गणतंत्र दिवस मुबारक।
नमन उस संविधान को जो पूरी तरह लागू भले न हुआ हो या जिसे सुविधासंपन्न लोगों के सामूहिक षड़यंत्र ने सफल नहीं होने दिया, पर जो जैसा भी है दीगर मुल्कों के संविधानों से ज्यादा उदार, ज्यादा अग्रगामी और ज्यादा बराबरी के सिद्धांतों पर आधारित है। साथ ही नमन संविधाननिर्माताओं को, खास तौर पर बाबा साहब भीमराव अंबेदकर को जिन्होंने बेहतरीन मानव मूल्यों पर आधारित देश और समाज की कल्पना की।
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एक दिन
जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे
साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक
भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ
गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)
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भाई प्रतीक,
माफी तो चलो हमने मान ली, पर यह बताओ कि अगर किसी बात के आगे ः-) का संकेत हो, तो उसका मतलब बुरा न मानो होली है जैसा कुछ नहीं होता क्या (तुम्हारी पीढ़ी की भाषा है भई)? मैंने तो अपनी बात के आगे यह लगाया था। शायद यह होली के दिन ही लागू होता हो ः-) ।
वैसे भई छेड़ते तो तुमलोग भी कम नहीं, मैं तो आमतौर से औरों की छेड़खानी का जवाब दे रहा होता हूँ।
यह तो बात ठीक नहीं कि पहले तो खुद छेड़ो और फिर खिंचाई हुई तो मम्मी मम्मी (अब फिर तो नहीं नाराज हो जाओगे भाई! थोड़ा बहुत छेड़ भी लेने दो यार!) मसिजीवी ने तो मुझे क्रेमलिन के मे डे परेड पर सलामी देता लाल सिपाही बना दिया था। पर मैं इतना भी नहीं परेशान हुआ। हालाँकि यह प्राब्लम तो उसी की है न कि हजारों भले लोगों को छोड़ कर उसने दोस्त बनाए हैं ऐेसे जो पाखंडी हैं। तुम तो यार मेरी जरा सी गलती पर ही नाराज हो गए।
वैसे यह बात चली तो एक गंभीर बात मसिजीवी जैसे मित्रों के लिए। भाई लोगों, अपने हर पाखंडी लाल मित्र के अनुपात में एक दस हजार की गिनती तो उनकी है जिन्होंने इंसान की बेहतरी के लिए ज़िंदगियाँ खपा दी हैं - अब सब बातें तो यहाँ लिखी नहीं जा सकतीं। दिल्ली के कालेज अध्यापक को सिर्फ इस प्रमाण के आधार पर एक अदालत ने फाँसी की सजा दी थी कि वह अपने भाई के साथ फ़ोन पर बात करते हुए संभवतः शायद (!) संसद पर आक्रमण के संदर्भ में हँस पड़ा था। इसके बाद निर्जन कारावास और सामाजिक बहिष्कार। शुक्र है कि कई दोस्तों के निरंतर संघर्ष (जिसमें एक बूँद इस पापी का है) और माननीय उच्च अदालत की संजीदगी से वह छूटा। इसलिए भाई पता नहीं किस बात से क्या सजा मिल जाए।
तो ऐसा है कि हम उन हजारों भले लोगों की तरफ भी देखें। कम से कम इतना तो सीख ही लें कि
(१) एक आदमी के बुरे होने से जिन सिद्धांतों को भुनाकर वह लूट मचाए हुए है, वे बुरे नहीं हो जाते
(२) बहुत ज्यादा ठीक लगने वाले सिद्धांतों को भुनाने वाले लुटेरे बड़ी जल्दी दिखने लगते हैं (इसके विपरीत बहुत बुरे लगने वाले सिद्धांतों का पक्ष ले रहे भले लोग भी अलग दिखते हैं पर भले विचारों को मानने वाले भले लोग कम दिखते हैं)।
(३) सामाजिक और राजनैतिक विचारों की आलोचना करते हुए हमें सामाजिक या सामूहिक संदर्भों में ही सोचना चाहिए - व्यक्तिगत संदर्भ जरुरी तो हैं (पर्सनल इज़ पोलिटिकल - निश्चित) पर उनकी गड़बड़ से व्यक्ति परिभाषित होता है न कि विचार या सिद्धांत।
वैसे अक्सर कई लोगों को ऐसी बातों से परेशानी होती है कि अगर आप बराबरी की बात कर रहे हो तो आपने गाड़ी क्यों ली है या आप शराब क्यों पीते हो। तो दोस्तों मैं भी उन पापियों में से हूँ जिसके पास गाड़ी भी है और जो शराब भी.....। (मसिजीवी को तो यही खाए जा रहा है कि उसने दो हजार रुपए गाड़ी की मरम्मत पर खर्च कर दिए) पर इस वजह से मेरी यह माँग कि औरों के पास भी गाड़ियाँ (अय्याशी नहीं, जरुरतों के लिए) होनी चाहिए गलत नहीं हो जाती। और यह तो बिलकुल ही नहीं कि आधी जनता जो प्राथमिक शिक्षा नहीं ले पा रही, उसे संविधान के सामान्य शिक्षा के सर्वव्यापीकरण (universalisation of elementary education) के निर्देश के मुताबिक शिक्षा मिलनी चाहिए। इत्यादि।
और रही बात पाखंडियों की, इस पर जरा खुल कर बात की जाए। नाम न लो, अ ब स द कह कर ही सही। दिमाग से बात तो निकले। हो सकता है कि हम इस प्रक्रिया में अपने बारे में भी कुछ सीख सकें।
अरे प्रतीक, मैं तो होली की सोच रहा था, कहाँ से कहाँ चला आया!
