कला में क्या वाजिब है? हिंदी फिल्मों में अक्सर हिंसा को ग्लैमराइज़ किया जाता है, पर कृत्रिमता की वजह से उसमें कला कम होती है। पर हिंसा को कलात्मक ढंग से पेश किया जाए और देखने में वह बिल्कुल सच लगे तो क्या वह वाजिब है? मेरा मकसद सेंशरशिप को वाजिब ठहराने का नहीं है, मैं तो अभिव्यक्ति पर हर तरह के रोक के खिलाफ हूँ (बशर्ते वह स्पष्ट तौर पर किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए न की गई हो)। पर यह एक पुरानी समझ है कि जब पेट भरा हो, तो चिताएँ अगले जून का भोजन ढूँढने की नहीं होतीं। रुप और कल्पना के ऐसे आयाम दिमाग पर हावी होते हैं, जो जीवन की आम सच्चाइयों से काहिल व्यक्ति को बकवास लगेंगे। हाल में १९९२ में बनी एक बेल्जियन फिल्म - मैन बाइट्स डॉग - देखी। बहुत ही सस्ते बजट में बनी इस फिल्म में एक साधारण सा दिखते आदमी पर 'mocumentary' या ब्लैक कामेडी बनाई गई। यह आदमी वैसे तो आम लोगों सा है, पर उसकी विशेषता यह है कि वह बिना वजह लोगों की हत्या करता है। हत्या करने में उसकी कुछ खासियतें हैं, जैसे वह बच्चों की हत्या उस तादाद में नहीं करता, जिस तादाद में बड़ों की करता है। उसे कविता का शौक है। वह भावुक और संवेदनशील है (स्पष्ट है कि हर किसी के लिए नहीं)। फिल्म में एक मोड़ ऐसा आता है कि क्रू का एक सदस्य किसी की गोली का शिकार हो जाता है।
शुरुआत में फिल्म के लिए पैसे नहीं थे, पर जैसे जैसे फिल्म बनती गई, पैसे जुटते गए (कहा जा सकता है कि फिल्म निर्माताओं को पेट की चिंता भी थी)। बहरहाल, मेरी समझ में नहीं आता कि कोई ऐसी फिल्म क्यों बनाना चाहता है। यह फिल्म बहुत पसंद की गई थी। ब्लर्ब में लिखा है कि जल्दी ही यह 'कल्ट' फिल्म का दर्जा अख्तियार कर चुकी थी।
चलो, यह भी सही।
मोहल्ला पर कनकलता मामले पर पोस्ट्स पढ़े। क्या कहा जाए - भारत महान! यह भी कि दिल्ली में घटना होती है तो देश भर को पता चलता है। सच यह है कि सारा देश अभी तक इस सड़न से मुक्त नहीं हुआ है। तीस साल पहले अमरीका में काले दोस्तों को मैं बतलाता था कि भारत में जातिगत भेदभाव कम हो रहा है और जल्दी ही खत्म होने वाला है। पर अब लगता नहीं कि यह अपने आप खत्म होने वाला है। हो सकता है दिल्ली के साथी इस पर एक राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत कर सकें। अपूर्वानंद लंबे समय से बहुत अच्छा काम कर रहा है। इस बार भी इस मामले पर विस्तार से लिख कर उसने ज़रुरी काम किया है। इस मामले में जुड़े सभी साथियों से यही कहना है कि हम भी साथ हैं और यह लड़ाई रुकनी नहीं चाहिए। कनकलता मामले के दोषियों को (पुलिस के भ्रष्ट अधिकारियों समेत) सजा मिलनी चाहिए।
मार्टिन एमिस का उपन्यास 'अदर पीपल' पढ़ रहा हूँ। स्मृति खो चुकी एक लड़की की भटकी हुई ज़िंदगी में हो रही घटनाएँ। पिछले कुछ सालों से मेरे प्रिय समकालीन ब्रिटिश लेखकों में मार्टिन एमिस और हनीफ कुरेशी हैं। मार्टिन एमिस में भी हिंसा है, पर इस पर कभी और ....।
