Thursday, January 26, 2006

गणतंत्र दिवस मुबारक।

गणतंत्र दिवस मुबारक।

नमन उस संविधान को जो पूरी तरह लागू भले न हुआ हो या जिसे सुविधासंपन्न लोगों के सामूहिक षड़यंत्र ने सफल नहीं होने दिया, पर जो जैसा भी है दीगर मुल्कों के संविधानों से ज्यादा उदार, ज्यादा अग्रगामी और ज्यादा बराबरी के सिद्धांतों पर आधारित है। साथ ही नमन संविधाननिर्माताओं को, खास तौर पर बाबा साहब भीमराव अंबेदकर को जिन्होंने बेहतरीन मानव मूल्यों पर आधारित देश और समाज की कल्पना की।
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एक दिन

जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे -छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फी के लिफाफे

साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मजाक

भटका हुआ रीपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ

गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आस्मान में
तड़पता कटी पतंग सा
एक दिन को औरों से अलग करने को।
(१९८९- साक्षात्कारः १९९२)
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भाई प्रतीक,
माफी तो चलो हमने मान ली, पर यह बताओ कि अगर किसी बात के आगे ः-) का संकेत हो, तो उसका मतलब बुरा न मानो होली है जैसा कुछ नहीं होता क्या (तुम्हारी पीढ़ी की भाषा है भई)? मैंने तो अपनी बात के आगे यह लगाया था। शायद यह होली के दिन ही लागू होता हो ः-) ।
वैसे भई छेड़ते तो तुमलोग भी कम नहीं, मैं तो आमतौर से औरों की छेड़खानी का जवाब दे रहा होता हूँ।
यह तो बात ठीक नहीं कि पहले तो खुद छेड़ो और फिर खिंचाई हुई तो मम्मी मम्मी (अब फिर तो नहीं नाराज हो जाओगे भाई! थोड़ा बहुत छेड़ भी लेने दो यार!) मसिजीवी ने तो मुझे क्रेमलिन के मे डे परेड पर सलामी देता लाल सिपाही बना दिया था। पर मैं इतना भी नहीं परेशान हुआ। हालाँकि यह प्राब्लम तो उसी की है न कि हजारों भले लोगों को छोड़ कर उसने दोस्त बनाए हैं ऐेसे जो पाखंडी हैं। तुम तो यार मेरी जरा सी गलती पर ही नाराज हो गए।
वैसे यह बात चली तो एक गंभीर बात मसिजीवी जैसे मित्रों के लिए। भाई लोगों, अपने हर पाखंडी लाल मित्र के अनुपात में एक दस हजार की गिनती तो उनकी है जिन्होंने इंसान की बेहतरी के लिए ज़िंदगियाँ खपा दी हैं - अब सब बातें तो यहाँ लिखी नहीं जा सकतीं। दिल्ली के कालेज अध्यापक को सिर्फ इस प्रमाण के आधार पर एक अदालत ने फाँसी की सजा दी थी कि वह अपने भाई के साथ फ़ोन पर बात करते हुए संभवतः शायद (!) संसद पर आक्रमण के संदर्भ में हँस पड़ा था। इसके बाद निर्जन कारावास और सामाजिक बहिष्कार। शुक्र है कि कई दोस्तों के निरंतर संघर्ष (जिसमें एक बूँद इस पापी का है) और माननीय उच्च अदालत की संजीदगी से वह छूटा। इसलिए भाई पता नहीं किस बात से क्या सजा मिल जाए।

तो ऐसा है कि हम उन हजारों भले लोगों की तरफ भी देखें। कम से कम इतना तो सीख ही लें कि
(१) एक आदमी के बुरे होने से जिन सिद्धांतों को भुनाकर वह लूट मचाए हुए है, वे बुरे नहीं हो जाते
(२) बहुत ज्यादा ठीक लगने वाले सिद्धांतों को भुनाने वाले लुटेरे बड़ी जल्दी दिखने लगते हैं (इसके विपरीत बहुत बुरे लगने वाले सिद्धांतों का पक्ष ले रहे भले लोग भी अलग दिखते हैं पर भले विचारों को मानने वाले भले लोग कम दिखते हैं)।
(३) सामाजिक और राजनैतिक विचारों की आलोचना करते हुए हमें सामाजिक या सामूहिक संदर्भों में ही सोचना चाहिए - व्यक्तिगत संदर्भ जरुरी तो हैं (पर्सनल इज़ पोलिटिकल - निश्चित) पर उनकी गड़बड़ से व्यक्ति परिभाषित होता है न कि विचार या सिद्धांत।

वैसे अक्सर कई लोगों को ऐसी बातों से परेशानी होती है कि अगर आप बराबरी की बात कर रहे हो तो आपने गाड़ी क्यों ली है या आप शराब क्यों पीते हो। तो दोस्तों मैं भी उन पापियों में से हूँ जिसके पास गाड़ी भी है और जो शराब भी.....। (मसिजीवी को तो यही खाए जा रहा है कि उसने दो हजार रुपए गाड़ी की मरम्मत पर खर्च कर दिए) पर इस वजह से मेरी यह माँग कि औरों के पास भी गाड़ियाँ (अय्याशी नहीं, जरुरतों के लिए) होनी चाहिए गलत नहीं हो जाती। और यह तो बिलकुल ही नहीं कि आधी जनता जो प्राथमिक शिक्षा नहीं ले पा रही, उसे संविधान के सामान्य शिक्षा के सर्वव्यापीकरण (universalisation of elementary education) के निर्देश के मुताबिक शिक्षा मिलनी चाहिए। इत्यादि।

और रही बात पाखंडियों की, इस पर जरा खुल कर बात की जाए। नाम न लो, अ ब स द कह कर ही सही। दिमाग से बात तो निकले। हो सकता है कि हम इस प्रक्रिया में अपने बारे में भी कुछ सीख सकें।

अरे प्रतीक, मैं तो होली की सोच रहा था, कहाँ से कहाँ चला आया!

