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बकौल फुर्सतिया क्या कल्लोगे भाई

हाल में टी वी पर बी बी सी चैनल पर स्पोर्ट्स रीलीफ की बनाई फिल्म देखी, जो भारत में चल रहे उनके प्रोजेक्ट्स के संदर्भ में है। इंग्लैंड से मुख्यतः मीडीया से जुड़े कुछ लोग भारत में आकर तीन जगहों में क्रिकेट खेलते हैं। पहले दो दक्षिण में त्सुनामी प्रभावित जगहें हैं। रेलवे चिल्ड्रेन नामक बच्चे जो रेलगाड़ियों में भीख माँगकर जी रहे हैँ, उनके लिए भी उनका एक प्रोजेक्ट् है। इंग्लैंड में लोग दौड़ आयोजनों में शामिल होकर पैसा इकट्ठा करते हैं, जिसे स्पोर्ट्स रीलीफ भारत जैसे मुल्कों में ऐसे प्रोजेक्ट्स में लगाती है।

ऐसी फिल्मों में सबसे अद्भुत बात मुझे लगती है कि पश्चिमी मुल्कों के साफ स्वच्छ वातावरणों से आए लोग हमारे मैले कुचैले अस्वस्थ बच्चों को चाहे कैमरा के लिए ही सही, प्यार से गले कैसे लगा लेते हैं। इस फिल्म में आज के एपीसोड में दो मर्द रोते हुए दिखे, जो पश्चिमी संस्कृति के लिहाज से अनोखी बात है। हम अपने गरीबों को यूँ गले क्यों नहीं लगा सकते?

मैं जब आई आई टी में पढ़ने आया, तो पहली बार घर से बाहर आने की वजह से अक्सर घर की याद में भावुक हो जाता। उन्हीं दिनों मेरे जेहन में बात बैठ गई कि हो न हो अपने से निकृष्ट लगने वाले लोगों के प्रति भावुक न हो पाने में कहीं न कहीं जातिगत भावनाएँ हैं। मैंने तय किया कि छुट्टियों में घर जाने पर और कुछ नहीं तो मुहल्ले के हमउम्र सफाई कर्मचारी हीरालाल और उसके भाई को हमारे साथ फुटबाल खेलने के लिए कहेंगे। और सचमुच मैंने उनसे कहा भी। यह अलग बात कि या तो उनको फुर्सत न थी या कोई और कारण रहे होंगे, वे कभी हमारे साथ खेले नहीं। विदेश में पढ़ते हुए यह बात मन में रही और तय किया कि लौटेंगे तो हीरालाल और राजू के साथ भी उसी तरह मिलेंगे जैसे अपने दूसरे दोस्तों से।

चार साल बाद लौटा तो जहाँ उन चार सालों में मेरी शक्ल और खिल गई थी, हीरालाल और राजू की शक्ल मेरे दीगर दोस्तों की तुलना में ज्यादा बिगड़ी थी। उन्हें देखकर मन में किसी तरह की स्नेह की भावना नहीं उपजी। पर बात मेरे मन में रह गई कि कुछ घपला है।

