Friday, November 26, 2010

हूबहू कापी

कई लोगों को लगे कि इसमें नई कोई बात नहीं है। फिर भी यह बार बार पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए संभवतः पहली बार मैं किसी ब्लॉग से हूबहू कापी कर पोस्ट कर रहा हूं। वैसे यह पहले समयांतर पत्रिका में छप चुका है। अभी मैं एक-जिद्दी-धुन से चुरा रहा हूं - मैंने धीरेश से या पंकज बिष्ट से पूछा नहीं है, पर मैं जानता हूं उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी।



एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी

1949 की सर्दियों में (22 -23 दिसंबर) इशां की नमाज़ के कुछ घंटे बाद, आधी रात के वक़्त, एक साज़िश के तहत चुपके से बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियाँ रख दी गईं. इस बात का पता तब चला जब हस्बे-मामूल सुबह फ़जर के वक़्त मस्जिद में नमाज़ी पहुँचे. तब तक यह 'ख़बर' उड़ा दी गयी थी कि मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं और कुछ 'रामभक्त' वहाँ पहुँचना शुरू हुए. इस वाक़ये की ख़बर मिलते ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त से कहा कि ये मूर्तियाँ फ़ौरन हटवाइये. पंडित नेहरू का पन्त जी से इस आदेश के पालन उम्मीद करना ऐसा ही था जैसा एक बैल से दूध देने की उम्मीद करना. पन्त जी के इशारे पर फ़ैज़ाबाद के ज़िला मजिस्ट्रेट के के नायर ने 'विवादित स्थल' को सील कर दिया. इस तरह बाबरी मस्जिद में, जिसमें 422 साल से नमाज़ पढ़ी जा रही थी, अब मुसलमानों का प्रवेश वर्जित हो गया. नेहरू खुद अयोध्या आना चाहते थे पर पन्त जी ने किसी तरह इस मंसूबे को भी टलवा दिया. कुछ हताश होकर नेहरू ने संयुक्त प्रान्त के गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री से भी कहा कि वे कुछ करें, और खुद अपने गृहमंत्री सरदार पटेल से कहा कि पन्त को समझाएँ. अंत में नेहरू जी ने देखा कि वे इस मामले में अल्पमत में हैं तो उन्होंने भी हाथ झाड़ लिए.

अयोध्या इतनी "हिन्दू नगरी" कभी न थी जितनी आज है. मौर्यकाल में यह मुख्यतः एक बौद्ध नगरी थी. इसके क़रीब एक हज़ार साल बाद आए चीनी यात्री फ़ाहियान (पांचवीं सदी) और ह्वेन-सांग (सातवीं सदी) ने भी इसे एक प्रमुख बौद्ध नगर ही पाया और कुछ ग़ैर बौद्ध आबादी और प्रार्थना स्थलों का भी ज़िक्र किया. कालान्तर में यहाँ बौद्ध धर्मावलम्बी और बौद्ध धर्मस्थल क्रमशः विलुप्त होते गए (यह वाक़या सिर्फ अयोध्या ही नहीं पूरे उपमहाद्वीप में घटित हुआ) और विभिन्न मत-मतान्तर के लोगों का, जिन्हें आज की भाषा में मोटे तौर पर हिन्दू कहा जा सकता है, बाहुल्य हो गया. अयोध्या जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण नगरी रही है – उनके दो तीर्थंकर यहीं के थे. सल्तनत (मुग़ल-पूर्व) काल में अयोध्या में सूफ़ी प्रभाव भी बहुत बढ़ा. यानी अयोध्या में रामभक्ति के उद्भव से दो सदी पहले ही यहाँ सूफी-मत पहुँच चुका था. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के ख़लीफ़ा ख़्वाजा नासिरुद्दीन महमूद 'चिराग़े देहली' यहीं के थे और चालीस साल की उम्र तक यहीं रहे. मुगलों के आने से पहले ही अयोध्या अपनी मिली-जुली संस्कृति और धार्मिक बहुलता के लिए जाना जाता था.