Monday, January 23, 2006

जस्ट लाइक अ ट्री स्टैंडिंग बाई द वाटर

मैंने अरुंधती राय के साहित्य अकादमी पुरस्कार न लेने पर उन्हें सलाम कहा था तो मसिजीवी परेशान हो गए। परेशानी में जो कुछ लिखा उसे पढ़कर कुछ और मित्रों की बाँछें खिल गईं। बहरहाल, एक पुरस्कार लेना है या नहीं, इसे सिर्फ एक नैतिक निर्णय मानना बचकानी बात है। यह तो अरुंधती भी जानती होंगी कि महाश्वेता दी जैसे कई लोग जो बार बार पुरस्कृत हुए हैं और जिन्होंने पुरस्कार लिए हैं, कोई कम प्रतिबद्ध नहीं हैं। एक पुरस्कार लेना न लेना एक रणनीति है और बिना सोचे समझे महज नैतिक कारणों से ऐसा करना बेवकूफी नहीं तो कम से कम फायदेमंद तो है नहीं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बर्त्तानिया सरकार की दी हुई नाइट की उपाधि वापस की थी। हमारे रंगीन मिजाज समकालीन खुशवंत सिंह ने राज्यसभा कि सदस्यता से त्यागपत्र दिया था। स्पष्ट है ऐसे सभी लोगों ने अपनी सभी उपाधियाँ या पुरस्कार नहीं लौटाए। जिन्होंने लौटाए सोचकर लौटाए कि इससे क्या प्रभाव पड़ेगा। बहरहाल मसिजीवी और दूसरे मित्र इस पर बहस करते रहें कि अरुंधती का निर्णय ठीक था या नहीं या मेरा सलाम कितना लाल या पीला था। इसी बीच अगर अरुंधती मन बदल लें तो और भी अच्छा - हमारी बहस भी खत्म हो और अरुंधती और साथियों का भी कुछ भला हो।
लाल रंग पर व्‍यंग्‍य करना भी एक फैशन है। बात बने न बने हो जाओ लाल पीले लाल ही पर। लाल का अपना अनोखा इतिहास है। पहले साम्यवादी भी सफेद झंडे का इस्तेमाल करते थे। कहते हैं उन्नीसवीं सदी के अंत में पोलैंड में कामगारों के एक जुलूस पर गोली चलाई गई। झंडा थामे एक मजदूर को गोली लगी, उसके खून से सफेद झंडा लाल हो गया। उसके साथियों ने उसी लाल झंडे को उठाया और वे आगे बढ़े, तब से लाल झंडा लाल है। मेरा मन पसंद रंग वैसे लाल नहीं नीला है।
मुझे अपनी यूनिवर्सिटी के दिन याद आ गए, जब मुझे भी जुनूँ था कि ऐसा कुछ मैं करुँ। १९८४ में मैं पी एच डी की थीसिस खत्म करने के मोड़ पर था। याद नहीं है कि घटनाक्रम कैसा था, पर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन विश्व-व्यापी बन चुका था। भारत दशकों से दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी की पहल करता रहा और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत और गुट निरपेक्ष देशों के बहुमत से पारित मत के खिलाफ सुरक्षा परिषद में अमरीका और ब्रिटेन वीटो का उपयोग करते रहे। सत्तर के बाद के दशक में एक बार अफ्रीकी मूल के अमरीकी छात्रों ने रंगभेद के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। उस वक्त के दूसरे आंदोलनों की तरह यह भी धीरे धीरे ढीला पड़ गया। पर अस्सी के शुरुआती सालों में ओलिवर तांबो के नेतृत्व में (नेल्सन मांडेला जेल में थे) अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस ने पश्चिमी मुल्कों में अपनी ज़मीन बढ़ाने के लिए मुहिम तेज कर दी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अपार्थीड के बारे में कई सूचनाएँ खुले आम बाँटी जा रही थीं।
मैं प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के थर्ड वर्ल्ड सेंटर और इंटरनैशनल सेंटर में लगातार जाता था। थर्ड वर्ल्ड सेंटर अफ्रीकी अमरीकी (ब्लैक) छात्रों का सांस्कृतिक केंद्र था। यह केंद्र जब बना था वे ब्लैक पीपल्‌‍स मूवमेंट के शिखर के दिन थे। पर हमारे वक्त रीगन युग की और सभी प्रवृत्तियों की तरह यह भी अपने स्वभाव में काफी संरक्षणशील हो चुका था। फिर भी यहाँ मैंने मैल्कम एक्स पर डाक्यूमेंटरी फुटेज देखा; लुई फाराखान का भाषण सुना। राजनैतिक तेवर की काले कवियों की कविताएँ सुनीं। सांस्कृतिक कार्यक्रम तो खैर जो थे सो थे। बाद के सालों में मेरा मित्र विश्वंभर पति भी इन गतिविधियों में पूरी तरह शामिल था। बहरहाल १९८४ में हवा सी चल पड़ी थी कि दक्षिण अफ्रीका को लेकर कुछ करना है। अमरीकी व्यापारी वर्ग आर्थिक नाकेबंदी के पूरी तरह खिलाफ था। प्रिंस्टन जैसे कई विश्वविद्यालय के ट्रस्ट के पैसे ऐसे व्यापार हितों में निवेशित थे जिनका ताल्लुक दक्षिण अफ्रीका से था। हमलोगों ने 'डाइवेस्टमेंट' यानी अपनिवेश या पैसा वापस लो का आंदोलन शुरु किया। मैंने दक्षिण अफ्रीका के चर्चित उपन्यासकार ऐलन पैटन की पुस्तक 'क्राई बीलवेड कंट्री' की तर्ज पर नारा बनाया 'क्राई बीलवेड प्रिंस्टन'। हमारे कई मित्रों में उस दिन विश्वंभर पति की भावी पत्नी गेल हार्ट भी पूरे जोश के साथ शामिल थी। सारी रात थर्ड वर्ल्ड सेंटर में बैठकर हम लोग बैनर और पोस्टर बनाते रहे। १९८४ की प्रिंस्टन की रीयूनियन परेड में जाली ताबूतों के साथ हम जबरन शामिल हो गए। इसमें काले छात्रों के अलावा कई गोरे छात्रों ने भी हिस्सा लिया - खास कर वे लोग जो उन दिनों निकारागुआ, एल साल्वादोर और गुआतेमाला जैसे लातिन अमरीका के देशों में अमरीकी हस्तक्षेप के खिलाफ सक्रिय थे। मैं और पति पूरी तरह इस खुराफात में शामिल थे। बहुत कोशिश करने पर भी मैं भारतीय छात्रों को साथ नहीं ले पाया। बाद में मैंने जाना कि डेमोक्रटिक पार्टी के एक बड़े गुट जो पहले सोशलिस्ट डेमोक्रटिक पार्टी के नाम से जाने जाते थे, ने यह निर्णय लिया था कि देश भर (सं. रा. अमरीका) में रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका की सरकार के खिलाफ मोर्चा बुलंद करना है। प्रिंस्टन के इंस्टीचिउट ऑफ अडवांस्ड स्टडीज़ में इसी गुट से जुड़े एक छात्र नेता और रीसर्च फेलो रिचर्ड (सही याद नहीं आ रहा) स्वार्त्ज़ आए हुए थे। कुछ उनके नेतृत्व में और कुछ अराजक (एनार्किस्ट) बंधुओं के साथ १९८५ की शुरुआत तक एक मजबूत प्रिंस्टन डाइवेस्टमेंट आंदोलन बन गया। बाद में कुछ और भारतीय भी यदा कदा किसी न किसी कार्यक्रम में आ ही जाते।
