Saturday, May 30, 2009

रोशनी

कभी कभी तारों भरा आस्माँ देख
थक जाता हूँ।

इत्ती बड़ी दुनिया
छोटा मैं

फिर खयाल आता है
तारे हैं
क्योंकि वे टिमटिमाते हैं

रोशनी देख सकने की ताकत का अहसास
मुझे एक तारा बनने को कहता है

तब आस्माँ बहुत सुंदर लगता है।
(1988: अप्रकाशित)

Tuesday, May 26, 2009

अभी समय है

अभी समय है

अभी समय है
कि बादलों को शिकायत सुनाएँ
धरती के रुखे कोनों की
मुट्ठियाँ भर पीड़ गज़ल कोई गाएँ

अभी समय है
आषाढ़ के रोमांच का मिथक
यह रिमझिम भ्रमजाल हटाएँ
सहज दिखता पर सच नहीं जो
सब झूठ है सब झूठ है चिल्लाएँ

अभी समय है
बिजली को दर्ज़ यह कराएँ
बिकती सड़कों पर सौदामिनी
उसकी गीली रात भूखी है
सिहरती बच्ची के बदन पर
शब्द कुछ सही बिछाएँ

अभी समय है
कुछ नहीं मिलता कविता बेचकर
कविता में कुछ कहना पाखंड है
फिर भी करें एक कोशिश और
दुनिया को ज़रा और बेहतर बनाएँ।
(दैनिक भास्कर – चंडीगढ़ २०००)

तुम्हारी दाढ़ी को क्या हुआ

बिनायक सेन, बिनायक सेन, तुम्हारी दाढ़ी को क्या हुआ।
चलो एक तो अच्छी खबर आई। बिना दाढ़ी का बिनायक सेन जेल से छूटा
पर जैसा कि हिंदू में आज कार्टून छपा है, फुर्र नहीं हो सकते- जमानत ही है। पर फुर्र होना भी क्यों? जनता का आदमी, जनता के बीच ही रहेगा। खतरनाक लोगों के बीच रहने की उसको आदत है।
बेशर्म हुक्मरान अपनी जिद पर हैं। अभी अभी बस्तर में एक गाँधी वादी संगठन का दफ्तर तोड़ा है। गरीबों की ओर से बोलने वाले की हर पार्टी दुश्मन। ऊपर से बस्तर में सरकार संघियों की है। वे लोग तालिबानी हैं, गलती से हिंदू पैदा हो गए हैं, इसलिए खुले आम कह नहीं सकते, केंद्र में फिर सरकार इनकी बन जाए तो खुले आम भी घोषणा कर दें, क्या पता। केंद्र में हारे तो मंगलूर में सीट जीतने की खुशी में मुसलमानों को पीटा। तो बिनायक न भी डरे, उसकी ओर से डर हम पर हावी है। सुनील ने भी आज इस पर लिखा है।

Thursday, May 21, 2009

अचंभित दुनिया देखती है औरत।

मन तो मेरा था कि बुर्जुआ लोकतंत्र के चुनावों पर एक पेटी बुर्जुआ अराजकतावादी के कुछ अवलोकनों को लिखूँ। पर अफलातून जो इन दिनों मेरे संस्थान में आया हुआ है ने समझा दिया कि मुल्क में मेरे जैसे पेटी बुर्जुआ टिप्पणीकारों की भरमार है। इसी बीच पुराने पोस्ट में 'छोटे शहर की लड़कियाँ' शीर्षक कविता पर टिप्पणी आई कि दूसरी कविता 'बड़े शहर की लड़कियाँ' भी पोस्ट कर दूँ। तो फिर वही सही।
यह कविता भी मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में संकलित है। यह कविता लाउड है, इसमें शब्दों के सैद्धांतिक अर्थ हैं, जिनसे हर कोई परिचित नहीं होता, जैसे 'गोरा' शब्द रंग नहीं, सामाजिक राजनैतिक सोच है। यह कविता संभवतः पल-प्रतिपल पत्रिका में भी १९८९ में प्रकाशित हुई थी। 'छोटे शहर की लड़कियाँ' जैसी हल्की न होने की वजह से यह आम पाठकों पर भारी पड़ती है।


बड़े शहर की लड़कियाँ

शहर में
एक बहुत बड़ा छोटा शहर और
निहायत ही छोटा सा एक
बड़ा शहर होता है

जहाँ लड़कियाँ
अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं
इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी
वे ऊपर आती हैं
उन्हें दूर से देखकर
छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह
तंग करने वाले आवारा लड़के
ख्वाबों में - मैं तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा बन जाऊँगा -
कहते हैं

ड्राइवरों वाली कारों में
राष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाती लड़कियाँ
तन से प्रायः गोरी
मन से परिवार के मर्दों सी
हमेशा गोरी होती हैं

