Sunday, February 22, 2015

नई संस्कृति में मैं उसके साथ

आज जनसत्ता में प्रकाशित


नई संस्कृति का दूध


उसे शबनम मेरे पास क्यों ले आई थी मुझे नहीं मालूम। शायद शबनम के मन में कहीं से यह बात जम गई थी कि विज्ञान पर बात करनी हो तो मुझसे काम निकल सकता है या यह भी हो सकता है कि मैं उसके साथ औरों से बेहतर पेश आता होऊँ। उसे मेरे पास छोड़ कर दो चार बातें कहकर ही वह चली गई थी। उस पहली मुलाकात के दौरान मैं उसके साथ सज्जनता से पेश आया। बाद में वह दो चार बार फिर आया और हर बार मैंने पहले से अधिक परेशान लहजे में बात की। पहली बार मेरे मन में सचमुच उसके प्रति कोई नाराज़गी नहीं थी। अच्छा भी लगा होगा कि शबनम को लगा कि ऐसे आदमी को मेरे पास लाए। उसके प्रति मेरी थोड़ी सहानुभूति भी थी क्योंकि उसने बतलाया था कि ग़रीबी के कारण वह स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया था। मैं उसे डाँट कर कहता कि वह अंधविश्वासों को विज्ञान नहीं कहे तो उसके चेहरे पर उभरते आक्रोश के बावजूद उसमें बच्चों जैसी सरलता झलकती। मैंने उसे दुबारा स्कूल की पढ़ाई शुरू करने को कहा तो उसका चेहरा तमतमा उठा था। मैं समझ गया था कि स्कूली पढ़ाई को लेकर उसके मन में गहरा आक्रोश है। पर जो उसने कहा वह चौंकाने वाली बात थी। उसका मानना था कि स्कूल में जो पढ़ाया जाता है वह सब ईसाई अंग्रेज़ों और मुसलमानों का रचा झूठ है। यह बात इतनी अजीब थी कि मैं उससे आगे क्या बात करूँ मेरी समझ में नहीं आया।

बाद की मुलाकातों में उसका आना जैसे इस अहसास का बढ़ते रहना था कि आखिर मैं ही क्यों? शबनम उसे किसी और के पास भी तो ले जा सकती थी। एक बार मैंने शबनम से कहा कि यार तुम अजीब हो; ऐसे बंदे को मेरे पास क्यों ले आई; तुम्हें समझ नहीं आया कि यह तुम्हें दुश्मन मानता है? शबनम ने मुस्करा कर कहा था कि इसीलिए तो...! और यह शबनम की पुरानी शैली थी, तिरछी मुस्कान से हमें काबू करने की, जिसके बाद कोई कुछ कह नहीं सकता था।

असल में मैं उससे डरने भी लगा था। ऐसा नहीं कि वह खुद कोई बदमाश हो। दरअसल उसका खुद बदमाश न होना ज्यादा डराने वाली बात थी। उसने खुद को ऐसे विषयों का पंडित मान लिया था, जिनके बारे में उसे कोई समझ न थी, पर वह अपनी समझ कई औरों तक ले जाने में काबिल था और मुझे यह जानकारी मिल गई थी कि उसके साथ पूरी एक टीम है। उसके संगी साथी उतने भोले न थे जितना वह लगता था। तीसरी चौथी बार मिलने के बाद अगर बैठक में हमारी बातचीत के दौरान मेरे परिवार का कोई आ जाता तो मैं जैसे सदमे में आ जाता कि किसी तरह वह तुरंत वापस कमरे के अंदर जाए। पर मैं उसके सामने अपना डर दिखलाना न चाहता था। मैं उसे पूरे दम के साथ कहता कि वह अपनी बकवास बंद करे और मेरा और अपना वक्त बर्बाद न करे। पहली बार जब वह शबनम के साथ आया था मैंने दोनों को चाय नाश्ता भी खिलाया था। दूसरी बार शायद उससे पूछा होगा। बाद में मैंने पूछना भी बंद कर दिया था। हालाँकि शबनम कभी मिलती और मैं शिकायत करता कि कैसे उसने मेरा वक्त बर्बाद किया है तो उसका रवैया ऐसा होता कि जैसे उस बंदे को किसी और के पास न ले जाकर मुझसे मिलाकर उसने मेरे प्रति कोई अहसान किया है; वह जता देती थी जैसे वह मुझे विशेष रुतबा दे रही है। शायद उसे ऐसा लगता था जैसे उसकी इस करतूत से मेरे अहं को सुकून मिला है। मैं मन ही मन उसे कोसता रह जाता।

अब लगता है कि डरते हुए भी मैं उससे मोहित हो रहा था। उसका यह मानना कि वह उन विषयों पर गहरी जानकारी रखता है जिनके बारे में दरअसल वह कुछ नहीं जानता था, मुझे उसके प्रति आकर्षित कर रहा था। आखिर खुद मुझमें वर्षों की पढ़ाई लिखाई के बाद भी ऐसा आत्म-विश्वास न आया था, जैसा उसमें मुझे दिखता था। उसने मुझे बतलाया था कि उसके ज्ञान का रहस्य पढ़ना लिखना नहीं बल्कि उसका वह सपना था जिसमें शिव भगवान ने उसे वर दिया था कि वह सारे कठिन सवालों का जवाब जान जाएगा। इसलिए अब उसके पास उन सारे सवालों के जवाब थे, जो उन जानकार लोगों के पास भी न होंगे जिन्होंने इन सवालों पर शोध किया होगा, अगर उन्होंने इन सवालों को शोध करने लायक माना हो। हाँ, उसके कई सवाल जिनके जवाब उसके पास थे, ऐसे ही थे जिनपर हमारे जैसे समझदार लोग माथापच्ची नहीं करते। जैसे लोग किसी पुल पर से गुजरते हुए सिक्के पानी में क्यों फेंक देते हैं, शनिवार के दिन तेल में सिक्का डाल कर लोग भीख क्यों माँगते हैं, आदि। जन्म मृत्यु के दीगर गंभीर सवालों के साथ ही उसके पास ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब थे, जिन्हें हम सुना-अनसुना कर भूल जाते हैं। उसने बतलाया था कि उस सपने के आने के पहले और बाद में उसने कठिन साधना की है। इसलिए यह मानना ग़लत था कि उसे बिना मेहनत के ही जवाब मिल गए थे। वह हर दिन सुबह और शाम एक एक घंटे ध्यान पर बैठता था।

मैंने उससे ऐसे कई सवालों के अनोखे जवाब सुने, जिन्हें मैंने कभी सवाल ही नहीं माना था। कभी-कभी मैं अपने दोस्तों से हँसते हुए उसकी और उसके इन सवालों और जवाबों की चर्चा करता, पर एक दो बार मैंने उसे सड़क पर अपने चेलों के साथ देखा तो मुझे फिक्र हुई कि उसे पता न चल जाए कि मैं उसका मजाक उड़ाता हूँ। उसके चेलों के चाल-ढंग में आक्रामक तेवर थे। एक दो के पास मोटरबाइक थी।