नमन उस संविधान को जो पूरी तरह लागू भले न हुआ हो या जिसे सुविधासंपन्न लोगों के सामूहिक षड़यंत्र ने सफल नहीं होने दिया, पर जो जैसा भी है दीगर मुल्कों के संविधानों से ज्यादा उदार, ज्यादा अग्रगामी और ज्यादा बराबरी के सिद्धांतों पर आधारित है। साथ ही नमन संविधाननिर्माताओं को, खास तौर पर बाबा साहब भीमराव अंबेदकर को जिन्होंने बेहतरीन मानव मूल्यों पर आधारित देश और समाज की कल्पना की।
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एक दिन
जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे
साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक
भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ
गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)
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भाई प्रतीक,
माफी तो चलो हमने मान ली, पर यह बताओ कि अगर किसी बात के आगे ः-) का संकेत हो, तो उसका मतलब बुरा न मानो होली है जैसा कुछ नहीं होता क्या (तुम्हारी पीढ़ी की भाषा है भई)? मैंने तो अपनी बात के आगे यह लगाया था। शायद यह होली के दिन ही लागू होता हो ः-) ।
वैसे भई छेड़ते तो तुमलोग भी कम नहीं, मैं तो आमतौर से औरों की छेड़खानी का जवाब दे रहा होता हूँ।
यह तो बात ठीक नहीं कि पहले तो खुद छेड़ो और फिर खिंचाई हुई तो मम्मी मम्मी (अब फिर तो नहीं नाराज हो जाओगे भाई! थोड़ा बहुत छेड़ भी लेने दो यार!) मसिजीवी ने तो मुझे क्रेमलिन के मे डे परेड पर सलामी देता लाल सिपाही बना दिया था। पर मैं इतना भी नहीं परेशान हुआ। हालाँकि यह प्राब्लम तो उसी की है न कि हजारों भले लोगों को छोड़ कर उसने दोस्त बनाए हैं ऐेसे जो पाखंडी हैं। तुम तो यार मेरी जरा सी गलती पर ही नाराज हो गए।
वैसे यह बात चली तो एक गंभीर बात मसिजीवी जैसे मित्रों के लिए। भाई लोगों, अपने हर पाखंडी लाल मित्र के अनुपात में एक दस हजार की गिनती तो उनकी है जिन्होंने इंसान की बेहतरी के लिए ज़िंदगियाँ खपा दी हैं - अब सब बातें तो यहाँ लिखी नहीं जा सकतीं। दिल्ली के कालेज अध्यापक को सिर्फ इस प्रमाण के आधार पर एक अदालत ने फाँसी की सजा दी थी कि वह अपने भाई के साथ फ़ोन पर बात करते हुए संभवतः शायद (!) संसद पर आक्रमण के संदर्भ में हँस पड़ा था। इसके बाद निर्जन कारावास और सामाजिक बहिष्कार। शुक्र है कि कई दोस्तों के निरंतर संघर्ष (जिसमें एक बूँद इस पापी का है) और माननीय उच्च अदालत की संजीदगी से वह छूटा। इसलिए भाई पता नहीं किस बात से क्या सजा मिल जाए।
तो ऐसा है कि हम उन हजारों भले लोगों की तरफ भी देखें। कम से कम इतना तो सीख ही लें कि
(१) एक आदमी के बुरे होने से जिन सिद्धांतों को भुनाकर वह लूट मचाए हुए है, वे बुरे नहीं हो जाते
(२) बहुत ज्यादा ठीक लगने वाले सिद्धांतों को भुनाने वाले लुटेरे बड़ी जल्दी दिखने लगते हैं (इसके विपरीत बहुत बुरे लगने वाले सिद्धांतों का पक्ष ले रहे भले लोग भी अलग दिखते हैं पर भले विचारों को मानने वाले भले लोग कम दिखते हैं)।
(३) सामाजिक और राजनैतिक विचारों की आलोचना करते हुए हमें सामाजिक या सामूहिक संदर्भों में ही सोचना चाहिए - व्यक्तिगत संदर्भ जरुरी तो हैं (पर्सनल इज़ पोलिटिकल - निश्चित) पर उनकी गड़बड़ से व्यक्ति परिभाषित होता है न कि विचार या सिद्धांत।
वैसे अक्सर कई लोगों को ऐसी बातों से परेशानी होती है कि अगर आप बराबरी की बात कर रहे हो तो आपने गाड़ी क्यों ली है या आप शराब क्यों पीते हो। तो दोस्तों मैं भी उन पापियों में से हूँ जिसके पास गाड़ी भी है और जो शराब भी.....। (मसिजीवी को तो यही खाए जा रहा है कि उसने दो हजार रुपए गाड़ी की मरम्मत पर खर्च कर दिए) पर इस वजह से मेरी यह माँग कि औरों के पास भी गाड़ियाँ (अय्याशी नहीं, जरुरतों के लिए) होनी चाहिए गलत नहीं हो जाती। और यह तो बिलकुल ही नहीं कि आधी जनता जो प्राथमिक शिक्षा नहीं ले पा रही, उसे संविधान के सामान्य शिक्षा के सर्वव्यापीकरण (universalisation of elementary education) के निर्देश के मुताबिक शिक्षा मिलनी चाहिए। इत्यादि।
और रही बात पाखंडियों की, इस पर जरा खुल कर बात की जाए। नाम न लो, अ ब स द कह कर ही सही। दिमाग से बात तो निकले। हो सकता है कि हम इस प्रक्रिया में अपने बारे में भी कुछ सीख सकें।
अरे प्रतीक, मैं तो होली की सोच रहा था, कहाँ से कहाँ चला आया!