Friday, December 29, 2017

नया साल मुबारक

कुछ तो शरारत का हक मुझे भी :-)

आसान कविता


यह कविता आसान कविता है
फूल को फूल और चिड़िया को चिड़िया कहती है
मोदी को मोदी और हिटलर को हिटलर कहती है
बात तुम तक ले जाती है
प्रगति-प्रयोग-छायावाद नहीं
यहाँ तक कि रेटोरिक भी नहीं है
गद्यात्मक है, पर पद्य है
आदर्श कविता है
दिमाग के तालों को खोलने की कोशिश इसमें नहीं है
पढ़कर कवि को दरकिनार करने वाले खेमेबाज लोग
इसे तात्कालिक नहीं कहेंगे
इस पर जल्द ही किसी मुहल्ले से कोई सम्मान घोषित होगा
बिल्कुल आसान है कविता
जैसे सुबह का नित्य-कर्म
इसे साँचा मानकर चल सकते हैं
इसके आधार पर छपने लायक कविताएँ लिख सकते हैं
गौर करें कि इसमें कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है
दलित आदिवासी स्त्री तो क्या पंजाबी बंगाली नहीं है


कुछ नहीं कहती सिर्फ इसके कि
बात आप तक ले जाती है
बात कोई बात है ही नहीं तो मैं क्या करूँ।          (बनास जन - 2017)

मुश्किल कविता

ज़ुबान मुश्किल
बातां मुश्किल
कविता हे कि क्या हे रे
हल्लू हल्लू असर डालते
हौला कर दिया रे
भगाओ इसको
अरे मुश्किल अपने ग़ालिब क्या थोड़ा थे
होनाइच हे तो वैसा होवो
ख़लिश बोले तो ख़लिश बोलो
मुश्किल नीं करने का रे
हल्लू हल्लू नईं आने का रे
साफ-साफ बोलो कविता का खटिया मत खड़ा करो रे
क्याऽऽ मतलब कि पोस्ट-लेंग्वेज़
अपुन को इंगलिश में एम ए नहीं करना रे
बाप रे, क्या कविता बोले रे
तुम एक आदमी रे कि बोत सारे रे
कोन मुलुक का तुम एक मुलुक का कि बोत सारे
जो हो वहींच रहने का ना रे
कायकू बदलता रहता हम पकड़ीच नहीं पाता रे
तुम पॉलिटिक्स बोले तो पॉलिटिक्स करो
इश्क करो तो इश्कइच करो
दोनों साथ साथ नहीं होने का रे
अपना बारे में बोलो तो दूसरे को मत लाना
लोगां का बोलना तो अपने को छिपाना
हमूँ किधर शुरु करते रे
समझते तो समझ नहींच आते
पकड़ते तो पकड़ नहींच पाते

कुछ तो रास्ता बतलाना रे। 


Thursday, December 28, 2017

हम नहीं हटे, डर हटा पीछे कदम दो-चार

आज 'द लल्लनटॉप' में आ रही कविताएँ - 

#1) यह मुश्किल साल था
इतना चाहता हूं कि सामने दिखते दरख्त पर
चढ़ने की मुकम्मल तैयारी कर सकूं
मसलन आबिदा परवीन की गायकी छूट न जाए
तनाव के पल कैसे कटेंगे उसके बिना
कुछ जैज़ बाजा भी साथ हो कि डालों पर फुदकने का मन हो तो…
यह मुश्किल साल था
अब जान चुका हूं कि आने वाला हर साल मुश्किल ही होगा
इसलिए बिरियानी का पैक साथ ले जाना है
भले सब्जियां खाने की उम्र हो गई है
पर मछली थोड़े ही छोड़ सकते हैं
बुर्ज़ुआ आदतें हैं
तो जिन और टॉनिक भी चाहिए;
दरख्त पर साथी और भी होंगे
सबने कुछ इंतज़ाम किया ही होगा
कि साथ-साथ सितारों को देखें
नीहारिकाएं और हर कहीं प्यार अनंत
कल्पना करें कि सितारों के आगे से धरती कैसी दिखती होगी
इस तरह भूल जाएं थोड़ी देर सही
बीते साल भर की मुश्किलें
बीच-बीच में उतरना तो पड़ेगा
अभी ज़मीं पर रंग खिलने बाक़ी हैं
हमारे बच्चे जो युवा हो रहे हैं
रंगों की तलाश में जुटे हैं
उनकी कविताएं सुननी हैं
कुछ उन्हें सुनानी हैं
कोई साथी दरख्त से उतर रहा होगा
देखेंगे हम उसका उतरना
फिर सपनों में तैयारी करेंगे खुद उतरने की
इस तरह यह धरती यह कायनात बेहतर होती जाएगी पल दर पल
साल दर साल.

# 2) धरती ने अभी अरबों साल जीना है
सड़क के ठीक बीचोबीच जंगली गिरगिट;
हरे से भरा था उसका बदन
हरी गर्दन उठाकर उसने मेरी ओर देखा था
और रंग नहीं बदला था
गर्दन उठाए और नज़र में अनगिनत सवाल लिए
वह नवजात मानव-शिशु सा था
निहायत कमजोर और अपने होने में मशगूल
किसी भी पल तेज चलती गाड़ी के नीचे कुचला जा सकता था
उसे बचाने का कोई तरीका सोचना मुश्किल था
लापरवाह अराजक गर्दन कुछ कह रही थी
कि चारों ओर तेजी से बदलते रंगों के इन दिनों में
वह एक नाकाम मुहावरा नहीं था
हारी हुई फौजों का आखिरी सिपाही बन सड़क संभाले हुए था
उसे देखकर मुतमइन होना लाज़िम था कि
यह साल जैसा भी रहा
बदलते रहें रंग और कुचले जाएं हम बार-बार
धरती ने अभी अरबों साल जीना है.