यह जानकारी मुझे अपने घर काम करनेवाली स्त्री से मिली कि वह उनकी कॉलोनी में रहने लगा है और वहाँ नियमित रूप से सभाएँ होती हैं, जिनमें आसपास के शोहदे इकट्ठा होते हैं। जब मैंने पूछा कि वह क्या बातचीत करते हैं तो अचंभा इस बात का था कि उसने इन शोहदों और दीगर लोगों को भी वही सब बातें सुनाई थीं जो उसने मुझे बतलाई थीं कि आम लोगों के कर्म-कांडी रस्म, जिन्हें मेरे जैसे लोग अंधविश्वास मानते हैं, वे सब विज्ञान पर आधारित हैं। वे उसका सम्मान करते थे और उसके साथ और इलाकों में जाते जहाँ वह सभाएँ कर लोगों को वहीं बाते बतलाता कि सनातनी रस्मों का तार्किक आधार है। कुछ ही दिनों में उसके यहाँ भजन मंडली भी इकट्ठा होने लगी थी और फिर एक दिन किसी ने बतलाया कि वहाँ तो आश्रम खुल गया है।

एक दिन किसी काम से मैं उस कॉलोनी के पास से गुजर रहा था तो दूसरी ओर से शबनम आती दिखी। वह मोपेड पर सवार बीट पर जा रही थी। मुझे देखकर वह रुकी और उसने कहा कि बाबा सिरीधर के यहाँ मुख्यमंत्री आने वाले हैं, वहाँ जा रही है। पूछने पर समझ में आया कि यह तो वही था, उसने अपना नाम श्रीधर बाबा रख दिया था, हालाँकि उसका असली नाम राजिंदर था। मैंने आश्चर्य प्रकट किया और शबनम को याद दिलाया तो उसे जैसे अचानक याद आया कि साल भर पहले वह बाबा सिरीधर को लेकर मेरे पास आई थी। वह भूल ही गई थी कि उसी ने मुझसे इस बाबा बने भूतपूर्व जिज्ञासु को मुझसे मिलाया था। मैं मन ही मन रिपोर्टरों में गंभीरता के अभाव पर सोचता रहा। शबनम ने मुझे भी साथ आने को कहा। अखबारों के रिपोर्टर ऐसा करते हैं। उन्हें लगता है कि हम प्रोफेसर टाइप के लोग सब एक जैसे होते हैं और वेहले ही घूमते रहते हैं। कोई बहाना बनाकर मैं उससे छूटा। तब तक दूर से माइक पर आवाज़ें आने लगी थीं। शबनम को भी जल्दी थी कि वह सभा में पहुँचे।

मैं चलते हुए माइक से आती आवाज़ों को सुनने की कोशिश कर रहा था। पर वह रूटीन सी बातें थीं जैसी ऐसी किसी भी सभा से आती हैं। फिर कोई भजन गाने लग गया और मैं अपने काम पर आगे निकल गया। लौटते हुए अंजाने में ही मैं कोई धुन गाते हुए आ रहा था। अचानक मुझे अहसास हुआ कि यह उस भजन की धुन थी जो मैंने जाते हुए सुनी थी। कोई अजीब बात नहीं थी, फिर भी मुझे कोफ्त हुई और मैं सचेत होकर कोई और धुन गुनगुनाने लगा। पर थोड़ी देर में मैं वापस उसी धुन पर था।

इस घटना के बाद कई महीने बीत गए। इसी बीच शहर की उस कॉलोनी में बाबा का आश्रम बढ़ता चला। अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेता वहाँ आते और बाबा सिरीधर से आशीर्वाद माँगते। बाबा का बढ़ता प्रभाव उसके भक्तों पर नशे की तरह काम कर रहा था। वे आपस में बातें करते कि बाबा ने देश और धर्म के लिए जो कष्ट सहे हैं, उससे बड़े-बड़े नेता, साइंटिस्ट, डॉक्टर और समाज के कई वर्गों के लोग उनसे प्रभावित हैं।

साल गुजरने के बाद पता चला कि बाबा के आश्रम में कुछ पैसों का घपला हुआ है और भक्तों के दो गुटों में संघर्ष छिड़ गया। पराजित गुट में से एक ने दावा किया है कि बाबा सिरीधर के करीब रहे कुछ लोग अनैतिक कामों में लिप्त हैं और यहाँ तक कि वे हाल में हुए किसी हत्याकांड से भी जुड़े हैं। उसके बारे में सोचने की कोई वजह मेरे पास नहीं थी, पर एक बार जब विभाग में वार्षिक सिंपोज़ियम के लिए कुलपति के न आ पाने पर किसी अध्यापक ने सुझाव रखा कि सिरीधर बाबा को बुलाया जाए तो मैंने मुखर होकर विरोध किया।

दूसरे पक्ष का तर्क था कि बाबा सिरीधर ने प्राचीन भारतीय विज्ञान पर बहुत काम किया है और कई पत्रिकाओं मे उसके लेख आते रहे हैं। यह सुनकर मैं अचंभे के अहसास से खुद को सँभाल ही रहा था कि किसी ने कह दिया कि सिरीधर बाबा ने अक्सर अपनी सभाओं में मेरा नाम लिया है और अपने तर्कों के समर्थन में मेरे साथ हुई चर्चाओं का ज़िक्र किया है। गुस्से के मारे मुझसे कुछ कहा नहीं जा रहा था। आखिरकार उसे नहीं बुलाया गया, पर मैं इस अनुभव से बहुत परेशान हो गया। मैंने सपने में देखा कि मैं उसे डाँट रहा हूँ और वह गुस्से में मेरी ओर लाल आँखें कर ताक रहा है। घबराकर मैं जाग जाता। ऐसा दो चार रात होता रहा। फिर धीरे-धीरे वह मेरे दिमाग से उतर गया।

आज जब शबनम ने मुझे बतलाया कि बाबा सिरीधर की साँप के काटने पर मौत हो गई तो सबसे पहले मुझे वही घटना याद आई कि कैसे मैं उस भजन की धुन से छूट न पा रहा था। खैर, हुआ यह कि राजिंदर उर्फ बाबा सिरीधर साँप के दूध पीने का कोई तर्क दे रहा था, जब किसी ने कह दिया कि साँप तो दूध पीता ही नहीं। यह सुनकर उसने किसी से कहकर साँप मँगवाया और उसे दूध पिलाने की कोशिश की। जब साँप ने दूध पिया नहीं तो उसने ज़बरन साँप की गर्दन पकड़ कर उसे पिलाने की कोशिश की। वह साँप को डाँट फटकार कर समझा रहा था कि उसे दूध पी लेना चाहिए। जो सपेरा साँप लेकर आया वह चीखता रह गया कि साँप के अभी ताज़ा नए दाँत निकल आए हैं और वह ज़हरीला हो सकता है। पर भीड़ के शोर में सपेरे की आवाज़ दब गई। लोगों को लगा कि बाबा चमत्कार दिखा रहे हैं और जब तक किसी ने स्थिति को समझकर ऐंबुलेंस बुलाई, राजिंदर मर चुका था। शबनम का कहना था कि कॉलोनी में भीड़ पर नियंत्रण करना मुश्किल हो गया है और लोगों में बहस जारी है कि सिरीधर बाबा ने जानबूझकर नाग देवता से मशविरा करते हुए देह त्यागा था या कि अंजाने में वह ग़लती कर बैठा था।