Saturday, May 31, 2008
Tuesday, May 27, 2008
वाटर
23 मई:
१९९९ में दीपा मेहता की फिल्मों को लेकर हंगामा हो रहा था, मैंने पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की ओर से एक परिचर्चा आयोजित की थी। दीपा की मित्र और प्रख्यात नाट्य निर्देशक नीलम मानसिंह चौधरी ने बड़े जोरदार लफ्जों में सांस्कृतिक फासीवाद का विरोध किया था। मुझे वह परिचर्चा इसलिए याद है क्योंकि जिस साथी को मैंने नीलम को बुलाने का भार दिया था, वह स्वयं उन दिनों के सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों में से था, जो गाँधीवादी राष्ट्रवाद जैसे किसी नए मुहावरे से दक्षिणपंथी व्यवस्था को भुनाने में लगे थे और उस दिन आखिरी क्षण में पता चला था कि नीलम को सूचना तक नहीं मिली। संयोग से नीलम तभी दिल्ली में दीपा में मिल कर आई थी और इस विषय पर भावुकता से भरी थी। मेरे कहने पर वह तुरंत पहुँची और गहराई और गंभीरता से विषय पर बोली। बहरहाल, तब से कई बार मौका मिलने पर भी दीपा मेहता की फिल्में देख नहीं पाया हूँ। कभी कभार कहीं टुकड़ों में कुछ हिस्से देखे थे। आज इतने सालों के बाद 'वाटर' देखी। कहानी तो खैर पहले से मालूम थी। छोटी बच्ची 'चुहिया' बाल-विधवा होने पर जबरन बंगाल के गाँव से उठाकर काशी में आश्रम में भेज दी जाती है। वहाँ दूसरी विधवाओं के साथ उसका रहना फिल्म की कहानी है। फिल्म देखता हुआ हमेशा की तरह रो पड़ा। ऐसे मौकों में अपराध बोध, गुस्सा, आक्रोश, अवसाद, सब एक साथ दिमाग पर हावी हो जाते हैं। वृंदावन की विधवाओं पर पहले बनी एक डाक्यूमेंट्री देख चुका हूँ। वह भी विदेश में देखी थी। वैसे बचपन से बांग्ला उपन्यासों में विधवाओं के बारे में पढ़ता रहा हूँ, फिल्मों में भी देखा है। पर संभवतः बच्ची की भूमिका में सरला के अभिनय ने मन पर काफी प्रभाव डाला। आखिर में गाँधी के शब्द '...मैं लंबे समय तक मानता था कि ईश्वर ही सत्य है ....मेरी समझ में आया है कि सत्य ही ईश्वर है,' एकबारगी उन तमाम नव-उदारवादियों को धत्ता बता जाते हैं जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चपेट से अभी तक निकले नहीं हैं। सत्य यह है कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ बहुलता दबी-कुचली है। जहाँ बच्चों के साथ अमानवीय सलूक होता है। फिल्म में दीपा ने मूल कहानी के मुताबिक १९३८ का भारत दिखलाया है, पर अभी भी अनगिनत बाल-विवाह होते हैं, विधवाओं के साथ बुरा बर्त्ताव होता है। सवाल सिर्फ विधवा होने न होने का नहीं है, आम तौर पर हमारे समाज शास्त्री जिन सवालों पर कलमें घिसते हैं, उसमें सच्चाई की जगह क्रमशः कम और पुनरुत्थानवादी चिंतन की जगह बढ़ती गई है। फिल्म में एक विधवा कल्याणी आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसका सामाजिक रुप से सचेत प्रेमी ऐसे बाप का बेटा है जिसने कल्याणी की मजबूरी का फायदा उठाकर उसका शरीर भोगा है। हम सब ऐसे ही बापों के बेटे हैं, इसलिए हमारा चिंतन धुंध में खोया है। बाप बेटे को समझाता है कि उस औरत के साथ उसके सोने से औरत का फायदा हुआ है। यह उसी तरह का तर्क है जो बहुत कम पैसों में घर में नौकर रखने के लिए दिया जाता है।