रामभक्ति की परम्परा उत्तर भारत में मुग़ल काल से ज़्यादा पुरानी नहीं है. पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रामानंदी प्रभाव दिखना शुरू हुआ, पर बाबर के समय तक यह बहुत ही सीमित था. रामभक्ति का हिन्दू जनता के बीच लोकव्यापीकरण अवध के इलाक़े में अकबर के समय से होता है और इसमें अकबर के समकालीन तुलसीदास 'रामचरितमानस' की केन्द्रीय भूमिका है. सत्रहवीं सदी से पहले उत्तर भारत में कहीं भी कोई राम मंदिर नहीं था, और हाल तक भी बहुत ज़्यादा मंदिर नहीं थे. तुलसीदास और वाल्मीकि की अयोध्या मिथकीय नगरी है और सरयू एक मिथकीय नदी, लिहाज़ा ये जन्मस्थान को भौगोलिक रूप से फ़ैज़ाबाद में चिह्नित करने की कोशिश नहीं करते (वैसे भी इस देश में एकाधिक अयोध्या और सरयू मौजूद हैं, और अयोध्या ही में अनेक स्थलों के जन्मभूमि होने का दावा किया जाता है). यह भी विचारणीय है कि धार्मिक परम्परा की एक ऐतिहासिकता ज़रूर होती है पर धार्मिक, पौराणिक चरित्रों या महाकाव्यों के नायकों को ऐतिहासिक चरित्रों का दर्जा देने और 'पौराणिक काल' को ऐतिहासिक समय की तरह देखने से आस्तिक मन में उनकी मर्यादा और विश्वसनीयता बढ़ने के बजाय घटती ही है. जहाँ तक इतिहास और पुरातत्व का सवाल है, यह एक स्थापित तथ्य है कि अयोध्या इलाक़े में छः हज़ार वर्ष से पहले मानव सभ्यता या किसी भी तरह की इंसानी मौजूदगी थी ही नहीं. स्थापत्य की नज़र से देखें तो अयोध्या की हर पुरानी इमारत भारतीय-मुग़ल (इंडो-मुग़ल) तर्ज़ पर बनी हुई है, भले ही हनुमानगढ़ी हो या सीता की रसोई.

फिर हम कहाँ जा रहे हैं? यह सचमुच आस्था का प्रश्न है या धोखाधड़ी और धींगामुश्ती के बल पर फहराई गयी खूनी ध्वजा को आस्था की पताका कहने और कहलवाने का अभियान?

क्या हिन्दुत्ववादी गिरोह और आपराधिक पूंजी द्वारा नियंत्रित समाचारपत्रों और टी वी चैनलों और उनके शिकंजे में फंसे असुरक्षित, हिंसक और लालची पत्रकार और 'विशेषज्ञ' अब इस कल्पित और गढ़ी गयी आस्था के लिए परम्परा, ज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, क़ानून, इंसाफ़, लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों की बलि देंगे? यह अधिकार इन्हें किसने दिया है?
मेरे ख़याल से यह 'अधिकार' इन्हें पिछले पच्चीस साल में उभरे उभरे नए मध्यवर्ग और नवधनाढ्य तबक़े ने दिया है. ये नव-बर्बर समुदाय इस मुल्क के नए मालिक हैं, अनियंत्रित आर्थिक नव-उदारवाद इनकी मूल विचारधारा है और इसे मुल्क पर थोपने के लिए इनकी सेवा में दोनों मुख्य राजनीतिक गठबंधन (कांग्रेस और भाजपा और इनके सहयोगी दल) मुस्तैद हैं जिन्हें ये एक दूसरे के विकल्प की तरह पेश करते हैं. मुल्क के भीतर कभी कठोर तो कभी नर्म हिंदुत्व, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की गुलामी, सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट इसके बुनियादी लक्ष्य हैं.