# 3) खरबों बीते सालों सा यह साल भी बीत गया
सर्दी गर्मी बारिश के साथ झूठ और नफ़रत के व्यापार की
साल भर सूचनाएं आती रहीं
पंछी सुबह-शाम बहस-मशविरा करते
कि ऐसे प्रदूषण में रास्ता कैसे देखें
कभी अलग-थलग तो कभी मिल-जुलकर तरीके सोचे गए
यह साल हारते रहने का साल ही था
झूठ का दायरा इतना बढ़ गया
कि धरती के दोनों छोरों पर धुंध घनी थी
हर कोई याद करने की कोशिश में था कि
ऐसी धुंध पहले कब देखी गई थी
हालांकि इकट्ठे पंख फड़फड़ाने से धुंध छंटती नज़र आती
धरती पर बहुत कुछ स्थाई तौर पर बदल चुका था
चुंबकीय ध्रुव इस कदर हिल-डुल रहे थे
कि सही दिशाओं की पहचान करना मुश्किल हो चला था
बहरहाल धरती अपनी धुरी पर है
मौसम बदलते हैं जैसे उनको बदलना है
खरबों बीते सालों सा यह साल भी बीत गया
कायनात का सीना और चौड़ा हुआ
इतना कि अनगिनत छप्पन इंच मिट जाएंगे उसमें.

# 4) हम नहीं हटे, डर ही हटा पीछे कदम दो-चार
इस साल भी आस्मान में कई बार इंद्रधनुष खिला
नई कथाएं लिखी गईं, गीत रचे गए
बच्चे-बूढ़े सब ने पंख पसार सतरंगी धनुष छुआ कई बार
चिंताएं थीं, ऊंचाइयों से कौन नहीं डरता
पंख पिघल भी सकते थे इकारस की तरह
जो गिरे उनके लिए हम सबने आंसू बहाए
हवाओं में अलविदा कहकर चुंबन उछाले
और हाथों में हाथ रख सड़कों पर उतर आए
इस तरह हमने हराया डर को जो हमारे पंख कुतर रहा था
हमने उन सबकी ओर से इंद्रधनुष को और-और छुआ
जिनके पंख कुतरे गए थे;
मुश्किल रहा साल पर डर को घूरा हमने पुरजोर
हम नहीं हटे, डर ही हटा पीछे कदम दो-चार.

# 5) वह भी प्यार है
जो छूट गया
वह प्यार
जो रह गया है वह भी प्यार है
पिछली सरसों का पीला छूटा है
तो आ रहा है फिर से बसंत
आएंगे और गीत-संगीत
घर-घर से निकलेंगी
आज़ादी और बराबरी की आवाज़ें
धरती खारिज करेगी तानाशाह का घमंड
तूफानी हवाओं में धुनें गूंजेंगी प्यार की और-और.

Wednesday, December 13, 2017

जो उठना है, वह किस गटर में गिरना है



सतह से उठते सवाल : 'सतह से उठता आदमी' में से निकलते कुछ सवाल
-('नया पथ' के ताज़ा अंक में प्रकाशित लेख)

कहा जा सकता है कि 'सतह से उठता आदमी' मूलत: एक अस्तित्ववादी रचना है। गौरतलब बात यह है कि जब यह कहानी लिखी गई तब विश्व साहित्य में अस्तित्ववादी चिंतन अपने शिखर पर था। पर अस्तित्ववाद आखिर है क्या? अस्तित्ववाद पर आलोचकों की कई तरह की राय रही है। अक्सर अस्तित्ववाद का उल्लेख आलोचना की गंभीरता मात्र जताने के लिए होता है; सचमुच आलोचक क्या कहना चाहता है या साफ नहीं होता। अस्तित्ववाद जीवन में किसी बृहत्तर मकसद को ढूँढने से हमें रोकता है। पर 'सतह से उठता आदमी' कहानी हमें अपने अस्तित्व का एक बड़ा मकसद ढूँढने को कहती है, बशर्ते हमारी संवेदनाएं बिल्कुल कुंद न हो गई हों, जिसका खतरा आज व्यापक है। हमारी कोशिश यहाँ गंभीर आलोचना की नहीं, महज एक खुले दिमाग से पुनर्पाठ की है।

'सतह से उठता आदमी' में तीन मुख्य चरित्र हैं - कन्हैया लेखक का प्रतिरूप है या कथावाचक की भूमिका में है, कृष्णस्वरूप उसका मित्र है, जो कभी ग़रीब होता था और अब अच्छी नौकरी मिल जाने से आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में है, और रामनारायण, जिसे कृष्णस्वरूप जीनियस मानता है, जो कभी धनी घर का बिगड़ा लड़का था और अब बौद्धिक उलझनों में खोया हुआ शख्स है। चरित्रों को भरपूर उभारा गया है, जैसा अमूमन उपन्यास लेखन में होता है, पर यह एक कहानी है, उपन्यास नहीं। पर चरित्रों के उभार पर ध्यान देना ज़रूरी है, नहीं तो सतह से उठने की सतही समझ भर रह जा सकती है।

कौन है जो सतह से उठता है? क्या वह कन्हैया है, या कृष्णस्वरूप या रामनारायण? किस सतह से कोई उठता है? कहाँ पर, कहाँ तक उठता है? कहानी के आखिर में कन्हैया अकेले में गटर में थूकता है। क्या यह सतह से उठने की स्थिति है? हम किसी एक समझ को प्रतिष्ठित न कर अलग-अलग संभावनाओं को सामने आने दें तो बेहतर होगा।