बहुत बाद में जब बेटी पैदा हुई और जच्चा बच्चा वार्ड में मेरी पत्नी और बच्चे सहित दर्जनों को लेटा छोड़ कर ऊँची जाति के डाक्टर मंडल कमीशन की उस रीपोर्ट के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठे थे जिसमें पिछ्ड़ी जातियों के लिए संविधान के निर्देशों के मुताबिक आरक्षण का अनुमोदन किया गया था, तब वार्ड में दौड़ते चूहों को देखते हुए मैंने जाति समीकरणों को बहुत करीब से समझा। हमारे साथ जो हुआ, उसको आज भी हम झेल रहे हैं, पर निजी पीड़ाओं की बात यहाँ नहीं।
चूहों की बात इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इससे मेरी एक धारणा को बल मिला। अमरीका में लंबे समय तक रहने के बाद सही गलत जो भी, मन में यह धारणा बन गई कि अगर अस्पताल में जच्चा बच्चा वार्ड में चूहे दौड़ते हों तो शायद डाक्टर चूहों को मारना अपना काम समझते। पर यह तो हिंदुस्तान है। बड़ा सरकारी अस्पताल हो तो क्या, चूहों को मारना चूहेमार का काम है, जो कि एक कंट्राक्टर है, जिसके साथ पिछड़ी जाति के लोग होंगे, जो पेस्टीसाइड स्प्रे करते होंगे। गुस्से में अपने मित्र डाक्टर को मैंने कहा था कि मुझे चूहों को मारने की जिम्मेवारी दे दो। चूहे इसलिए भी थे क्योंकि हर ओर गंदगी थी। बाथरुम गंदे थे। लोग बाग जो रोगियों को देखने आते वे इधर उधर थूकते रहते। जैसा पंजाबी में कहते हैं गंद फैलाते। पहली बार मुझे समझ में आया कि हम दरअसल आस्था के संकट से गुजर रहे समाज के अंग हैं। हमें विश्वास ही नहीं कि हमारे/हम लोग कुछ कर भी सकते हैं, कि उन्हें/हमें सभ्य समाज बनाना आता है। शायद इसलिए हम कहते रहते हैं कि हमें ‘उन’ के अपलिफ्टमेंट के लिए कुछ करना चाहिए। आरक्षण से क्या होगा।

मुझे आरक्षण मुद्दे पर कुछ लिखना चाहिए, क्योंकि मेरे कई सारे युवा छात्र मित्र समझ नहीं पाते कि मेरे जैसा ‘समझदार’ बंदा भी आरक्षण के पक्ष में क्यों है।

उम्र के साथ यह बात समझ में आई है कि किसी भी बात का कोई नियत अर्थ हो यह कह पाना मुश्किल है। खास कर ऐसी बातें जिनमें हर किसी को अपने सीमित अनुभव के आधार पर अपना सच दिखलाई देता है। ऐसी बहुत सी बातें हैं, जैसे ईश्वर की अवधारणा। अरे बाप रे, पहले ही ईश्वर पर आ गया।

मतलब यह कि मैं जो भी लिखूँ वह उस तरह से नहीं समझा जाएगा जैसा कि मैं कहता हूँ, यह डर मुझे है। साथ में यह भी कि इसी डर की वजह से सही बात न कहें, यह कैसी बात हुई, इस तरह के शोर की भी गुंजाइश है। तो जैसा फुर्सतिया ने मेरे बारे में कहा है, “समझ गये तो ठीक है, वर्ना क्या 'कल्लोगे' भाय!", उसी अंदाज में कुछ बिंदु लिख देता हूँ।

आरक्षण जातिभेद का स्थायी समाधान नहीं है।

आरक्षण ऊँची जाति के कुछ भ्रमित लोगों द्वारा पिछ्ड़े जाति के लोगों के लिए दया दिखलाने के लिए लिया गया कदम नहीं है।

आरक्षण लोकतांत्रिक संरचना में पिछ्ड़े वर्गों के लोगों के संघर्षों से निकला एक सामयिक समाधान है, जो वर्त्तमान में चल रहे अलिखित पर स्पष्ट तौर पर विद्यमान, ऊँची जातियों के वर्चस्व की व्यवस्था को दरकिनार करने की एक कोशिश है।

जो हल्ला आरक्षण को लेकर मचाया जाता है, वह महज ऊँची जातियों के युवाओं के हठ और कइयों की नादानी को ही दिखलाता है।

अगर कभी कोई क्रांतिकारी सरकार सत्ता में आती है, जो सचमुच जन की हितैषी होगी, तो आरक्षण की ज़रुरत नहीं रहेगी। पर रुस, चीन वगैरह का जो हश्र हुआ है, उसके बाद क्रांति के लिए इंतज़ार करने के लिए किसे कहा जाए – इसलिए आरक्षण एक पूरी तरह से सही नहीं, पर ज़रुरी कदम है।