इन सब बातों में शामिल होते हुए मैं एक अपराध बोध से ग्रस्त रहता कि आखिर मैं यहाँ पढ़ने आया हूँ और इस देश में रहते हुए, यहाँ की सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए मुझे यह अधिकार नहीं कि मैं ऐसे विरोध करुँ। साथ ही जैसे जैसे हमारी जानकारी बढ़ती गई और इस पूरे मुद्दे पर गोरे समाज और मुल्कों की हठधर्मिता और पाखंड का खुलासा होता गया, मेरा निश्चय और दृढ़ होता गया। उन्हीं दिनों मैंने जाना कि हालाँकि भारतीय पासपोर्ट हमें दक्षिण अफ्रीका जाने की अनुमति नहीं देता, फिर भी दक्षिण अफ्रीका की सरकार हमें आने देगी और वहाँ जाने पर हमें 'ऑनररी ह्वाइट' माना जाएगा। रंगभेद की व्यवस्था का ऐसा घिनौना स्वरुप जानकर मुझे पहली बार यह खयाल आया कि ऐसे एक मुल्क के साथ व्यापार करने वाली व्यापारिक संस्थाओं को पैसा देने वाली यूनिवर्सिटी की डिग्री का मेरे लिए क्या मतलब! धीरे धीरे मैं इसपर और सोचता चला और योजना बनाने लगा कि मैं इस डिग्री को अस्वीकार करुँगा। इसके लिए ज़रुरी था कि पहले डिग्री की जरुरतें पूरी करें। वे भी क्या दिन थे! हम दिनभर शोर मचाते, रात को बाहर तंबू लगाकर सोते और आधी रात के बाद किसी वक्त मैं दफ्तर लौट के थीसिस के अध्याय टाइप करता। सुबह ड्राफ्ट अपने थीसिस सुपरवाइज़र को देता और साढ़े आठ बजे तंबू में थोड़ी देर के लिए सोने जाता। एक रोचक बात यह हुई कि ऐसे ही एक दिन मेरे सुपरवाइजर ने ग्रुप में नए आए पोस्टडॉकटरल फेलो और मेरे भावी ऑफिसमेट से परिचय कराया।
वह गोरा लड़का ऐंथनी पीयर्स दक्षिण अफ्रीका से आया था। सुनकर बड़ा अजीब लगा। बाद में उससे अच्छी दोस्ती हो गई और उसे हमारे साथ पूरी सहानुभूति थी। शहर के उदारवादी लोगों से हमें काफी समर्थन मिल रहा था, वे लोग हमारे लिए खाना बनाते, दोपहर से हमारे हल्ले गुल्ले गाने बजाने में शामिल होते। उन्हीं दिनों मैं अपनी भावी पत्नी के करीब आया, जो न केवल इस आंदोलन में, बल्कि और कई ऐसी ही गतिविधियों में पूरी तरह शामिल थी।
मैंने अपनी योजना पति को बताई। पति ने मुझे अच्छी तरह सोचने को कहा। और मैं थोड़ा सा घबराने लगा। मई के पहले हफ्ते में मेरा थीसिस डिफेंस हो गया और मैं औपचारिक रुप से पी एच डी की डिग्री पाने के लिए पास हो चुका था। फिर वह दिन आया जिसे हम ज़िंदगी भर गर्व से याद रखेंगे। आंदोलन की समिति ने तय किया कि रात को मुख्य प्रशासनिक बिल्डिंग के पास एक चर्च में छिपे रहेंगे और सुबह मुँह अँधेरे बिल्डिंग पर अधिकार कर लेंगे। कई तरह के षड़यंत्र सोचे गए। किस तरह केमिस्ट्री विभाग में फायर अलार्म बजाकर सुरक्षाकर्मियों का ध्यान वहाँ लगा दिया जाए (ऐसा सचमुच किया नहीं) आदि आदि। ओह! क्या उत्तेजना थी। सारी रात हम गीत गाते रहे। फिर सुबह करीब नब्बे से सौ लोग नासाउ बिल्डिंग के अलग अलग गेटों पर खड़े हो गए। नासाउ बिल्डिंग प्रिंस्टन की वह ऐतिहासिक इमारत है जहाँ अमरीकी आजादी की लड़ाई के दौरान काँग्रेस की सभाएँ होती थीं। मेरे और पति के अलावा एक और भारतीय छात्रा नीरजा पार्थसारथी तब तक साथ थी जब तक पुलिस हमें गिरफ्तार करने नहीं आई। हम अस्सी लोग गिरफ्तार हुए। पुलिस का आदमी हमें राइट्स पढ़कर सुना रहा था और हम 'डेथ टू अपार्थाइड, फ्री मांडेला' नारे लगाते रहे। पुलिस वैन में बैठा मैं जोर जोर से गा रहा था, "वी शैल नॉट, वी शैल नॉट बी मूव्ड, जस्ट लाइक अ ड्रीम स्टैंडिंग बाई द वाटर, वी शैल नॉट बी मूव्ड..." बाद में पता चला था कि 'ड्रीम' सही शब्द नहीं था, जस्ट लाइक अ ट्री होना चाहिए था।
तब तक पुलिस के भी अधिकतर लोग हमारे पक्ष में हो चुके थे, इसलिए हमें कोई विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। पाँच घंटे जेल परिसर में हल्ला गुल्ला मचाकर कागजात साइन कर हमलोग आ गए। बाद में एक प्रसिद्ध वकील ने मुफ्त में हमारी ओर से पैरवी का निर्णय लिया। यूनिवर्सिटी काउंसिल ने अपनी अलग हीयरिंग्स कीं। हर दिन हमारी सभाएँ होतीं और कानूनी दाँवपेंच सोचे जाते। मैंने एकबार यह भी सोचा कि मैं भारत सरकार से हस्तक्षेप के लिए कहूँ और अपना मुकदमा भारत में स्थानांतरित करवाऊँ। पता नहीं क्या क्या सोचते थे, हर दिन कोई नई बात दिमाग में चलती रहती।
डिग्री क्यों न स्वीकार की जाए, इस पर मैंने एक लंबा लेख लिखा और कुछ खास मित्रों को दिखाया। यह भी सोचा कि किसी भारतीय विश्वविद्यालय में दुबारा थीसिस सबमिट कर वहाँ से डिग्री लूँ। धीरे धीरे एक बात दिमाग में स्पष्ट हो गई कि इस तरह के कदम का अर्थ तभी होता है जब इस पर कोई व्यापक बहस छिड़े। इसके लिए मेरे दोस्त तैयार न थे। वे सभी डिग्री लेने आए थे। यहाँ तक कि दक्षिण अफ्रीका से आया मेरा अभिन्न मित्र रिचर्ड स्टीवेंस जो सेमिनरी से थीओलोजी में पी एच डी कर रहा था और जो इस आंदोलन के दौरान पूरी तरह हमारे साथ था, उसने भी मुझे समझाया कि यह ठीक कदम न होगा।
आखिरकार मैं अपने निश्चय से हिला और डिग्री अस्वीकार करने की हिम्मत न कर पाया। देश लौटकर कई सालों तक बीच बीच में मैं उस लेख को पढ़ता जो मैंने डिग्री अस्वीकार करने को लेकर लिखा था, फिर धीरे धीरे निजी समस्याओं और अवसाद के दौरों में पता नहीं वह कहाँ गया।
बहरहाल अरुंधती का निर्णय भी विवादास्पद ही रहेगा। पक्ष-विपक्ष में लोग कहते रहेंगे। मैंने जो कहानी लिखी, इसमें बहुत कुछ अनलिखा रह गया। जीवन के अनेक अनुभवों में से वह भी कुछ थे, जिनको याद करते हैं औेर कभी कभार उन गीतों को गाया करते हैं। १ मई १९९० को जब मांडेला रिहा हुए, मैंने 'जनसत्ता' में दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति संग्राम पर एक लेख लिखा, जिसे पढ़ने वाले आज तक मुझे दाद देते हैं। मैं सोचता हूँ उनको कैसे बताऊँ कि मैं सारी बातें लिख ही नहीं सकता। कुछ ऐसे भी हैं जो बिल्कुल ही उदासीन हैं, जैसे हमारा चंडीगढ़ का वह मकान मालिक जो १ मई १९९० को हमारे इस बैनर को देखकर चिढ़ गया था जिसमें हमने ए एन सी का प्रसिद्ध नारा 'अमांडला ओवेतु' (शायद 'जनता को शक्ति' ऐसा कुछ अर्थ है) लिख कर उत्सव मनाने की कोशिश की थी।