रात को जब पत्नी ने मुझे झकझोरते हुए जगाकर पूछा कि मैं नींद में चीख क्यों रहा था, तो मुझे हल्का सा याद आया कि राजिंदर ने मेरी गर्दन पकड़ी हुई थी और वह पूरी भीड़ के सामने मुझसे तगाड़ी में रखे दूध को पीने को कह रहा था। संयोग से शनिवार की रात थी, फिर भी मैं नींद पूरी नहीं कर पाया और सुबह उठ गया। सुबह अखबार में रविवारी पत्रिका में एक युवा कवि की कविता थी जिसमें यह कहा गया था कि ये जो अंधविश्वासों को विज्ञान कहने वाले लोग अचानक चारों ओर दिखलाई पड़ने लगे हैं ये युगों से वंचित रहे हैं और हमें नई संस्कृति बनाने में उनका साथ देना पड़ेगा। यह वही अखबार था जिसमें शबनम काम करती थी। एकबारगी मुझे ध्यान आया कि हाल में कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि ब्रह्मांड में ब्लैक होल यानी समस्त भौतिक जगत को खा जा सकने वाले अंधकूप सचमुच हैं नहीं। मुझे कहना पड़ेगा कि अंधकूप हैं - वे हमारे आसपास ही हैं। इसके पहले कि हम सब इसमें समा जाएँ मुझे कहना ही पड़ेगा। दिनभर मैं यह सोचता रहा। रविवार की रात को मैंने सपना देखा कि मैं मोहनदास करमचंद गाँधी से बातें कर रहा हूँ। हमारे बीच तगाड़ी में दूध है। अचानक मैंने गाँधी की गर्दन पकड़ ली और उसे तगाड़ी तक दबाकर कहने लगा कि पी दूध पी। फिर एक झटके से मैं जाग उठा। पड़ोस में किसी घर में कोई जोर से हँस रहा था। मुझे लगा रात के सन्नाटे में युवा कवि हँस रहा है और मुझे बधाई दे रहा है कि नई संस्कृति बनाने में मैं उसके साथ हो गया हूँ।

Thursday, February 19, 2015

मिस्टा' कुर्त्ज़ ही डेड:‍ 'अंधकूप' की भूमिका


 
वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित जोसेफ कोनराड के उपन्यास 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' के मेरे किए अनुवाद 'अंधकूप' की भूमिका यहाँ डाल रहा हूँ, पर उसके पहले किताब के आने की खबर पर मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार की टिप्पणी:
सलवा जुडूम पर अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी उपन्यास के अंश का उपयोग किया था: 
 जब हम, हमारे सामने आए इन मामलों पर विचार कर रहे थे तो हमें जोसेफ कोराड के प्रसिद्ध उपन्यास ‘हाॅर्ट ऑफ डार्कनेस’ की याद आई। कोनराड ने अंधकार के तीन स्तरों की कल्पना की हैः 
1. जंगल का अन्धकार, जो जीवन और उदात्त या लोकोत्तर इस संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है संसाधनों के लिए औपनिवेशिक विस्तार का अंधकार और अंत में ऐसा अन्धकार, जिसका प्रतिनिधित्व अमानवता और बुराई करती है। मान लीजिए कि किसी को सर्वोच्च ताकत दे दी जाती है जिसके लिए वह किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। इसके साथ ही असीम अधिकार हासिल करने वाले को यह गुमान हो जाता है कि जो वह कह रहा है वही सबसे व्यवहारिक और अनिवार्य चीज है। ऐसे में वह इस तीसरे अन्धकार का शिकार हो जाता है। 
2. जोसेफ कोनराड का उपन्यास अफ्रीका के उष्णकटिब्न्धीय; या ट्रोपिकल जंगलों के संसाधनों की सम्पन्नता वाले अन्धकार में स्थित है। यहाँ यूरोपीय ताकतें अपनी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी और विस्तारवादी नीतियों के साथ सक्रिय हैं। ये ताकतें हाथी दाँत के अपने क्रूर व्यापार को ज्यादा फैलाने की कोशिश करती हैं। जोसेफ कोनराड यह बताते हैं कि इस काम को सही बताने वाले लोगों की दिमागी अवस्था कैसी होती है। कोराड के अनुसार इनकी दिमाग की अवस्था बहुत ही वीभत्स और घिनौनी होती है। ये लोग बिना अपनी ताकत का इस्तेमाल करते वक्त किसी विवेक, मानवता या संतुलन का ध्यान नहीं रखते हैं। उपन्यास का मुख्य चरित्र कुर्त्ज़ मरते वक्त कहता है ‘हाॅरर!, हाॅरर!’; बीभत्स, बीभत्स। कोराड अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर 1890 से 1910 के बीच कांगों की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में बताते हैं। उनके अनुसार, यह ‘मानव चेतना के इतिहास पर ध्ब्बा लगाने वाली भ्रष्टतम लूट थी।
3. हमने छत्तीसगढ़ के हालात के बारे में प्रतिवादियों द्वारा दिए गए तर्कों को विस्तार से सुना। इससे हमारे सामने यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई कि प्रतिवादियों ने राज्य के कार्य करने के ऐसे तरीकों को अपनाया है जिससे संवैधनिक मूल्यों की गंभीर उपेक्षा हुई है। इससे राष्ट्रीय हित को गंभीर नुकसान हो सकता है। खासतौर पर इससे मानवीय गरिमा, समूहों के बीच बंधुत्व तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चत रखने के इसके लक्ष्यों को गहरी चोट पहुँच सकती है। मानवता के सामूहिक अनुभव से यह बात स्पष्ट होती है कि असीमित सत्ता खुद अपना सिद्धांत बन जाती है। अपनी सत्ता का उपयोग ही इसका मकसद बन जाता है। इसका नतीजा लोगों के अमानवीय बनाने के रूप में सामने आया है। इसके कारण साम्राज्यवादी शक्तियों ने प्राकृतिक संसाधनों के लिए धरती का असीमित दोहन किया है। दरअसल इसी के कारण दुनिया को दो भयानक विश्व युद्धों का सामना करना पड़ा है। असीमित सत्ता के बारे में मानवता के इस सामूहिक अनुभव को देखते हुए आधुनिक संविधानवाद यह प्रावधान करता है कि राज्य की सत्ता का उपयोग करने वाले यह दावा नहीं कर सकते हैं कि राज्य किसी कानूनी रोक-टोक के बगैर किसी के भी खिलाफ हिंसा कर सकता है उन्हें अपने नागरिकों के खिलाफ इस तरह का दावा करने की इजाजत तो बिल्कुल ही नहीं दी जा सकती है। इसके अलावा, आधुनिक संविधानवाद ने इस अवधारणा को भी स्वीकार किया है कि हर नागरिक की स्वाभाविक मानवीय गरिमा होती है। इस केस की सुनवाई से छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों की घटनाओं और परिस्थितियों की एक धुंधली तस्वीर सामने आती है। हम इससे सिर्फ इसी नतीजे पर पहुँच पाए कि प्रतिवादी हमें संवैधनिक कार्रवाई के ऐसे रास्ते की ओर ले जा रहे हैं, जहाँ इन सबके अंत में हमें भी यह कहना पड़ेगा हॉरर हॉरर; बीभत्स, बीभत्स।