आज के समय में ‘मेरे पापा के दफ्तर में ऐश करता फलाँ ओ बी सी का बेटा आरक्षण का फायदा उठा रहा है’ जैसे अनंत बकवास इलेक्ट्रानिक मीडिया में दर्ज़ हो रहें हैं, जो भविष्य में इतिहासकारों को यह समझने के काम आएगा कि इन दिनों जिनका वर्चस्व है, उन जातियों के युवा अवधारणा के स्तर पर गणित, विज्ञान और अन्य विषयों की तरह सामाजिक विषयों में भी ज़ीरो हैं। हीरो बनते रहते हैं, पर ज़रा सा कुरेदो तो ‘होगा कोई कांशीराम या मायावती का औलाद’ कहते हुए रोने लग जाते हैं।

ऊँची जाति के गरीबों का क्या होगा, यह चिंता कइयों की है। तो भई, पहली बात तो यह कि तमाम सरकारी नियम कानूनों के बावजूद नौकरियों में आरक्षण वांछित स्तर से बहुत कम हुआ है। दूसरी बात यह कि जब तक ‘निचले काम’ सिर्फ पिछड़ी जातियों के लोगों के काम होगे, तब तक तो ऊँची जाति के गरीबों का हल्ला मचाना मतलब नहीं रखता। जिस दिन जनसंख्या में अनुपात के बराबर मेहतरों की संख्या में ब्राह्मणों बनियों या अन्य ऊँची जातियों का अनुपात होगा, तब यह शोर मतलब रखेगा। नहीं तो, फालतू की बातचीत के पहले लोगों को राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय आँकड़े देखकर पहले यह समझना चाहिए कि गरीबों में जातिगत अनुपात कैसा है। आँकड़े देख पढ़ लें तो शायद शुकर मनाएँ कि आरक्षण के जरिए बहुसंख्यक लोगों के असंतोष को दबा कर रखा जा रहा है, नहीं तो यह सचमुच आश्चर्य ही है कि हिंदुस्तान में चारों ओर आग नहीं लगी है।

जहाँ तक सरकारें और चुनावी खेलों का सवाल है तो बंधुओ, अगर यह पहली बार समझ आ रहा है कि बुर्ज़ुआ लोकतंत्र यही होता है, तो भी बढ़िया, जैसा कि पढ़े लिखे अर्थशास्त्रियों को पता है, मार्क्स बाबा बहुत पहले यह सब कह गए थे। इसीलिए तो मैं मार्क्स के जन्मस्थान ट्रीयर शहर को देखने के बाद से सबसे कहता हूँ कि मैं हज कर आया।

जिनको ‘आरक्षण के अलावा अपलिफ्टमेंट के लिए कुछ करना चाहिए’ कहते रहने का शौक है, वे कुछ जरुर करें, पर जनता इस इंतज़ार में बैठी तो रहेगी नहीं कि पहले किसी और तरीके से उनका अपलिफ्टमेंट हो।
और हड़ताल पर जा रहे डाक्टर! बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए, बेहतर वजीफों, तनखाहों के लिए हड़ताल करें, यह तो ठीक है, पर बहुसंख्यक लोगों की आकांक्षाओं के खिलाफ हड़ताल, खासकर जब पढ़ाई के खर्च का अधिकांश सरकारी भत्ते से ही भरा जा रहा हो, जो उन्हीं बहुसंख्यक लोगों की मेहनत की कमाई हो, यह तो सरासर घोर अपराध है।


अंत में दोस्तो, एक युवा मित्र ने सोचा कि मेरी भावनाएँ आहत हैं (‘होगा कोई कंशीराम या मायावती की औलाद!’) तो ऐसा कुछ नहीं है। यह मेरी समझ है और असंख्य समझदार लोगों की तरह मैंने भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ही ये बातें सोची हैं। जिनको खास जानकारी चाहिए उनको मैं अपने माता पिता का नाम बतला सकता हूँ। हम जिस माहौल में पले बढ़े, वहाँ जातिगत सोच तो थी, पर जातिभेद के खिलाफ और इंसान-इंसान की बराबरी के पाठ भी थे। जब पहले पहल चंडीगढ़ आया तो एक छात्रा ने लाइब्रेरी में पूछा, सर आपकी कास्ट क्या है? मैं तो दंग था, मेरी कल्पना में नहीं था कि कोई किसी से खुले आम जाति पूछ सकता है। बाद में पता चला कि पंजाब में पारिवारिक नाम या पृष्ठभूमि के लिए भी कास्ट शब्द का उपयोग होता है, पर अंतिम मकसद तो जाति पहचान ही है। बहरहाल मैं भी दबंग सा था, बालिका को बतलाया कि दुनिया की सबसे नीची जाति मेरी कास्ट है। वह शर्माई और बोली कि नहीं सर मैं सोची कि आप गिल होंगे, गिल कास्ट के लोग काफी पढ़े लिखे होते हैं। अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैं कितना भोला था, मैं सोचता था कि जाति-वाति अनपढ़ों की समस्याएँ हैं और पढ़े लिखे लोग यह सब नहीं सोचा करते। शायद कोलकाता में बड़े होने का असर था। मुझे पता ही नहीं था कि यूनिवर्सिटीयों तक में कैसा मजबूत जाति तंत्र है।