Sunday, January 22, 2006

प्रासंगिक

प्रासंगिक

लंबे समय तक खाली मकान की बाल्कनी में बना उसका घोंसला उखड़ चुका था।

ठंड की बारिश के दिन। मकान के अंदर रजाई में दुबकी तकलीफें।

उड़ने की आदत में चाय की जगह कहाँ। वे बार बार लौटते, अपना घोंसला ढूँढते।

शीशे की खिड़कियों से दिखता आदमी उनके पंखों की फड़फड़ाहट पर झल्लाता हुआ।
सुबह सुबह अखबार। विस्फोट, बेघरी, बेबसी और राजकन्या को परेशान करने वाले सनकी आदमी की गिरफ्तारी।
शीशों पार दुनिया में कितनी तकलीफें।

निरंतर वापस आना उनका ढूँढना घोंसला
प्रासंगिक।

(साक्षात्कार- मार्च १९९७)

Friday, January 20, 2006

भाषा

भाषा

एक आंदोलन छेड़ो
पापा ममी को
बाबू माँ बना दो

यह छेड़ो आंदोलन
गोलगप्पे की अंग्रेज़ी कोई न पूछे
कोई न कहे हुतात्मा चौक
फ्लोरा फाउंटेन को
परखनली शिशु को टेस्ट-ट्यूब बेबी बना दो

कहो
नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय
शब्दों को छुओ कि उलट सकें वे बाजीगरों सरीके
जब नाचता हो कुछ उनमें लंबाई के पीछे पीछे
विज्ञान घर घर में बसा दो
परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कहला दो

यह छेड़ो आंदोलन
कि भाषा पंख पसार उड़ चले
शब्दों को बड़ा आस्माँ सजा दो।

(१९९२ - समकालीन भारतीय़ साहित्यः १९९४)

Thursday, January 19, 2006

छोटे-बड़े

छोटे-बड़े


तारे नहीं जानते ग्रहों में कितनी जटिल
जीवनधारा ।
आकाशगंगा को नहीं पता भगीरथ का
इतिहास वर्तमान ।
चल रहा बहुत कुछ हमारी कोषिकाओं में
हमें नहीं पता ।

अलग-अलग सूक्ष्म दिखता जो संसार
उसके टुकड़ों में भी है प्यार
उनका भी एक दूसरे पर असीमित
अधिकार

जो बड़े हैं
नहीं दिखता उन्हें छोटों का जटिल संसार

छोटे दिखनेवालों का भी होता बड़ा घरबार
छोटी नहीं भावनाएं, तकलीफें
छोटे नहीं होते सपने।

कविता,विज्ञान,सृजन,प्यार
कौन है क्या है वह अपरंपार
छोटे-बड़े हर जटिल का अहसास
सुंदर शिव सत्य ही बार बार।

(पश्यंतीः अक्तूबर - दिसंबर २०००)

Monday, January 16, 2006

खबर

खबर

जाड़े की शाम
कमरा ठंडा ठन्डा
इस वक्त यही खबर है
- हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है
कुछेक खबरें पढ़ी जा चुकी हैं
और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है

है खबर अँधेरे की भी
काँच के पार जो और भी ठंडा
थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ
डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाजे पर

यहाँ खबर प्रकाश की जिसमें शून्य है
जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ
अकेलेपन का कायर सुख

और बेचैनी........
........इसी वक्त प्यार की खबर सुनने की
सुनने की खबर साँस, प्यास और आस की

कितनी देर से हम अपनी
खबर सुनने को बेचैन हैं।

(इतवारी पत्रिका - ३ मार्च १९९७)
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अरुन्धती सलाम

मुझे 'इंडियन इंग्लिश' नामक लेखन से बहुत चिढ़ है। पूर्वाग्रह है। फिर भी यदा कदा कुछ अच्छा पढ़ ही लेता हूँ। अरुन्धती राय का 'गॉड अॉफ स्मॉल थिंग्स' मेरी बेटी को बहुत पसंद है। अरुन्धती से मिलने से पहले ही उसने पुस्तक की प्रशंसात्मक समीक्षा की हुई थी - मिलने के बाद तो क्या कहने। मुझे उपन्यास से तो बड़ी समस्याएँ हैं। चूँकि विज्ञान की तरह ही साहित्य में भी मेरी घुसपैठ सीमित स्तर तक है, इसलिए कई बार खुद ही संदेह होने लगता है कि शायद मेरे विचार महज ईर्ष्या की वजह से हैं। पर मुझे अरुन्धती से बेहद प्यार है - हालाँकि मैं कभी उससे मिला नहीं हूँ। बेटी मिल चुकी है, मैं नहींं। उसमें वह कुछ है, इंसान में प्यार करने लायक जो तत्व होने चाहिएं।

फिलहाल तो सिर्फ इसलिए कि उसने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेने से मना कर दिया है। अरुन्धती को यह पुरस्कार उसकी पुस्तक 'द आलजेब्रा अॉफ इनफाइनाइट जस्टिस' के लिए दिया जाना है। चूँकि साहित्य अकादमी को पैसा सरकार से मिलता है, और भारत सरकार निश्चित रुप से जन विरोधी है, इसकी अंतर्देशीय और अंतर्राष्ट्रीय़ नीतियों से अरुन्धती सहमत नहीं है, इसलिए उसने कह दिया - पुरस्कार वुरस्कार नहीं चाहिए।

सलाम अरुन्धती सलाम।

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पी जी आई (पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीचिउट अॉफ मेडिकल रीसर्च) में एक दलित कामगार दाखिल है जिसे अपने मालिक की पिटाई की वजह से गैंग्रीन हो चुके घायल पैर कटवाने पड़े हैं। कुछ साथियों ने संपर्क किया था। क्या कहें - यह मेरा चिंडिया। हर रोज ही ऐसी कोई खबर होती है।