मैं लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूँ पर सिर्फ इतना कहकर बात खत्म करुँ कि भारतीय सामाजिक विज्ञान की दुनिया में एक तरह का ढीठपन है, मुझे लंबे समय से लगता है यह हमारी अपनी सुविधापरस्त पृष्ठभूमि की वजह से है। जितना इस पर सोचा जाए, आश्चर्य होता है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था के साथ जी रहे हैं और आज तक संसदीय प्रणाली से जुड़े जन-संगठनों पर पाखंडी कुलीनों का वर्चस्व बना हुआ है। मुझे अक्सर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को सुओ मोटो नोटिस लेना चाहिए कि भारत में अधिकांश बच्चे न केवल अच्छे स्कूल में नहीं जा पाते, उन्हें न्यूनतम पोषक तत्वों से पूर्ण खाना तक नहीं मिलता। यह सरकार की पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए कि कम से कम चौदह साल तक की उम्र के बच्चों के लिए सारी और एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हों। इसके लिए जो खर्च होगा, वह कई अन्य राष्ट्रीय व्ययों से कही ज्यादा कम है (जैसे पारमाणविक शोध, सुरक्षा खाता आदि)। हमारे लोग, हमारे बच्चे हमारे लिए अदृश्य हैं, क्योंकि वे हमारे बच्चे नहीं हैं, वे हम कुलीनों के बच्चे नहीं हैं।
१९९९ में दीपा मेहता की फिल्मों को लेकर हंगामा हो रहा था, मैंने पंजाब विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की ओर से एक परिचर्चा आयोजित की थी। दीपा की मित्र और प्रख्यात नाट्य निर्देशक नीलम मानसिंह चौधरी ने बड़े जोरदार लफ्जों में सांस्कृतिक फासीवाद का विरोध किया था। मुझे वह परिचर्चा इसलिए याद है क्योंकि जिस साथी को मैंने नीलम को बुलाने का भार दिया था, वह स्वयं उन दिनों के सुविधापरस्त बुद्धिजीवियों में से था, जो गाँधीवादी राष्ट्रवाद जैसे किसी नए मुहावरे से दक्षिणपंथी व्यवस्था को भुनाने में लगे थे और उस दिन आखिरी क्षण में पता चला था कि नीलम को सूचना तक नहीं मिली। संयोग से नीलम तभी दिल्ली में दीपा में मिल कर आई थी और इस विषय पर भावुकता से भरी थी। मेरे कहने पर वह तुरंत पहुँची और गहराई और गंभीरता से विषय पर बोली। बहरहाल, तब से कई बार मौका मिलने पर भी दीपा मेहता की फिल्में देख नहीं पाया हूँ। कभी कभार कहीं टुकड़ों में कुछ हिस्से देखे थे। आज इतने सालों के बाद 'वाटर' देखी। कहानी तो खैर पहले से मालूम थी। छोटी बच्ची 'चुहिया' बाल-विधवा होने पर जबरन बंगाल के गाँव से उठाकर काशी में आश्रम में भेज दी जाती है। वहाँ दूसरी विधवाओं के साथ उसका रहना फिल्म की कहानी है। फिल्म देखता हुआ हमेशा की तरह रो पड़ा। ऐसे मौकों में अपराध बोध, गुस्सा, आक्रोश, अवसाद, सब एक साथ दिमाग पर हावी हो जाते हैं। वृंदावन की विधवाओं पर पहले बनी एक डाक्यूमेंट्री देख चुका हूँ। वह भी विदेश में देखी थी। वैसे बचपन से बांग्ला उपन्यासों में विधवाओं के बारे में पढ़ता रहा हूँ, फिल्मों में भी देखा है। पर संभवतः बच्ची की भूमिका में सरला के अभिनय ने मन पर काफी प्रभाव डाला। आखिर में गाँधी के शब्द '...