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यह जानकर सचमुच बहुत हौसला बढ़ता है कि मैंने ऐसी किताब का अनुवाद किया है, जिसमें से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने उद्धरण इस्तेमाल किए हैं। अब पढ़िए भूमिका जो मैंने लिखी है - 
भूमिका
"मिस्टा' कुर्त्ज़ ही डेड" - टी एस एलियट ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'द हॉलो मेन (खोखले लोग)' की शुरूआत जोसेफ कोनराड के उपन्यास 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' से ली गई इस साधारण-सी उक्ति (मिस्टर कुर्त्ज़ गुजर गया) से की हैकोनराड के अपने शब्दों में - 'यह एक ऐसे पत्रकार के बारे में एक स्वच्छंद कहानी है जो (अफ्रीका के) भीतरी प्रदेश में किसी अड्डे में मैनेजर बन कर जाता है और कबीलाई लोगों का देवता बन जाता है। इस तरह से देखें तो यह ठिठोली सी लगती है, पर ऐसा है नहीं। ' 1 वाकई बीसवीं सदी का श्रेष्ठ कवि उपन्यास के मुख्य चरित्र की मौत की घोषणा को अपनी प्रसिद्ध कविता की प्रस्तावना की तरह कहता है, तो सोचना पड़ता है कि आखिर उस चरित्र में क्या ऐसी खासियत है।
कोनराड ने कांगो के बेल्जियम के अधीन वाले औपनिवेशिक क्षेत्रों में हो रहे बेइंतहा ज़ुल्म से प्रभावित होकर यह उपन्यास लिखा था। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक तक अफ्रीका महाद्वीप के अंदरूनी इलाकों में यूरोपी साम्राज्यों की पैठ बढ़ने लगी थी और हाथी-दाँत और दूसरी वन-संपदा की बेशुमार लूट हो रही थी। इस लूट के लिए अफ्रीका के मूल निवासियों के साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता था। कोनराड स्वयं एक बेल्जियन स्टीमर के कप्तान रह चुके थे और उन्होंने समुद्री यात्राओं और नौ-वाहनों के अपने अनुभव का बखूबी से इस उपन्यास के लिखने में इस्तेमाल किया। इस उपन्यास को पढ़कर यूरोप के उदारवादी हलकों में हलचल मची और उपनिवेशों में बेहतर स्थितियों के पक्ष में सहानुभूति का माहौल बना और कुछ हद तक प्रशानिक सुधार भी किए गए।
एक भारतीय पाठक के लिए 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' का पहला पाठ उपनिवेशवाद विरोध होना स्वाभाविक है। अफ्रीकी देशों में भी बीसवीं सदी में यूरोपी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष भारत के साथ-साथ ही चला। अधिकतर अफ्रीकी देश भारत के बाद ही आज़ाद हो पाए, पर साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ यह लड़ाई कई मायनों में साझी थी। अफ्रीकी और एशियाई देशों में आज़ादी की लड़ाई ने परस्पर प्रेरणा ली। आधुनिक यूरोपी साम्राज्य अपने पहले आए साम्राज्यों से कई मायनों में अलग थे, क्योंकि उन्नीसवीं सदी में यूरोप के अधिकतर मुल्कों में औद्योगिक क्रांति का असर दिखने लगा था और पारंपरिक समाज की तुलना में मानव-मूल्यों में बड़ी तब्दीलियाँ हो चुकी थीं। पर अफ्रीकी और एशियाई देशों में जीवंत परंपराएँ थीं और इसलिए इन देशों में आज़ादी की लड़ाई को परंपराओं और सभ्यताओं के संघर्ष की तरह भी देखा जाता है। राजनैतिक आज़ादी मिली, पर यूरोप के आधुनिक मूल्यों का वर्चस्व इन देशों में लगातार बढ़ता रहा। आधुनिकता के व्यक्तिवादी और कुदरत पर इंसान की जीत के नज़रिए से होने वाले भयंकर दुष्परिणामों को सारी दुनिया के मानववादी चिंतक देख रहे थे। कोनराड उनमें से एक थे।
'हार्ट ऑफ डार्कनेस' के वैचारिक पक्ष में यूरोपी आधुनिकता पर सवाल उठाने के अलावा मानव नियति पर भी गहरा अवलोकन है। सचमुच यह उपन्यास बुनियादी मानव-मूल्यों में भले-बुरे, दृश्य-अदृश्य और सही-ग़लत जैसे द्वंद्वों की तलाश का आख्यान है। उनकी भाषा में भी अक्सर परस्पर विरोधी मूल्यों के द्योतक शब्द इकट्ठे आते हैं। विरोधाभास का अतिरेक अंततः एक खालीपन पैदा करता है। यही वह डार्कनेस या अंधकार है, जो दरअसल कई रंगों के साथ पेश आता है। शायद इसी कारण से एलियट ने अपनी कविता की शुरूआत इस उपन्यास से ली गई उक्ति से की है।
उपन्यास में भावनाओं की सबसे अधिक सघनता प्रेम-प्रसंगों में दिखती है। इस तरह से इसे एक प्रेम-कथा भी कहा जा सकता है। पर शैली और कथ्य के लिहाज से मूलतः यह एक आधुनिक कृति ही है। इसमें आधुनिकता की आलोचना है, पर यह थॉमस हार्डी और दीगर अंग्रेज़ी रोमांटिक उपन्यासकारों से बिल्कुल अलग अंदाज़े-बयाँ के नए पैमाने गढ़ती है। विक्षिप्तता का अनोखा और सोचा-समझा प्रयोग है, जो महज किसी एक व्यक्ति का मनोरोग नहीं, बल्कि अपने समय और समाज की तमाम विकृतियों का प्रतीक है। यह विक्षिप्तता किस अंधकार से जनमती है, वह खुद अंधकार है या अंधकार के प्रति खिंचे जाते इंसान की नियति की वाहक है, ऐसे कई सवाल यह उपन्यास सामने लाता है। कुल मिलाकर कोनराड का यह उपन्यास इतने आयामों के साथ बीसवीं सदी की शुरूआत में सामने आया (प्रकाशन 1899 में) कि शायद ही किसी और कृति की तुलना इसके साथ की जा सकती है। संभवतः उपन्यास लेखन में प्रारंभिक आधुनिक कृतियों में इसे सबसे बेहतर माना जाना चाहिए। बाद के साहित्यकारों पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ा। बीसवीं सदी के अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपी भाषाओं के सभी बड़े रचनाकारों ने इस बात को स्वीकारा है। इनमें एलियट, लॉरेंस, फित्ज़जेरल्ड, फॉकनर, हेमिंग्वे से लेकर मार्ख़ेज़, नायपॉल और रशदी आदि सभी शामिल हैं। उनकी कृतियों पर आधारित या प्रेरित फिल्में भी काफी प्रसिद्ध हुई हैं। वियतनाम की जंग पर बनी फ्रांसिस फोर्ड कोपोला की प्रसिद्ध फिल्म 'एपोकैलिप्स नाऊ' हार्ट ऑफ डार्कनेस पर आधारित है। कथानक के स्तर पर उनके लेखन का विषय भले ही यूरोपी साम्राज्य और उपनिवेशों पर केंद्रित और उनके अपने नौ-वाहनों के अनुभवों पर आधारित रहे, उनकी मुख्य और गहरी चिंता मानव-मन और मूल्यों की गहरी पड़ताल है। उनमें एक खास तरह की दूरदर्शिता थी, जो बाद के समय में और आज भी मानवता और धरती पर छाए घोर संकटों को देखते हुए सार्थक प्रमाणित होती रही है। 1898 में अपने स्कॉट मित्र कनिंगहम ग्रेहम को उन्होंने लिखा: "मानव की त्रासदी उसके कुदरत का शिकार होने में नहीं, बल्कि यह है कि हम इस बारे में सचेत हैं। अपनी गुलामी, तकलीफें, आक्रोश, संघर्षों के बारे में जानकारी मिलते ही हमारी त्रासदी शुरू हो जाती है।” पर वह खुद को त्रासदी का लेखक नहीं मानते थे। ऐसे प्रमाण मौजूद हैं कि निजी जीवन में वह अक्सर अवसाद-ग्रस्त होते थे। बीस साल की उम्र में कर्जा न मिटा माने के ग़म में खुदकुशी की कोशिश भी की थी।