फिल्मों में गोरियाँ
गरीब लड़कों की उछल कूद देखकर
उन्हें प्यार कर बैठती हैं
ऐसा ज़िंदगी में नहीं होता

छोटे शहर की लड़कियों के भाइयों को
यह तब पता चलता है
जब आईने में शक्ल बदसूरत लगने लगती है
नौकरी धंधे की तलाश में एक मौत हो चुकी होती है
बाकी ज़िंदगी दूसरी मौत का इंतज़ार होती है

तब तक बड़े शहर की लड़कियाँ
अफसरनुमा व्यापारी व्यापारीनुमा अफसर
मर्दों की बीबियाँ बनने की तैयारी में
जुट चुकी होती हैं

उनके बारे में कइयों का कहना है
वे बड़ी आधुनिक हैं उनके रस्म
पश्चिमी ढंग के हैं
दरअसल बड़े शहर की लड़कियाँ
औरत होने का अधकचरा अहसास
किसी के साथ साझा नहीं कर सकतीं
इसलिए बहुत रोया करती हैं
उतना ही
जितना छोटे शहर की लड़कियाँ
रोती हैं

रोते रोते
उनमें से कुछ
हल्की होकर
आस्मान में उड़ने
लगती है
ज़मीन उसके लिए
निचले रहस्य सा खुल जाती है

फिर कोई नहीं रोक सकता
लड़की को
वह तूफान बन कर आती है
पहाड़ बन कर आती है
भरपूर औरत बन कर आती है
अचंभित दुनिया देखती है
औरत।

Sunday, May 03, 2009

चिढ़

चिढ़

मैं चिढ़ता हूँ तो मेरी दुनिया भी चिढ़ती रहती है
मेरी दुनिया को चिढ़ है और दुनियाओं से
मेरी चिढ़ मेरी दुनिया भर की चिढ़ है
दुनिया भर की चिढ़ को सँभालना कोई आसान काम तो नहीं है
मैं हार गया हूँ
अपनी चिढ़ को किसी अदृश्य थाल पर लिए चलता हूँ

तुम बतलाते हो कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ
तो मुझे पता चलता है कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ
मैं किसी और से कहता होऊँगा कि वह चिढ़ कर बोलता है
वह किसी और से
यह सिलसिला चलता ही रहता है
बहुत सारी चिढ़ का पहाड़ ढोते हैं हम सब मिलकर

मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ
ऐसा नहीं कि मैं चिढ़ कर खुश होता हूँ
मैं तो सबसे मीठी बातें करता हूँ
कोई और चिढ़ रहा हो तो उसे भी सहलाता हूँ
तो मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ

ऐसा क्यों नहीं करते कि हम यह सारी चिढ़
इकट्ठी कर अमरीका के राजदूत को या हमारे
मुल्क को पाकिस्तान बनाने में जुटे मोदी सरीखों को दे दें

हो सकता है हमारे उपहार को देख वे खूब हँसें
कम से कम हमारी चिढ़ इस काम तो आएगी

या यूँ करें कि यह सारी चिढ़
किसी सभ्य कवि को दे आएँ
या किसी को जो माँग करता है कि कविता में
गाँव होना ही चाहिए

चिढ़ की पूँजी
बाँटते रहें तो कम नहीं होती
यह बात शीशे से टकराती चिड़ियों से
जानी है मैंने
वही पुरुष चिढ़
बाँटता चला हूँ।
(जनसत्ता - अप्रैल २००९)

Friday, May 01, 2009

गाँधीवाद या नक्सलवाद, तुम सच्चाई से डरते हो

बिनायक सेन को जेल में भरने के पीछे सिर्फ संघी हठवादिता नहीं, नक्सलवाद का हौव्वा हर कोई इस्तेमाल करता है। प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने कई बार कहा है कि देश को सबसे बड़ा खतरा नक्सलवाद से है।

है कौन सा देश हे मनमोहन, जिसकी बातें करते हो
मेरा देश भी है मनमोहन, जिससे डरते रहते हो

यह सही कहा है तुमने कि खतरा बड़ा है देश को
यूँ अपने देश में मनमोहन, हमें कहाँ तुम गिनते हो

मेरे देश में हे मनमोहन, लड़ते हैं, मरते हैं लोग
तेरे देश में हे मनमोहन, यूँ ज़मज़म जेबें भरते हो

यहाँ बाढ़ है वहाँ है दंगा, ये मेरा तेरा देश मनोहर
मेरे देश में आ मनमोहन, डगर डगर फिसलते हो

तेरे देश में हे मनमोहन, किसको नींद है आती
डरावने सपनों से घबराते, क्यों खर्राटे भरते हो

गाँधीवाद या नक्सलवाद, तुम सच्चाई से डरते हो
भूखे पेटों को मनमोहन, क्यूँ गप्पों से यूँ भरते हो।