चलो, अब हमले से बचने की तैयारी करें।

Comments

Atul Arora said…
यह तो समझ में आया कि जनता अपलिफ्टमेंट के लिये अनँत काल तक नही बैठी रहेगी। पर यह नही समझ पाया कि उन गरीबों को जो अस्सी किमी की गतिसीमा वाले स्वर्णिम चतु्र्भुज में अपनि साईकिल नही ले जा पा रहे थे, उनके अपलिफ्टमेंट का वादा करके आयी सरकार इस तरह के शार्टकट से अपलिफ्टमेंट करती रहेगी क्या? आखिर दीर्घकालिक उपाय क्या हैं?
न काटा न खून किया. लाखों का सिर मूँड़ लिया. आज अमीर खुसरो ने यह पहेली लिखी होती तो अतुल की तस्वीर देखने के बाद जवाब होता – डिजिटल ग्राफिक्स. मूल पहेली का जवाब....
Anonymous said…
"ऐसी फिल्मों में सबसे अद्भुत बात मुझे लगती है कि पश्चिमी मुल्कों के साफ स्वच्छ वातावरणों से आए लोग हमारे मैले कुचैले अस्वस्थ बच्चों को चाहे कैमरा के लिए ही सही, प्यार से गले कैसे लगा लेते हैं."

अरे यार,ये पक्का BBC वाले होंगे. हे हे ...उन लोगों की तो आदत है यह सब दया दिखाने की. उनको तो बस टीवी पर धर्मात्मा बनने की आदत है. लल्लूओं को बोलते सुन कान में आग लग जाती है, पता नहीं कितना जीभ मोङ कर, इठला कर बोलते हैं.

अरे यार...कोई इन्हे जापान भेजो.इन्हे भी तो थोङी "गरीबी" का अनुभव होना चाहिये. अधिकांश अंग्रेज जो यहाँ आकर कूदते रहते हैं, वहाँ पर अपने लिये एक घर तक खरीदने की औकात नहीं रखते हैं.

पर वहाँ उनको वह "मजा" कहाँ आयेगा, जो भारत में मिलता है. वह राजा जैसा अनुभव उनको भारत के अलावा और कहाँ मिलेगा.

हर किसी का बाप होता है. अपने से नीचे लोगों को देखने के बजाय, उन लोगों को अपने से ऊपर लोगों को देखन चाहिये.

"हमारे मैले कुचैले अस्वस्थ बच्चों को चाहे कैमरा के लिए ही सही, प्यार से गले कैसे लगा लेते हैं."

भईया, ये बच्चे आपको गरीब लगते हैं ? जरा फिर से सोचिये.

एकबार मेरी एक भिखारी से बात हुई. मैने पूछा, तुम कोई नौकरी क्यों नहीं कर लेते, 2.5 - 3 हजार की नौकरी तो मिल ही जायेगी. उसका जवाब था, "इतने पैसे में गुजारा कैसे होगा ?"

उस भिखारी के अनुसार वह आसानी से महीने में 7-10 हजार भीख मांग कर कमा लेता है, तो उसे काम करने की क्या जरूरत ? जैसे ही ट्रेन रुकी, ये महात्मा जी भाग कर कुछ अंग्रेजों के पास भीख मांगने चले गये. और अंग्रेज लोग बङे मजे से उस भिखारी को पैसा देते हुए अपनी अपने फोटो खिचवा रहे थे.