हिंदी के पाठकों के लिए 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' का अनुवाद पेश करते हुए हमें खुशी है। कोनराड ने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया है जो आज या तो उचित नहीं माने जाते या उनके अर्थ बदल गए हैं। गोरों की नज़र में काले लोग हेय थे और 'निगर' शब्द आम प्रचलन में था। हमने इस शब्द को बदला नहीं है। हम 'ब्लैक' के लिए 'अश्वेत' सही नहीं मानते, क्योंकि इसमें 'श्वेत' को संदर्भ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। जंगल में लूट के लिए आए गोरों के प्रति व्यंग्य प्रकट करते हुए कोनराड ने उनके लिए 'पिलग्रिम' शब्द का इस्तेमाल किया है। हमने जहाँ तक उचित लगा, इसका अनुवाद 'तीर्थयात्री' रखा और बाद में 'महानुभाव' का इस्तेमाल किया है। स्त्रियों के प्रति कोनराड अपने समय के उदारवादियों जैसी ही सीमित समझ दिखलाते हैं। वे हार्डी की परंपरा से एक सीमा तक ही अलग खड़े दिखते हैं। आदर्श स्त्री का मिथ निश्चित रूप से उन पर भी सवार है। किसी भी रचनाकार की तरह कोनराड के अपने पूर्वग्रह हैं और वे उनके लेखन में दिखते हैं। कठिन परिस्थितियों में जीते हुए उनको समझौते भी करने पड़े थे। अपने लेखन में कहीं भी यूरोपी साम्राज्यवाद की आलोचना करते हुए ब्रिटेन की मिसाल नहीं लेते। इसीलिए कुछ आलोचकों ने कोनराड के लेखन पर आपत्ति भी दर्ज़ करवाई। इस अर्थ में 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' विवादास्पद भी रहा। 1975 में लिखे अपने आलेख "ऐन इमेज ऑफ अफ्रीकाः रेसिज़्म इन कोनराड''हार्ट ऑफ डार्कनेस'" में प्रसिद्ध नाईजीरियन उपन्यास लेखक चिनुआ आचीबे ने कोनराड को जन्मजात नस्लवादी कहा। आचीबे का मत है कि यह उपन्यास बड़ी कृति नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें मानवता के एक हिस्से से उसका व्यक्तित्व छीनकर अमानवीकरण को सराहा गया है। वे कोनराड को प्रतिभाशाली और तड़पता हुआ शख्स मानते हैं, जो (अपने चरित्र मार्लो के जरिए) अफ्रीका के मूल निवासियों को महज 'टाँगें', 'कोण', 'चमकती सफेद आँखों की पुतलियाँ', आदि में संकुचित कर देते हैं। साथ ही वह (डरते हुए) उन मूल निवासियों के साथ अपना एक संबंध भी देख पाते हैं। आचीबे की यह आपत्तियाँ वैसी ही हैं जैसे अक्सर दलित आलोचक प्रेमचंद की रचनाओं में दलित चरित्रों का विवरण आपत्तिजनक मानते हैं। हालाँकि इन आपत्तियों के जवाब आलोचना-साहित्य में दिए जाते रहे हैं, इनको हम दरकिनार नहीं कर सकते और इन पर और विवेचन की ज़रूरत रह जाती है। लोकतंत्र के बारे में भी कोनराड का नज़रिया संकीर्ण ही था। इसकी वजह उनका यह मानना था कि मानव के स्वभाव में लालच, धोखेबाजी आदि प्रवृत्तियाँ हावी हैं और लोकतंत्र में ऐसे स्वभाव के लोगों के सत्तासीन और ताकतवर होने की संभावना बढ़ जाती है। पोलैंड और दीगर मुल्कों के बारे में उनके राजनैतिक विचार समय के साथ बदलते रहे, पर उनके मन में आखिर तक मानव-स्वभाव और संगठित राजनैतिक संरचनाओं के बारे में गहरी निराशा भरी समझ बनी रही।
कोनराड जन्म से अंग्रेज़ी भाषा नहीं बोलते थे। वे जन्म से पोलिश भाषी थे। उनका जन्म 1857 में पहले कभी पोलैंड राज्य के अधीन रह चुके और बाद में रूस के अधीन, आज के यूक्रेन के क्षेत्र में हुआ और शुरूआती परवरिश वहीं हुई। राजनैतिक चेतना उन्हें विरासत में मिली। पिता अपोलो कोर्त्ज़ेनिवोस्की साहित्य और राजनीति में सक्रिय थे।2 उनके नाम के तीन हिस्सों में 'कोनराड', कवि ऐडम मिकीविक्त्ज़ की कविताओं के नायकों के नाम हैं। योसेफ (जोसेफ) नाना का और बीच का नाम त्योडोर दादा का नाम था। रूसी साम्राज्य के खिलाफ पिता की सक्रियता के कारण परिवार को लगातार एक से दूसरी जगह भागते रहना पड़ा। राजशाही ने उन्हें निष्कासित कर दूर ऐसे इलाके में भेज दिया जहाँ मौसम की मार के अलावा ज़मीन भी उपजाऊ न थी। माँ ईवा बॉव्रोव्स्का को बड़ी तकलीफें झेलनी पड़ीं और 1860 में यक्ष्मा से चल बसीं। कोनराड ने भूगोल के अलावा कुछ और पढ़ने-लिखने में रुचि न दिखलाई। उनके मामा ने चिकित्सकों की सलाह पर उन्हें नाविक के काम में लगा दिया ताकि कठिन परिस्थितियों को झेलते हुए अपने त्रासद अतीत और कमज़ोर स्वास्थ्य से उबर सकें। इसके पहले ही कुछ समय फ्रांस में रहकर वे फ्राँसीसी भाषा में पारंगत होने के अलावा थोड़ी बहुत लातिन और ग्रीक भाषाएँ भी सीख चुके थे और औपचारिक शिक्षा में अरुचि के बावजूद भौतिकी, इतिहास और साहित्य में उनकी महारत थी। ऑस्ट्रिया जैसे दीगर मुल्कों में नागरिकता पाने की असफल कोशिश के बाद 1886 में उन्होंने ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त की। बीस साल की उम्र के बाद अंग्रेज़ी सीखी। इसलिए उनकी भाषा में अंग्रेज़ों या जन्म से अंग्रेज़ी जानने वालों जैसी स्वाभाविकता नहीं है। पर वे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने भाषा का ऐसा अनोखा प्रयोग अपने उपन्यासों में किया है कि उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक से बीसवीं सदी के आरंभ के अंग्रेज़ी साहित्य में उनकी विशिष्ट पहचान बनी है। बहुभाषी होने के अपने अनुभव को वे उपन्यास के चरित्रों में भाषा के प्रति विविध मनोभावों में प्रकट करते हैं। उनकी शब्दावली विपुल है। हमने अनुवाद में कुछ संदर्भों को स्पष्ट करने के लिए फुटनोट दिए हैं। आशा है इससे पाठकों को सुविधा होगी।
उनके लेखन के बारे में कहते हुए टी ई लॉरेंस लिखते हैं - “गद्य लेखन में उनसे बड़ा तहलका और कोई न था। काश कि मैं जान पाता कि वे कैसे हर अनुच्छेद में (...वे वाक्य कदाचित ही लिखते, हमेशा अनुच्छेद ही लिखते थे...) लहरों की तरह उमड़ना ले आते हैं, जैसे कोई घंटी बजने के बाद ऊँची ध्वनि-तरंगें पैदा कर रही हो। उनका लेखन साधारण गद्य की लय से नहीं, बल्कि उनके दिमाग में चल रहे प्रवाह से बनता है; और चूँकि वह कह नहीं पाते कि वह क्या कहना चाहते हैं, इसलिए उनका लिखा हर कुछ एक तरह की भूख में, कुछ न कह पाने या न सोच पाने के संकेत में सिमट जाता है। इसलिए उनकी किताबें अपने वास्तविक आकार से बड़ी दिखती हैं।..” उनके समकालीन आलोचकों ने उनके जटिल और गंभीर आख्यानों और निराशामूलक दृष्टि से पाठकों की विरक्ति की बात कही, पर बाद की पूरी सदी में समूचे विश्व में हुई घटनाओं से उनके लेखन का महत्त्व साफ होता गया। इस तरह उन्हें अपने समय के आगे का लेखक भी माना गया है।
आलोचकों का मानना है कि उनकी अंग्रेज़ी पर फ्राँसीसी और पोलिश भाषाओं का गहरा प्रभाव रहा है। स्वयं कोनराड ने अंग्रेज़ी में लिखने को महज सुविधा कह कर दरकिनार किया है। उनका कहना था कि फ्राँसीसी या पोलिश जैसी भाषाओं में लिखने के लिए उन्हें कला और कथ्य दोनों नज़रिए से अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। एक रोचक संदर्भ यह है कि कोनराड के सबसे पहले साहित्यिक अभ्यास उनके ख़तों को माना जाता है जो उन्होंने थोड़े समय भारत में 1885-86 में संक्षिप्त आवास के दौरान अपने वरिष्ठ पोलिश साथी योसेफ स्पिरिडियॉन को लिखे थे। इन ख़तों में पोलैंड के बारे में उनकी हताशा और इंग्लैंड में बसने के इरादे की झलक है। उनका एक और उपन्यास 'द निगर ऑफ द "नारसिसस"' का कथानक भी मुंबई (बांबे) बंदरगाह से शुरू होता है। इस उपन्यास की भूमिका में साहित्य में कला और प्रतिबद्धता के बारे में उन्होंने लिखा है। हमने इस अनोखे आलेख का अनुवाद भी इस पुस्तक में रखा है। यूरोपी देशों और आधुनिकता के साथ बाद में तीसरी दुनिया कहलाए देशों के बारे में कोनराड की समझ और दृष्टि भारत पर भी एक जैसी लागू होती है, हालाँकि जिस तरह की कबीलाई दुनिया से अफ्रीका में उनका रूबरू हुआ था, वैसा भारत में नहीं हुआ था।
कोनराड की मृत्यु 1924 में हुई। उनके जीवन और साहित्यिक काम के बारे में अनगिनत आलेख और किताबें लिखी गई हैं। यूरोप में कई जगह उनकी याद में स्मारक हैं। उनके महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में, 2013 में, रूस के वोलोग्दा शहर में उनकी याद में स्मारक लोकार्पित हुआ – इस शहर में 1862-63 के दौरान उनके परिवार को निष्कासन की सज़ा भुगतते रहना पड़ा था।
अनुवाद की परिकल्पना से लेकर इसे पूरा करने और इसके प्रकाशन में नंदकिशोर आचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। उन्होंने न केवल यह काम सुझाया, साल भर अग्रज की तरह स्नेह और प्रोत्साहन देते रहे और पूरा हो जाने पर प्रूफ पढ़ा और भाषा का परिमार्जन किया। यह अतिशयोक्ति न होगी कि उनके बिना यह काम होना ही नहीं था।

