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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Saturday, September 30, 2006

शरत् और दो किशोर

शरत् और दो किशोर

जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है
फिलहाल दोनों इतने हल्के हैं
जैसे शरत् के बादल

सुबह हल्की बारिश हुई है
ठंडी उमस
पत्ते हिलते
पानी के छींटे कण कण
धूप मद्धिम
चल रहे दो किशोर
नंगे पैरों के तलवे
नर्म
दबती घास ताप से काँपती

संभावनाएँ उनकी अभी बादल हैं
या बादलों के बीच पतंगें
इकट्ठे हाथ
धूप में कभी हँसते कभी गंभीर
एक की आँख चंचल
ढूँढ रहीं शरत् के बौखलाए घोड़े
दूसरे की आँखों में करुणा
जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है

उन्हें नहीं पता
इस वक्त किसान बीजों के फसल बन चुकने को
गीतों में सँवार रहे हैं
कामगारों ने भरी हैं ठंडी हवा में हल्की आहें

फिलहाल उनके चलते पैर
आपस की करीबी भोग रहे हैं
पेड़ों के पत्ते
हवा के झोंकों के पीछे पड़े हैं
शरत् की धूप ले रही है गर्मी
उनकी साँसों से

आश्वस्त हैं जनप्राणी
भले दिनों की आशा में
इंतजार में हैं
आश्विन के आगामी पागल दिन।

(१९९२- पश्यंती १९९५)

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2 Comments:

Blogger Sunil Deepak said...

इतने समय के बाद वापस आये, पर आये तो सही! शुभकामनाएँ.

10:25 PM, October 01, 2006  
Anonymous Anonymous said...

क्या आप वही लाल्टू हैं जिन्होंने चंडीगढ़ से हमें समकालीन सृजन के कविता अंक के लिए कविताएं भेजी थीं. आपकी 'पोखरन १९९८' तथा 'पिता' नामक दो कविताएं इस अंक में शामिल हैं . अंक आपको चंडीगढ़ के पते पर भेजा गया था . आशा है मिला होगा . आपका ब्लौग देख कर अच्छा लगा .

12:10 PM, October 06, 2006  

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