दरअसल यह नई पूंजी और नव-उदारवादी आर्थिक दर्शन भारतीय मध्यवर्ग के मूलगामी पुनर्गठन और एकीकरण में व्यस्त है. यह एक प्रतिक्रियावादी और फाशिस्ट एकीकरण है जो मध्यवर्ग और व्यापक जनसमुदाय के भीतर अब तक मौजूद लोकतांत्रिक प्रतिरोध और वैचारिक अंतर्विरोधों की परम्परा को मिटा देना चाहता है. ये उसके रास्ते की रुकावटें हैं. और साम्प्रदायिक बहुमतवाद इस प्रतिक्रियावादी एकीकरण का मुख्य उपकरण है. नव-उदारीकरण इस मुल्क में कभी राजनीतिक बहुमत प्राप्त नहीं कर सकता, साम्प्रदायिक बहुमत का निर्माण ही उसकी एकमात्र आशा है क्योंकि इसका नियंत्रण असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, धर्मांध, हिंसक और भ्रष्ट तत्वों के हाथ में होता है.

यह समझ भी कि यह मंडल के जवाब में भाजपा मंदिर लेकर आई (मंडल बनाम कमंडल) पूरी तरह ठीक नहीं है. हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना पुरानी है और दो राष्ट्रों का सिद्धांत जिन्ना और मुस्लिम लीग की देन ही नहीं है, सावरकर से पहले भी इसके अनेक मज़बूत प्रवक्ता रहे हैं, जिनमें से कुछ तो हमारी राष्ट्रीय देवमाला में शामिल हैं. मंडल आयोग की सिफारिशों के विश्वनाथप्रताप सिंह सरकार द्वारा लागू किये जाने से सवर्ण हिन्दू समाज में खलबली ज़रूर मची और अनुभव के स्तर पर सवर्ण वर्गों को अपना वर्चस्व और रोज़गार के अवसर संकट में पड़ते दिखाई दिए, दूसरी और मध्य जातियों के राजनीतिक दलों की ताक़त बढ़ी और हिन्दुस्तानी राजनीति में अब तक छाया भद्र-सर्वानुमातिवाद टूटा. लेकिन इससे आर्थिक नव-उदारीकरण और निजीकरण की कार्यसूची को कोई खतरा नहीं हुआ, बल्कि शासक तबक़ों ने यह पाया कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दुत्ववादी अभियान से मध्यवर्ग के एकीकरण में मदद मिलेगी. चूंकि मध्यवर्ग का विशालतम लगभग 98 प्रतिशत हिस्सा हिन्दू, जैन और सिख समुदायों से आता है इसलिए मुस्लिम-विरोधी बाड़ेबंदी के तहत इन्हें एक करना अपेक्षाकृत आसान और सुरक्षित और आज़मूदा नुस्खा है, तो क्यों न ऐसा ही हो! यह सैम हंटिंगटन और जार्ज बुश और उनके उत्तराधिकारियों की नीतियों से भी मेल खाता है और इस बात का कोई खतरा भी नहीं कि "अंतर्राष्ट्रीय समुदाय" (जिसका मतलब हमारे यहाँ अमरीका और यूरोप होता है) भारत पर पिछड़ी और अलोकतांत्रिक नीतियाँ अपनाने का इलज़ाम लगाएगा. एक प्रकार से मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता और बर्बर हिंसा को सिर्फ संघ परिवार के मुख्यालय नागपुर की ही नहीं, वाशिंगटन कन्सेंसस की भी शह प्राप्त है।

(समयांतर के नवम्बर 2010 अंक से साभार)