मैं लंबे समय तक मानता था कि ईश्वर ही सत्य है ....मेरी समझ में आया है कि सत्य ही ईश्वर है,' एकबारगी उन तमाम नव-उदारवादियों को धत्ता बता जाते हैं जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चपेट से अभी तक निकले नहीं हैं। सत्य यह है कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहाँ बहुलता दबी-कुचली है। जहाँ बच्चों के साथ अमानवीय सलूक होता है। फिल्म में दीपा ने मूल कहानी के मुताबिक १९३८ का भारत दिखलाया है, पर अभी भी अनगिनत बाल-विवाह होते हैं, विधवाओं के साथ बुरा बर्त्ताव होता है। सवाल सिर्फ विधवा होने न होने का नहीं है, आम तौर पर हमारे समाज शास्त्री जिन सवालों पर कलमें घिसते हैं, उसमें सच्चाई की जगह क्रमशः कम और पुनरुत्थानवादी चिंतन की जगह बढ़ती गई है। फिल्म में एक विधवा कल्याणी आत्महत्या कर लेती है क्योंकि उसका सामाजिक रुप से सचेत प्रेमी ऐसे बाप का बेटा है जिसने कल्याणी की मजबूरी का फायदा उठाकर उसका शरीर भोगा है। हम सब ऐसे ही बापों के बेटे हैं, इसलिए हमारा चिंतन धुंध में खोया है। बाप बेटे को समझाता है कि उस औरत के साथ उसके सोने से औरत का फायदा हुआ है। यह उसी तरह का तर्क है जो बहुत कम पैसों में घर में नौकर रखने के लिए दिया जाता है।
मैं लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूँ पर सिर्फ इतना कहकर बात खत्म करुँ कि भारतीय सामाजिक विज्ञान की दुनिया में एक तरह का ढीठपन है, मुझे लंबे समय से लगता है यह हमारी अपनी सुविधापरस्त पृष्ठभूमि की वजह से है। जितना इस पर सोचा जाए, आश्चर्य होता है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था के साथ जी रहे हैं और आज तक संसदीय प्रणाली से जुड़े जन-संगठनों पर पाखंडी कुलीनों का वर्चस्व बना हुआ है। मुझे अक्सर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को सुओ मोटो नोटिस लेना चाहिए कि भारत में अधिकांश बच्चे न केवल अच्छे स्कूल में नहीं जा पाते, उन्हें न्यूनतम पोषक तत्वों से पूर्ण खाना तक नहीं मिलता। यह सरकार की पहली जिम्मेवारी होनी चाहिए कि कम से कम चौदह साल तक की उम्र के बच्चों के लिए सारी और एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हों। इसके लिए जो खर्च होगा, वह कई अन्य राष्ट्रीय व्ययों से कही ज्यादा कम है (जैसे पारमाणविक शोध, सुरक्षा खाता आदि)। हमारे लोग, हमारे बच्चे हमारे लिए अदृश्य हैं, क्योंकि वे हमारे बच्चे नहीं हैं, वे हम कुलीनों के बच्चे नहीं हैं।
Monday, May 19, 2008
बढ़िया रे बढ़िया!
अफलातून, सुकुमार राय की एक और कविता (आबोल ताबोल से):
बढ़िया रे बढ़िया!
