Monday, February 15, 2010

प्रशांत भूषण का व्याख्यानः छत्तीसगढ़ एक 'ब्लैक होल'

कल प्रशांत भूषण का व्याख्यान था। छात्रों की पहल पर प्रशांत आया था। आदिवासी इलाकों में खदान कंपनियों द्वारा भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई और उनके हित में सरकार ने जनता के खिलाफ जो जंग छेड़ी हुई है उसके बारे में विस्तार से प्रशांत ने बतलाया। कुछ बातें जो तुरंत याद आ रही हैं उन्हें नीचे लिख रहा हूँ।
१। निजीकरण की वजह से देश की खनिज संपत्ति सस्ती कीमतों में विदेश जा रही है। इसमें जो मुनाफा हो रहा है उसका १% सरकार को रायल्टी मिलती है। कोई दस बारह हजार लोगों को रोजगार मिलता है। सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि होती है पर इसकी कीमत के बतौर खनिज संपदा का जाना ही नहीं, जंगलों का कटना, लाखों की तादाद में लोगों का विस्थापन, वन्य पशुओं का विनाश आदि साथ होते हैं।
२। अगर सरकार सचमुच माओवादियों के बारे में चिंतित है तो पहला सवाल यह होना चाहिए कि माओवादियों की संख्या में हाल के सालों में वृद्धि कैसे हुई है। नई भर्त्ती उन लोगों की है जो सरकार की मार से और विस्थापन की पीड़ा से तंग आकर बंदूकें उठाने को मजबूर हुए हैं। इसलिए पहली चिंता उन निजीकरण की नीतियों पर प्रश्न उठाने की होनी चाहिए जिनको लागू करने की वजह से यह समस्या पैदा हुई है।
३। पिछले कुछ महीनों में छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों गाँवों को जला दिया गया है। लोग विस्थापित होकर आंध्र प्रदेश के सीमावर्त्ती इलाकों में भाग रहे हैं।
४। छत्तीसगढ़ एक ब्लैक होल हो गया है जहाँ कोई पत्रकार सच नहीं लिख सकता कोई मानव अधिकार कार्यकर्त्ता सुरक्षित नहीं है कोई कानून काम नहीं करता।
५। उड़ीसा के नीयमगिरि की पहाड़ियों में आदिवासियों ने प्रतिरोध करते हुए खदानों के लिए ज़मीन देने से मना कर दिया है।
६। यह कहना कि आदिवासी अदालत में आकर अपनी अर्जी रखें या माओवादी चुनाव लड़ें हास्यास्पद है क्योंकि न तो कचहरी जाना कोई आसान काम है (वकील के पैसे कौन भरेगा) न ही चुनाव लड़ना।
७। न्याय व्यवस्था की समस्याएँ गिनाते हुए प्रशांत ने कहा कि उसमें चार समस्याएँ हैं , आम लोगों की पहुँच से दूर होना, वकील की समस्या, लंबे समय (वर्षों) तक मामलों की सुनवाई पूरी न होना, व्यापक भ्रष्टाचार और विपन्न वर्गों के प्रति न्यायाधीशों के पूर्वाग्रह।
८। प्रशांत ने कहा कि आपरेशन ग्रीनहंट के नाम पर आदिवासियों का व्यापक नरसंहार शुरु हो चुका है और अगर यह नहीं रुका तो बीस सालों में आठ करोड़ आदिवासी हमेशा के लिए खत्म हो जाएँगे।
९। आखिर में सवालों का जवाब देते हुए प्रशांत ने छात्रों से आह्वान किया कि वे नीयमगिरि जैसे इलाकों में जाएँ और वहाँ की सच्चाइयों को जानें। छत्तीसगढ़ को खतरनाक इलाका बतलाते हुए वहाँ जाने से एक तरह से मना ही किया।

और बातों में चिदंबरम का वेदांत कंपनी के भूतपूर्व डिरेक्टरों में होना, हाई कोर्ट के एक जज का स्टर्लाइट के शेयरों का मालिक होना और इसे अपने न्यायादेश के वक्तव्य में शामिल करना, कर्नाटक के रेड्डी भाइयों की करतूत और बी जे पी सरकार के घुटने टेकना आदि विविध प्रसंग थे।

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सोचा था जल्दी लिखूंगा। फिर वही हफ्ता गुज़र गया। बहरहाल कहना है धन्यवाद। एक दो को कहना हो तो आसान होता। बहुत सारे दोस्तों को कहना है। जिनको सबसे ज्यादा कहना उन्हीं को सबसे कम कहा जाता है। कई बार समझ में नहीं आता कि इतने लोगों का प्यार पाने की योग्यता भी मुझमें है या नहीं। किताबें तो आती रहती हैं। मैंने पहली बार किताब के लोकार्पण करवाने की सोची क्योंकि यह अहसास गहरा था कि लोग नोटिस नहीं लेते। तो इतने दोस्तों ने हौसला अफजाई की कि चकित रह गया। जल्दीबाजी में सब कुछ हुआ। लल्लन ने सबको मेल भेजी। कुबेर दत्त और प्रोफेसर मेनेजर पांडे जी को शुक्रिया कहा नहीं जाता। भारतभूषण ने तो मुझे जिंदा रखने का जिम्मा ही ले लिया है। जो हुआ इनकी वजह से ही हुआ।

Friday, February 05, 2010

लोग ही चुनेंगे रंग

शिल्पायन प्रकाशन से मेरा ताजा कविता संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग' प्रकाशित हुआ है। शनिवार को साढ़े चार बजे दिल्ली पुस्तक मेले में शिल्पायन के स्टाल (हाल १२) में लोकार्पण है। प्रो. मैनेजर पांडे पुस्तक का विमोचन करेंगे। पहली बार मेरे किसी संग्रह का विमोचन हो रहा है। जो भी आस पास हों, ज़रुर आएँ।

कविता संग्रह प्रकाशित करना बड़ा मुश्किल काम है। खास तौर पर मेरे जैसे व्यक्ति के लिए, जो साहित्य की मुख्य धारा से पेशेगत रुप से कटा हुआ है। यह संग्रह भी कुबेर दत्त जी के प्रयास से ही सामने आ रहा है। मैं संयोजन तक ढंग से नहीं कर पाता हूँ। भारत भूषण तिवारी ने काफी समय लगाकर कविताओं को क्रम में सजाया और फार्मेट ठीक किया।

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पिछले हफ्ते करन थापर के Devil's Advocate प्रोग्राम में बिनायक सेन का साक्षात्कार देखा और दंग रह गया कि उच्च वर्गों का प्रतिनिधि मीडिया कर्मी करन थापर विश्व स्तर पर सम्मानित चिकित्सक और मानव अधिकार कार्यकर्त्ता के साथ कितने फूहड़पन से पेश आता है। न केवल वह बिनायक को बोलने नहीं दे रहा था, जबरन विषय को बदलते हुए माओवादियों पर लाने की कोशिश में वह बिनायक पर ही इल्जाम लगाता रहा कि वह विषय पर नहीं बोल रहे! सच यह है कि संपन्न वर्गों के लोगों की ऐसी उद्दंडता देखने के बाद भी इस देश की बहु संख्यक जनता आक्रोश से फूट नहीं पड़ती, यह चमत्कार है।