कन्हैया और कृष्णस्वरूप पुराने दोस्त हैं। दोनों के बचपन और किशोर उम्र मुफलिसी में ग़रीबी में बीते हैं। सालों बाद कन्हैया कृष्णस्वरूप से मिलता है तो उस पता चलता है कि कृष्णस्वरूप संपन्न हो चुका है, पर संस्कारों से वह अभी भी आम ग़रीबों जैसा ही है। कृष्णस्वरूप के घर पर ही रामनारायण कन्हैया से इस तरह मिलता है, जैसे कि उनमें पुरानी पहचान हो, पर सचमुच वे पहले कभी मिले नहीं हैं। रामनारायण धनी माँ-बाप का लड़का है, जिनमें आपसी मेल नहीं है। रामनारायण बहुत पढ़ा-लिखा है और अपने पिता की तरह ही आड़ंबरों से बचता है, पर वह कुछ हद तक विक्षिप्त भी है। कृष्णस्वरूप की माली हालत में बदलाव में रामनारायण की माँ का हाथ है और लगता है इस वजह से रामनारायण कृष्णस्वरूप के साथ अपमानजनक ढंग से बातचीत करता है।

राजकमल से प्रकाशित नेमिचंद्र जैन द्वारा संपादित रचनावली के तीसरे खंड में यह कहानी संकलित है। इस संस्करण में अक्सर कुछ लफ्ज़ों को भारी टाइप शैली (bold) में रखा गया है। मसलन इस कहानी में 'भई वाह! उन दिनों कृष्णस्वरूप रोज गीता पढ़ता था' वाक्य में 'गीता' पर जोर है। क्या यह मुक्तिबोध का खुद का किया हुआ है, या संपादकीय निर्णय है - यह सवाल शोध का विषय है। 'उन दिनों' यानी वे जो मुफलिसी के दिन थे। जाहिर है कि 'उन दिनों' कहते हुए इसके बाइनरी विलोम 'इन दिनों' की ओर भी संकेत रहता है - इन दिनों क्या वह गीता पढ़ता है? इस पर कहानी में कोई तथ्य उजागर नहीं होता, पर हो सकता है कि इन दिनों वह गीता नहीं पढ़ता। गीता का पढ़ा जाना या न पढ़ा जाना क्या बतलाता है? भारतीय मानस में खास कर जिन्हें अब हिन्दू कहा जाता है, गीता को सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानना आम बात है, वैसे ही जैेसे और समुदायों में बाइबिल, कुरान, गुरु ग्रंथ साहब आदि को सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मान लिया जाता है। गीता में सांख्य और योग के महत्वपूर्ण तत्व हैं और इनका इस्तेमाल कृष्ण द्वारा अर्जुन को जंग लड़ने के लिए तैयार करने के लिए किया गया है। एक स्वच्छंदतावादी (ऐनार्किस्ट) नास्तिक गीता को कैसे देखेगा? इसके मद्देनज़र और यह ध्यान में रखते हुए कि अक्सर मुक्तिबोध को मार्क्सवाद के दायरे में रखकर देखा गया है, यह बात गौरतलब है कि गीता लफ्ज़ बोल्ड फोंट में है। इससे मुक्तिबोध का कैसा पाठ बनता है? अगर यह संपादकीय हस्तक्षेप है, तो क्या किसी विशेष पाठ को सामने लाने की, उभारने की कोशिश है?

कहानी पढ़ कर यह भी लगता है मुक्तिबोध हमें नैतिकता बोध की ओर ले जा रहे हैं, पर क्या सचमुच ऐसा है? क्या कृष्णस्वरूप में नैतिकता बोध खत्म हो गया है कि वह अपने आदर्शों को छोड़कर अचानक मिल रही सुविधाओं को एक के बाद एक ग्रहण करता गया है? वह कृष्णस्वरूप जो 'कहा करता था, “चाहिए, चाहिए, चाहिए" ने सभ्यता को विकृत कर डाला है, मनुष्य-संबंध विकृत कर दिए हैं। तृष्णा बुरी चीज़ है। हमारा जीवन कुरुक्षेत्र है। वह धर्मक्षेत्र है। हर एक को योद्धा होना चाहिए। आसक्ति बुरी चीज़ है', वही आज 'खुशहाल तो है ही, खुशहाली से कुछ ज्यादा है। उसकी चाल-ढाल बदल गई है। वह मोटा हो गया है। पेट निकल आया है। ढाई सौ रुपए का सूट पहनता है।' इस नैतिकता बोध में नया कुछ नहीं है। आज के घोर पूँजीवादी, नवउदारवादी युग में तो इसे ओल्ड-फैशन्ड ही कहा जाएगा। जो खुशहाल है या खुशहाली से कुछ ज्यादा है, उसे लेकर परेशानी क्यों। दुनिया जाए भाड़ में, समाज में दलित, पिछड़े, ग़रीब हों तो हों, पैसे कमाओ, जै सिरीराम बोलो, ऐश करो, दारु-शारु पिओ और खर्राटे मारते हुए सोओ। कृष्णस्वरूप ही तो आज का नॉर्मल है, समाज के लिए परेशानी का सबब तो रामनारायण है, भले ही जिसकी 'बात में मजा आता है,’ जिसका 'भाषा पर प्रचंड अधिकार है।‘ फिर भी अगर ऐसा है कि कहानी के केंद्र में नैतिकता का सवाल है तो यह महज अस्तित्ववादी रचना नहीं है।

कृष्णस्वरूप के किरदार का एक मजेदार पक्ष यह है कि 'उन दिनों' उसके सपने में शंकराचार्य, महात्मा गाँधी और जवाहरलाल भी आते थे। ऐसा वह कहता था। कहानी में हमें पता चलता है कि कृष्णस्वरूप सचमुच कन्हैया को प्रभावित करता था। लेकिन किस ढंग से?