Saturday, January 14, 2006

पंजाब की लोक-संस्कृति का अद्भुत संसार

लोहड़ी के दिन मुझे सबसे अनोखी बात लगती है लोहड़ी का गीत, जो आधुनिक समय के तमाम दबावों के बावजूद ज़िंदा है। पंजाब की लोक-संस्कृति का अद्भुत संसार है, जो पंजाब से बाहर के लोग कम ही जानते हैं। मैं बचपन में कलकत्ता में शहरी बंगाली मध्यवित्त समाज में पलते हुए पंजाब की लोक-संस्कृति के प्रति हीन भावना से ग्रस्त था। यहाँ इतने सालों में मेरी प्राप्ति यह है कि मैंने इस समृद्ध संस्कृति को जाना है। दुःख की बात है कि पंजाब का शहरी समुदाय अपनी इस संस्कृति से अनभिज्ञ है। लोहड़ी के दिन बच्चे आकर गीत गाकर लोहड़ी माँगते हैं। बच्चे तो बच्चे हैं, उन्हें जल्दी होती है कि गीत गाएँ और जो भी मिलता है ले लें। पहले कुछ वर्षों में हम उनसे पूरा गीत सुनकर ही उन्हें लोहड़ी देते थे, अब हम भी जल्दी से निपट लेते हैं। शाम को जब मुहल्लों में लोग आग जला कर इकट्ठे होते हैं, वहाँ भी बुज़ुर्गों में ही आग्रह होता है, बच्चे और युवा तो बस पॉप म्युज़िक और डांस में ही रुचि रखते हैं। एक साल तो मुझे याद है, दो गीत जो हर जगह बज रहे थे, वे थे 'देस्सी बांदरी विलैती चीक्खां मारदी' और 'तू नाग सांभ लै जुल्फां दे, कोई चोर सपेरा लै जाऊगा।' यह भी है!



लोहड़ी के गीत का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक संदर्भ है। सम्राट अकबर के जमाने में लाहौर से उत्तर की ओर पंजाब के इलाकों में दुल्ला भट्टी नामक एक दस्यु या डाकू हुआ था, जो धनी ज़मींदारों को लूटकर गरीबों की मदद करता था। गीत का संदर्भ एक गरीब लड़की का मान रखने से है। पूरा गीत मुझे याद नहीं था, तो अंतरजाल से ढूँढकर सुखबीर ग्रेवाल की यह पोस्टिंग मिली हैः-



सुंदर मुंदरीए होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
तेरा कौन बचारा होए
दुल्ला भट्टी वाला होए
दुल्ले धी ब्याही होए
सेर शक्कर पाई होए
कुड़ी दे लेखे लाई होए
घर घर पवे बधाई होए
कुड़ी दा लाल पटाका होए
कुड़ी दा शालू पाटा होए
शालू कौन समेटे होए
अल्ला भट्टी भेजे होए
चाचे चूरी कुट्टी होए
ज़िमींदारां लुट्टी होए
दुल्ले घोड़ दुड़ाए होए
ज़िमींदारां सदाए होए
विच्च पंचायत बिठाए होए
जिन जिन पोले लाई होए
सी इक पोला रह गया
सिपाही फड़ के ले गया
आखो मुंडेयो टाणा टाणा
मकई दा दाणा दाणा
फकीर दी झोली पाणा पाणा
असां थाणे नहीं जाणा जाणा
सिपाही बड्डी खाणा खाणा
अग्गे आप्पे रब्ब स्याणा स्याणा
यारो अग्ग सेक के जाणा जाणा
लोहड़ी दियां सबनां नूँ बधाइयाँ



पंजाब के शहर के लोगों को पता ही नहीं रहता कि आम लोगों की सोच किस ओर जा रही है। चंडीगढ़ से प्रकाशित ट्रिब्यून समूह के तीन भाषाओं के अखबारों को पढ़कर यह देखा जा सकता है कि संस्कृति की कितनी बड़ी खाई यहाँ है। हिंदी वाला दैनिक ट्रिब्यून तो बहुत ही छोटे से समुदाय में सीमित है। स्तर भी बहुत ही निम्न है। पंजाबी और अंग्रेज़ी के अखबारों का पाठकवर्ग बड़ा है, पर अंग्रेज़ी से जबरन अनूदित कुछ आलेखों को छोड़ दें तो पंजाबी में अखबार की बिल्कुल अलग अपनी एक पहचान है। बहुत अच्छे आलेख पंजाबी में आते हैं। हाल में उन्होंने सर्वेक्षण करवाया कि वर्ष २००५ का सबसे उल्लेखनीय पंजाबी व्यक्ति कौन है। क्रमशः लोकनाटककार गुरशरण सिंह, बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल (एक प्रदूषित नदी को सामूहिक कार सेवा द्वारा साफ करवाने से प्रख्यात) और सेना प्रमुख जे जे सिंह का नाम आया। संयोग से ये परिणाम ११ जनवरी को प्रकाशित हुए, जिस दिन कुछ वामपंथी संगठनों की पहल पर २५००० लोगों ने मोगा के पास कोस्सा नामक गाँव में खेतों के बीच समारोह कर गुरशरण सिंह को सम्मानित किया। हालाँकि वामपंथी गुटों की आपस में काफी अनबन है, फिर भी २५००० लोगों का एक नाटककार को सम्मानित करना अपने आप में एक अद्भुत घटना है। सोचिए कि यह खबर किसी मुख्यधारा के अखबार या दृश्य मीडिया में नहीं आई। गुरशरण सिंह भी अपने आप में दुल्ला भट्टी जैसा एक प्रतीक बन गए हैं, जिन्होंने कभी किसी राजनैतिक ताकत की परवाह नहीं की और सरकार और आतंकवादियों के खिलाफ हिम्मत और असंभव साहस के साथ गाँव गाँव जाकर नाटक के जरिए संघर्ष किया। ५८ वर्षों से लगातार नाटक क्षेत्र में सक्रिय रहकर पंजाब में नाटकों के कई आंदोलन उन्होंने खड़े किए। वैसे तो उन्हें राष्ट्रीय संगीत अकादमी के कालिदास सम्मान जैसे कई पुरस्कार मिले हैं, पर जो स्नेह उन्हें पंजाब के गाँवों में नाटक खेलते हुए लोगों के विशाल हुजूमों से मिलता है, वह मैंने एक दो बार देखा है और मैं कह सकता हूँ एक कलाकार के लिए लोगों की ऐसी स्वतःस्फूर्त्त भावनाएं मैंने कहीं और नहीं देखीं।



जिस तरह दुल्ला भट्टी सदियों तक पंजाब के लोक मानस में अन्याय के खिलाफ लड़ने का प्रतीक बना रहा, उसी तरह भ्रा जी या बाबा मन्ना सिंह नाम से भी जाने जाने वाले गुरशरण सिंह के लिए जुग जुग जीने की सदाएं उस दिन कोस्सा में गूँजती रहीं। मेरे युवा फिल्मकार मित्र दलजीत अमी ने इस घटना को रेकॉर्ड किया है। चंडीगढ़ छोड़कर जाते हुए सबसे अधिक याद आने लोगों में भ्रा जी होंगे। उनसे मिला स्नेह मेरी बहुत बड़ी पूँजी है। दस बारह साल पहले एकबार उन्होंने मुझे पंजाबी लेखकों की रचनाएं हिंदी में अनुवाद करने को कहा था। उस सिलसिले में मैंने कुछेक कहानियाँ अनुवाद की थीं, जो साक्षात्कार, जनसत्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में आई थीं।
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पाखी के साइकिल सीखने की कहानी और इस पर आई टिप्पणियों से मैं भी भावुक हुआ हूँ और कभी अपनी साइकिल कथा भी लिखूँगा - आज नहीं।

