भोपाल में कार्यरत मेरे डाक्टर मित्र राकेश बिस्वास ने जीमेल बज़ पर लिंक भेजा है - मानव के चिंतन प्रक्रिया पर वुल्फगांग मेव्हेस का आलेख है। रैखिक चिंतन जिसमें निजी स्वार्थ सर्वोपरि है और अन्य की चिंता के लिए जगह नहीं है हमें विनाश की ओर ले जाता है। सामान्य चक्राकार चिंतन हमें दूसरों से जोड़ता हुआ वापस निज तक ले आता है और सूचना आधारित चक्रीय चिंतन हमें दूसरों के साथ जुड़े रह कर भी निजी हितों को भी आगे बढाता है। कोई ख़ास बात नहीं, निज से परे जाने की बात हर भला व्यक्ति कहता है। पर आलेख में ख़ास बात यह है कि पौधों की वृद्धि के साथ इन बातों को जोड़ते हुए तर्क स्थापित किया गया है कि नैसर्गिक विकास को ध्यान में रख सूचना आधारित चिंतन ही सामाजिक संबंधों को सफल और सुखी बना सकता है।
चिंतन कैसा भी हो अगर मानव संबंध में 'पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आणे रे' की भावना न हो तो वह सफल नहीं हो सकता। स्वार्थ पर आधारित संबंध अंततः विषम-बंध ही होता है।
चिंतन कैसा भी हो अगर मानव संबंध में 'पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आणे रे' की भावना न हो तो वह सफल नहीं हो सकता। स्वार्थ पर आधारित संबंध अंततः विषम-बंध ही होता है।
ईश्वर पर एक और कविता: आदतन ईश्वर को मिलती थी जगह उन दिनों जब हम धरती के एक ओर से दूसरी ओर भेजते थे प्रेम के शब्द कागज और स्याही में बाँधकर लिखने को ऐसी मजेदार बातों की जगह न होती थी अनगढ़ पर तीखे होते थे हमारे शब्द और आँसू भी कभी टपकते थे उनपर मुझे याद हैं ऐसी दो घटनाएँ पर सार होता था उनमें भरा पेड़ पर पके फलों जैसा पढ़ता हूँ आज चैट संवाद दूर शहर से कि एक व्यक्ति है जिसने समय पर भोजन नहीं किया है या बस नहीं चलने पर नहीं देखा गया नाटक जो खेला गया शहर के दूसरे कोने में सचमुच ऐसी बातें नहीं होती थीं हमारे खतों में उन दिनों गोया डाक की व्यवस्था ऐसी थी कि हम जो लिखें उसमें वजन हो हालांकि हर खत में पूछा जाता था कुशल खेम लिखे जाते थे कुछ सस्ते सही मौलिक गीत के मुखड़े अधिकतर में आदतन किसी ईश्वर को भी मिलती थी जगह ...। (प्रकाशित : 2010)