और इधर मैं, शर्म से पानी पानी हो रहा था ...

अब बोलिये, एक आदमी के कारण पूरे देश की छवी खराब हुई की नहीं ? इस आदमी को जीने का भी हक है ?

मेरे अनुसार तो, उसे मेहनत कर के 2-3 हजार कमाने वालों के हिस्से की हवा को सांस लेने का भी हक नहीं है. ऐसे लोगों को चुन चुन कर आवारा कुत्ते की तरह मार देना चाहिये.

कभी कभी तो शर्म आती है अपने आप को भारतीय कहने में.

यह देश सच में भिखारियों का है. लोगों को हर चीज भीख में चाहिये. रोटी,कपङा, मकान, पढाई, नौकरी ....

"बालिका को बतलाया कि दुनिया की सबसे नीची जाति मेरी कास्ट है"

क्या आप को सच में लगता है की ऊपर आसमान में भगवान/अल्लाह/ईसा बैठे हुए हैं.

मेरे अनुसार धर्म किसी खेल के टीम से ज्यादा कुछ भी नहीं है.

जो मेरे धर्म में है, वह मेरे टीम में है, जो दूसरे धर्म से है, वह किसी दूसरी टीम से है.

"बालिका को बतलाया कि दुनिया की सबसे नीची जाति मेरी कास्ट है। वह शर्माई और बोली कि नहीं सर मैं सोची कि आप गिल होंगे"

अपने पद के अनुसार आपने बात ही ऐसी की थी की किसी को शर्म आयेगी. ऐसा कहने की बजाय, अगर आप अपना पूरा नाम बता देते तो किसी को बुरा नहीं लगता.

पर हिन्दु तो इतने टूटे हुए हैं की बस पूछो मत. इतने दिनों तक हम मूर्खों का अस्तिव बना रहा, यह बङे अचरज की बात है. उस मूर्ख डोडो की तरह ही हम समाप्त हो जायें तो बेहतर होगा...

यह कविता देखियेगा:

http://rajneesh-hindi.blogspot.com/2006/05/and-i-did-not-speak-out.html
Anonymous said…
लाल्टू, हिमांशु ने तो 'कर लिया'! ('परिचय' याद है?)

अब आप क्या करोगे, भाई?
Anonymous said…
तो आप ही हैं जो तेजप्रताप के नाम से भडकाऊ कमेंट डालते फिरते हैं, शर्म है मुझे कि मेरे देश में आप जैसा व्यक्ति प्रोफेसर या वैज्ञानिक है। कभी अकेले में बैठ आत्मचिंतन करें कि क्या आप इसके लायक हैं। क्या सिखाते होंगे बच्चों को आप जब आप खुद ऐसी भ्रमित विचारधारा रखते हैं। "शेम शेम"।
अंजान भाई, न मैं तुम्हारा तेजप्रताप हूँ, न तुम्हारा देश मेरे लायक है. पर मैं व्यस्त ज़रुर हूँ. इसलिए अगली शेम पर मेरा जवाब नहीं मिलेगा. वैसे चेतन! शेम शेम शायद तुम्हारी टिप्पणी की वजह से है, परिचय से तुम्हारा मतलब यही था न?
अब देखो, अंजान शेम शेम कह रहा है और लोग मुझे बचाने दौड़ पड़ेंगे. मैंने कहा था न किस बात का क्या अर्थ निकले........
फतवा मुबारक हो लाल्‍टू भाई। बचाव या प्रत्‍याघात का अपन का कोई इरादा नहीं क्‍योंकि सच कहूँ तो मैने पूरा आख्‍यान पढ़ा ही नहीं।
Anonymous said…
Are Laltu da,

Gajab likhen hain....uppercaste mind set to aise fatave jaare karen , to kya ashacharya ? yadi nahi to ....kuchh baat palle padi hai , aur kuchh padegi....ya padane ki sambhavana to hai....panjab univ, abhi kuchh nahi badala....
ek bar phir badhai ek achhe samvad ke liye, aarakshan par !

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