1The Collected Letters of Joseph Conrad, Vol. 2 (The Cambridge Edition of the Letters of Joseph Conrad), Cambridge University Press, 1986.

2सामान्य जानकारियाँ विकीपीडिया से ली गई हैं (http://en.wikipedia.org/wiki/Joseph_Conrad).

अंधकूप


 

जोसेफ कोनराड के उपन्यास 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' का मेरा अनुवाद 'अंधकूप' वाग्देवी प्रकाशन से आ चुका है। पुस्तक मेले में मिल जाएगी। आवरण बेटी शाना की आठ साल पहले बनाई तस्वीर से बना है। अगले पोस्ट में इसकी भूमिका होगी।

Tuesday, February 17, 2015

ग़जब


आम
भला आदमी
तकरीबन तंदरुस्त
ईमान की कमाई में सुबह शाम जुटा।

सुबह मुझे पूछता है
इस तरह की खबरें पढ़कर आपको अवसाद नहीं होता
पूछता है मुस्कुराता है
चिंतित मेरे बारे में

वह पढ़ता है, जैसे 'साइंस टूडे' पत्रिका
या 'पंजाब केसरी' अखबार। भगवान से डरता है
इसलिए मेरे अवसाद से डरता है।

वह जानता है कारण
मीलों दूर होती हत्याओं के
उसे चिंता नहीं होती अपनी
पत्नी या बेटी की
जिन्हें देखता मैं हर रोज खबरों में।

(दस बरस : दूसरी जिल्द-2002)

Monday, February 16, 2015

असली ख़लिश

प्रसिद्ध अमेरिकी कवि फिलिप लेवीन का कल देहांत हो गया। भारतभूषण 
तिवारी ने उनकी एक कविता का अनुवाद किया था जो वेब पत्रिका 'अनुनाद
में आया था और एक आलेख का अनुवाद किया था जो 'प्रतिलिपि' में आया था।

मैंने कल भाषा पर जो पोस्ट डाला था, उसमें जनसत्ता में आने वाले जिस लेख का जिक्र किया था, वह आज 'भाषाई मानवाधिकार का मसला' शीर्षक से आ गया है।  उसे यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ। 