भाई जी! देखा दूर तक सोचकर -
इस दुनिया में सबकुछ बढ़िया,
असली बढ़िया नकली बढ़िया,
सस्ता बढ़िया महँगा बढ़िया,
तुम भी बढ़िया, मैं भी बढ़िया,
छंद यहाँ गीतों के बढ़िया
गंध यहाँ फूलों की बढ़िया,
मेघ लिपा आस्माँ बढ़िया,
लहर नचाती हवा है बढ़िया,
गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया,
काला बढ़िया गोरा बढ़िया,
पुलाव बढ़िया कुर्मा बढ़िया,
परवल-मच्छि मसाला बढ़िया,
कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया,
सीधा बढ़िया टेढा बढ़िया,
ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया,
टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया,
ठेला बढ़िया ठेलना बढ़िया,
ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया,
ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया,
सेमल की रुई बुनना बढ़िया,
ठंडे जल में नहाना बढ़िया,
एक चीज है सबसे बढ़िया -
पाँवरोटी और गुड़ शक्कर।
बढ़िया रे बढ़िया!
भाई जी! देखा दूर तक सोचकर -
इस दुनिया में सबकुछ बढ़िया,
असली बढ़िया नकली बढ़िया,
सस्ता बढ़िया महँगा बढ़िया,
तुम भी बढ़िया, मैं भी बढ़िया,
छंद यहाँ गीतों के बढ़िया
गंध यहाँ फूलों की बढ़िया,
मेघ लिपा आस्माँ बढ़िया,
लहर नचाती हवा है बढ़िया,
गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया,
काला बढ़िया गोरा बढ़िया,
पुलाव बढ़िया कुर्मा बढ़िया,
परवल-मच्छि मसाला बढ़िया,
कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया,
सीधा बढ़िया टेढा बढ़िया,
ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया,
टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया,
ठेला बढ़िया ठेलना बढ़िया,
ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया,
ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया,
सेमल की रुई बुनना बढ़िया,
ठंडे जल में नहाना बढ़िया,
एक चीज है सबसे बढ़िया -
पाँवरोटी और गुड़ शक्कर।
Sunday, May 18, 2008
गर्मी
तकरीबन एक महीना गर्मी से बहुत परेशान रहे। दफ्तर और घर दोनों ऊपरी मंज़िल पर। संयोग से वर्षों से ऐसा रहा है। अब जिस कमरे में अस्थायी रुप से बैठ रहा हूँ, वहाँ ए सी है तो कम से कम काम के वक्त राहत है। हर कोई कहता है कि गर्मी बढ़ रही है। हैदराबाद में ए सी की ज़रुरत होनी नहीं चाहिए, पर या तो उम्र बढ़ रही है इस वजह से या सचमुच गर्मी बहुत होने की वजह से इस साल परेशानी ज्यादा है। चारों ओर कंक्रीटी जंगल फैल रहा है। बहुत पहले कभी बच्चों के लिए एक कविता लिखी थी, शीर्षक था 'पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या?' कभी ढूँढ के पोस्ट करेंगे। फिलहाल तो बेटी के ताने सुन रहा हूँ कि बस गर्मी गर्मी रट लगाए हुए हो।
गर्मी ज्यादा हो तो स्वतः अवसाद होता है। जो भी ठीक नहीं है वह कई गुना बेठीक लगने लगता है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। कहते ही हैं, ज्यादा गर्मी मत दिखाओ। ऐसे में कभी कभार शाम को ठंडी बयार चल पड़े तो लगता है जन्नत के दौरे पर निकले हैं। ऊपरी मंज़िल होने का यह फायदा है कि बरामदे पर इधर से उधर चलना भी सैर जैसा है। बदकिस्मती से पड़ोस वालों ने मकान पर एक मंजिल और बढ़ा ली है, इसलिए उधर से हवा रुक गई है, फिर भी हवा को बलखाने के लिए कोण मिल ही जाते हैं। और फिर पिछवाड़े में छोटा सा जंगल है, जहाँ ऊँचे पेड़ों के पत्ते सरसराते रहते हैं।
तीन दिनों बाद कुछ हफ्तों के लिए विदेश जाना है। गर्मी से तो राहत मिलेगी, पर यह शाम का मजा मिस करेंगे। और जो अनगिनत लोग इसी गर्मी में मर खप रहे हैं, उनको कैसे भूलें!