इसके बाद का कथन है कि 'उसको' फ़िलॉसफ़ी की ज़रूरत थी, इसलिए कि 'उसका जीवन दुर्दशाग्रस्त था।' किसको? कृष्णस्वरूप को ही शायद, क्योंकि जीवन तो उसका दुर्दशाग्रस्त था। कन्हैया के बारे में भी हम बाद में जान पाते हैं कि उसका जीवन भी कृष्णस्वरूप जैसा ही रहा होगा। तो फ़िलॉसफ़ी की ज़रूरत कन्हैया को भी थी। कन्हैया कथावाचक की भूमिका में है, या कथावाचक हमें कहानी की दुनिया को कन्हैया की नज़रों से दिखलाना चाहता है। तो क्या मुक्तिबोध अपनी उलझनों को ही हमारे सामने रख रहे हैं? मुक्तिबोध उलझे हुए तो थे ही, यह एक बात उनके बारे में साफ कही जा सकती है कि अपने वक्त के और दीगर रचनाकारों की तुलना में मुक्तिबोध में बौद्धिक सवालों को लेकर जद्दोजहद कहीं ज्यादा सघन थी।

मुक्तिबोध जिस वक्त और जिन परिस्थितियों में रहकर साहित्य-लेखन कर रहे थे, उनको जीते हुए वे उन्नीसवीं सदी के अंत या बीसवीं सदी के शुरुआत तक की यूरोपी आधुनिकता के प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते थे। उनके पास 'फ़िलॉसफ़ी ऑफ द ऐबसर्ड' की जगह नहीं थी। या जगह बहुत थी तो वह शंकराचार्य, महात्मा गाँधी और जवाहरलाल से अलग मार्क्स को जगह दे सकती होगी, पर आधुनिक भारत का जो अति-यथार्थ उनके सामने खुलता जा रहा था, उसके लिए सही फ़िलॉसफ़ी क्या हो सकती है, यह सवाल उन्हें तड़पाता होगा। मसलन कहानी में हम देखते हैं कि रामनारायण देखने में भयानक है। उसमें से 'अज्ञात, अप्राकृतिक विचित्रता' का भय जन्म लेता है। जाहिर है कि इस किरदार को भयानक शक्ल देते हुए कथाकार हमसे मुखातिब है। हम अपनी उस भयानक या विक्षिप्त शक्ल को देखने को मजबूर हो जाते हैं, जो न्याय पर अन्याय की जीत सह नहीं पाता, जो तड़पता रहता है।

कन्हैया ग़रीबी को, उसकी विद्रूपता को, और उसकी पशु-तुल्य नग्नता को जानता है। साथ ही उसके धर्म और दर्शन को भी जानता है। गाँधीवादी दर्शन ग़रीबों के लिए बड़े काम का है। वैराग्य भाव, अनासक्ति और कर्मयोग सचमुच एक लौह-कवच है, जिसको धारण करके मनुष्य आधा नंगापन और आधा भूखापन सह सकता है। ... उसके आधार पर आत्मगौरव, आत्मनियंत्रण और आत्मदृढ़ता का वरदान पा सकता है।' - यह कौन चीख रहा है? आगे और है - ‘ग़रीबी एक अनुभावत्मक जीवन है। कठोर से कठोर यथार्थ चारों तरफ़ से घेरे हुए है, एक विराट नकार, एक विराट शून्य-सा छाया हुआ है। लेकिन, इस शून्य के जबड़ों में मांसाशी दाँत और रक्तपायी जीभ हैं।' तो क्या गीता, गाँधीवादी दर्शन, शंकराचार्य और जवाहरलाल उन्हें उसी कठोर यथार्थ में दिखते हैं? अव्वल तो कहानी में कहानी होना पहली शर्त है, दर्शन हो तो बढ़िया, न हो तो भी ठीक। अगर बौद्धिकता में जाना ही है तो हजार साल पहले के पुनरुत्थानवादी वेदांती और अपने समय में पश्चिम के शांतिवादियों से प्रभावित घोषित राष्ट्रपिता और इतिहास में रुचि रखते एक राष्ट्रनेता का नाम एक साथ क्यों? क्या यह महज उलझन है, या बयान है? इस रचना के दो ही दशकों बाद कुछ मार्क्सवादी चिंतकों ने गीता में मुक्तिकामी सोच प्रतिष्ठित करने की कोशिश की थी। भारतीय वाम चिंतन में ऐसी उलझनों की भरमार है।

क्या मुक्तिबोध के लिए जीवन का कोई तार्किक आधार था? क्या जीवन का कोई मकसद है - क्या वह मकसद अपने वक्त के दक्षिण एशिया में महानायक रह चुके शंकर, गाँधी और नेहरू जैसे नामों में है, या वह उस 'अनुभवात्मक जीवन' में ही कहीं है, जो ग़रीबी है? एक साहित्य-रचना के रूप में 'सतह से उठता आदमी' में सबसे बड़ी खूबी यह है कि इन सवालों को मुक्तिबोध खुला छोड़ देते हैं, जो कि उनके समकालीन ही नहीं, बाद के रचनाकारों में भी विरल है। कन्हैया को जीवन की सचाइयों का पता है, पर उसके साथ हम कृष्णस्वरूप और जीनियस रामनारायण के खेल को निर्लिप्त भाव से देखते हैं। खेल कहें या कि पुराने ढंग से भव-लीला कहें। यह जो नए पुराने के बीच का आवागमन है, इसमें मुक्तिबोध अद्वितीय हैं। कहानी में दुर्योधन की प्रसिद्ध उक्ति 'जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति/ जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः/ केनापि देवेन हृदिस्थितेन/यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि' का इस्तेमाल किया गया है। कृष्णस्वरूप का दुर्योधन धर्म-अधर्म के सामान्य द्वंद्वों में से आराम से गुजरता है। जो भी सही-ग़लत है, वह सब विधि का विधान है, इस को मानने वाला हीनता से ग्रस्त ग़रीब कृष्णस्वरूप बाद में स्वेच्छा से खुद को बदलता है। हो सकता है कि तब भी वह 'यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि' मानता हो, या कि उसके लिए इसे मानते रहना मजबूरी है, क्योंकि ऐसा न हो तो वह भयानक दिखता रामनारायण जो उसके अंदर भी कहीं बैठा है, उसे जीने न देगा।