Friday, January 13, 2006

जिस दिन गोली चली

जिस दिन गोली चली

दिल्ली हवाई अड्डे पर अपने मोबाइल का इस्तेमाल तो कर ही रहा था, बंगलौर और हैदराबाद बतलाना था कि मैं नहीं भी पहुँच सकता हूँ। इसी बीच बड़ा दिन यानी कि क्रिसमस की शुभकामनाओं के संदेश आने शुरु हो गए। हर ऐसे फ़ोन के लिए मुझे रोमिंग का जुर्माना पड़ना था। तंग आकर निर्णय लिया कि हफ्ते भर तक मोबाइल बंद।

जिस दिन टाटा ऑडिटोरियम के बाहर कान्फरेंस से निकलते लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं, उस वक्त मैं अपने मेजबान वैज्ञानिक प्रोफेसर साहब के साथ शाम की सैर कर रहा था। थोड़ी देर पहले उनके घर पर चाय-शाय ली थी और फिर सैर करते हुए वापस लैब की ओर जाने की योजना थी। एक बार मुझे लगा कि कहीं पटाखे फटने की आवाज आ रही है। पीछे दो तीन दिनों से रात को ढंग से सो नहीं पा रहा था क्योंकि कहीं शादी वादी में नादस्वरम और पटाखे देर रात तक बज रहे थे। थोड़ी देर बाद दफ्तर से लौट के मुख्य अतिथि गृह में आया और कार्नेगी मेलन से आए डिज़ाइन के प्रोफेसर सुब्रह्मण्यन ईश्वरन और तोक्यो से आए गणना विशेषज्ञ जेम्स के साथ डाइनिंग हाल में बैठा गपशप कर रहा था। परिचारक कुमार ने आकर बतलाया कि किसी मेहमान के लिए फ़ोन आया था और फ़ोन करने वाला पूछ रहा था कि टाटा ऑडिटोरियम के बाहर गोली चलने वाली खबर सही है क्या।

थोड़ी ही देर में पता चला कि वाकई गोली चली है। सुब्रह्मण्यन ने कहा कि वे दफ्तर में बैठे हुए थे और पटाखों की आवाज़ सुनाई पड़ी थी। मुझे भी अपना अनुभव याद आया। फिर लाउंज में टेलीविज़न पर खबर फ्लैश होने लगी और लोग इकट्ठे होकर सुनने लगे। मुझे लगा कि यह साल की सबसे दुखद घटना है क्योंकि एक ही जगह बची थी जहाँ स्वच्छंद अकादमिक परिवेश था - अब वह भी चला जाएगा। मैंने आतंक का सामना करने के लिए पुलिस के प्रबंधों को चंडीगढ़ में रहते हुए लंबे समय तक झेला है और इस बात से वाकिफ हूँ कि किस तरह आम आदमी ऐसी परिस्थिति में लगातार परेशानियों को जीता है। साथ ही एक बुज़ुर्ग वैज्ञानिक प्रोफेसर पुरी की मौत और प्रोफेसर चंद्रू के आहत होने की खबर का सदमा था।

फिर ध्यान आया कि लोग मुझे संपर्क करने की कोशिश कर रहे होंगे। मैंने तो फ़ोन बंद करके रखा है। खाना खाकर तुरंत दफ्तर जाकर सबको ई-मेल भेजी और लैंडलाइन पर संपर्क का तरीका बतलाया। फिर परिवार के लोगों को खुद ही फ़ोन किया और बतलाया कि ठीक ठाक हूँ। फिर बेचैनी में दुबारा दफ्तर आकर शोध कर रहे विद्यार्थियों से बात करता रहा। भारतीय विज्ञान संस्थान में टाटा ऑडिटोरियम वाला हिस्सा मुख्य कैंपस से अलग है और बीच में से व्यस्त ट्रैफिक वाली एक सड़क जाती है। सड़क के नीचे से सबवे सा है और इधर से उधर जाना आना लगा ही रहता है। खास तौर पर मल्लेश्वरम की ओर जाने वाले लोग ट्रैफिक से बचने के लिए अक्सर इसी सबवे का इस्तेमाल कर टाटा ऑडिटोरियम के पास से निकल कर दूसरी तरफ के गेट से निकल जाते हैं। मुख्य कैंपस की ओर जहाँ सबवे शुरु होता है वहीं चाय कॉफी पीने के अड्डे हैं। उस रात मैं रीसर्च स्कालर्स के साथ चाय पीने के लिए गया तो कोई खास सुरक्षा की कड़ाई नहीं थी।

अगले कई दिनों तक कैंपस में इस घटना पर चर्चा चलती रही। यहाँ इसके पहले एक ही बार सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठे थे, जब चीन के प्रधान मंत्री के आने पर तिब्बती प्रदर्शनकारियों ने जबरन तिब्बती झंडा फहराया था। चंडीगढ़ में इतने साल बिताकर हालांकि मेरे लिए यह इतनी बड़ी घटना नहीं होनी चाहिए, पर अवसाद में मेरा भी मन डूबा हुआ था। प्रोफेसर पुरी के साथ आई आई टी दिल्ली से आई कुछ महिला अतिथियों की जुबान से आँखों देखा हाल मैं सुन चुका था। बार बार मेरी कल्पना में दृश्य आते और मैं सोचता कि आखिर क्यों? सरकार के कई दावों के बावजूद अभी तक इस घटना की गुत्थी खुली नहीं है और लगता नहीं कि जल्दी ही कुछ पता चलेगा। अच्छी बात यह है कि देश के सबसे उच्चस्तर के वैज्ञानिक शोध संस्थाओं में से होने पर भी यहाँ के वैज्ञानिकों ने इस घटना का कोई असर अपने काम पर पड़ने नहीं दिया है।

नए साल की पूर्व संध्या पर कैंपस में अलग अलग समूहों में बच्चों और बड़ों ने पार्टियाँ कीं - बस टेम्पो जरा ढीला था। यह मानव जीवन है। एक जीवन खत्म होता है। औरों के लिए महज एक घटना होती है। मैं भी अपने मित्रों के साथ एक पार्टी में था और आधी रात बाद नए साल को सबके साथ मैंने भी - चुपचाप ही सही सलामी दी।
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आज पंजाब में लोहड़ी मनाई जा रही है। तकरीबन सारे भारत में ही मकर संक्रांति का यह समय किसी न किसी त्यौहार के नाम से मनाया जा रहा है। यहाँ हर विभाग की सोसाइटी की ओर से लकड़ियाँ इकट्टी कर आग जला कर लोहड़ी मनाई जा रही है। हमारे यहाँ इस बार कुछ कार्यक्रम भी थे। अध्यापकों के म्युज़िकल चेयर वाले आइटेम में मेरा भी नाम (लॉटरी से) आया था पर मैं तब तक पहुँचा नहीं था। बाद में उल्टे सीधे ग्लास सजाने की प्रतियोगिता में नाम आ ही गया तो शायद सबसे कम रुचि के साथ शामिल होने की वजह से मैं जीत ही गया और एक लिखने की डायरी मिल गई। नाचने में अध्यापकों को आमंत्रित नहीं किया जाता, यह दुःख रह गया, पर डायरी और पारंपरिक रस्म अनुसार मूँगफली और रेवड़ियाँ, गजक आदि चबाते हुए लौट आया।