आज हिंदू में हर्ष मंदेर का विनायक सेन पर अच्छा आलेख है।
गर्मी ज्यादा हो तो स्वतः अवसाद होता है। जो भी ठीक नहीं है वह कई गुना बेठीक लगने लगता है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। कहते ही हैं, ज्यादा गर्मी मत दिखाओ। ऐसे में कभी कभार शाम को ठंडी बयार चल पड़े तो लगता है जन्नत के दौरे पर निकले हैं। ऊपरी मंज़िल होने का यह फायदा है कि बरामदे पर इधर से उधर चलना भी सैर जैसा है। बदकिस्मती से पड़ोस वालों ने मकान पर एक मंजिल और बढ़ा ली है, इसलिए उधर से हवा रुक गई है, फिर भी हवा को बलखाने के लिए कोण मिल ही जाते हैं। और फिर पिछवाड़े में छोटा सा जंगल है, जहाँ ऊँचे पेड़ों के पत्ते सरसराते रहते हैं।
तीन दिनों बाद कुछ हफ्तों के लिए विदेश जाना है। गर्मी से तो राहत मिलेगी, पर यह शाम का मजा मिस करेंगे। और जो अनगिनत लोग इसी गर्मी में मर खप रहे हैं, उनको कैसे भूलें!
आज हिंदू में हर्ष मंदेर का विनायक सेन पर अच्छा आलेख है।
Friday, May 16, 2008
विनायक सेन जेल में क्यों है?
विनायक सेन जेल में क्यों है?
- इसलिए कि दो हजार आठ में भी हिंदुस्तान एक पिछड़ा हुआ मुल्क है, जहाँ ढीठ सामंती हाकिमों और अफसरशाही का राज है।
सोचने पर कमाल की बात लगती है कि मामला इतनी दूर तक पहुँच गया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव आना लाजिमी हो गया।
- इसलिए भी कि जनपक्षधर लोगों में भी एकता नहीं है और काफी हद तक हम सब लोग सामंती सोच से ही ग्रस्त हैं।
जयपुर के धमाकों से हर कोई जैसे खुमारी से जागा है और हमें याद आया है कि क्रिकेट के हंगामे से अलग हिंदुस्तान की सच्चाई कुछ और भी है।
मीडिया में बार बार सवाल उठाया जा रहा है कि जयपुर क्यों? कैसा बेकार सवाल है जैसे कि और कुछ पूछने को नहीं है तो यही पूछ लें।
जैसे कि जयपुर न होकर कोई और शहर होता तो ठीक था।
सोचता हूँ कि आज के युवाओं और बच्चों में भविष्य के लिए क्या उम्मीदें होंगी? आश्चर्य होता है कि सब कुछ अपने नियमं से चलता ही रहता है। एक जमाना वह भी था जब कोई टी वी नहीं था। पता चलता कि शहर में कहीं दंगा हो गया है। लोग अपने मुहल्लों में टिके रहते। चर्चाएँ, बहसें होतीं और लगता जैसे धरती परिधि पर कहीं रुक गई है। अब हम बार बार मृत और घायलों को देखते हैं और मशीन के पुर्जों जैसे वापस क्रिकेट देखने लग जाते हैं।
- इसलिए कि दो हजार आठ में भी हिंदुस्तान एक पिछड़ा हुआ मुल्क है, जहाँ ढीठ सामंती हाकिमों और अफसरशाही का राज है।
सोचने पर कमाल की बात लगती है कि मामला इतनी दूर तक पहुँच गया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव आना लाजिमी हो गया।
- इसलिए भी कि जनपक्षधर लोगों में भी एकता नहीं है और काफी हद तक हम सब लोग सामंती सोच से ही ग्रस्त हैं।
जयपुर के धमाकों से हर कोई जैसे खुमारी से जागा है और हमें याद आया है कि क्रिकेट के हंगामे से अलग हिंदुस्तान की सच्चाई कुछ और भी है।
मीडिया में बार बार सवाल उठाया जा रहा है कि जयपुर क्यों? कैसा बेकार सवाल है जैसे कि और कुछ पूछने को नहीं है तो यही पूछ लें।
जैसे कि जयपुर न होकर कोई और शहर होता तो ठीक था।
सोचता हूँ कि आज के युवाओं और बच्चों में भविष्य के लिए क्या उम्मीदें होंगी? आश्चर्य होता है कि सब कुछ अपने नियमं से चलता ही रहता है। एक जमाना वह भी था जब कोई टी वी नहीं था। पता चलता कि शहर में कहीं दंगा हो गया है। लोग अपने मुहल्लों में टिके रहते। चर्चाएँ, बहसें होतीं और लगता जैसे धरती परिधि पर कहीं रुक गई है। अब हम बार बार मृत और घायलों को देखते हैं और मशीन के पुर्जों जैसे वापस क्रिकेट देखने लग जाते हैं।
Tuesday, May 13, 2008
So how should I presume?