Thursday, November 25, 2010

दोस्तों के साथ गीत

११ तारीख को कोलकाता से जयपुर होते हुए उदयपुर पहुंचा. विज्ञान समाज और मुक्ति पर तीन दिनों का सेमिनार था. उसके बाद दिल्ली होकर लखनऊ फिर १५ की आधी रात के बाद वापस. आते ही काम का अम्बार. सेमेस्टर के आख़िरी दिनों की मार. इसलिए लम्बे समय से ब्लॉग से छुट्टी ली हुई है.
उदयपुर की सभा एक प्राप्ति थी. मैं हमेशा ही भले लोगों से मिलने और दोस्ती और प्यार के प्रति भावुक रहा हूँ. इसलिए काम की बात से ज्यादा प्यार की बातें ही दिमाग में घूमती हैं. दिन तीन क्या बीते जैसे लम्बे समय के बाद ज़िंदगी लौट आई. लगा जैसे तीस साल वापस युवा दिनों में वापस लौट गया. यहाँ तक कि बेसुरा ही सही पर मैंने दोस्तों के साथ गीत भी गाए.
काम की बात यह कि यह देख कर आश्वस्त हुआ कि विज्ञान विरोधी नवउदारवादियों से अलग चिंतकों की एक पूरी जमात है जो विज्ञान की आलोचना के निर्माण में गंभीरता से जुटी है. इन लोगों की मूल चिंता मानववादी है. मेरे अपने पर्चे पर सब की प्रतिक्रिया से यह ताकत भी मिली कि अब इसे लिख डालना चाहिए.
वहाँ आए चिंतकों में रवि सिन्हा को पहले पढ़ा था. और जैसा पढ़ा था वैसे ही गंभीर उनका भाषण था. तारिक़ इस्लाम को पहली बार जाना. कुछ मेरे पुराने युवा मित्र आए थे जो अलग अलग विश्वविद्यालयों में दर्शन पर शोध और अध्यापन का काम कर रहे हैं.
हिमांशु पांड्या और प्रज्ञा जोशी से दुबारा मिलना एक खूबसूरत अनुभव था. दोनों ने मिलकर कहानी तैयार की थी जिसे पर्चे की जगह हरीश ने पढ़ा. यह कहानी अनुराग वत्स ने सबद में पोस्ट की है.
और बाकी कुछ माहौल में था, झील पर शाम - वगैरह. इसी को सुधा और शंकरलाल ने और रंग चढ़ाया और मैं लम्बे समय तक बनी रहने वाली ऊर्जा लेकर लौटा.

Saturday, November 06, 2010

मानव ही सबसे बड़ा सच है

'They think that they show their respect for a subject when they dehistoricize it- when they turn it into a mummy' - (दार्शनिकों के बारे में नीत्शे का बयान).
मानव सभ्यता के विकास के सन्दर्भ में हम राष्ट्रवाद को एक ज़रूरी पर एक बीमार मानसिकता से उपजे अध्यात्म की निकृष्टतम परिणति मान सकते हैं। प्रौद्योगिकी के विकास और पूंजी के संचय के साथ राष्ट्रीय हितों को जोड़ना पूंजीवाद के अन्तर्निहित संकटों से उभरा नियम है। स्थानीय संस्कृतियों और परम्पराओं को एक काल्पनिक बृहत् समुदाय में समाहित कर लेना और उनके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारना - यह पूंजी की होड़ के लिए ज़रूरी है। इसलिए राष्ट्रवाद और उससे जुड़े तमाम प्रतीक पैदा हुए हैं - मातृभूमि , पितृभूमि इत्यादि (आधुनिक राष्ट्रों के बनने के पहले इन धारणाओं का अर्थ भिन्न होता था; तब इनकी ज़रुरत राजाओं के हितों के रक्षा के लिए होती थी)। कहने को जन के बिना राष्ट्र का कोंई अर्थ नहीं, पर राष्ट्र हित में सबसे पहले जन की धारणा ही बलि चढती है। राष्ट्रवाद की धारणा के पाखंड का खुलासा तब अच्छी तरह दिखता है जब हम पुरातनपंथी अंधविश्वासों और रूढ़ियों के साथ राष्ट्रवाद के समझौतों को देखते हैं। जन्मभूमि जो स्वर्गादपि महीयसी है, उसकी प्रगति में अगर जातिवाद, साप्रदायिकता आदि बाधक हैं तो राष्ट्रवाद ऐसे मिथकों की सृष्टि करता है जो इन कुरीतियों की प्रतिष्ठा करें ताकि ताकतवर तबकों को पूंजी संचयन की प्रक्रिया में बाधा बनने से रोका जा सके। तो हमें बतलाया जाता है कि किस तरह वर्ण व्यवस्था के फलां फलां ऐतिहासिक कारण थे, स्त्री तो हमारे समाज में देवी है, इत्यादि। जब विरोध इतना प्रबल हो कि राष्ट्रीय सरमायादारों के अस्तित्व को ही चुनौती मिलने लगे तो रियायतें शुरू होती हैं। इसलिए स्त्री अधिकार, पिछड़ों को अधिकार आदि।
अगर बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद एक बहुत प्रभावी धारणा थी तो वर्त्तमान सदी में यह एक पिछड़ेपन की धारणा मात्र है। आधुनिकता का संघर्ष जो अपूर्ण रह गया, वह तब तक चलता रहेगा जब तक एक सामान्य बात पूर्ण तौर पर प्रतिष्ठित नहीं होती - वह है 'मानव ही सबसे बड़ा सच है उससे बढ़कर और कुछ नहीं (সবার উপর মানুষ সত্য তাহার উপর নাই - लालन फकीर)' , इसीलिए हमें पृथ्वी, प्राणीजगत, सृष्टि और बाकी जो कुछ भी है उसकी चिंता है। प्रकृति का विनाश, राष्ट्र की धारणा, ये आधुनिकता से निकली विकृतियाँ हैं। इन विकृतियों को जन संघर्षों के द्वारा ही हटाना संभव है। हमारे जैसे देश में अभी भी आधुनिकता के बुनियादी स्वरुप की प्रतिष्ठा की लड़ाई चल रही है, जिसमें मानव की स्वच्छंद पर जिम्मेदार सत्ता ही प्रमुख बात है। यह जिम्मेदारी क्या है इस पर सोचना ज़रूरी है।