भाषा का मुद्दा आखिर क्या है


इस साल मराठी भाषा में साहित्य लेखन के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले भालचंद्र नेमाड़े ने कहा है कि अंग्रेज़ी की वजह से भारतीय भाषाएँ खत्म हो रही हैं। वे इससे भी आगे बढ़कर यहाँ तक कह गए हैं कि हमें अंग्रेज़ी को हटाने के लिए प्रभावी कदम लेने चाहिए। सलमान रश्दी और सर विदिया नायपॉल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनका लेखन भारतीय साहित्य में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसके मुकाबले कहीं भी नहीं है। अंग्रेज़ी की पैरवी करने वालों ने उनकी मूल बात को नज़रअंदाज़ करते हुए रश्दी के साथ उनकी झड़प का नोटिस लिया। रश्दी ने नेमाड़े को 'ग्रंपी ओल्ड मैन' कहा और अब हम इंतज़ार में हैं कि पंद्रह साल पहले भारतीय साहित्य पर संकलन की भूमिका लिखते हुए जब रश्दी ने भारतीय भाषाओं में साहित्य को सिरे तक नकार दिया था, उसे याद करते हुए उन्हें कोई अनपढ़ अंग्रेज़ीपरस्त कब कहने वाला है।

अंग्रेज़ी को लेकर आखिर क्या समस्या है? आजकल कई लोग यह सवाल उठाते हैं। इसके वाजिब कारण हैं। आखिर अंग्रेज़ी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है। विज्ञान और दीगर तकनीकी विषयों में अंग्रेज़ी जाने बिना आप कहीं के नहीं रहते। कुछ दलित बुद्धिजीवियों का मानना है कि अंग्रेज़ी ही दलितों की मुक्ति का रास्ता है। अंग्रेज़ी के खिलाफ बोलने वाले अक्सर संघी टाइप के सीनापीटू स्वघोषित राष्ट्रभक्त होते हैं, जिनसे देश और समाज को खतरा बढ़ता जा रहा है। कई तो यह सपना देखते रहते हैं कि संस्कृतनिष्ठ जिस भाषा को सरकारी हिंदी कहा जाता था, वह कभी विश्व-भाषा बन जाएगी। पर नेमाड़े की मूल बात कुछ और है, जिसको समझना ज़रूरी है। यह ध्यान रहे कि नेमाड़े खुद आजीवन अलग-अलग स्तर पर अंग्रेज़ी पढ़ाते रहे हैं। इसलिए उनको अंग्रेज़ी का विरोधी मानना ग़लत है।

अंग्रेज़ी को लेकर समस्या भाषा की नहीं, बल्कि अंग्रेज़ीवालों की है, जो इस समाज का सुविधासंपन्न वर्ग हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, पर हम जब देश की बात करते हैं तो अक्सर उसमें से लोक गायब रहता है। भाषा की समस्या लोक से जुड़ी है। पिछले दो सौ सालों से तालीम की भाषा का संदर्भ महत्वपूर्ण होता चला है, क्योंकि पिछले ज़मानों की तुलना में आधुनिक अर्थ में साक्षरता में बढ़त होती रही है। ऐसा नहीं कि पहले साक्षरता कम थी, पर उस साक्षरता का मतलब कुछ और था। आज हम मानते हैं कि दूर दराज इलाकों में भी नागरिकों में सरकारी तंत्र और लोकतंत्र की समझ होनी चाहिए। न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर तक के प्रशासन में परोक्ष रूप से सभी नागरिकों की भागीदारी को हम लोकतंत्र की नींव मानते हैं। इसके लिए जैसी साक्षरता चाहिए, वह हमारे समाज में आज भी एक तिहाई जनता के पास नहीं है। पर कामगार अपने काम पारंपरिक ढंग से सीखते हैं और उसमें एक दर्ज़े की गहराई होती है, जिसे हम लोकविद्या कह सकते हैं - ऐसी साक्षरता हमेशा ही रही है और इसी के बल पर यह देश आगे बढ़ता रहा है।

दो सौ साल पहले तत्कालीन चिंतकों ने इस बात को समझा कि यूरोप में विज्ञान-तक्नोलोजी और सामाजिक-राजनीतिविचारों में बड़ी तेज़ी से बदलाव आए हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में गंभीर बौद्धिक चर्चाएँ जिन भाषाओं में होती थी, जैसे संस्कृत और फारसी, उन्हें समझने वाले लोग संख्या में बहुत कम थे। इसके अलावा इन भाषाओं में महारत रखने वाले लोग कुलीन पूर्वग्रहों से ग्रस्त थे। संस्कृत ब्राह्मणवादियों के, तो फारसी इस्लामी अमीरात के जकड़ में थी। आधुनिक भाषाओं में, जैसे उत्तर भारत (आज हिंदी और अन्य भाषाओं ा व्यापक भूखंड - जिसे हिंदी क्षेत्र कहा जाता है) में ब्रज, अवधी, आदि में पुराने ग्रंथ लिखे जा रहे थे; रामायण, महाभारत से लेकर रसशास्त्र तक लिखा जा चुका था, पर विज्ञान, तक्नोलोजी आदि का कुछ भी मौजूद नहीं था। इसका एक ही अपवाद था - उर्दू। दिल्ली कॉलेज के अध्यापकों और शोधकर्त्ताओं की टीम लगन के साथ आधुनिक यूरोपी ज्ञान को अनुवाद कर रही थी। ऐसी कोशिश बांग्ला जैसी भाषाओं में भी बाद में हुई। जो भी हो, उन्नीसवीं सदी के समाज सुधारकों ने बर्तानिया की सरकार से पैरवी की कि हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी में तालीम का इंतज़ाम किया जाए। ये ऐसे लोग थे जिन्हें उर्दू में लिखी जा रही आधुनिक बौद्धिक सामग्री का कुछ पता न था - या यों कह सकते हैं कि उर्दू वालों को उन्नीसवीं सदी के आखिर में ही समझ में आया कि हम अंग्रेज़ों के गुलाम हो गए हैं। ब्रिटिश संसद में लंबी बहस के बाद और लॉर्ड मैकॉले के प्रभावी हस्तक्षेप के बाद 1835 में यह निर्णय लिया गया कि सीमित लागत के साथ अंग्रेज़ी में तालीम शुरू की जाएगी। प्रशासनिक कारणों से और संसाधनों की कमी दिखलाते हुए यह तय पाया गया कि अंग्रेज़ी तालीम कुछ तबकों तक ही सीमित रहेगी। भारत में अंग्रेज़ीवालों की एक जमात तब से बनना शुरू हुई। इन अंग्रेज़ीवालों की ही समझ थी कि देश को धर्म के आधार पर बाँटा जाए और ये बहसें हिंदुस्तान में होने से पहले इंग्लैंड के कालेजों विश्वविद्यालयों में पढ़ते हिंदुस्तानी संपन्न वर्गों के लोगों में हुईं। उस जमाने में साक्षरता इतनी कम थी कि यह संभव न था कि हर आधुनिक भारतीय भाषा में आधुनिक ज्ञान आसानी से उपलब्ध करवाया जा सके। नतीज़ा यह रहा कि कई पीढ़ियाँ औपचारिक स्कूली तालीम अपनी भाषाओं से हटकर और भाषाओं में पाती रहीं। इसका सबसे ज्यादा नुकसान हिंदी क्षेत्र में हुआ, क्योंकि राष्ट्र निर्माण की अजीब धारणा यहाँ पनपी, जिसके अनुसार एक कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ भाषा बनाई गई, जिसे पूरे हिंदी क्षेत्र में कोई नहीं बोलता था। विड़ंबना यह थी कि स्कूली तालीम आज भी आधी जनता को नसीब नहीं है, इसलिए उस अन्याय से वे बचे रह गए। पर जो स्कूलों में पढ़ने गए, उनमें से अधिकतर अंग्रेज़ी और कृत्रिम हिंदी जैसी भाषाओं में जद्दोजहद में असफल रहकर प्राथमिक स्तर से भी ऊपर न आ पाए।