हल्की ठंडक भरी पठारी हवा।
तपने को तैयार कमरा, अभी अभी बिजली गई है।
खबरें। मानव मूल्य।
नैतिकता।
कछ दिनों पहले किसी ने अरस्तू और अफलातून के संवादों का जिक्र किया था।
-क्या नैतिकता सिखाई जा सकती है। अगर हाँ तो कैसे?
-मै नही जानता कि नैतिकता है क्या, सिखाना तो दूर की बात।
कुछ लोग जबरन मानव मूल्य नामक एक कोर्स पर बहस करते हैं।
जिनका वर्चस्व है, वे चाहते हैं कि वे युवाओं से चर्चा करें कि भला क्या है, बुरा क्या है। विरोध करता हूँ तो कभी औचित्य पर सवाल उठते हैं तो कभी 'प्रोफेसर साहब बहुत विद्वान हैं' सुनता हूँ। सुन लेता हूँ, और समझौतों की तरह यह भी सही।
तकरीबन सौ साल के बाद भी एलियट की पंक्तियाँ ही सुकून देती हैं।
For I have known them all already, known them all:—
Have known the evenings, mornings, afternoons,
I have measured out my life with coffee spoons;
I know the voices dying with a dying fall
Beneath the music from a farther room.
So how should I presume?
मेरी चिंताएँ इतनी विकट हैं कि यह सब बेकार की बहस लगती है। फिलहाल ज़िंदगी और मौत की चिंताएँ हैं। सबको ज़िंदा रहना है। एक दिन और ज़िंदा रहना है।
साइंटिफिक अमेरिकन में आलेख है कि बीस की उम्र के बाद ही मस्तिष्क में सफेद पदार्थ या 'माएलिन' बनने की रफतार में बढ़ोतरी आती है, इसिलए 'वयस्क' निर्णय लेने की क्षमता हमें बीस से पचीस की उम्र तक ही मिल पाती है। पर अनुभव
से 'माएलिन' बनने में तेजी आ सकती है। जिस क्षेत्र का अनुभव अधिक होगा, उसी से जुड़े मस्तिष्क के क्षेत्र में माएलिन ज्यादा बनेगा। 'वयस्क' निर्णय में ज़िंदा रहना भी है। सतही तौर पर पढ़ा जाए तो युवाओं के खिलाफ षड़यंत्र सा लगता है। और इसका फायदा उठाने वाले उठाएँगे भी।
जब तक संभव है, सबको ज़िंदा रहना है। किसी को ज़िंदा रखने की जिम्मेवारी है तो निभाना है।
दोस्त फोन पर कह रहा है कि वह उदास है, हर खबर और अधिक उदासी लाती है। मै बुज़ुर्ग साहित्यकार मित्र को सालों पहले भेजा कार्ड याद करता हूँ (बाद में बच्चों और नवसाक्षरों के लिए संग्रहों मे शामिल गीत) - जीतेंगे, जीतेंगे हम जीतेंगे रे जीतेंगे।
कोई सुनाता है कि कोलकाता की क्रिकेट टीम का नारा है। जैसे पिछले साल टी वी पर किसी लाखों की गाड़ी के विज्ञापन में साठ के दशक का चुराया हुआ सुर था - लिटल हाउसेस आन द हिल टाप दे आल लुक जस्ट द सेम।
रात को न आते आते भी नींद आती है। इंतज़ार करता हूँ नई सुबह का, नई कविता की नई सुबह।
तपने को तैयार कमरा, अभी अभी बिजली गई है।
खबरें। मानव मूल्य।
नैतिकता।
कछ दिनों पहले किसी ने अरस्तू और अफलातून के संवादों का जिक्र किया था।
-क्या नैतिकता सिखाई जा सकती है। अगर हाँ तो कैसे?
