फोन पर हाथ रखा, दूसरे से ऊपर का रॉड थामे हुए था। दूसरी जेब में पड़े वॉलेट का अहसास लगातार बनाए हुए था।

कंडक्टर ने भी कुछ भाँपा या किसी और कारण से उनसे कुछ पूछा। उन्होंने कन्नड़ में कुछ कहा शायद यह कि वे नीचे उतरने वाले हैं।
स्टॉप पर बस रुकने पर उन्होंने मुझे धकेला तो मैंने एक को वापस धकेलने की कोशिश की। पहला आदमी झट से उतर गया। दूसरा आदमी कुछ रुक कर बोला और लँगड़ाते हुए वक्त लेकर उतरा। मुझे अफसोस हुआ कि मैंने उसकी पैरों की तकलीफ पर गौर नहीं किया था।
उतरते ही मैंने जेब में हाथ डाला तो यकीन नहीं हुआ कि वॉलेट गायब। कंधे पर खाली झोला था। एक बार झोले में देखा कि वहाँ तो नहीं है। फिर उस लँगड़ाते आदमी को न ढूँढकर वापस गाड़ी में चढ़ गया और कंडक्टर को कहा कि पर्स गायब है। उसने कंधे उचकाए (क्या मैंने उसके होंठों पर एक छद्म मुस्कान देखी या कि यह मेरे घायल मन की उपज है!)

मैं वापस उतरा और होसा रोड स्टॉप पर कहाँ वे दो आदमी? मानव और गाड़ी-बसों के उस समुद्र में उन्हें कहाँ ढूँढूँ?
रुँआसे मन से तय किया कि पहले घर जाकर कार्ड्स ब्लॉक करूँ। ऐसे मौकों पर अहसास होता है कि अब उम्र बढ़ रही है और एक असहायता आ घेरती है। तनाव और घबराहट में कुछ दोस्तों को भी फोन किया, फिर किसी तरह सारे कार्ड और हैदराबाद का एक सिम जो वॉलेट में ही था और जिसका नंबर मेरे नेट बैंकिंग का नंबर था, सब रुकवाए। शाम को थाने में शिकायत की ताकि कभी हैदराबाद जाकर लाइसेंस की दूसरी प्रति निकलवाने की कोशिश करें।

तब से इसी कोशिश में हूँ कि किसी तरह इस मनस्थिति से निकलूँ कि एक के बाद एक कैसे मैंने उस दिन ग़लतियाँ कीं और कैसे खुद को लुटने दिया। रह-रह कर कभी कुछ कभी कुछ ग़लत हुआ – दिमाग में चलता रहता है।

हादसों से उबरने के लिए ईश्वरवादियों के पास खुदा होता है। हमारे पास भले दोस्तों के अलावा अंतत: हम खुद ही होते हैं। ठीक यह तो नहीं, पर कुछ ऐसा ही सोचते हुए कभी लिखा था -
सुख दुःख जो मेरे हो चले थे अचानक ही तिलिस्म से
कहीं खो जाते हैं, वापस
बैठता हूँ खुद ही के साथ
फिर से सँजोता हूँ अपने पुराने दुःख
नींद में भी नहीं दिखता जिसे चाहा था देखना
मरहम लेपते हैं अपने ही दुःख।




Saturday, October 19, 2013

उसकी कविता


मैं अकेला नहीं, सभी संवेदनशील लोग कह रहे हैं कि चीखों की तो आदत हो गई है। अपने हैदराबाद के छात्रों से महीने की मुलाकात के लिए आया हूँ। कल पूर्णिमा की रात मकान के पीछे जंगल में आधी रात के बाद कुछ युवा छात्र शोर मचा रहे थे, नींद टूट गई और दिल धड़कने लगा। देर तक शोर चीत्कार सुनता रहा औऱ शोर बंद होने के बाद भी जगा रहा। सोचकर बड़ी तकलीफ हुई कि ऐसी हर आवाज जिसे सुनकर खुश होना चाहिए कि सृष्टि में प्राण है, भय क्यों पैदा कर रही है। यह हमारा समय है।

इसी बीच कुछ अच्छा देख सुन लें तो क्या बात। पिछले कुछ दिनों में नूराँ बहनों को सुना - सचमुच क्या बात




पंजाब के लोकगीत हमेशा से ही एक अपार ऊर्जा के स्रोत रहे हैं, पर जिस तरह नूराँ बहनों ने इसे दिखाया है वह कमाल का है। cokestudioindia पर उनका गाया अल्ला हू वह मजा नहीं देता जो उनके मेलों में गाए गीतों में है।


हिंदी में इन दिनों फिर स्त्री रचनाकार और पुरुष व्यभिचार प्रसंग पर चर्चाएँ सरगर्म हैं। मैं अक्सर सोचता हूँ कि हम पुरुष इन चर्चाओं में किस हद तक गंभीर होते हैं और हम में कितना सिर्फ चटखारे लेने वाला कोई शख्स काम कर रहा होता है। मेरी एक पुरानी कविता पेस्ट कर रहा हूँ जो उन दिनों जब 'हंस' में ठीक ठाक कविताएँ भी आती थीं, तब छपी थी।



उसकी कविता


उसकी कविता में है प्यार पागलपन विद्रोह
देह जुगुप्सा अध्यात्म की खिचड़ी के आरोह अवरोह


उसकी हूँ मैं उसका घर मेरा घर
मेरे घर में जमा होते उसके साथी कविवर
मैं चाय बनाती वे पीते हैं उसकी कविता
रसोई से सुनती हूँ छिटपुट शब्द वाह-वाह


वक्ष गहन वेदांत के श्लोक
अग्निगिरि काँपते किसी और कवि से उधार
आगे नितंब अथाह थल-नभ एकाकार
और भी आगे और-और अनहद परंपार


पकौड़ों का बेसन हाथों में लिपटे होती हूँ जब चलती शराब
शब्दों में खुलता शरीर उसकी कविता का बनता है ख़्वाब


समय समय पर बदलती कविता, बदलता वर्ण, मुक्त है वह
वैसे भी मुझे क्या, मैं रह गई जो मौलिक वही एक, गृहिणी


गृहिणी, तुम्हारे बाल पकने लगे हैं
अब तुम भी नहीं जानती कि कभी कभार तुम रोती हो
उसकी कविता के लिए होती हो नफ़रत
जब कभी प्यार तुम होती हो।



(हंस 1997; 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' में संकलित))