अंग्रेज़ीवालों को तो अंग्रेज़ी परस्त होना ही था, बाकी लोगों में भी अंग्रेज़ी के खौफ की वजह से यह समझ घर कर गई कि बिना अंग्रेज़ी के काम चल नहीं सकता। अंग्रेज़ीवाले अंग्रेज़ी में बहस करते रहे कि भाषा का व्यक्तित्व निर्माण में बड़ा महत्व है, पर उन्हीं की मेहरबानी से अपनी भाषा में तालीम धीरे-धीरे गायब होता चला। अंग्रेज़ीवालों की चालाकी के कई पहलू है, जिनमें से एक यह तर्क है कि आप मातृ-भाषा में तालीम कैसे देंगे, आखिर कई कबीलाई लोगों की भाषा में तो कुछ सामग्री है ही नहीं। जनता की समस्याओं पर उदारवादी नज़रिए का ढोंग दिखलाते हुए ऐसे लोग न तो कबीलाई लोगों की भाषाओं पर कोई काम करते हैं और न उनके इलाकों के आस-पास की भाषाओं में तालीम को चलने देना चाहते हैं। इसके विपरीत गंभीर समर्पित भाषाविद ऐसी बहुभाषीय तालीम की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें प्रारंभिक स्तर पर तालीम बच्चे की अपनी भाषा के अलावा आस-पास की सबसे करीब की भाषा में दी जाए।

पहले यह संभावना दिखती नहीं थी कि अपनी भाषाओं में सब कुछ पढ़ा लिखा जा सकता है, हालाँकि चीन, जापान, इस्राएल जैसे कई देशों ने बिना किसी दुविधा के यह कर दिखलाया था। अब य कठिनाई भी काफी हद तक दूर हो चुकी है, बशर्ते इस पर काम करने की मंशा हो। आज मशीनों की मदद से एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद बहुत आसान हो गया है। बची-खुची जो दिक्कतें हैं, ी बड़ी वजह यह है कि इसको अपनाने वाले लोग कम हैं, इसलिए ज़रूरी तकनीकी विकास भी धीमी गति से हो रहा है।

इस पूरी बहस में एक बात सबसे पहले कही जानी चाहिए कि अपनी भाषा में तालीम का मतलब यह नहीं कि अंग्रेज़ी का विरोध करना है। अंग्रेज़ी परस्त लोग इसी बात को पहले रखते हैं कि अंग्रेज़ी का विरोध हो रहा है और यह भारी अन्याय है। नेमाड़े ने अपने बयान में कहा है कि वे अंग्रेज़ी का विरोध नहीं करते। सवाल यह है कि क्या हम देश के हर नागरिक को समर्थ और सशक्त बनाना चाहते हैं, अगर हाँ तो हमें दुनिया भर के शिक्षाविदों का कहना मानना पड़ेगा कि प्रारंभिक तालीम अपनी भाषा में हो। जिन्हें अंग्रेज़ी से वास्ता रखना है, जब तक तकनीकी ज्ञान अंग्रेज़ी में ही मिल रहा है, उन्हें तो अंग्रेज़ी सीखनी ही होगी। शिक्षाविदों का मानना है कि अपनी भाषा में महारत पाने के बाद ही हम किसी और भाषा को जानने-सीखने के काबिल हो पाते हैं। इसलिए कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो अंग्रेज़ी शिक्षा का कोई मतलब ही नहीं है। दलित बुद्धिजीवियों की लड़ाई जातिप्रथा और मनुवादियों के खिलाफ है, उन्हें यह बात समझनी होगी कि अंग्रेज़ी को अपनाने में उन्हें कोई फायदा नहीं है।

नेमाड़े जब साहित्य के स्तर की बात करते हैं तो वह सही कह रहे हैं। जिन्होंने अंग्रेज़ी में उपलब्ध विश्व साहित्य के साथ भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को पढ़ा है, वे जानते हैं कि भारतीय अंग्रेज़ी में लिखा गया साहित्य अभी बहुत पीछे है। अंग्रेज़ीवालों के पास सत्ता और ताकत है तो उनकी चलती है। इसलिए शोरगुल में वे आगे हैं। पर अदब सिर्फ शोरगुल का मामला नहीं है। तमाम मुश्किलात के बावजूद भारतीय भाषाओं में जो सर्जनात्मक साहित्य लिखा जा रहा है, उसका औसत स्तर भारत से अंग्रेज़ी में लिखे से गुणात्मक और परिमाणात्मक दोनों स्तर पर काफी बेहतर है। अरुंधती रॉय भारतीय भाषा में लिखतीं तो सिर्फ एक उपन्यास लिखकर उनको वह जगह न मिलती जहाँ वह आज हैं। यह ज़रूर मानना होगा कि यह बात नॉन-फिक्शन या वैचारिक बहसों के लिए नहीं लागू होती, हालाँकि यह हाल में ही हुआ है कि भारतीय अंग्रेज़ी में वैचारिक बहसें बांग्ला या मलयालम जैसी भाषाओं के स्तर को पार करने लगी हैं। भारतीय भाषाओं में लिखने वाले ऐसे कई लेखक हैं जो अंग्रेज़ी में एक जैसी काबिलियत से लिख सकते हैं, पर भारतीय अंग्रेज़ी लिखने वाले वे लोग हैं जो भारतीय भाषाओं में नहीं लिख सकते। रश्दी ने जब भारतीय भाषाओं में साहित्य को नकारा था, उसकी वजह सिर्फ यही थी कि वे वाकई भारतीय भाषाओं में अनपढ़ हैं। हर अंग्रेज़ीपरस्त हमें अंग्रेज़ी लिखत के उद्धरण सुनाने को आतुर होता है, जबकि उतनी ही या अधिक महत्वपूर्ण बात अपनी भाषा में कही जाए तो उसे वह अनसुना करता है।

आखिरी बात यह कि भाषा का मुद्दा राष्ट्रवाद का नहीं, इंसानियत का मुद्दा है। आज यह संभव है कि हर भाषा में तालीम दी जा सके, हर किसी भाषा को बोलने वाले को सुविधा हो कि वह राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों में भागीदारी कर सके। मुल्कों में आपसी जंगों और जनता पर दमन जारी रखने के लिए सरकारें जो खर्च किया करती हैं, उससे कहीं कम लागत में भाषाओं की विविधता को बचाए रखना संभव है। यही भाषा का असली मुद्दा है। यही असली ख़लिश है। अंग्रेज़ीवाले समझते रहें कि ख़लिश क्या होती है।