Wednesday, November 03, 2010

माओ चार्वाकवादी थे


चिट्ठा जगत में जिसकी जो मर्जी है लिख सकता है. मैंने हमेशा इसे एक डायरी की तरह लिया है पर अक्सर लोगों के हस्तक्षेप से मेरा पोस्ट वाद विवाद संवाद जैसा भी बन गया है. मुझे अपरिपक्व बहस से चिढ है, संभवतः जैसा प्रशिक्षण मुझे मिला है उसमें हल्की फुल्की बहस से चिढ़ होने की बुनियाद है. इसलिए मैं जल्दी आलोचनात्मक लेख नहीं लिखता. कहने को ई पी डब्ल्यू में भी कभी कुछ लिखा है, पर आम तौर से मैं इससे बचता हूँ.राजनैतिक विचारों पर जो बहस होती है, उसमें शामिल होते हुए मुझे अपनी अज्ञता का ख़याल रहता है. मुझे लगता है कितना कुछ है जिसके बारे में मुझे अधकचरा ज्ञान है, कितना कुछ है जो अभी मुझे पढ़ना है इसके बावजूद कि देश विदेश के सबसे बेहतरीन अध्यापकों और शोध कर्ताओं से सीखने और विमर्श करने का मौक़ा मिला है. संकोच से ही बात करने का संस्कार अपनाया है. देखता हूँ अधिकतर लोगों को ऐसा कोई आत्म-चैतन्य नहीं, जो मर्जी लिखते रहते हैं. अच्छा है, आखिर ज्ञान की बपौती किसके हाथ!
मैंने सोचा कि कुछ सवालों पर सोचूँ. जैसे: वाम या दक्षिण- इन शब्दों की उत्पत्ति कहाँ से हुई?हिन्दुस्तान में हम आम तौर से वामपंथी का अर्थ कम्युनिस्ट मान लेते हैं. लोहिआवादी वामपंथी हैं या नहीं?वैसे ऐसे फालतू के लोग बहुत हैं, जो गांधीवादियों से लेकर तालिबानियों तक सबको वामपंथी मानते हैं, बस जो उनके साथ नहीं हैं वे सभी वामपंथी हैं. और वामपंथी होने का अर्थ है, माओवादी होना, और माओवादी होने का अर्थ है चीन के सरकार का समर्थक होना, आदि आदि. मैं अक्सर सोचता हूँ कि अगर मैं लिखूं कि अरुंधती अराजकतावादी है तो इसका अर्थ अधिकतर लोगों के लिए क्या होगा? खुश हो जाएँगे, क्योंकि वे जानते नहीं कि अराजकतावाद वह नहीं जो वे सोचते हैं. कुछ लोगों को जनांदोलनों से ही चिढ़ है. अभी कहीं पढ़ा, कोई पूछ रहा है ईसा की करूणा जनांदोलनों से आयी क्या - तो मैंने सोचा कि जो यह लिख रहा क्या वह जानता है कि यूडाइक मूल के धर्म यानी यहूदी, ईसाई या इस्लाम धर्मों को डायलेक्टिक यानी द्वंद्वात्मक क्यों कहा जाता है. हीगेल का दर्शन इन्हीं धर्मों के दर्शन की परिणति है. आखिर ईसा के साथ जन न होते तो उन्हें शूली पर चढाने की ज़रुरत क्यों पड़ती. मुझे इन चीज़ों के बारे में बहुत कम पता है - इसलिए मैं अक्सर विज्ञ लोगों से इन सब बातों के बारे में जानना चाहता हूँ. संभवतः चिट्ठेबाजों की सलाह आयेगी कि भई तुम्हारी समस्या ही यही है कि तुम हीगेल जैसों के चक्कर में पड़े हो, कुछ महान भारतीय परंपरा से भी सीख लेते तो इतनी उलझन न होती. फिर मैं सोचता हूँ कि भारतीय परम्परा में कणाद, चार्वाक आदि कि भूमिका क्या है, तो भी मुझ पर कोई नया आरोप लग सकता है.
आखिर थक जाता हूँ और ध्यान आता है कि बहुत काम बाकी पड़े हैं. फिर भी हारने के पहले एकबार मुक्तिबोध को याद करता हूँ
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,हर एक छाती में आत्मा अधीरा है
प्रत्येक सस्मित में विमल सदानीरा है,मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीडा है,पलभर में मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,इस तरह खुद को ही दिए-दिए फिरता हूँ,अजीब है जिंदगी!बेवकूफ बनने की खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ,और यह देख-देख बडा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ...हृदय में मेरे ही,प्रसन्नचित्त एक मूर्ख बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,कि जगत.... स्वायत्त हुआ जाता है।
अब दीवाली की शुभकामनाएं देते हुए भी डर रहा हूँ - कोई न कोई महान देशभक्त टिप्पणी तैयार रखे बैठा होगा- अच्छा अब आपको दीवाली याद आ गयी. चीन में भी दीवाली मनाते हैं क्या. क्या करें चिट्ठा जगत है ही ऐसा कि महान आत्माओं को दर्शन दिए बिना चैन ही नहीं मिलता.
वैसे बंधुओं को बतला दें कि चार्वाक माओवादी थे. तो फिर हम माओ को चार्वाकवादी भी कह सकते हैं. संभवतः इस बात से देशभक्त आत्माएं संतुष्ट हो जाएँगी। पर उन्हें यह पता है कि चार्वाक कौन थे! अरे भाई उनको क्या नहीं पता। यह फासीवाद की सबसे पहली पहचान है। उनको सब कुछ पता होता है।
चलो माओ को गांधीवादी कह देते हैं।