नैतिकता बोध के सवाल रुकते नहीं हैं। जो शानदार खूबसूरत है, क्या वह सचमुच शानदार और खूबसूरत है? रामनारायण के पिता जात-पात नहीं मानते, हरि का नाम लेते हैं तो उनकी शानदार खूबसूरत पत्नी उन्हें ताना देकर कहती है कि 'जाओ, उस रंडी के पास जाकर बैठो।' एक उदार पुरुष अपनी खूबसूरत, पर रुढ़िवादी पत्नी के साथ कैसे निभाए, अहंकारी माँ रामनारायण को उशृंखल बनने से कैसे रोके, ये अस्तित्व के सामान्य संकट है। पर इन सबके साथ कृष्णस्वरूप में आ रहे बदलाव, उसके अंदर का लोलुप, महत्वाकांक्षी इंसान जो सतह से ऊपर उठने को बेताब है, उसके संकट विकट हैं। अपने विपन्न अतीत से निकलकर सुविधाओं से लदते रह कर भी वह लाचार है कि वह भयानक दिखता रामनारायण उसे हेय नज़रों से देखे, उसे दुत्कारे और वह कुछ न कर पाए, सिर्फ इसके कि वह कहता रहे कि 'सचमुच जीनियस' है। 'उन दिनों' का उसका गीता पाठ, उसके सपने में आते महानायक, सभी इन दिनों बेअसर हैं।

हम इन सवालों का जवाब नहीं ढूँढेंगे, क्योंकि जवाब तो हमें मालूम हैं। कृष्णस्वरूप के अंदर कोई रोता, चिंघाड़ता होगा, यह हम जानते हैं क्योंकि हम सब अपनी-अपनी सतह से उठने की प्रक्रियाओं में फँसे हुए हैं। ये प्रक्रियाएँ हमारे निजी दायरों में चल रही हैं और ये हमारे बड़े सामाजिक दायरों में भी चल रही हैं। इस लिए यह कहानी सिर्फ आत्म-अन्वेषण नहीं है। हम चीख चिल्ला कर झूठ को सच कहने वालों के साथ खड़े हो जाते हैं, हत्यारों को जन-गण-मन अधिनायक बना देते हैं। हमारे अंदर कोई हमें रोकने की, सचेत करने की कोशिश करता है, तो हम उसे जीनियस कह कर अपने से दूर कर लेते हैं, उसकी झिड़कों को झेल लेते हैं। हम जानते रहे, देखते रहे कि देश की आधी जनता को और विपन्नता की ओर धकेला जा रहा है, और हममें इतना भी विवेक नहीं बचा रहा कि हम भयानक दिखते जीनियसों को पहचान कर वापस अपने अंदर कभी देख सकें।

अच्छी अस्तित्ववादी रचना में उदासीनता लाजिम है, हालाँकि अक्सर ऐसी रचनाएँ पढ़ने के बाद मुख्य बोध अवसाद का होता है। पर मुक्तिबोध का उदासीन कथावाचन दरअसल उदासीन है नहीं, और समझौतों के किस स्तर तक हम गिर सकते हैं, जो उठना है, वह किस गटर में गिरना है, कन्हैया इसे थूकता हुआ हमें दिखलाता है। मुक्तिबोध हमें कहानी में सीधे नहीं कहते कि हम नैतिक सवालों पर गौर करें, पर पूरी कहानी इसी संकट पर केंद्रित है। कन्हैया की कहानी हमारी कहानी है। यह बस दुनिया को देखना भर नहीं है, उसे और उस-में जीना है। हम कितना उठ रहे हैं और कितना गटर में गिर रहे हैं, यह केंद्रीय सवाल बन कर सामने आता है। इसलिए अस्तित्ववादी होते हुए भी यह कहानी बहुत कुछ और है।

बोले तो आस्मां में सूराख बनते चले हैं


हर सुबह

सुबह-सुबह शोर। आस्मां नींद में डूबा होता है, उसे झकझोर कर, धकेल करखड़ा किया जाता है। आस्मां उठ कर धरती को ढक लेता है और हम दिनभर सच देखने से बच जाते हैं।

पहले यह जिम्मेदारी मुर्गों की होती थी कि आस्मां को जगाने की कवायद में 
लोगों को तैयार करें। आजकल मोर आगे आने लगे हैं। वक्त ने सचमुच जमाना 
बदल दिया कि हमें सच से बचाने नए जानवर सामने आ गए।

मसलन एक और खुदकुशी। जो मरता है वह खबर बन जाता है। मीडिया चाहे 
न चाहे, लोग हवाओं के लिए कान चौड़े कर लेते हैं। खबर किधर से किधर 
बहती है, लोग सूँघकर जान लेते हैं। कोई आस्मां को देख मुतमइन हो जाता है 
कि वह हमें सच से बचा लेगा। कोई सच सच सच सच रटने लगता है। थक 
जाता है कोई और कोई सो जाता है।

क्या है कि दुष्यंत ने उछाल दिया था तबियत से पत्थर।

बोले तो आस्मां में सूराख बनते चले हैं। (बनास जन  : जुलाई-सितंबर 2017)

Tuesday, December 12, 2017

आन फ्रांक, आखिरी बार मर जाओ


आन फ्रांक, तुम्हारी डायरी कब रुकेगी!


मैं सत्य-कथाएँ नहीं पढ़ता
कभी तो लिखना बंद करो


चारों ओर हँसते खेलते लोग
छंद-लय में नाचते-गाते लोग
खलनायक बन जाते हैं
अब और नहीं सहा जाता
लिखना बंद करो
आखिरी बार मर जाओ
भूल जाएँ हम तुम्हें
याद रखें कि कोई था जिसे हम भूलना चाहते हैं


डरता हूँ कि तुम मेरी बेटी हो। 

                                        (बनास जन  : जुलाई-सितंबर 2017)

Anne Frank, when will you stop writing your journal!