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प्रत्यक्षा, यह पाखी के लिएः-

समीना ने सीखा साइकिल चलाना

समीना ने चलना सीखा
कब की बात हो गई
समीना ने बोलना सीखा
कब की बात हो गई
समीना ने पढ़ना सीखा
कब की बात हो गई

अब समीना सरकेगी सड़क पर
साइकिल पर बैठ

दो ओर लगे सुनील शबनम
बीच बैठी समीना
पहले तो डर का सरगम
फिर धीरे धीरे आई हिम्मत
थामा स्टीयरिंग कसकर
फिर दो चार बार गिरकर
जब लगी चोट जमकर
समीना थोड़ी शर्माई

दो एक बार घंटी भी आजमाई
क्रींग क्रींग की धूम मचाई
देर सबेर पेडल घुमाया ठीक ठाक
सबने देखी समीना की साइकिल की धाक

समीना ने साइकिल चलाना सीखा

कब की बात हो गई।
('भैया ज़िंदाबाद' संग्रह से- १९९५)

Thursday, January 12, 2006

वापसी

वापसी

कभी 'वापसी' शीर्षक कहानी लिखी थी। भोपाल से प्रकाशित 'कहानियाँ: मासिक चयन' में प्रकाशित हुई थी। प्रख्यात कहानीकार सत्येनकुमार पत्रिका के संपादक थे। उन्होंने शीर्षक बदलकर 'वापिसी' कर दिया था। तब से 'वापसी' शब्द लिखते हुए आत्म चेतन हो जाता हूँ।

बहरहाल यह हमारी वापसी।

इस बीच काफी कुछ हुआ। चंडीगढ़ से तेईस दिसंबर को चलना था। हवाई अड्डे पहुँचे ही थे कि दो सौ गज दूर नाके पर तैनात सुरक्षा कर्मचारी ने ही रोक लिया। 'क्या करना है?' भई मेरी फ्लाइट है! 'सारी फ्लाइट रद हो गई हैं।' अरे तो मैं दिल्ली से बंगलौर की फ्लाइट कैसे पकड़ूँगा। 'जाइए, वो टैक्सी में बैठा कर भेज रहे हैं।'

"रोने को यूँ तो हर दिन जी चाहता है
यह हर रोज के रोने ने हमें रोने न दिया"


चंडीगढ़ से एयर डेकन वाली सस्ती उड़ान थी, दिल्ली से सहारा की थी। एयर डेकन वाली युवा महिला ने टिकट पकड़ा और कहा 'आपको सूचना नहीं मिली कि दिल्ली से कुहासे की वजह से कोई भी फ्लाइट यहाँ नहीं आ रही।' मैंने फूलती साँस में कहा हाँ आप लोगों ने मोबाइल का नंबर तो रख लिया और फ़ोन करते नहीं, कम से कम मैं दिल्ली पहुँच जाता तो .... । महिला ने कंप्यूटर पर बटन चलाए और कहा 'सर, आपका नाम तो आज की फ्लाइट के सवारियों की लिस्ट में है नहीं।' टिकट दिखाया, उन सभी अक्षरों को उसने ध्यान से देखा जिन्हें मैं बिना चश्मे के नहीं पढ़ सकता। फिर कभी जाँ निसार अख्तर (शायद - अब ठीक याद नहीं) की गज़ल के लफ्ज़ों का ऊपर लिखा फर्स्ट अॉर्डर अप्रोक्सिमेशन याद दिलाते हुए उसने कहा, 'सर, यह टिकट तेईस नवंबर का है, इसलिए आपका नाम आज की लिस्ट में नहीं है।' मैंने टिकट पकड़ा और हाथ में गज भर दूर रखते हुए बिना चश्मे के पढ़ने की ज़बर्दश्त कोशिश करते हुए यह जाना कि वाकई अद्भुत असंभव संभव हो रहा है। दिल्ली से आगे का टिकट निकाल कर देखा तो पाया कि उस पुराने स्टाइल के टिकट में सब कुछ ठीक है, यानी तेईस दिसंबर का है। उस महिला ने सहारा के सिटी आफिस से बात करवाई, फिर मेरे ट्रवेल एजेंट से बात करवाई। जब तक मैं ट्रवेल एजेंट के पास पहुँचा तो उन लोगों ने अपने बही खातों में से देख लिया था कि गलती उनकी भी नहीं, उनके कागज़ों में सारी तारीखें ठीक थीं और टिकट बनाने वाले एयर डेकन के डीलर ने गड़बड़ की थी। इतनी परेशानी में भी मैं आश्वस्त हुआ कि कम से कम मेरे अलावा किसी और ने भी पढ़ने में गलती की थी।

ऐसी स्थितियों में मैं व्यावहारिक नहीं हो पाता और अवसाद के बवंडर में खो जाता हूँ। बहुत बाद में ध्यान आता है कि ऐसा करना चाहिए था या वैसा आदि आदि। तो हुआ यह कि दिल्ली से आगे का टिकट रद करवाया, दुगुनी कीमत पर अगले दिन का दिल्ली से बंगलौर का टिकट करवाया और मान लिया कि जब लौटूँगा तभी रद टिकट का पैसा लूँगा।

थोड़ी देर बाद अलाएंस फ्रांसेस में अफ्रीकी फिल्मों की प्रदर्शनी में पहुँचा तो दो एक दोस्त जिन्हें पता था कि मुझे जाना है वे मुझे देखकर हैरान हुए। मेरा मजाक भी उड़ाया गया। दूसरे दिन दिल्ली कैसे पहुँचें, इस पर सलाहें मिलीं। फिल्म लाजवाब थी (न्हा ला - ग्लोरिया फ्लोरेस निर्देशित )। बाद में ग़म ग़लत करने कहीं जाम भी छलकाए और आधी रात बाद किसी तरह से सो ही गया।

दूसरा दिन

मेरा मित्र तुषार जो हैदराबाद से चंडीगढ़ हमारे वार्षिक सिमपोज़ियम में भाषण देने आया था, सुबह दिल्ली से उसके साथ फ़ोन पर बात हुई। उसे जेट एयरवेज़ वालों ने टैक्सी में दिल्ली भेज दिया था पर वहाँ से आगे की उड़ान रद होने की वजह से उसे सारी रात सी एस आई आर (विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद) के अथिति गृह में ठहरना पड़ा और अब वह हवाई अड्डे की ओर जाते हुए लगातार बढ़ते हुए कुहासे से रुबरु हो रहा था।