Monday, November 01, 2010

राष्ट्रतोड़ू राष्ट्रवादी

मैंने सोचा था इस बार एक रोचक गलती पर लिखूं । एक छात्र कुंवर नारायण की कविता पढ़ते हुए 'असह्य नजदीकियां' को 'असहाय नजदीकियां' पढ़ गया। जैसे कोई गलती से कविता रच गया।

पर अभी अखबार में पढ़ा कि डंडे मारने वाले दिखा गए कि हम कितने महान लोकतान्त्रिक देश में रहते हैं। इकट्ठे होकर निहत्थे लोगों पर हमला करना आसान होता है। कायर लोग यह हमेशा ही किया करते हैं। मैंने अरुंधती का वक्तव्य पढ़ा जिसमें उसने इस प्रसंग में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाए हैं।

यह सोचने की बात है कि कायर लोग अरुंधती पर हमला कर देश का क्या भला कर रहे हैं। अफलातून ने सही लिखा ये राष्ट्रतोड़ू राष्ट्रवादी हैं।

एक और छात्र ने यह बतलाया कि प्रख्यात आधुनिक चिन्तक बेनेडिक्ट एन्डरसन राष्ट्र को काल्पनिक समुदाय कहते हुए बतलाते हैं कि राष्ट्र का अर्थ तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि राष्ट्र में हो रही बुराइओं पर खुला विमर्श न हो। पर एन्डरसन तो विदेशी है, जैसे हर ऐसा विचार जिसके साथ हम सहमत नहीं है यह कहकर टाला जाता है की यह तो विदेशी विचार है तो इस को भी फेंको कूड़े में।