I do not read true stories
Please stop writing

All around us, decent folks
Smiling and dancing in tune
Are turning into villains
I cannot take it any more

Stop writing 
Die forever now 
Let me forget you
Let me remember you as one we want to forget 

I fear that you are my daughter. 
 

Sunday, November 26, 2017

16 दिसंबर 2002: हमारे समय की राजनीति


(पंद्रह साल पुराना लेख)
दैनिक भास्कर, चंडीगढ़, सोमवार 16 दिसंबर 2002



यह हमारे समय की राजनीति है ! 




प्रसिद्ध अफ्रीकी-अमेरिकी कवि लैंग्सटन ह्यूज की पंक्तियां हैं - एक अपूर्ण स्वप्न का क्या हश्र होगा ? क्या वह धूप में किशमिश दाने जैसा सूख जाएगा? या एक घाव सा पकता रहेगा - और फिर दौड़ पड़ेगा ? क्या वह सड़े मांस सा गंधाएगा ? या दानेदार शहद सा मीठा हो जाएगा? शायद वह एक भारी वजन सा दबता जाएगा ? या वह विस्फोट बन फटेगा?


इस साल लैंग्सटन ह्यूज की शतवार्षिकी मनाई जा रही है। इस देश में अंग्रेजी साहित्य पढ़ने वाले लोग भी इस बात से अनजान ही हैं। जैसे पंजाब में करतार सिंह सराभा से अनजान युवाओं की पीढ़ी है। अपने समय की सीमाओं से जूझकर बेहतरी का सपना देखने वालों को हम तब याद करते हैं, जब हम में अपने सपनों को पूरा करने के लिए निरंतर संघर्ष की हिम्मत होती है। परिस्थितियों से हारते हुए हमारे सपने घाव से पकते हैं, उनमें से सड़े मांस की बदबू निकलती है। और विस्फोट जब होता है, तो उसमें जुझारू संघर्षों की जीत नहीं, अज्ञानता और पिछड़ेपन का कायर संतोष होता है। जर्मनी में सत्तर साल पहले ऐसा ही हुआ था। आर्थिक मंदी और बेरोजगारी का फायदा उठाकर नात्सी पार्टी और उसके नेता एडोल्फ हिटलर ने जनता को एक ऐसे राष्ट्रवाद का नारा दिया, जिसमें बहुसंख्यकों का अहम संतुष्ट हुआ, पर जर्मनी समेत दुनिया का बड़ा हिस्सा अंततः तबाही और ध्वंस का शिकार हुआ। 1984 के दंगों के बाद कांग्रेस की भारी बहुमत से जीत भारत के बहुसंख्यकों की ऐसी ही कायरतापूर्ण जीत थी। आज एक बार फिर गुजरात में ऐसा ही हुआ है। 
 

ऐसा नहीं कि इसकी अपेक्षा नहीं थी। दुनिया भर में करोड़ों लोग पक्ष-विपक्ष की बात करते हुए यही सोच रहे थे कि गुजरात में भाजपा जीतेगी। फिर भी जैसे एक हल्की आशा दो महीने पहले पाकिस्तान के चुनावों या अभी कुछ समय पहले हुए अमेरिका के सीनेट के चुनावों को लेकर असंख्य लोगों में थी कि शायद जनमत एक नई दिशा के लिए होगा, लोग संकीर्ण राष्ट्रवाद से परे हटकर मानवीय दृष्टिकोण के लिए आएंगे। इन सभी चुनावों में दूध का धुला कोई विपक्ष नहीं था। आखिर जिनके सपने पूरे नहीं हुए जो अमेरिका के काले लोग हैं जो सराभा के पंजाब के खेत-मजदूर हैं या जो मध्य गुजरात के आदिवासी हैं उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार वह विपक्ष भी है जो आज प्रगतिशीलता या विकास की बात करता है। सच तो यह है कि दबे-कुचले लोगों को अधिकतर राजनीतिक दल एक सा ही कुचलते हैं। अशिक्षा और बेबसी से लाचार लोगों को झूठे वादों और दावों, शराब या अन्य प्रलोभनों से खरीदा जाता है। पर गुजरात का प्रसंग अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है कि मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति उन मूलवादियों, सांप्रदायिक कट्टरपंथियों और राष्ट्रवादियों को संगठित होने का मौका देती है, जो देश और समाज को निश्चित विनाश की ओर ले जाते हैं। 
 

एक कहावत है कि गरीब की आह हमेशा न्यायसंगत हो यह जरुरी नहीं, पर अगर तुम उसे न सुनो तो जान न पाओगे कि सच्चाई क्या है। मध्य गुजरात का आदिवासी भारत के अन्य दलित वर्गों की तरह ऐसा पिछड़ा वर्ग है जो लगातार सामंती शोषण से और सूदखोरों के हाथ पिसता रहा है। पिछड़ापन इतना भयंकर है कि आधुनिक तर्क और प्रगतिशील सोच की कोई जगह नहीं है। पारंपरिक मूल्यों के टूटने से और आधुनिकता के संकटों में फंसा आदिवासी अगर शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है तो वह राजद्रोही माना जाता है। विदेशों से करोड़ों रूपए इकट्ठे कर सांप्रदायिक मनोभाव से कार्यरत कोई भी संगठन बेरोक उनके बीच काम कर सकता है। यह हमारे समय की राजनीति है। ऐसा ही सच अहमदाबाद या बड़ोदा के शहरी दलित और बेकारी से मारे गरीबों का है जिनको बड़ी तादाद में दंगों के लिए इस्तेमाल किया गया। 
 

