Friday, April 05, 2013

अहसास पुराना हो चला था

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टूटते परमाणु



अहसास पुराना हो चला था कि अब प्रवाह धीमा पड़ गया है। 
उदासीन सी निश्चितता में दोनों मिलते थे इधर। 
मुलाकातें गिनती से ज्यादा हो चुकी  थीं। दोनों ही जानते थे 
कि अब वह कुछ नहीं रह गया था जो कभी उनके बीच 
जादू जैसा खिलता था । 
 
आस-पास की सड़कें, दीवारें सब थक चुकी थीं। लोग-बाग की
नज़रों में कोई कौतूहल न रह गया था। 
अनिश्चितताएँ, परेशानियाँ मिट रही थीं धीरे धीरे।  
 
क्या उन्हें याद है जब लाइब्रेरी में किताबों से नज़रें उठते ही सिर्फ 
एक दूसरे को देखती थीं;  
जब सभाओं में औरों की बतियाती शक्लों में एक दूसरे को देखते थे;  
जब एक दूसरे की आँखों में शरारतें बाँट लेते थे;  
जब फोन पर काम के बहाने लंबी गुफ्तगू  सिर्फ इसलिए होती थी 
कि दुनिया में तब सिर्फ एक दूसरे की आवाज़ इतनी 
मीठी होती थी?

'याद आती है, पर नहीं आती। '

लगता है यह होना ही था। लंबे अरसे से, महीनों से, सालों से हो चला था। 
बहुत पहले कभी संकेत उभरने लगे थे,  
जैसे अनबोए ही उग आए थे काँटे। चाय की गर्मी या ठंडक जैसे विषयों पर बहसें,   
अचानक ही होती थीं। कभी बहसें होतीं 
फोन पर, कभी आमने सामने, थोड़ी अवांछित हिंसा भी आ जाती थी भाषा में। 
धीरे धीरे सभी द्वंद्व सुलझते चले थे। 
वे अलग ही अलग होते चले थे। बीच बीच में बची खुची उत्तेजना पास ले आती,  
वह भी बुझती बुझती कब की बुझ चुकी थी। 
एक दिन जैसे किसी बच्चे की चीख।
निर्णय आता है हवाओं के साथ
घास पौधों को छूता आस-पास से।

फिर दूर से देखते ही नज़रें बचाकर चलने की दिशा बदल देना। 
अचानक हवा के झोंकों के साथ आती याद पर 
कभी मुस्कुराना, कभी चकित होना। धरती का वह धरती न रहना,  
चाँद का वह चाँद न रहना। कभी कभी नाभि की 
ज़रूरतों से इलेक्ट्रान का चीखना। आदम और हव्वा की कहानी 
सुलझाते पूरी पूरी सभ्यताओं का मिट जाना। 
एक आदि कुत्ते या मेढक से चला आ रहा अपराध बोध। 


फिर कहीं कोई टूटता परमाणु। फिर कोई कहानी।
 (आलोचना-47 (2012) में प्रकाशित; संग्रह 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित)
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इस कविता को पढ़कर अग्रज कवि नीलाभ (अश्क) की टिप्पणी हैः 
'बहुत ही अच्छी मन को छू लेने वाली कविता है. तुम्हारे हाथ चूमने को मन होता है' 
(उनकी अनुमति से ही पेस्ट कर रहा हूँ)।

Monday, April 01, 2013

डायरी में तेईस अक्तूबर


पिछले पोस्ट के आलेख में मैंने अपनी एक कविता 'लड़ाई की कविता' का ज़िक्र किया है जो फुकुयामा को मेरा जवाहै। मेरा पहला ऐसा प्रयास नीचे पेस् की गई कविता में है, जो तकरीबन 18 साल पहले आई आई टी कानपु में हमारे प्रिय प्रोफेसर अगम प्रसाद शुक्ला द्वारा आयोजित एक सभा में हुए अनुभव से उपजी थी। एक सत्र में मेरे सुझाव पर मध्य वर्ग के सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के विभाजित व्यक्तित्व पर चर्चा हो रही थी। गाँधीवादी और मार्क्सवादी कार्यकर्त्ताओं के बीच बहस छिड़ गई थी और मैंने गौर किया कि मेरी पकेट डायरी (पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा प्रकाशित) में इतिहास में उस दिन हुई कुछ नोखी घटनाओं का उल्लेख है। मैंने सबको रोक कर डायरी का वह अंश पढ़ कर सुनाया। बाद में शाम को हमलोग देर तक गाते बतियाते रहे। रात को सोते हुए मैंने सोचा कि कौन कहता है कि इतिहास का ंत हो गया। हम हर दिन इतिहास रचते रहते हैं। सही कि फुकुयामा या मार्क्स तिहास  के किसी और अर्थ की बात करते हैं, पर प्रकारांतर में सभ्यता के विकास का वह प्रसंग भी इस कविता के केंद्र में है। यह कविता इसी शीर्षक से मेरे दूसरे संग्रह की पहल कविता है। करीब छः साल की कोशिश के बाद यह संग्रह 2004 में रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से आया था। पहल बार यह कविता अभय दुब संपादित 'समय चेतना' पत्रिका में 1996 में प्रकाशित हुई थी। बाद में 'हंस' में भी आई


डायरी में तेईस अक्तूबर

(उस दिन जन्म हुआ औरंगज़ेब का,
लेनिन ने सशस्त्र संघर्ष का प्रस्ताव रखा उस दिन।
उस दिन किया जंग का ऐलान बर्त्तानिया के ख़िलाफ़ आज़ाद हिंद सरकार ने।)

उस दिन हम लोग सोच रहे थे अपने विभाजित व्यक्तित्वों के बारे में
रोटी और सपनों की गड़बड़ के बारे में
बहस छिड़ी थी विकास पर
भविष्य की आस पर

सूरज डूबने पर गाए गीत हमने हाथों में हाथ रख।
बात चली उस दिन देर रात तक। जमा हो रहा था धीरे-धीरे बहुत-सा प्यार।
पूर्णिमा को बीते हो चुके थे पाँच दिन।

चाँद का मुँह देख़ते ही हवा बह चली थी अचानक।
गहरी उस रात पहली बार स्तब्ध खड़े थे हम।
डायरी में, 23 अक्तूबर का अवसान हुआ बस यहीं पर।