मेरा हौसला पस्त हो रहा था। पर मैं आखिर निकल ही पड़ा। दफ्तर आकर मेल देखी और वापस जाते हुए एक रिक्शे वाले को पकड़ा कि बस अड्डे तक छोड़ दे। बंदे ने मेरे हिसाब से ज्यादा पैसे माँगे। मुझे मुँहमाँगे पैसे देने में आपत्ति नहीं थी, पर मैंने उसे नसीहत दी कि यह अच्छी बात नहीं है और उसे नीचे रोककर ऊपर सामान लेने चला गया। जब तक नीचे उतरा तो रिक्शा गायब।

तंग आकर मित्र कुलदीप पुरी को फ़ोन किया, जिन्हें थोड़ी देर पहले ही बतला चुका थ कि मैं चल रहा हूँ और रिक्शा मिल गया है इसलिए कोई चिंता की बात नहीं वगैरह। पुरी साहब ने अड्डे तक छोड़ दिया।

बस की घबराहट, खूबसूरत अध्यात्मवादी साथिन और करनाल बाईपास का भ्रष्ट पुलिसवाला

बस में जाते हुए मुझे हमेशा ही घबराहट होती है। खासतौर से साढ़े पाँच घंटे बाद आई एस बी टी पहुँच कर आगे हवाई अड्डे तक जाते जाते माइग्रेन न हो जाए (पहले एक दो बार हो चुका है) यह चिंता खाए जा रही थी। थोड़ा बहुत साथ लाए कागज़ात पढ़ कर और काफी हद तक संयोग से साथ बैठी खूबसूरत और अच्छी इंसान दिल्ली की पली, बंगलौर की पढ़ी और चंडीगढ़ में काम कर रही साफ्टवेयर प्रोफेशनल युवा सहयात्री की बातचीत से यह चिंता कम हुई। पता चला उनका शौक ध्यान, अध्यात्म वगैरह में है। अमूमन ऐसी परिस्थितियों में मैं परेशान होता हूँ क्योंकि अधिकतर ऐसे लोग हमारी समझ के बाहर की दुनिया के हैं। हम ठहरे एक ज़माने में गीता गुरबाणी आदि रटे हुए और फलां फलां उपनिषद में क्या है इन पचड़ों को बहुत पीछे छोड़ आए हुए और कहाँ ये आजकल के रेइकी वगैरह वगैरह की कसरतों के गुणी जन। बहरहाल मैंने उसे बतलाया कि मैं तो हार्डकोर नास्तिक वैज्ञानिक हूँ पर दूसरों के विचारों का सम्मान करता हूँ। तो इन्हीं हल्की फुल्की बातों में बसयात्रा कटी। मैं दिल्ली का आउटर रिंग रोड आते ही करनाल बाईपास (आज़ादनगर) पर उतर गया। मुझे बस कंडक्टर ने बतलाया था कि वहाँ प्री-पेड बूथ से अॉटो मिल जाएगा।

प्री-पेड बूथ तो था और उससे करीब सौ गज की दूरी पर हर दिशा में खाली अॉटो भी थे, पर बूथ के पास एक भी नहीं। बैसाखियों के सहारे लँगड़ाकर चल रहा एक आदमी सबसे बात कर रहा था और दर तय करके अॉटो दिलवा रहा था। कमाल यह कि वहाँ एक पुलिस का सिपाही बैठा हुआ था, उसकी आँखों के सामने यह सब हो रहा था। मैंने उसे जाकर कहा तो उसने कहा कि दूर खड़े अॉटो के बारे में वह कुछ नहीं कर सकता और जब बूथ पर अॉटो आ जाएगा तो वह सवारी चढ़वा देगा। धीरे धीरे सभी सवारियाँ उस बैसाखियों वाले की तय दरों पर अॉटो पर बैठ चली गईं। मेरे बाद आए कई लोग भी निकल गए। मैं आधे घंटे खड़े खड़े सोचता रहा मैं उनकी तरह नहीं कर सकता - अभी दो ही दिन पहले तो ब्लॉग पर भ्रष्टाचार के खिलाफ लिख कर आया था। बैसाखियों वाला दो एक बार समझा भी गया कि क्यों प्री-पेड रेट से ज्यादा पैसे ठीक हैं। मैं बहस करता रहा कि उनको यूनियन के जरिए सरकार से माँग करनी चाहिए कि किराया बढ़ाया जाए, पर यह गलत तरीका ठीक नहीं। आखिरकार जब मैं घबराहट में हार मान ही लेने वाला था (सड़क पर वह भी जहाँ इतनी ट्राफिक हो, लंबे समय तक खड़े होने की अब आदत नहीं रही दोस्तों) जैसे कुछ मेरी कुछ उसकी जीत हुई, इस तरह से उसने एक अॉटो वहाँ बुलाया और मुझे प्री-पेड के रेट से बीस रुपए ज्यादा देने को कह कर चढ़ा दिया। हार तो मैं गया ही और रास्ते भर सोचता रहा कि कमिशनर को चिट्ठी लिखूँगा।

सभ्य भारतीय - भारतीय सभ्यता

हवाई अड्डे पहुँचा तो वहाँ मछली बाज़ार था। पिछले दिन से लेकर तब तक की रद और देर से जाने वाली उड़ानों के यात्री परेशान इधर उधर। मेरी उड़ान के बारे में पता चला कि समय से दो ही घंटे लेट है।

दो घंटे - तीन घंटे - चार घंटे.........

और फिर............हमें खेद है कि सारी उड़ानें रद।

फिर तो जो नज़ारा था! सारे ग्राउंड स्टाफर लोगों से घिरे हुए। उस वक्त वहाँ विशुद्ध देसी भी यांक ऐक्सेंट में बात कर रहा था। इसक्वीज़ मीं, ह्वोन इज़ दिस स्ठुपिडिठी गोइंग ठू एंड.........दूसरी तरफ से धीरज भरा जवाब - ह्विच स्टुपिडिटी सर। सुंदर लड़की का सुंदर जवाब।

दूसरी सुबह गुड़गाँव के होटल में अखबार में पढ़ा किसी सभ्य भारतीय ने एक ग्राउंड स्टाफ कर्मचारी को पकड़ कर पीट ही दिया। वैसे लोग सचमुच परेशान भी थे। खासकर बच्चों को सँभालती माँएं।

दोपहर तक मैं बंगलौर की उड़ान पर था। दो दिन देर से पहुँच ही गया। तब तक मुझे लेने आया गाड़ीवान जा चुका था। (मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें ठीक समय पर सूचना नहीं दे पाया था।)

आज इतना ही। अगली खेप में भारतीय विज्ञान संस्थान में हुई दुखद घटना।

कइयों ने पूछा है कि मेरे पिछले चिट्ठे में तस्वीर किस बच्चे की है। मेरी बेटी है, अपने पहले जन्मदिन पर (साढ़े चौदह साल पहले)।