इसलिए 27 फरवरी 1933 को जब राइश्टाख (संसद) में आग लगी तो उसे आधार बनाकर वामपंथियों, यहूदियों और कलाकारों पर जिस तरह का हमला शुरू हुआ वैसा ही 27 फरवरी 2002 को गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद हुआ। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद आक्रामक मिथ्या-वचन के रथ पर सवार होता है। इसलिए गुजरात का चुनाव पाकिस्तान में फूटने वाले पटाखों की बात करता है और किसी इमाम के इस आग्रह कि मुसलमान सौ फीसदी वोट दें को फतवा कहता है। 
 

बार-बार कहा हुआ झूठ सच बन जाता है। पढ़े-लिखे लोग भी इसे सच मानने लगते हैं। एक वामपंथी मित्र सांप्रदायिकता शब्द का अर्थ भूल गए क्योंकि उन्हें समझ में नहीं आया कि किसी ने बढ़ती हुई सांप्रदायिकता का जिक्र क्यों किया है। निजी जीवन से सामाजिक दायरे तक में पाखंड और स्वार्थ की जिंदगी जीता हुआ अंग्रेजीदां मध्य-वर्ग इस बात से खुश है कि अंग्रेजी मीडिया में बहुसंख्यक समुदाय की उदारवादी छवि स्पष्ट दिखती है। यह ऐसा समुदाय है जिसे गुजरात का थप्पड़ भी नहीं लगता।


गुजरात का सबक एक लंबे अरसे से चल रहे हताशा के दौर में एक और अध्याय है। 1930 के दशक के जर्मनी में इस दौर में बहुत सारे काबिल लोग देश छोड़ गए थे। इनमें वैज्ञानिक, कलाकार और साहित्यिक आदि शामिल थे। हमारे यहां पढ़े-लिखे लोगों में लाखों ऐसे हैं जो मौका मिलते ही यहां की गरीबी और गंदगी से दूर भागने को तैयार हैं। इन सबको भूलकर हमें एक बार फिर गुजरात और आने वाले समय के भारत के बारे में सोचना है। जैसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने सौ साल पहले लिखा था , हमें इसी भारत माता को अपना दुखड़ा सुनाना है। घोर तिमिर घन निविड़ निशीथे, पीड़ित मूर्छित देशे, जागृत तब अविचल मंगल नत नयन अनिमेषे। दुःस्वप्ने आतंके रक्षा की अंके स्नेहमयी तुम माता।(ঘোর তিমির-ঘন নিবিড় নিশীথে, পীড়িত মূর্ছিত দেশে জাগ্রত ছিল তব অবিচল মঙ্গল, নত নয়নে অনিমেষে দুঃস্বপ্নে আতঙ্কে, রক্ষা করিল অঙ্কে স্নেহময়ী তুমি মাতা)
हे मातृ! इस पीड़ित मूर्छित देश को एक बार फिर घोर अंधेरे भरी घनी रात से निकलने के लिए प्रेरणा दो। दुःस्वप्न और आतंक भरे इन दुर्दिनों में हमारी रक्षा करो। आह्वान करो कि युवा आगे आएं, खोखले भाषणों, अंधविश्वाস और कर्मकांडों से दूर हटकर संकीर्ण राष्ट्रवाद से देश को बचाएं। गुजरात का महासमर एक शुरुआत है - देखना यह है कि संघर्षशील लोग किस तरह इस संकट का सामना करते हैं।








Friday, November 17, 2017

पत्राचार से तालीम पर सवाल


पत्राचार से तालीम पर सवाल कुछ और भी हैं

('राष्ट्रीय सहारा' में 9 नवंबर 2017 को 'संजीदा होना होगा' शीर्षक से प्रकाशित)



सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक अहम फैसला दिया है कि तकनीकी शिक्षा पत्राचार के माध्यम से नहीं की जा सकेगी। सतही रूप से यह बात ठीक लगती है कि तकनीकी तालीम घर बैठे कैसे हो सकती है। खास तौर पर जब ऊँची तालीम के मानकीकरण करने वाले आधिकारिक इदारे यूजीसी और एआईसीटीई ने जिन सैंकड़ों डीम्ड यूनिवर्सिटीज़ को इस तरह के पत्राचार के कार्यक्रम चलाने की इजाज़त नहीं दी है, तो उनकी डिग्री को सचमुच मान्यता नहीं मिलनी चाहिए।



अधिकतर लोगों के मन में वाजिब सवाल यह भी है कि ऐसे मुल्क में जहाँ आधी से अधिक जनता मिडिल स्कूल तक नहीं पहुच पाती है और जहाँ सरकार 'स्किल इंडिया' जैसे छलावों से अधिकतर युवाओं को मुख्यधारा की तालीम से अलग कर रही है, तो ये लोग कहाँ जाएँगे? ऐसा अनुमान है कि इस फैसले का असर उन हजारों युवाओं पर पड़ेगा, जिन्हें 2005 के बाद पत्राचार से तकनीकी कोर्स की डिग्री मिली है। उनके सर्टीफिकेट अमान्य हो जाएँगे और इसके आधार पर मिली नौकरियों से उन्हें निकाल दिया जा सकता है या आगे पदोन्नति से उन्हें रोका जा सकता है। 2005 से पहले भी पाँच साल तक ऐसी डिग्री पाने वालों को दुबारा एआईसीटीई अनुमोदित इम्तिहान पास करने होंगे।

पत्राचार से जुड़े कई सवाल और हैं, जैसे किसी संस्थान को अपना क्षेत्र अपने मुख्य कैंपस से कितनी दूर तक रखने की अनुमति है, इत्यादि। इन पर भी अदालतें समय-समय पर राय देती रही हैं। यह सब इसलिए मुद्दे बन जाते हैं कि बहुत सारी डीम्ड यूनिवर्सिटी फर्जी सर्टीफिकेट जारी करती रही हैं। पंजाब में गाँव में डॉक्टर के पास मदुराई के विश्वविद्यालय की डिग्री हो तो शक होता है कि क्या माजरा है। इसलिए सतही तौर पर लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह कदम सराहनीय है।