-मै नही जानता कि नैतिकता है क्या, सिखाना तो दूर की बात।
कुछ लोग जबरन मानव मूल्य नामक एक कोर्स पर बहस करते हैं।
जिनका वर्चस्व है, वे चाहते हैं कि वे युवाओं से चर्चा करें कि भला क्या है, बुरा क्या है। विरोध करता हूँ तो कभी औचित्य पर सवाल उठते हैं तो कभी 'प्रोफेसर साहब बहुत विद्वान हैं' सुनता हूँ। सुन लेता हूँ, और समझौतों की तरह यह भी सही।
तकरीबन सौ साल के बाद भी एलियट की पंक्तियाँ ही सुकून देती हैं।
For I have known them all already, known them all:—
Have known the evenings, mornings, afternoons,
I have measured out my life with coffee spoons;
I know the voices dying with a dying fall
Beneath the music from a farther room.
So how should I presume?
मेरी चिंताएँ इतनी विकट हैं कि यह सब बेकार की बहस लगती है। फिलहाल ज़िंदगी और मौत की चिंताएँ हैं। सबको ज़िंदा रहना है। एक दिन और ज़िंदा रहना है।
साइंटिफिक अमेरिकन में आलेख है कि बीस की उम्र के बाद ही मस्तिष्क में सफेद पदार्थ या 'माएलिन' बनने की रफतार में बढ़ोतरी आती है, इसिलए 'वयस्क' निर्णय लेने की क्षमता हमें बीस से पचीस की उम्र तक ही मिल पाती है। पर अनुभव
से 'माएलिन' बनने में तेजी आ सकती है। जिस क्षेत्र का अनुभव अधिक होगा, उसी से जुड़े मस्तिष्क के क्षेत्र में माएलिन ज्यादा बनेगा। 'वयस्क' निर्णय में ज़िंदा रहना भी है। सतही तौर पर पढ़ा जाए तो युवाओं के खिलाफ षड़यंत्र सा लगता है। और इसका फायदा उठाने वाले उठाएँगे भी।
जब तक संभव है, सबको ज़िंदा रहना है। किसी को ज़िंदा रखने की जिम्मेवारी है तो निभाना है।
दोस्त फोन पर कह रहा है कि वह उदास है, हर खबर और अधिक उदासी लाती है। मै बुज़ुर्ग साहित्यकार मित्र को सालों पहले भेजा कार्ड याद करता हूँ (बाद में बच्चों और नवसाक्षरों के लिए संग्रहों मे शामिल गीत) - जीतेंगे, जीतेंगे हम जीतेंगे रे जीतेंगे।
कोई सुनाता है कि कोलकाता की क्रिकेट टीम का नारा है। जैसे पिछले साल टी वी पर किसी लाखों की गाड़ी के विज्ञापन में साठ के दशक का चुराया हुआ सुर था - लिटल हाउसेस आन द हिल टाप दे आल लुक जस्ट द सेम।
रात को न आते आते भी नींद आती है। इंतज़ार करता हूँ नई सुबह का, नई कविता की नई सुबह।
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