पर पत्राचार पर इन सवालों से अलग कई बुनियादी सवाल हैं। आखिर पत्राचार से पढ़ने की ज़रूरत क्यों होती है? जो लोग ग़रीबी या और कारणों से नियमित पढ़ाई रोक कर नौकरी-धंधों में जाने को विवश होते हैं, उनके लिए पत्राचार एक उत्तम माध्यम है। नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई-लिखाई कर वे अपनी योग्यता बढ़ा सकते हैं और अपनी तरक्की के रास्ते पर बढ़ सकते हैं। पत्राचार का मतलब यह नहीं होता कि पूरी तरह घर बैठकर ही पढ़ाई हो; बीच-बीच में अध्यापकों के साथ मिलना, उनके व्याख्यान सुनना, यह सब पत्राचार अध्ययन में लाजिम है। जाहिर है इस तरह से पाई योग्यता को मुख्य-धारा की पढ़ाई के बराबर नहीं माना जा सकता है। साथ ही, ऐसे विषय जिनमें व्यावहारिक या प्रायोगिक ज्ञान ज़रूरी हो, उनमें पत्राचार से योग्यता पाना मुश्किल लगता है। इसलिए ज्यादातर पत्राचार से पढ़ाई मानविकी के विषयों में होती है। वैसे ये बातें तालीम से जुड़ी बातें हैं। कोई कह सकता है कि ऐसी समस्याओं का निदान ढूँढा जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी जैसे कुछ तकनीकी विषय ऐसे हैं, जिन पर कुछ हद तक पत्राचार से पढ़ाई हो सकती है। जिस तरह की कुशलता की ज़रूरत बाज़ार में है, कॉल सेंटर में काम जैसी कुशलता इससे मिल सकती है। पर गहरा सवाल यह है कि क्या हम मुल्क के नौजवानों को बाज़ार के पुर्जों में तब्दील कर रहे हैं? क्या पत्राचार से पढ़ने वाले युवा अपनी मर्जी से ऐसा कर रहे हैं या कि वे मुख्यधारा से अलग पढ़ने को मजबूर हैं?



कहने को मौजूदा हुकूमत का जुम्ला है - मेक इन इंडिया। जुम्लेबाजी से चीन जैसे विकसित मुल्क के खिलाफ हौव्वा खड़ा किया जा सकता है, देश के संसाधनों को जंगों में झोंका जा सकता है, पर असल तरक्की के लिए मैनुफैक्चरिंग या उत्पादन के सेक्टर में आगे बढ़ना होगा। पर मुख्यधारा की तालीम से वंचित रख युवाओं को 'स्किल' के नाम पर उत्पादन के सेक्टर से हटाकर कामचलाऊ अंग्रेज़ी और हाँ-जी हाँ-जी सुनाने वाली सेवाओं में धकेला जाएगा तो 'मेक' कौन करेगा? आज तकनीकी तालीम का अधिकतर, तक़रीबन 95%, निजी संस्थानों के हाथ में है। सरकारी मदद से चलने वाले संस्थानों में सिर्फ तेईस आई आई टी, बीसेक आई आई आई टी, इकतीस एन आई टी के अलावा यूनिवर्सिटीज़ में इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। इसी तरह मेडिकल कॉलेज भी सरकारी बहुत कम ही हैं। यानी कि तकनीकी तालीम में पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का फायदा नाममात्र का है। निजी संस्थानों में आरक्षण उन पैसे वालों के लिए है, जो कैपिटेशन फीस देते हैं। सरकारी एलीट संस्थानों से पढ़कर बड़ी संख्या में छात्र विदेशों में चले जाते हैं। संपन्न वर्गों से आए इन छात्रों में देश और समाज के प्रति वैसे ही कोई प्रतिबद्धता कम होती है। आम युवाओं को इन संस्थानों तक पहुँचने का मौका ही नहीं मिलता है। कहने को भारत दुनिया में सबसे अधिक इंजीनियर पैदा करता है, पर इनमें से ज्यादातर दोयम दर्जे की तालीम पाए होते हैं। यही हाल डॉक्टरों का भी है। ऐसा इसलिए है कि पूँजीपतियों के हाथ बिके हाकिमों को फर्क नहीं पड़ता है कि मुल्क की रीढ़ कमजोर हो रही है, उन्हें सिर्फ कामचलाऊ सेवक चाहिए जो मौजूदा व्यापार की शर्तों में फिट हो सकें।



इसलिए ज़रूरी यह है कि मुख्यधारा के निजी संस्थानों में पिछड़े तबकों के लिए दरवाजे खोले जाएँ। तालीम सस्ती और सुगम हो कि हर कोई योग्यता मुताबिक इसका फायदा उठा सके। यह ज़रूरी नहीं है कि व्यावहारिक तालीम हमेशा अंग्रेज़ी में ही हो। चीन-जापान और दीगर मुल्कों की तर्ज़ पर हिंदुस्तानी ज़ुबानों में तकनीकी साहित्य लिखने को बढ़ावा दिया जाए, ताकि पिछड़े तबके से आए युवाओं को तालीम हासिल करने में दिक्कत न हो।



अगर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार पर दबाव बढ़ता है कि वह सब के लिए समान तालीम का निजाम बनाने की ओर बढ़े तो यह अच्छी बात होगी। आज युवाओं में गैरबराबरी के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा है और हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ग़लत राजनीति शुरू हो जाए। सही लड़ाई ज़मीन पर चल रही है और वह स्कूल से लेकर कॉलेज तक समान तालीम की लड़ाई है।